हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

मंगलवार, 26 दिसंबर 2017

पाकिस्तान की विकलांग न्यायपालिका

पाकिस्तान के सबसे प्रतिष्ठित अखबार डॉन में छपे एक आलेख को पढ़कर मेरा मन दुखी हो गया। इस अभागे देश के नागरिक किस दुर्दशा के शिकार हैं यह जानकर मन काँप उठता है। भारत में रहते हुए हमने सरकार के तीन अंगो कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच जो शक्ति-सन्तुलन देखा है उसकी तुलना में पाकिस्तान की भयावह स्थिति का दर्शन इस लेख में किया जा सकता है। स्तम्भकार बासिल नबी मलिक पाकिस्तान में कराची की एक वादकारी फर्म में कार्यरत हैं। मूल आलेख अंग्रेजी में है जिसका भावानुवाद यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ :-

judicial-Indपाकिस्तान में जो कुछ भी गलत हो रहा है उसके लिए यहाँ के न्यायाधीशों को दोषी ठहराना एक राष्ट्रीय खेल जैसा हो गया है। दुर्भाग्य से अभियोजन पक्ष के गलत व्यवहार, जाँच एजेन्सियों की ढीली-ढाली विवेचना और कानून में निहित कमजोरियों से लेकर कार्यपालिका की (अपराधियों से) दुरभि-सन्धि तक जो कुछ भी इस तन्त्र में गड़बड़ है उस सबके लिए पाकिस्तान के न्यायमूर्तियों को जिम्मेदार मान लिया जाता है।

न्यायाधीशों की ओर उंगली उठाने वाले यह भूल जाते हैं कि न्यायतंत्र के विशाल पहिए में न्यायाधीश सिर्फ़ एक तीली के समान हैं। इस विशाल तन्त्र में दूसरे अनेक भागीदार भी दाँव पर लगे हैं जिसमें कानून बनाने वाली विधायिका व उन्हें लागू कराने के लिए जिम्मेदार कार्यपालिका शामिल है; और हाँ, वे वकील साहब लोग तो हैं ही। इसके हर स्तर पर भयावह असफ़लता दिखायी देती है जिसका यह परिणाम है कि पूरे तन्त्र को ही लकवा मार गया है।

उदाहरण के लिए संघीय विधायिका (नेशनल असेम्बली) इस बात के लिए कुख्यात हो चुकी है कि यह (धार्मिक) अल्पसंख्यकों के साथ भेद-भाव बरतने वाले कानून ही बनाती है और जो भी उनकी आस्था है उसके अनुसार उन्हें जीवन निर्वाह करने के सभी अधिकारों से वंचित कर देती है। उसने ऐसे कानून पारित कर दिये हैं जो चुनाव लड़ने की योग्यता खो चुके नेताओं को भी किसी बड़ी पार्टी का अध्यक्ष बनने का अधिकार दे देता है। इसने ऐसे कलंकित कानून भी बना दिये हैं जो किसी हत्यारे द्वारा पीड़ित परिवार को रूपये देकर सजा से बच जाने की सुविधा देते हैं। कुछ राज्यों ने तो ऐसे कानून बना दिये हैं जिससे एक स्पष्ट राजनैतिक निष्ठा रखने वाले व्यक्ति को दुबारा सरकारी नौकरी में भी रखा जा सकता है जो पहले किसी अपकृत्य के सिद्ध होने के आधार पर पदच्युत किया जा चुका हो।

ऐसे में भले ही न्यायमूर्ति महोदय इन कानूनों से सहमत न हों लेकिन उन्हें इन कानूनों के अनुसार फैसला देना ही पड़ता है। यद्यपि उन्हें इन कानूनों के न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार है लेकिन इस अधिकार की अपनी सीमाएं भी हैं जो किसी न्यायाधीश को विधि-व्याख्याता के बजाय विधि-निर्माता की भूमिका निभाने से रोकती हैं।

एफ.आई.ए. (संघीय जाँच एजेन्सी) और एन.ए.बी. (राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो) जैसी अनुसन्धान संस्थाओं और यहाँ तक कि पुलिस की हालत भी अच्छी नहीं है। उनकी अयोग्यता का प्रमाण-पत्र स्वयं सुप्रीम कोर्ट दे चुका है। चाहे वह बेनजीर भुट्टो की हत्या के मामले में विवेचना के (अल्प) सामर्थ्य की बात हो, एन.ए.बी. द्वारा बड़ा माल बटोरने की लालच में अपनी दलीलों का मोलभाव करने में इसकी स्पष्ट अभिरुचि हो या इसके द्वारा आरोपी से अपराध  की फ़र्जी स्वीकारोक्ति हासिल कर लेने की कोशिश हो; ये संस्थाएं अपनी अयोग्यता या अपराधियों से साठ-गाँठ के कारण अभियोजन को नीचा दिखाने की दोषी हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि अपर्याप्त सबूत के कारण न्यायाधीश आरोपी पक्ष को दोषमुक्त करने पर मजबूर हो जाते हैं।

इसके अलावा न्यायालय के फ़ैसलों को लागू कराने की जिम्मेदारी पुलिस व अन्य विधि-प्रवर्तन संस्थाओं की है। जब कोर्ट कोई फ़ैसला सुनाता है तो सरकार को उसे अनिवार्य रूप से लागू कराना चाहिए। न्यायपालिका के पास अपने फ़ैसलों को लागू कराने के लिए अपनी कोई प्रवर्तन शाखा नहीं होने के कारण उसे इसके लिए पूरी तरह कार्यपालिका पर निर्भर होना पड़ता है। यदि फ़ैसला लागू ही नहीं हो सकता तो इन आदेशों की शुचिता, न्यायपालिका की गरिमा, कानून के राज, और संस्थाओं के प्रति सम्मान में क्रमशः गिरावट आती जाएगी जिससे इसका उल्लंघन करने वालों का हौसला बढ़ता जाएगा और पीड़ित पक्ष हताश हो जाएगा।

दुर्भाग्य से (पाकिस्तान में) यही सब हो रहा है। आये दिन न्यायाधीश फ़ैसले सुनाते हैं – भू-माफ़िया के खिलाफ, धोखेबाज बिल्डरों के खिलाफ, कोर्ट के आदेशों की अवमानना करने वालों के खिलाफ़ और दूसरे बदमाशों के खिलाफ़। लेकिन, इन फ़ैसलों को लागू करने में प्रवर्तन एजेन्सी के सहयोग की कमी के कारण ये निष्प्रभावी हो जाते हैं या बहुत देर से लागू होने के कारण इन फ़ैसलों का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता।

इसके साथ ही यहाँ का वृहत्तर न्यायतन्त्र उन वकीलों के ऊपर पलता है जो न सिर्फ़ अपने मुवक्किल की पैरवी करते हैं बल्कि एक विरोधाभास के रूप में कोर्ट के भी अधिकारी होते हैं। किसी भी मुकदमें में सही कानूनी स्थिति तक पहुँचने के लिए कोर्ट की मदद करना और उसके फ़ैसले को अंगीकृत करना उनकी जिम्मेदारी होती है। इसके लिए उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे न्यायाधीश के सामने भली-भाँति अध्ययन करने के बाद सटीक कानूनी तर्क प्रस्तुत करें, अपने मुवक्किल को कानून का पालन करने की सीख और सलाह दें और यह भी कि यदि उनके या उनके मुवक्किल के खिलाफ़ कोई फ़ैसला हो जाता है तो उसे निष्फल करने की कोशिश न करें।

