हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

मंगलवार, 29 जून 2010

गृहस्थी जमती रहेगी, अब काम की बात…

 

पिछले पन्द्रह दिनों से मैं अपने घर को स्थान्तरित करने की जद्दोजहद में लगा रहा। इस दौरान पोस्ट करने लायक अनेक सामग्री हाथ लगी, बहुत अच्छे आप सबसे बाँटने लायक अनुभव हुए, नये-नये लोगों से मुलाकात हुई और बिल्कुल नये वातावरण में स्थापित होने के अनेक खट्टे-मीठे अनुभव भी हुए। इन सब बातों को मौका देखकर आपसे बताऊंगा। लेकिन अभी तो एक गम्भीर कार्यक्रम आ पड़ा है। इसलिए सबसे पहले यह काम की बात बता दूँ।

वर्धा में पाँव रखते ही कुलपति जी ने मुझे उस राष्ट्रीय ब्लॉगर गोष्ठी की याद दिलायी जो पिछले वर्ष इलाहाबाद में जबरदस्त सफलता के साथ सम्पन्न की गयी थी। (जो नये साथी हैं उन्हें यहाँ और यहाँ भी उस गोष्ठी की रिपोर्ट मिल जाएगी। फुरसतिया रिपोर्ट की गुदगुदी यहाँ है।) जैसा कि आप जानते हैं, वर्धा वि.वि. द्वारा इसे एक नियमित वार्षिक आयोजन बनाने का फैसला लिया गया था। इसी क्रम में कल कुलपति जी ने विशेष कर्तव्य अधिकारी राकेश जी को इस वर्ष के आयोजन की हरी झण्डी दिखा दी। फौरन राकेश जी ने एक विज्ञप्ति जारी कर मुझे इसकी कमान सौंप दी है। आप इसे देखिए-

ब्लॉगर गोष्ठी २०१०
ब्लॉगर गोष्ठी २०१० 001 

मुझे पूरा विश्वास है कि इस गोष्ठी को सफल बनाने के लिए आप सबका भरपूर सहयोग मुझे मिलेगा। आप की राय की प्रतीक्षा रहेगी। आप अपने सुझाव और प्रस्ताव अपनी टिप्पणियों से या सीधे मुझे ई-मेल से भेंज सकते हैं।

नोट: वर्धा आने के बाद मुझे आगाह किया गया कि बरसात की शुरुआत होने पर शुष्क पहाड़ों के ‘पंचटीला’ पर बसे इस विश्वविद्यालय के परिसर में प्रायः साँप और बिच्छू निकलते रहते हैं, जो जहरीले भी होते हैं। इसलिए सावधानी बरतना बहुत जरूरी है। मुझे वे जीवधारी तो अबतक दिखायी नहीं पड़े हैं, लेकिन मेरी पिछली पोस्ट पर आयी एक अनामी टिप्पणी ने यह भान करा दिया कि वह चेतावनी सिर्फ़ उन भौतिक जीवों के बारे में नहीं थी। परिणाम स्वरूप मुझे यहाँ भी सुरक्षा बरतते हुए टिप्पणियों पर मॉडरेशन का विकल्प चुनना पड़ा है। आशा है आप थोड़ा कष्ट उठाकर भी अपनी राय से हमें अवगत कराते रहेंगे। सादर!

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

रविवार, 20 जून 2010

इलाहाबाद से वर्धा की ओर…

 

मित्रों,

packers and movers अब से करीब ढाई साल पहले जो यात्रा मैंने अन्तर्जाल की दुनिया पर शुरू की थी वह मुझे ऐसे विलक्षण अवसर उपलब्ध कराएगी यह मैने सपने में भी सोचा न था। लेकिन आज जब मैं इलाहाबाद छोड़कर जा रहा हूँ तो मन में अद्‌भुत उपलब्धि का भाव हिलोरें ले रहा है। इसे प्रयाग की पुण्य भूमि की उपलब्धि मानूँ, अपने सरकारी ओहदे की कामयाबी मानूँ या साहित्य के नाम पर सृजित अपनी अनगढ़ ब्लॉग पोस्टों की सफलता मानूँ, यह तय करना मुश्किल है। शायद यह इन सबका मिला-जुला प्रतिफलन हो। मैं तो मानता हूँ कि यह मेरे इष्ट-मित्रों की शुभकामनाओं, वरिष्ठ ब्लॉग लेखकों के मार्गदर्शन, परिवारीजन के सहयोग और समर्थन, बड़े-बुजुर्गों के आशीर्वाद और ईश्वर की कृपा के बिना कत्तई सम्भव नहीं था।

