आजकल जहाँ देखिए वहाँ नेताओं को गाली देती पब्लिक मिल जाएगी और उन गालियों पर ताली बजाती भीड़ भी। कांग्रेस का वंशवाद हो या भाजपा का संप्रदायवाद, समाजवादियों का मुस्लिम तुष्टिकरण हो या शिवसैनिकों का संकुचित क्षेत्रवाद, वामपंथी पार्टियों का मार्क्सवाद के नाम पर खोखला पाखंड हो या दक्षिणपंथियों का धूर्त राष्ट्रवाद। ये सभी बुराइयाँ बदस्तूर जीवित है और लहलहा रही हैं तो यह निश्चित है कि इनके लिए आवश्यक उर्वरक और खाद-पानी हमारे समाज से ही मिल रहा है।
एक राजनैतिक दल का घोषित और जायज लक्ष्य होता है राजनैतिक सत्ता पाने के लिए चुनाव लड़ना और सत्ता मिल जाने पर उसे बरकरार रखना। इसी लक्ष्य को पाने के लिए पार्टी का गठन होता है, इसके संगठन को मजबूत किया जाता है, इसके लिए लोकप्रिय समर्थन जुटाने का प्रयास किया जाता है। एक खास विचारधारा और राजनैतिक सिद्धान्त का पालन करते हुए मतदाताओं के बीच अपनी स्वीकार्यता का आधार बढ़ाया जाता है और उनके वोट पाकर सत्ता की कुर्सी पायी जाती है। चुनाव लड़ना और सरकार बनाना राजनीतिक दलों का काम ही है। इसमें सफलता पाने के लिए उन्हें जो करना चाहिए वे करते हैं। यदि उन्हें लगता है कि जनता हमें वोट तब देगी जब हम किसी एक खास जाति एक खास धर्म या एक खास इलाके के पक्ष में काम करेंगे या कम से कम करने का वादा करेंगे तो वे ऐसा करने लगते हैं। इसे यूं भी कह सकते हैं कि वे ऐसा करते हैं क्योंकि उन्हें ऐसा लगता है कि जनता इसी आधार पर उन्हें वोट देगी। अब उन्हें ऐसा लगता है तो इसमें कुछ सच्चाई जरूर होगी।
अगर कांग्रेस के एक से एक प्रतिभाशाली नेता अपनी योग्यता और अनुभव को नेपथ्य में रखकर सोनिया गांधी और राहुल गांधी की अति साधारण बुद्धि और वैयक्तिक योग्यता पर वाह-वाह करते रहना और चारण धर्म का पालन करना बेहतर समझ रहे हैं तो निश्चित रूप से उन्हें यह विश्वास है कि जनता का वोट पाने के लिए उनकी अपनी योग्यता और अनुभव से ज्यादा कारगर नेहरू खानदान का नाम है। यह विश्वास इस जनता ने ही तो दिया है। कांग्रेस का साठ साल का शासन चाहे जितना भ्रष्ट और नकारा रहा हो लेकिन हर पाँच साल बाद उसे कुर्सी पर जनता ने वोट देकर पहुँचाया है। यह कोई सद्दाम हुसेन या कर्नल गद्दाफी के लंबे शासन काल की तरह बन्दूक की ताकत से नहीं चला है। जब बहुसंख्यक जनता इस वंश को अपना शासक मानने के लिए तैयार है तो आप शिकायत कैसे कर सकते हैं?
बाबरी मस्जिद टूट जाने के बाद दुनिया भर में भारत की किरकिरी भले ही हुई हो लेकिन उसके बाद हुए चुनावों में इस देश की जनता ने उन लोगों को ही वोट दे दिया जो इस कारनामें के लिए जिम्मेदार माने गये। मजहबी खूँरेजी बढ़ती गयी और चुनाव दर चुनाव इनका वोट-प्रतिशत। अब जनता की ऐसी प्रकृति और प्रवृत्ति देखकर क्यों न नेता कोशिश करेंगे ऐसा माहौल बनाने की? वोटर को पोलराइज करने का प्रयास कोई कर रहा है, तो क्यो? इसलिए कि जनता पोलराइज होने की ताक में बैठी है।
भ्रष्टाचार के नित नये कीर्तिमान बनाती सरकारों को कई राज्यों में बारी-बारी से मौका देते रहने का गर्हित कार्य यह “जनता-जनार्दन” लगातार करती आ रही है। चारा घोटाले की खबर पूरी तरह चर्चित और प्रचारित हो जाने के बाद भी लालू प्रसाद यादव को जनता ने दूसरे दलों पर तरजीह देते हुए तीसरी बार जिता दिया था; जिसकी उम्मीद शायद वे खुद ही नहीं कर रहे थे। तमिलनाडु में बारी-बारी नागनाथ और साँपनाथ का दुष्चक्र खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है – वह भी पूरे लोकतांत्रिक तरीके से।
लोकतंत्र के नाम पर वोट के माध्यम से लिया गया हर फैसला परम पवित्र और सर्वोत्कृष्ट माना जाता है लेकिन उच्च स्तरीय मानवीय मूल्यों की कसौटी पर तौलने बैठिए तो जनता द्वारा किये हुए बहुत से फैसले गले से नहीं उतरते। समानता, स्वतंत्रता, भाईचारा, धर्म निरपेक्षता, न्याय, मानवाधिकार आदि के मूल्य सेमिनारों और अकादमिक बहसों में तो स्थान पा जाते हैं लेकिन भारत का वोटर जब हाथ पर अमिट स्याही लगवाकर गोपनीय घेरे में वोट डालने के लिए घुसता है तो ये मूल्य जाने कहाँ पीछे छूट जाते हैं और उसे केवल अपनी जाति, अपना धर्म, अपना संकुचित समाज और अपना निजी स्वार्थ याद रहता है; और याद रहती है सदियों से चली आ रही रूढ़िवादी, दकियानूसी, गुलामी की विरासत में पगी पिछड़ी सोच का प्रतिनिधित्व करती अधोचेतना।
आप कह सकते हैं कि पार्टियों और नेताओं ने हमें कोई बेहतर विकल्प दिया ही नहीं तो क्या करें? जो विकल्प उपलब्ध हैं उन्हीं में से तो चुनेंगे। लेकिन यह प्रश्न तो वैसा ही है जैसा “पहले मुर्गी कि पहले अंडा?” विकल्प भी तो इस जनता को ही देना था। इस जनता के हाथों अरविन्द केजरीवाल की जो गति होने जा रही है वह एक बड़ा सबक बनकर उभरने वाला है। बस देखते जाइए। अन्ना हजारे और रामदेव का हश्र तो सामने है ही।
इसलिए अब मैंने किसी बड़े परिवर्तन की आस लगभग छोड़ ही दी है। लगता है सबकुछ ऐसे ही चलता रहेगा। थोड़ा बहुत इधर या उधर पैबन्द लगाकर। सिद्धान्त और व्यवहार में भयंकर अंतर बना रहेगा। दौड़ की रेखा सबसे पहले छूने वाले (First Past the Post) को ही विजेता घोषित करने वाली चुनाव की प्रक्रिया में आमूल-चूल परिवर्तन तो होने से रहा। आम आदमी की आदर्श छवि इस धरा-धाम पर हकीकत बनकर आने से रही। भले ही इस नाम की टोपियाँ लगाने वालों की संख्या बढ़ती रहे। अतः एक नागरिक होने के नाते मैं खुद को भारतीय लोकतंत्र का गुनहगार मानता हूँ… आपको भी… और आपको भी…।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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