लेकिन सच्चाई इससे बिल्कुल अलग है। पाकिस्तान में वकील समुदाय के भीतर भाँति-भाँति के लोग पाये जाते हैं जिसमें वे भी शामिल हैं जो खुलेआम कानून के राज को धता बताने में (अपराधियों का) साथ देते रहते हैं। वे अपने मुवक्किल को कानून तोड़ने में मदद करके ऐसा कर सकते हैं, कोर्ट के समक्ष गलत प्रतिवेदन प्रस्तुत करके अपने मुवक्किल के लिए फ़ायदे का इन्तजाम कर सकते हैं, जमानत नहीं मिल पाने पर अपने मुवक्किल को न्यायालय-कक्ष से भाग जाने में मदद कर सकते हैं, अथवा मनमाफ़िक फ़ैसला पाने के लिए जज को डराने-धमकाने की चाल चल सकते हैं। यदि और कुछ नहीं तो वे अपने मुवक्किल को कोर्ट के आदेश की अवहेलना करने की सलाह ही दे सकते हैं, उनसे यह कह सकते हैं कि न्यायालय की अवमानना के दोष को बाद में एक माफ़ीनामा देकर खत्म किया जा सकता है।

संक्षेप में कहें तो वर्तमान न्याय-व्यवस्था की वर्तमान दुरवस्था के लिए केवल न्यायाधीशों को दोषी ठहराना उचित नहीं है। यदि न्यायपालिका को अधिक सुदृढ और शक्तिसम्पन्न बनाना है तो सभी पक्षों को साथ मिलकर काम करते हुए इन न्यायाधीशों का सहयोग और समर्थन करना होगा। इस प्रकार के तालमेल और ऐसी एकता के बिना पाकिस्तान में दूसरी सभी बातों की तरह ही ये न्यायाधीश भी जनता से सरोकार रखने वाले एक प्रभावी और न्यायपूर्ण तन्त्र की तलाश में धीरे-धीरे घिसटते हुए सैनिकों की एक अकेली पड़ गयी टुकड़ी की तरह इतिहास की गर्त में समा जाएंगे।

अनुवाद एवं प्रस्तुति : सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
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रविवार, 8 अक्तूबर 2017

जी.एस.टी. के भ्रष्टाचारी अवरोध

“साहब, यह काम हो ही नहीं पाएगा।” एक सप्ताह की प्रतीक्षा के बाद पधारे ठेकेदार ने कार्यालय में घुसते ही अपनी असमर्थता जाहिर कर दी।
अरे, आप जैसा होशियार और सक्षम ठेकेदार ऐसी बात कैसे कह सकता है? मैंने तो सुना है आप बहुत बड़े-बड़े ठेके लेकर सरकारी काम कराते रहते हैं। तमाम सरकारी बिल्डिंग्स और दूसरे निर्माण और साज-सज्जा के काम आपकी विशेषज्ञता मानी जाती है।
“वो बात ठीक है, लेकिन अब सरकारी काम करना बड़ा मुश्किल है। इस जी.एस.टी. ने सबकुछ बर्बाद कर दिया है। आप बिना रसीद मांगे कैश पेमेन्ट कर दीजिए तो एक दिन में ही आपका काम करा दूंगा। लेकिन आपको पक्की बिल चाहिए तो कोई तैयार नहीं होगा।” यह सुनकर मेरा सिर चकरा गया। यशवन्त सिन्हा ‘शल्य’ की बातें इसके बाद मीडिया में आयीं तो मेरे कान खड़े हो गये।
अब जी.एस.टी. पर मचे घमासान और छोटे दुकानदारों, व्यापारियों और ठेकेदारों की त्राहि-त्राहि देखकर मन चिन्तित हो गया है। बड़े उद्योगपति शायद ज्यादा परेशान नहीं हैं। उन्हें इस नयी व्यवस्था के साथ तालमेल बिठाने में शायद कोई बड़ी दिक्कत नहीं है। मैं कोई अर्थशास्त्री नहीं हूँ। मुझे इस योजना की बारीक बातों की अच्छी समझ नहीं है। इसलिए इसके पक्ष या विपक्ष में तनकर खड़ा होने के बजाय मैं धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करना चाहूंगा। इस बीच मैंने अपने कार्यालय में बैठकर जी.एस.टी. के प्रभाव का जो रोचक अनुभव किया है उसे साझा कर रहा हूँ।
हुआ ये कि नये शहर के नये कार्यालय में काम शुरू करने पर मुझे कुछ अवस्थापना सुविधाओं को अपने हिसाब से संशोधित परिवर्द्धित करने की आवश्यकता महसूस हुई। कंप्यूटर, इन्टरनेट, कुर्सी, टेबल-ग्लास, स्टेशनरी इत्यादि की व्यवस्था तो थोड़ी-बहुत जद्दोजहद से सुदृढ हो गयी लेकिन मेरे कार्यालय कक्ष से सटे हुए विश्राम-कक्ष को मन-माफ़िक बनाने में मुझे सफलता नहीं मिल रही है। दरअसल एक ही बड़े हाल में स्थित इस कक्ष को कार्यालय से अलग करने के लिए एल्यूमिनियम के ढांचे में काँच या फ़ाइवर की शीट लगाकर दीवार नुमा घेरा बनाया गया है जो अर्द्ध-पारदर्शी है। इस दीवार के जिस ओर प्रकाश अधिक रहता है वह दूसरी ओर से साफ़ दिखायी देता है। अधिक प्रकाशित हिस्से में बैठने वाला दूसरी ओर नहीं देख सकता जबकि उसे दूसरी ओर से देखा जा सकता है। इस प्रकार उत्पन्न असहज स्थिति से बचने के लिए पूरे घेरे पर कपड़े के पर्दे लटकाये गये हैं। लेकिन इन पर्दों पर धूल बहुत जल्दी-जल्दी जमा होती है जिसे साफ़ करते रहना बहुत टेढ़ा काम है। धूल से एलर्जी होने के कारण मुझे इनके संपर्क में आते ही लगातार छींकना पड़ जाता है और नाक से पानी आने लगता है।
धीरे-धीरे मेरे भीतर इन पर्दों के प्रति असहिष्णुता का भाव पैदा हो गया है। पर्दों के स्थान पर मैंने इस काँच की दीवार पर अपारदर्शी वाल-पेपर लगवाने का मन बनाया है लेकिन जी.एस.टी. की व्यवस्था ऐसा होने नहीं दे रही है। ठेकेदार कह रहा है कि कोई भी दुकानदार वाल-पेपर की बिक्री ‘एक-नम्बर’ में करने को तैयार नहीं है। अर्थात वह इस बिक्री को अपने लेखा-बही में प्रदर्शित नहीं करना चाहता क्योंकि इसके लिए जरूरी पंजीकरण कराने व ऑनलाइन टैक्स जमा करने की प्रक्रिया से वह जुड़ा ही नहीं है। उसके पास जो माल है वह भी बिना रसीद के ही खरीदा गया है। इसलिए उसे इसपर कोई इनपुट टैक्स-क्रेडिट नहीं मिलने वाला। उसने बताया कि इस प्रकार के बहुत से काम हैं जो पूरी तरह कैश लेन-देन पर ही चलते हैं जो अब जी.एस.टी. के बाद अवैध हो गये हैं। अब कोई ठेकेदार भी उन सामानों को नगद खरीदकर सप्लाई नहीं कर सकता क्योंकि वह अपने लेखे में इसकी खरीद दिखाये बिना इसकी बिक्री या आपूर्ति को जायज नहीं ठहरा सकता।
इस बात से मुझे व्यापारिक गतिविधियों में निचले स्तर पर होने वाली बड़े पैमाने की टैक्स-चोरी की एक झलक दिखायी दे गयी जिसपर लगाम लगाने का ठोस उपाय शायद इस जी.एस.टी. में ढूँढ लिया गया लगता है। यह उपाय कुछ वैसा ही है जैसा नोटबन्दी और डिजिटल लेन-देन के माध्यम से कालेधन पर लगाम लगाने का उपाय किया गया था और जिसे अब प्रायः असफ़ल मान लिया गया है। जिनके पास अघोषित आय का नगद धन मौजूद था वे इसे बचाने के लिए किसी न किसी प्रकार इसे अपने या दूसरों के बैंक खातों में जमा कराने में सफ़ल हो गये। नोटबन्दी के राजमार्ग के किनारे जो चालू खाते, पेट्रोल-पम्प, विद्युत-देय, अन्य शुल्क-टैक्स आदि जमा करने के काउन्टर और दो लाख की सीमा वाली छूट के सर्विस-लेन बना दिये गये थे उसपर जोरदार ट्रैफ़िक चल पड़ी और अधिकांश कालाधन बैंकों में जाकर मुख्यधारा में शामिल हुआ और सफ़ेद हो गया। ऐसे बिरले ही मूर्ख और गये-गुजरे धनपशु होंगे जो अपना पुराना नगद नोट बदलकर नया नहीं कर पाये होंगे। नोटबन्दी की आलोचना करने वाले भी यह नहीं कह पा रहे थे कि इसने आयकर की चोरी पर लगाम लगाकर अच्छा नहीं किया।

साभार : http://news24online.com/know-why-implementing-gst-is-still-a-long-road-ahead-2/

ऐसे में यह निष्कर्ष निकलता है कि भ्रष्टाचार मिटाने और शुचिता बढ़ाने की अच्छी से अच्छी योजना भी क्रियान्वयन के स्तर पर जाकर उसी भ्रष्टाचार और बेईमानी की भेंट चढ़ जाती है जिसे यह रोकने चली थी। उल्टे उसमें छोटे व गरीब वर्ग का जीवन-यापन बुरी तरह प्रभावित हो जाता है। दिहाड़ी मजदूर या कामगार तो दिन में जो कमाता है वही रात में खाता है। यदि किसी दिन उसका काम रुक गया तो शाम को फ़ांके की नौबत आ जाती है। यही हाल छोटे व्यापारियों और दुकानदारों का जी.एस.टी. के लागू होने के बाद हो गया लगता है। वे साफ़-साफ़ यह तो कह नहीं सकते कि अबतक उनका धन्धा टैक्स की चोरी के कारण चोखा हुआ करता था जो चोरी अब मुश्किल हो गयी है, लेकिन नयी व्यवस्था से उपजे दर्द को वे दूसरे तरीकों से व्यक्त तो कर ही रहे हैं।
हमारे समाज में भ्रष्टाचार का रोग इतना सर्वव्यापी हो गया है कि इसे बुरी चीज बताने वाले भी अवसर मिलते ही इसका अवगाहन करने में तनिक देर नहीं लगाते। जबतक हम केवल दूसरों से ईमानदारी और सत्यनिष्ठा की अपेक्षा करते रहेंगे और स्वयं मनसा-वाचा-कर्मणा इसके लाभ उठाने को उद्यत रहेंगे तबतक हम किसी नोटबन्दी, जी.एस.टी. या अन्य कड़े उपायों से भी अपेक्षित फ़ल की प्राप्ति नहीं कर सकते।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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शनिवार, 30 सितंबर 2017

आज़मगढ़ के चौक पर

ऑफिस से पाँच बजे फुर्सत मिल गयी तो मन हुआ कि शहर में घूमा जाये। सुबह दैनिक जागरण के स्थानीय पृष्ठ पर खबर थी कि पूरा शहर दुर्गामय हो गया है। श्रद्धालु मंदिरों में उमड़ रहे हैं। चौक स्थित प्राचीन दक्षिणमुखी दुर्गा मंदिर में सबसे ज्यादा भक्त दर्शन के लिए आ रहे हैं। आजमगढ़ का मुख्य बाजार चौक नाम से जाना जाता है।
मैंने ड्राइवर को बुलाकर चौक चलने की योजना बतायी। सुनते ही वो चौक पड़ा। मुझे लगा ऑफिस का समय पूरा होते ही वह अपने घर की राह लेना चाहता था। ऐसे में मुझे उसकी जो परेशानी समझ मे आयी वह पूछने पर गलत निकली। उसने कहा - साहब, चौक में कैसे जा पाएंगे, वहाँ तो पैदल चलना मुश्किल है। ओहो, ये बात है! तब तुम घर जाओ - मेरे इतना कहते ही वह चौकड़ी भरता चला गया।
मुझे तो अब नवरात्र में देवी दर्शन की इच्छा पूरी करनी ही थी। पहली बार तो आजमगढ़ की सड़कों पर घूमने का भी मन बना था। मैंने अपने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सर गंगानाथ झा हॉस्टल के सह-अंतेवासी और स्थानीय मित्र देवदत्त पांडेय को फोन मिलाकर अपनी इच्छा जतायी। वे सहर्ष तैयार हो गये और थोड़ी देर बाद अपनी मोटरसाइकिल से हाज़िर भी हो गये। मैंने कहा कि इस नवरात्र के शुभ मौके पर देवी जी की जितनी किरपा बटोर ली जाय उतना ही अच्छा हो। जीन्स, टी-शर्ट और हवाई चप्पल में हम फर्राटा भरते सबसे पहले सबसे निकट के मंदिर में गये।
मंदिर के गेट पर बाइक खड़ी कर हम अंदर गये तो आरती चल रही थी। धूप, अगरबत्ती और कर्पूर से उठती विशिष्ट महक और धुँए के बीच दर्जनों नर-नारी जय अम्बे गौरी का सस्वर गायन करते हुए झूम रहे थे। छत से लटकते विशाल घंटों के लोलक को पकड़कर आगे-पीछे टकराते हुए टंकार की ध्वनि निकालती स्त्रियां और दूसरे भक्त मां की श्रद्धा और भक्ति में लीन थे। बाकी दर्शनार्थियों के हाथ प्रणाम की मुद्रा में जुड़े हुए अथवा ताली बजाते हुए व्यस्त थे। आरती समाप्त होने के बाद मूर्ति के सबसे पास खड़े दो पुजारी नुमा युवकों ने कोई और अस्फुट मंत्र वाचन प्रारंभ कर दिया। उनमें से एक जोर जोर से यंत्रवत घंटा बजाता जा रहा था। थोड़ी देर प्रतीक्षा के बाद भी भक्तगण टस से मस नहीं हुए तो हम दोनो ने उनके बीच से जगह बनाया और हाथ बढाकर माँ की वेदी को स्पर्श किया और अपनी श्रद्धा भेंट कर बाहर निकल आये। दुर्गा माँ के बायीं ओर सांई बाबा का मंदिर भी था और दायीं ओर क्रमशः शिवलिंग और हनुमान जी के मंदिर भी थे। हमने बारी-बारी से उन सबके सामने जाकर दर्शन किये और शीश नवाये। मंदिर के बाहर प्रसाद की दुकानों और भीख मांगते बच्चों और औरतों को नजरअंदाज करके हमने एक विकलांग भिखारी को कुछ सिक्के थमाये और चौक के मंदिर के लिए निकल पड़े।
चौक की सड़क ठेले-खोमचे और पटरी की दुकानों के अतिक्रमण और दुपहिया वाहनों की बेतरतीब पार्किंग के कारण बेहद संकरी हो गयी थी। आवागमन के लिए जो सड़क बची हुई थी उसपर पैदल, साइकिल, रिक्शा, और बाइक वाले रेंग-रेंगकर चल रहे थे। निश्चित ही वहाँ किसी चार पहिए वाले का निबाह नहीं था। डीडी ने भी एक पान वाले के सामने बाइक लगा दी और हम सड़क पार करके सामने स्थित मंदिर के छोटे से प्रांगण में प्रवेश कर गये। यहाँ आरती समाप्त हो चुकी थी और उसमें भाग लेने वाले भक्त लौट चुके थे। दुर्गा जी की दक्षिणमुखी प्रतिमा पूर्ण सृंगार में चमक रही थी। उनके पैर फूल-मालाओं और दूसरी चढ़ावे की सामग्रियों से ढंक चुके थे। प्रतिमा और दर्शनार्थियों के बीच में लोहे की एक रेलिंग थी जिसके उस पार दो पुजारिन स्त्रियाँ दायें-बायें बैठी हुई थीं। वे दोनो दर्शनार्थी भक्तों से चढ़ावे की सामग्री लेकर उसे प्रतिमा से स्पर्श कराती और रुपये-पैसे व फूल-माला यथास्थान चढ़ाकर प्रसाद वापस कर देतीं। ज्यादा भीड़ नहीं थी इसलिए हमने आराम से दर्शन किया।
पुजारिन ने हमारे चढ़ावे के नोट को उलट-पलटकर तीन बार देखा, फिर मेरी ओर भी नजर उठाकर देखा तब सन्तुष्ट होकर उसे गल्ले में मिला दिया। दरअसल प्रसाद वाले ने जब मुझे यह नोट दिया था तो मुझे भी हिचक हुई थी, इसीलिए मैंने उस नोट को आगे ले जाना ठीक नहीं समझा और उसका तत्काल उपयोग कर दिया था। मैंने रेलिंग के नीचे रखे पत्थर पर नारियल फोड़ा, घुटनों पर बैठकर वेदिका पर माथा टिकाया और सप्तश्लोकी दुर्गा व दुर्गाष्टोत्तरशतनाम का पाठ किया। हम जब प्रसाद लेकर मुड़े तो देखा यहाँ भी बजरंगबली बिराज रहे हैं। मंगलवार था इसलिए वहां भी भक्तों की भीड़ ठीकठाक थी।
जब हम मंदिर के गेट से सडकपर निकल रहे थे तो भिखारियों के झुंड ने घेर लिया था। अपने मित्र की देखादेखी मैंने भी इसकी तैयारी पहले से कर ली थी। अर्थात प्रसाद वाले से नोट के बदले कुछ सिक्के ले लिए थे। फिर भी सिक्कों की तुलना में उनकी संख्या इतनी अधिक थी और उनमें प्रतिद्वंद्विता इतनी आक्रामक थी कि मुझे सबसे दीन-हीन और विकलांग का चुनाव यहाँ भी करना पड़ा।
देवी दर्शन के बाद अब बारी बाजार घूमने की थी। डीडी ने कुछ खाने को पूछा। मैंने कहा अगर यहाँ कुछ स्पेशल मिलता हो तो खिलाओ। फिर हम सड़क किनारे लगी एक चाट की पुरानी दुकान पर पहुँचे। लकड़ी के ठेले पर सजी इस दुकान के नीचे नाली थी जो बह नहीं रही थी। ठेले पर अनेक छोटे-बड़े पात्र थे जिनमें चटपटी मसालेदार खाद्य सामग्री रखी होगी। चाट बनाने वाले महाशय भी वैसे ही स्थूलकाय थे जैसे उनका ठेला। वे ठेले के बीच में पाल्थी मारकर बैठे हुए थे और अपने सामने चूल्हे पर रखे भारी भरकम तवे पर चाट की सामग्री एक लोहे की खुरपी नुमा यंत्र से चला चलाकर तैयार कर रहे थी। अपने दायें बायें ऊपर नीचे रखे बर्तनों से अलग अलग स्वाद के मसाले, चटनियाँ और रस-गंध आदि निकालकर गरम तवे पर रखी मटर व आलू के साथ भूनते और दोने में रखकर पेश करते जाते।
हम थोड़ी देर से पहुंचे थे, या आज मेला घूमने वाले ज्यादा आ गये थे इसलिए हमें गोलगप्पे नहीं मिल सके। पूरा स्टॉक खत्म हो गया था। हमने मटर वाली चाट ली, केवल नमकीन वाली। दही और मीठी चटनी से परहेज करते हुए। पता चला कि इस नामचीन दुकान पर लहसुन-प्याज का प्रयोग नहीं होता है और तेल के बजाय शुद्ध देसी घी में ही सबकुछ बनता है।

हमने वहाँ से आगे बढ़कर एक दुकानपर रस-मलाई का आनंद भी लिया क्योंकि बकौल डीडी यह यहाँ की शानदार मिठाई की दुकान थी। सबसे अच्छी और प्रतिष्ठित। हमने यहां से नमकीन खुरमे का एक पैकेट भी लिया। अबतक काफी देर हो चुकी थी। कमरे पर लौटे तो थोड़ी देर में हॉस्टल के ही दूसरे मित्र अनूप भी सपरिवार आ गये। पति-पत्नी दोनो अध्यापक हैं जिनकी दो बच्चे थोड़े शर्मीले लेकिन बहुत प्यारे हैं। मेरे पास उन बच्चों की आवभगत के लिए कुछ था ही नहीं। बस चाय के साथ उन नमकीन खुरमों ने इज्ज़त रख ली। बतकही में काफी समय निकल गया। चपरासी ने जब खाने की याद दिलायी तो हम सबने एक दूसरे से विदा ली। इसप्रकार आजमगढ़ में एक अच्छे दिन का अंत हुआ।



मंगलवार, 29 अगस्त 2017

इन्दिरानगर में बारिश के बीच साइकिल से सैर

शहरीकरण की प्रक्रिया तेज होने का मुख्य कारण विकसित शहरों में उपलब्ध वे अवसर और सुविधाएं हैं जो जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने और उन्हें बनाये रखने के लिए आवश्यक हैं। जीविकोपार्जन के लिए जरूरी रोजगार मिलने के अतिरिक्त बच्‍चों के लिए अच्छे शिक्षण व प्रशिक्षण संस्थान, बड़े-बुजुर्गों की देखभाल के लिए बेहतर अस्पताल व स्वास्थ्य सुविधाएं, घर-परिवार के उपभोग की वस्तुओं के लिए बड़े बाजार, मॉल, रेस्टोरेंट व मनोरंजन के लिए क्लब, मल्टीप्लेक्स व थीम-पार्क इत्यादि भी शहरों में ही हैं। सबका साथ सबका विकास के नारे के बावजूद ये सुविधाएं ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं के बराबर मिलती हैं। यहाँ तक कि ग्रामीण क्षेत्र में पैदा होने वाली हरी सब्जी, फल व दूध इत्यादि भी अच्छी कीमत की तलाश में शहरों की ओर ही चले आते हैं। 
इस शहरी जीवन की मांग को पूरा करने के लिए सरकार की ओर से आवास विकास परिषद व बड़े शहरों में विकास प्राधिकरण लगातार नयी कालोनियां बसा रहे हैं और इन कालोनियों में अनेक अवस्थापना सुविधाएं भी बढ़ा रहे हैं। निजी क्षेत्र में भी 'रियल एस्टेट' का धंधा खूब फल-फूल रहा है।
लखनऊ में इंदिरानगर आवासीय कॉलोनी बहुत पहले बसायी गयी थी। इसमें प्रायः सभी आय वर्ग के लोगों के लिए अलग-अलग स्तर के आवासीय प्लॉट हैं, उपभोक्ता बाजार हैं, मंदिर-मस्जिद हैं, स्कूल-कॉलेज़ हैं, गोल चौराहे हैं, फल और सब्जी की मंडियाँ हैं और छोटे-बड़े अनेक पार्क हैं जिसमें खूब हरियाली है। मुंशी पुलिया चौराहा पहले लखनऊ शहर के बाहर से जाने वाले फैज़ाबाद-सीतापुर बाईपास (रिंग रोड) पर स्थित था लेकिन कालांतर में इस कॉलोनी के वृहद विस्तार के बाद यह इंदिरानगर के लगभग बीचोबीच में आ गया है जिसके चारों ओर घनी बसावट है। यह कॉलोनी इतनी पुरानी तो हो ही गयी है कि इसमें प्लॉट लेकर घर बनाने वाले अधिकांश लोग सेवानिवृत्त हो चुके हैं और उनकी अगली पीढ़ी जवान होकर गृहस्थी की कमान सम्हाल रही है। 
जो नये लोग इंदिरानगर में बसने आ रहे हैं वे या तो किसी अपार्टमेंट में आ रहे हैं या कॉलोनी के सीमावर्ती क्षेत्रों में निजी क्षेत्र द्वारा विकसित आवासीय कॉलोनियों में आ रहे हैं। मैंने मुंशी पुलिया से सात-आठ किलोमीटर पूरब व उत्तर दिशा में विकसित होने वाली नयी कॉलोनियों के साइन बोर्ड पर उनका पता मुंशीपुलिया इंदिरानगर के नाम पर लिखा हुआ देखा है। लखनऊ मेट्रो की रेलपटरी का पूर्वी सिरा मुंशीपुलिया चौराहे के पास बन रहे स्टेशन पर समाप्त होगा। मेट्रो स्टेशन के नाम पर यहाँ से आठ-दस किलोमीटर दूर तक की जमीनें महंगी हो गयी हैं। लेकिन शहरीकरण की आकर्षक सुविधाओं की कीमत चुकाने को लोग तैयार हो रहे हैं।
आवास विकास परिषद द्वारा मुंशीपुलिया चौराहे के पूरब अरविंदो पार्क व पश्चिम तरफ स्वर्णजयंती पार्क विकसित किये गये हैं जो खूब हरे-भरे व सुसज्जित हैं। सुबह-शाम टहलने वाले बुजुर्गों और उम्रदराज औरतों व आदमियों की अच्छी संख्या दिखती है तो दिन में किशोर व नयी उम्र के लड़के-लड़कियाँ व प्रेमी युगल यहाँ की शोभा बढ़ाते हैं। अरविंदो पार्क में भारतीय योग संस्थान के बैनर तले निःशुल्क योग शिविर का आयोजन होता है। सुबह पांच बजे ही योग के आचार्य और निष्ठावान साधक अपना आसन जमा लेते हैं। हरी मुलायम घास पर सबसे नीचे प्लास्टिक शीट, उसके ऊपर हल्की दरी और उसके ऊपर सफेद चादर डालकर आसन बनता है। इस आसन पर बैठकर, खड़े होकर और लेटकर साधक स्त्री-पुरुष योगासन, प्राणायाम और ध्यान का अभ्यास कुशल व प्रशिक्षित आचार्यों के दिशानिर्देशन में करते हैं। 
मैं जब भी लखनऊ में सुबह आँखें खोलता हूँ तो इस योग कार्यक्रम में सम्मिलित होने का प्रयास करता हूँ। बाकी दिनों में जहाँ भी रहता हूँ अपने कमरे में 'शिक्षक संहिता' नामक पुस्तिका की सहायता से यहाँ सीखे हुए सारे अभ्यास करने की कोशिश करता हूँ। लेकिन सामूहिक रूप से किये जाने वाले योगासन-प्राणायाम-ध्यान का आनंद ही कुछ और है।
इस सप्ताहांत सुबह पाँच बजे तैयार होकर ऍपार्टमेन्ट से बाहर निकला तो हल्की बूंदा-बांदी हो रही थी। मैंने आसन की सामग्री वाला बैग साइकिल के कैरियर पर इस प्रकार दबाया कि प्लास्टिक शीट वाला हिस्सा सबसे ऊपर रहे और मोबाइल, पर्स और पुस्तक वाला सबसे नीचे ताकि बारिश की बूंदों से कोई नुकसान न हो। आज मेरे मन में यह जानने की उत्सुकता थी कि इस खराब मौसम में ये साधक अपने कार्यक्रम कैसे करते होंगे।
घर से चलकर मैं पार्क के प्रवेश द्वार पर आया। जब मैं साइकिल खड़ी कर रहा था तो हल्की बूँदें मेरे प्रयास पर प्रश्नचिह्न लगाती जा रही थीं। वहाँ टिकट काउंटर में सिर छिपाये बैठा संतरी बाहर निकल आया। उसने मुझे ऐसे देखा जैसे पूछ रहा हो - अजीब अहमक आदमी हो, इस बारिश में कैसे आ गये इधर? मैंने उसके इस भाव को थोड़ी और हवा देते हुए पूछ लिया - वो योगासन वाले कोई आये हैं क्या? उसने घड़ी देखा जिसमें सवा पांच बजे रहे होंगे, फिर एक तरह की मौज लेते हुए बोला- अंदर जाकर देख लीजिए।
मैंने साइकिल में ताला लगाकर बैग कंधे से लटकाया और अंदर जाकर टहलने के लिए बनी लाल पत्थरों वाली पगडंडी पर तेज कदमों से चलने लगा। भीतर कुछ जिद्दी टाइप बुजुर्ग टहलबाज छाता लगाकर टहलते मिले। लेकिन उस स्थान पर कोई नहीं मिला जहाँ योग की कक्षा चलती है। वहाँ आसनों के नीचे दबी रहने वाली हरी दूब की पत्तियाँ आज तन कर खड़ी हो गयी थीं बारिश की जो गोल-गोल बूँदें उनके ऊपर की छोर पर पड़ती तो वे एक ओर झुक जाती फिर बूंदें धीरे-धीरे नीचे की ओर सरकती जाती और पत्तियां शनैः शनैः पूर्वावस्था में खड़ी हो जातींइस प्रकार लगभग अर्द्ध चंद्रासन की मुद्रा बनाती और फिर सीधी हो जाती पत्तियों पर योग-कक्षा का पूरा प्रभाव दिख रहा था।
पार्क के टहल-पथ पर एक चक्‍कर लगाने के बाद मैं बाहर आ गया। बौछारें अब तेज़ हो गयी थीं। घर लौटते-लौटते मैं भीग ही जाता। इसलिए बारिश में दिल खोलकर भींग लेने का विचार उछल पड़ा। मैंने बैग को फिर से उल्टा करके कैरियर में दबा दिया। सबसे नीचे वाली जेब में मोबाइल व बटुआ, उसके ऊपर पुस्तिका, उसके ऊपर तह की हुई चादर, फिर दरी और सबसे ऊपर प्लास्टिक शीट की पच्चीस परतें। मैं आश्वस्त था कि बैग में जरूरी सामान सुरक्षित रहेगा। मैंने साइकिल को घर के रास्ते से उल्टी दिशा में बढ़ा दिया। सेक्टर-11 की ओर जाने वाली चौड़ी सड़क बिल्कुल खाली थी। बिजली के खंभों पर पीले प्रकाश वाले हेलोजन बल्ब जल रहे थे जिनकी रोशनी गीली सड़क से परावर्तित हो रही थी। सड़क पर गिरती बूंदों से उठते छींटे इस पीले प्रकाश के साथ मिलकर अद्भुत छटा बिखेर रहे थे। जैसे केसर की घाटी में मोती उछल रहे हों।
तभी सामने से एक औरत पुराने पड़ चुके एक छेदहे छाते में अपना सिर ढके चली आ रही थी। उसके पीछे एक मरियल कुत्ता भी टांगों में पूंछ घुसाये हुए, सिर ऊपर-नीचे करता चला आ रहा था। निश्चित ही उधर कोई गरीब बस्ती होगी जहाँ से निकलकर यह कामवाली अमीरों के घर झाड़ू-पोछा-बर्तन या कपड़े धोने का काम करने जा रही होगी। रात भर का भूखा कुत्ता भी इन घरों से निकलने वाले सुबह के कूड़े से अपना पेट भरने की फिराक़ में ही निकला होगा, वर्ना मुँह-अंधेरे बारिश के मौसम में कौन अपनी नींद में खलल डालना चाहेगा।
दोनो तरफ सीधी लाइन में खड़े पक्‍के मकानों के भीतर की मद्धिम रोशनी और सड़क पर पसरे सन्नाटे से तो यही पता चल रहा था कि अधिकांश लोग या तो सो रहे हैं या जागकर भी बिस्तर पर लेटे हुए बारिश की बूंदों की टप-टप और रिमझिम का संगीत सुन रहे हैं। मैं तो अपनी नयी-नवेली बिल्कुल शांत साइकिल पर चलता हुआ न सिर्फ बारिश का संगीत सुन रहा था बल्कि आसमान से गिरती बूंदों का नृत्य भी देख रहा था। मेरे चेहरे को गुदगुदाती-सहलाती बूंदें, पेड़ों की कोमल पत्तियों से चिपककर आलिंगन करती बूंदें, बिजली के पोल से सरककर नीचे आती बूँदें, क्‍की सड़क के तारकोल को चमकाती बूंदें, संगमरमर लगी मुंडेर पर गिरकर दूर तक छिटकती बूंदे और टिन की छत पर गिरकर समूह में इकठ्ठा हो नीचे गिरती धाराप्रवाह बूंदें। इन सबका नृत्य अलग-अलग था। कुछ बूंदे मिट्टी, गोबर या कींचड़ में गिरकर तिरोहित हो जाती तो कुछ सौभाग्यशाली ऐसी भी थीं जो फूलों के बीचोबीच जाकर उनकी सुगन्ध के बीच धन्य हो जाती। मेरा मन कुछ तस्वीरें लेने को ललच रहा था लेकिन बारिश इतनी तेज थी कि मोबाइल को बाहर निकालना सुरक्षित नहीं जान पड़ा।
चौड़ी सड़क के अंतिम छोर पर पहुँचकर मैं आगे की पतली सड़क पर मुड़ कर बसावट के भीतर चला गया। आगे निम्न व दुर्बल आय वर्ग वाले मकान थे। बहुत कम जमीन में बने इन घरों के दोनो किनारों की दीवारें पड़ोसी के घर से बिल्कुल चिपकी हुई होती हैं। बीस-पच्‍चीस साल पहले बने इन अधिकांश मकानों के आगे अब मारुति-ऍल्टो-आईटेन या नैनो जैसे चार पहिया वाहन खड़े हो गये हैं। लेकिन नके लिए छत वाली पार्किंग की जगह नहीं है। निश्चित रूप से यहाँ की दीवारों पर आर्थिक विकास की कहानी लिखी हुई दिख रही थी। एक गली से दूसरी गली में होता हुआ मैं वापसी का रास्ता तलाशने लगा। तभी एक गली अचानक समाप्त हो गयी जिसके आगे खाली जमीन थी। जमीन में गोबर और पानी के मिश्रण से बना कीचड़ और उसमें पगुराती खड़ी भैसों को बारिश का आनंद लेते देखकर मैं वापस मुड़ गया। एक दूसरी गली से तीसरी गली में होता हुआ मैं आगे बढ़ता गया तो अचानक डिवाइडर वाली चौड़ी सड़क पर निकल आया। एक बोर्ड से पता चला कि यह अमर शहीद कैप्टन मुकेश श्रीवास्तव मार्ग है।
यहाँ से मुझे घर वापस लौटने का रास्ता पता था। सेक्टर-17 में आकर मुझे एक ऐसा स्थान मिल ही गया जहाँ खड़े होकर अपनी साइकिल की सेल्फी ले सकता था। वहीं एक परचून की दुकान की टिन की छत से बरसाती धारा गिर रही थी। आसपास कोई बच्‍चा होता तो वह इसके नीचे खड़ा होकर जरूर नहाने का मजा लेता। लेकिन बच्‍चे अभी बिस्तर में होंगे। बहुत सबेर थी अभी। स्ट्रीट-लैंप की पीली रोशनी दिन के उजाले पर अभी भी भारी थी। अब आप तस्वीरें देखिए और मुझे इजाजत दीजिए। मैं घर पहुँचकर अपने कपड़े बदलता हूँ। ज्यादा देर तक भींगा रह गया तो... सुना है शहर में स्वाइन-फ्लू अपने पाँव पसार रहा है।
सेक्टर-16 इन्दिरानगर की डूबी सड़क

बैग मे सुरक्षित योगासन सामग्री के साथ नहाती साइकिल

हम भी अगर बच्चे होते तो पीछे टिन की छत से गिरती जलधारा का मजा लेते 

बारिश के पानी से सराबोर हमारी बालकनी से दिखती सड़क

साइकिल जब नयी-नयी आयी थी तब मौसम बहुत अच्छा था।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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शुक्रवार, 25 अगस्त 2017

रामरहीम और अशुभ की समस्या

सीबीआई अदालत द्वारा आज  बाबा #रामरहीम को बलात्कार का दोषी पाया गया है - दो साध्वी स्त्रियों के साथ बलात्कार का दोषी। लेकिन इनके भक्तों को लग रहा है कि उनके महान पिताजीके साथ अदालत ने अन्याय कर दिया है। आगजनी, तोड़-फोड़ और लोगों की हत्या का क्रम शुरू हो गया है। राज्य सरकार इन आततायी गुन्डों के उन्माद को सम्हाल पाने में असफल सिद्ध हो रही है। अपने धर्मगुरू को जेल जाते हुए देखना इनके लिए खुलेआम कानून का उल्लंघन करने का लाइसेन्स देता हुआ दिख रहा है। सरकारी बसें, रेलवे स्टेशन, मेट्रो, आदि जनसंपत्तियों पर और मीडिया के ओबी वाहन, कैमरे आदि तोड़े और आग के हवाले किये जा रहे हैं।

लोग ऐसी सनक कैसे पाल लेते हैं? धार्मिक उन्माद ऐसा कैसे हो जाता है कि सारा विवेक मर जाय? आखिर ये बाबा लोग कौन सी घुट्टी पिला देते हैं इन मूर्ख भक्तों को? आसाराम बापू और रामरहीम जैसे धर्मगुरू कानून के हाथों नंगे हो जाते हैं लेकिन इन भक्तों के आँख का परदा क्यों नहीं हट पाता?
कल ही हरितालिका तीज का भीषण निर्जला व्रत वाला त्यौहार बीता है। इसमें भी स्त्रियाँ अन्न-जल त्यागकर अपने सुहाग की रक्षा का अनुष्ठान करती हैं। इसके पीछे जो कथा प्रचलित है उसको पढ़कर कोई भी तार्किक और विवेकशील व्यक्ति माथा पकड़ लेगा। धर्म के ठेकेदारों द्वारा एक अज्ञात भय हमारे मानस में इस प्रकार घुसा दिया जाता है कि हम आस्था के नाम पर कुछ भी ऊल-जुलूल आँख मूँदकर करते चले जाते हैं।
ईश्वर ने मनुष्य को इतना घटिया जीव तो नहीं बनाया होगा। फ़िर ये लोचा कैसे आ जाता है? दर्शनशास्त्र की किताबों मे अशुभ की समस्या- Problem of Evil" पढ़ायी जाती है। सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्वज्ञाता ईश्वर के होते हुए भी इस असार संसार में इतनी मारकाट मची हुई है। चारो ओर उन्माद और अविवेक का नंगा नाच हो रहा है। मूर्ख और पापी लोग अपने धत्‍कर्म बिना किसी अंकुश के बदस्तूर करते जा रहे हैं। पूरी दुनिया धार्मिक कट्टरता की आग की लपटों में घिरती जा रही है। सत्यमेव जयते का पाठ धूल खा रहा है। लगता है भगवान अभी पाप का घड़ा भरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। “यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवतु भारत...” का क्रान्तिक बिन्दु (Threshold Point) अभी आया नहीं लगता है। अभी निर्दोष, मासूम जानों की आहुति लेने का दौर चलता जा रहा है।
कुछ लोग कहते हैं कि धर्म और आस्था, भक्त और भगवान, पन्थ और संप्रदाय, यह सब मनुष्य की बनायी चीजें हैं। ये सब इहलौकिक धारणाएं है जिसे हम मनुष्यों ने ही बनायी है। इसके लिए किसी अन्य पारलौकिक सत्ता को दोष देना ठीक नहीं है। लेकिन सारा बवाल तो उस पारलौकिक सत्ता के चक्कर में ही हो रहा है जो बड़ा दयालु है, सबकुछ जानने वाला है और सर्वशक्तिमान है। धर्मभीरु जनता उसी के डर से तो ऐसा कर रही है। 
रे मनुष्य, तुम्हारा भगवान ऐसा क्यों है जो तुम्हें खून बहाने और तमाम अमानुषिक कार्य करने की छूट देता है? बल्कि मानो वही इस सबके लिए प्रेरित कर रहा है। क्यों वह तुम्हारी बुद्धि और विवेक का अपहरण कर लेता है? ये कैसी दयालुता, कैसी शक्ति, कैसी दिव्यदृष्टि है उसकी? धर्म में भयतत्व न हो तो यह सब भयंकर कुकृत्य भी न हों। कुछ तो लोचा है इस निर्मिती में। इस समस्या का समाधान मनुष्य जाति अबतक नहीं खोज पायी है। 
धर्म में भयतत्व को एक बार मैंने हरितालिका व्रतकथा में देखा था। कल ही बीता है यह निर्जला उपवास का व्रत। इसी मौके पर आठ साल पहले लिखी एक पोस्ट याद आ गयी है- हरितालिका व्रत कथा में भयतत्व। फ़ुर्सत से पढ़िये और सोचिए...। इस समस्या का कोई समाधान हो तो जरूर बाँटिए...

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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शुक्रवार, 11 अगस्त 2017

नेताओं की पेंशन तो बनती है

आजकल सोशल मीडिया या अन्य माध्यमों पर इस आशय की टिप्पणियाँ देखने को मिल रही हैं कि एक बार विधायक या सांसद बन जाने और पाँच या उससे कम समय के कार्यकाल पर भी आजीवन पेंशन क्यों दी जाती है; जबकि सरकारी कर्मचारियों को पूरी पेंशन पाने के लिए कम से कम बीस साल की सेवा देनी पड़ती है। कुछ लोगों ने तो बाकायदा प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर राजनैतिक पेंशन समाप्त करने की मांग की है और सोशल मीडिया पर अधिक से अधिक शेयर करने का अभियान भी चला रहे हैं।
मैं इस प्रस्ताव के विचार से कतई सहमत नहीं हो पा रहा हूँ। मुझे लगता है कि जनप्रतिनिधियों/ नेताओं (सांसद, विधायक) का कार्यकाल पाँच वर्ष या इससे कम होने पर भी पेंशन मिलने पर आपत्ति करना और इसकी तुलना सरकारी कर्मचारियों से करना सीमित दृष्टि का परिचायक है।
कभी यह भी गणना कीजिए कि चुनाव लड़कर जीत की देहरी तक पहुंचने से पहले ये लोग कितना समय और परिश्रम राजनीति की दुनिया में लगाते हैं। साल-दो साल की मेहनत करके सरकारी नौकरी पा जाने वालों की तरह कोई व्यक्ति तुरत-फ़ुरत विधायक या सांसद नहीं बन जाता। अपवादों को छोड़ दें तो इस सफलता तक पहुंचने के लिए उन्हें बीसो साल तक पसीना बहाना पड़ता है - जनता के बीच रहकर। जनता के बीच एड़ियाँ रगड़नी पड़ती हैं। माथा टेकना पड़ता है। उनका सुख दुख बांटना पड़ता है। वे जब विधायक या सांसद नहीं हुए रहते हैं तब भी जनसेवा का काम करते रहते हैं। राजनीतिक गतिविधियों में ही दिन-रात लगे रहते हैं।
जरा आकलन कीजिए कि जितने लोग राजनीति में करियर बनाते हैं उनमें कितनों को विधायकी या उससे ऊंची कुर्सी नसीब होती है? एक-दो प्रतिशत से अधिक नहीं। जबकि जनसेवा में अपनी क्षमता के अनुसार सभी लगे रहते हैं। उन्हें हर पांच साल बाद परीक्षा देनी पड़ती है। बिल्कुल नये सिरे से जुटना पड़ता है। सिर्फ एक सीट के लिए उनकी परीक्षा होती है। कितने तो ऐसे भी होते हैं जो पूरी जिंदगी लगे रहते हैं और पेंशन लायक नहीं बन पाते।
सरकारी नौकरी में तो एक बार दो-तीन साल की कड़ी मेहनत से (या चोर दरवाजे से भी) नौकरी पा जाने के बाद आजीवन वेतन व पेंशन की गारंटी हो जाती है। मेहनत से काम करें या ऊंघते रहें, ईमानदारी करें या मक्कारी करें समय से वेतन वृद्धि और वेतन आयोग की संस्तुतियां मिलती रहेंगी। दर्जनों किस्म की छुट्टियाँ और तमाम सुविधाएं भी।
जिस असुरक्षा और अनिश्चितता के बीच जनता की नजरों से ये राजनेता निरंतर परखे जाते हैं वैसी स्थिति सरकारी कर्मचारियों की नहीं है। यहाँ तो ये स्थायी लोकसेवक अतिशय सुरक्षा और न्यूनतम उत्तरदायित्व का सुख लूटने में लगे हुए हैं। मुझे तो राजनेताओं की पेंशन पर प्रश्नचिह्न लगाना बेहद अनैतिक और संकुचित सोच का परिणाम लगता है।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
संयुक्त निदेशक कोषागार व पेंशन



बुधवार, 9 अगस्त 2017

बच्चों की बड़ी बातें


डैडी - बेटा, कबतक सोते रहोगे? उठो, आठ बजने वाले हैं...
बेटा - जगा तो हूँ डैडी...!
डैडी - ऐसे जगने का क्या फ़ायदा? बिस्तर पर आँख मूँदे पड़े हुए हो।
मम्मी - देखिए, साहबजादे एक आँख खोलकर मुस्कराये और फ़िर करवट बदलकर सो गये।
डैडी - हाँ जी देखो न, इन दोनों की आदत बिगड़ गयी है। छुट्टी के दिन दोनो पड़े रहते हैं।
मम्मी - कम से कम उठकर ब्रश कर लेते और दूध ही पी लेते... कब से गिलास का दूध बनाकर टेबल पर रख आयी हूँ।
डैडी - आज तो राखी भी है न!
मम्मी – तो क्या, दोनो जानते हैं कि मूहूर्त ग्यारह बजे के बाद का है।
डैडी - अच्छा, तो अभी बेटी भी सो रही है ?
मम्मी - हाँ और क्या,  ... लेकिन वो रात को देरतक पढ़ रही थी।
डैडी - यह भी कोई अच्छी बात नहीं है। सोने का और जागने का समय फ़िक्स्ड होना चाहिए। अगले दिन छुट्टी हो या पढ़ाई, कोई फ़र्क नहीं पड़ना चाहिए। ये लोग तो हर दिन अलग प्लान लेकर चलते हैं। ...सब तुम्हारे लाड़-प्यार ने बिगाड़ा है...!
मम्मी – लीजिए, तो अब आप शुरू हो गये...!
डैडी – शुरू क्या हो गये, मैंने भी पढ़ाई की है। लेकिन इस तरह अनिश्चित दिनचर्या कभी नहीं रही मेरी। सुबह सोकर उठने, नहाने-धोने और पढ़ने का समय हमेशा एक ही रहा।
मम्मी – तो सिखा क्यों नहीं देते...? किसने रोका है...!
डैडी – मेरी बातें सुनें तब न..! मुझे तो समझ में नहीं आता कि ‘मेरे’ बच्‍चे इतने आलसी कैसे हो गये। मैं तो कभी भी ऐसा अनऑर्गनाइज्ड नहीं रहा। दिशाहीन, अनफ़ोकस्ड...
मम्मी - बेटा, सुन रहे हो न...? ठीक है मेरी बेइज्जती करा लो!
बेटा - (लेटे हुए ही) अरे डैडी, वो मैथ्स में पढ़े हो न... माइनस माइनस मिलकर प्लस होता है। दीदी और हम दोनो माइनस हैं तभी तो तुम प्लस हो।
डैडी – क्या मतलब ?
बेटा – अरे डैडी, इतनी सिम्पल बात नहीं समझे...। हम दोनो आलसी हैं क्योंकि तुम नहीं हो... J
मम्मी – देखिए, दूसरी आलसी भी आ गयी। अब दोनो को समझाइए..!
डैडी – समझाऊँ क्या, पता नहीं इन सबों को क्या मिलता है यूँ ही पड़े रहने में...!
बेटी – डैडी, तुम नहीं जानते? ओह, कैसे बताऊँ कि क्या मिलता है...? बस ये समझ लो कि ‘पड़े रहना’ एक कला है। इट्स‍ प्योर आर्ट।
डैडी – वाह, क्या बात है बेटी, शाबास...! क्या खासियत है इस कला की?
बेटी – यह बहुत कठिन है डैडी। पूरी तरह थॉटलेस होना पड़ता है। कुछ भी अगर दिमाग में चल रहा है तो वह ‘पड़े रहना’ नहीं होता। कुछ करने के बारे में सोचना तो दूर की बात है, अगर इतना सा भी सोच रहे हैं कि खाली दिमाग पड़े हुए हैं तो इस कला में कमी रह जाएगी। इसमें कुछ भी नहीं सोचना होता है। सोचने के बारे में भी नहीं और न सोचने के बारे में भी नहीं। बहुत बड़ी तपस्या है यह... जो इसमें एक्सपर्ट हो जाय वही इसका आनन्द महसूस कर सकता है।
मम्मी – सुन लिए न...! बताइए, आप तो फिलॉस्फी पढ़े हैं। कहीं सुने थे ऐसी ‘कला’ के बारे में...?
बेटा – अरे मम्मी, डैडी को चैलेन्ज मत करो... जरूर जानते होंगे यह सब।
डैडी - सारी चिन्ता से मुक्त होना तो संभव है लेकिन चिन्तन से मुक्त होना तो सही में परम सिद्ध योगी ही कर सकते हैं। महर्षि पतन्जलि के अष्टांगिक योगमार्ग में एक चरण ऐसा आता है।
बेटा – अच्छा डैडी, अब उसे छोड़ो। यह बताओ कि तुम अपने हाथ से कपड़ा क्यों प्रेस कर रहे हो? धोबी को क्यों नहीं दे देते?
डैडी – मुझे यह काम आसान लगता है। बचपन से आदत है। खाली बैठने से अच्छा है इस स्किल का फ़ायदा उठा लिया जाय।
बेटी – लेकिन कपड़ा जलने का डर भी तो रहता है। मम्मी अपनी साड़ी जला चुकी हैं। अभी देखो, वहाँ की चादर लाल हो गयी है। JJ
डैडी – अच्छा, क्या गारन्टी है कि धोबी अच्छा प्रेस कर ही दे? किसी से भी जल सकता है। सबको उतनी ही सावधानी बरतनी पड़ती है।
बेटा – अच्छा डैडी, ये बताओ अगर धोबी तुम्हारा कोई नया कपड़ा जला दे तो क्या करोगे?
डैडी – क्या कर सकता हूँ? अपना ही माथा ठोंक लूंगा। वह बेचारा तो वैसे ही घबरा जाएगा। कोई जानबूझकर तो जलाएगा नहीं। ऐसे में उसे कुछ भी भला-बुरा कहने से कोई फ़ायदा नहीं होगा। हाँ उसे यह बताया जा सकता है कि आगे से उसे प्रेस के लिए कपड़ा नहीं मिलेगा।
बेटा – हाँ, ताकि वह आगे से लापरवाही नहीं करेगा। ...लेकिन मन में तो उसके खिलाफ़ खूब खराब वाली फ़ीलिंग आयेगी न...?
बेटी – ऑफ़कोर्स आयेगी...! कोई उसकी आरती थोड़े ही न उतारेगा। लेकिन... यू हैव टु कन्ट्रोल योर फ़ीलिंग्स मेनी टाइम्स...!
बेटा – हाँ, सही है। मन के भीतर जैसी-जैसी फ़ीलिंग्स पैदा होती हैं अगर सबको बाहर कर दिया जाय तो यह दुनिया ढह जाएगी। अपनी टीचर, क्लास टीचर, बस ड्राइवर, कोच, सीनियर भैया लोग, दीदी लोग, बगल वाले अंकल-आन्टी. काम वाली दीदी, गार्ड अंकल...
डैडी – बाहर वाले ही क्यों, घर के भीतर भी तो बताओ...! मम्मी, डैडी, दीदी, बाबाजी, दादी जी, ताई-ताऊ, आदि-आदि...
बेटी – अब रहने दो डैडी, यह सोचना भी ठीक नहीं है। पड़े रहने दो...

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सोमवार, 31 जुलाई 2017

नये सिरे से ब्लॉग-यात्रा का प्रारम्भ


सत्यार्थमित्र पर मौलिक रूप से ब्लॉग पोस्ट करने की आदत फ़ेसबुक ने छीन ली थी। जो मन में आया उसे तुरत-फुरत स्टेटस के रूप में फेसबुक पर डालकर छुट्टी ले लेने का आसान रास्ता पकड़ लिया था मैंने। अधिकतम चौबीस घंटे की सक्रिय आवाजाही पाने के बाद वह स्टेटस काल के गाल में समा जाया करता था। लेकिन इतने में ही करीब सौ पाठकों की लाइक्स व कुछ के कमेन्ट्स की खुराक मिल जाती थी। अधिक महत्वाकांक्षा न पालने के कारण इतने से काम चल जा रहा था।

मैं ऐसा मान चुका था कि हिन्दी ब्लॉगरी की दुनिया प्रायः निष्क्रिय हो चुकी है। लेकिन खुशदीप सहगल जी के तगादे से एक बार फ़िर से हरकत शुरू हुई है। नौकरी में तबादला भी एक कारण बना है। नयी तैनाती में अब पहले जैसी कमरतोड़ मेहनत की जरूरत नहीं रह गयी है। यहाँ थोड़ा आराम और खाली समय उपलब्ध हो गया है। इसलिए अब आशा की जानी चाहिए कि इन पन्नों पर अब धूल नहीं जमने पायेगी।

ब्लॉग को दुबारा सक्रिय करने की कड़ी में सर्वप्रथम मैंने रायबरेली में सुबह-सुबह की गयी साइकिल से सैर का हाल-चाल बताने वाली रिपोर्टों को कालानुक्रम में सहेजकर उन्हें ब्लॉग-पोस्ट का रूप दे दिया है। चूँकि ये पोस्टें पुरानी तिथियों में शिड्यूल हो गयी हैं इसलिए ब्लॉगर के पाठक इसे वर्तमान ट्रैफ़िक में शायद नहीं देख पायेंगे। इसलिए मैं इन सभी पोस्टों के लिंक यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। समय की उपलब्धता के अनुसार इसे देखा जा सकता है। मुझे विश्वास है कि यह सामग्री आपको पसन्द आयेगी –
01.       साइकिल से सैर की सरपट रपट 
02.       अल्पवयस्क कटहल और चहकते टमाटर के पेड़
03.       विस्मृति का शिकार मुंशीगन्ज शहीद स्मारक
04.       साइकिल से सैर में साप्ताहिक विराम
05.       रायबरेली के लोकउद्यम भी बदहाल हैं
06.       अभियानों से बेखबर गाँव और सूखती नदी
07.       सी.एम. के साथ साइकिल यात्रा
08.       कुकरैल जंगल की सैर के बहाने
09.        साइकिल के साथ तैराकी का लुत्फ़
10.       साइकिल से देखा ग्रीप साहब का पुरवा
11.       दरीबा से सीतारामपुर की ओर
12.       गजोधरपुर और कूड़ा प्रसंस्करण संयन्त्र
13.       परसदेपुर रोड पर पुलिस वाले की ट्रकपन्थी
14.       इब्राहिमपुर से आगे मछेछर
15.       तकरोही और अमराई गाँव, इन्दिरानगर लखनऊ
16.       बारिश में उफ़नती सई, धोबीघाट और शहीद स्मारक
17.       हरित दर्शन औरपढ़ाई की कठिन राह
18.       भूएमऊ गाँव की गन्दी भैंसें और भली गायें
19.       भूएमऊ के प्राथमिक स्कूल और ज्ञान मन्दिर
20.       महानन्दपुर की तंग गलियों के दुधारू पशु
21.       ऑर्टीमिसिया और ओडीएफ़ गाँव की खोज
22.       बारिश में भींगने की अधूरी ख़्वाहिश
23.       बालमखीरा केदर्शन
24.       महुए पर क़ाबिज माफ़िया बन्दर
25.       झाड़-फूँक की अदृश्य शक्ति से सामना
26.       गढ्ढामुक्त सड़कों का सपना
27.       बेहटा-खुर्द एक बेहतर गाँव है
28.       थूहर : एकऔषधीय वृक्ष
29.       नदी के ऊपर से बहती इन्दिरा नहर
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी) 
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