यूँ तो नौकरी में स्थानान्तरण कोई असामान्य घटना नहीं है, लेकिन जिस रूप में यह इसबार मुझे मिला है वह सरकारी कायदे के जानकारों को भी अचम्भित करने वाला है। उत्तर प्रदेश सरकार की कोषागार सेवा (राज्य वित्त एवं लेखा सेवा, उ.प्र.) का एक अधिकारी किसी केन्द्रीय विश्वविद्यालय में अपनी सेवाएं देने का अवसर प्राप्त करे तो यह उसके लिए गौरव की बात है। दुर्लभ तो है ही।

मैं आन्तरिक सम्परीक्षा अधिकारी (Internal Audit Officer)  के पद पर अपनी सेवाएं देने के लिए महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा(महाराष्ट्र) में तीन वर्ष के लिए जा रहा हूँ। अपने मूल प्रोफ़ेशन से मेल खाता यह कार्य मुझे अच्छा तो लगेगा ही, लेकिन असली आकर्षण इस बात में है कि यहाँ हिन्दी भाषा को एक कामकाजी भाषा बनाने व विविध विषयों के ज्ञान भण्डार को हिन्दी में उपलब्ध कराने के जिस अनुष्ठान में यह विश्वविद्यालय लगा हुआ है उसमें कुछ विशेष योगदान करने का अवसर  मुझे भी मिलेगा। हिन्दी ब्लॉग जगत के असंख्य मित्रों से भेंट-मुलाकात और विचार गोष्ठियों में प्रतिभाग के अवसर भी मिलेंगे। विश्वविद्यालय में चिट्ठाकारी पर राष्ट्रीय स्तर का सम्मेलन तो प्रतिवर्ष होगा ही।

इलाहाबाद से मुझे पढ़ाई के दिनों से ही बहुत कुछ मिलता रहा है। नौकरी पाने की जद्दोजहद यहीं से शुरू हुई थी और पिछली बार जब मैने इस शहर से विदा ली थी तो उस समय भी नई नौकरी ज्वाइन करने के लिए ही जाना हुआ था। इस बार भी मैं पुनः एक नयी नौकरी शुरू करने जा रहा हूँ। प्रयाग की धरती को शत्‌-शत्‌ नमन।

मैं अपना घरेलू सामान ट्रक के हवाले करने के बाद अपनी कार से ही सपरिवार वर्धा की यात्रा करने का कार्यक्रम बना चुका हूँ। बाइस जून की सुबह हम चल पड़ेंगे वर्धा की ओर। शाम को जबलपुर पहुँचकर रात्रि विश्राम करने से पहले वहाँ के  चिठ्ठाकार मित्रों के साथ भेंट-मुलाकात का कार्यक्रम भी होगा। National Research Centre for Weed science, Mahrajpur Adhartal Jabalpur  के अतिथिगृह में हमें पहुँचना है। मुझे समीर जी ‘उड़न तश्तरी’ की नगरी में अपने दोस्तों से मुलाकात की बेसब्री प्रतीक्षा है।

अभी फिलहाल इतना ही। शेष बातें वर्धा पहुँचने के बाद होंगी। इलाहाबाद से कदाचित्‌ यह मेरी आखिरी पोस्ट होगी। अब वर्धा में स्थापित होने के बाद जल्द ही इसके आगे के अनुभव आप सबकी सेवा में प्रस्तुत करूंगा।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

बुधवार, 2 जून 2010

Brain-Drain is Better than Brain-in-Drain

 

मेरी पिछली पोस्ट पर प्रतिक्रिया देते हुए खुशदीप सहगल जी ने इन शब्दों को उद्धरित किया था। द इकोनॉमिस्ट अखबार में १० सितम्बर २००५ को छपी एक सर्वे रिपोर्ट का शीर्षक था- Higher Education, Wandering Scholars. इस अखबार ने सर्वे रिपोर्ट में भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री स्व. राजीव गान्धी का यह वक्तब्य उद्धरित किया था, ‘‘Better Brain Drain than Brain in the Drain” अर्थात्‌ प्रतिभा का पलायन प्रतिभा की बर्बादी से बेहतर है। इस मुद्दे पर आने वाली प्रतिक्रियाओं को देखने से मुझे ऐसा लगता है कि कुछ विन्दुओं पर अभी और चर्चा की जानी चाहिए।प्रतिभा पलायन या बर्बादी

वैसे तो सबने इस प्रश्न को महत्वपूर्ण और बहस के लायक माना है लेकिन इस क्रम में मैं सबसे पहले आदरणीय प्रवीण पांडेय जी के उठाये मुद्दों पर चर्चा करना चाहूँगा। उनकी टिप्पणी से इस बहस को एक सार्थक राह मिली है, और मुझे अपनी बात स्पष्‍ट करने का एक अवसर भी।

@क्या 17 वर्षीय युवा इतना समझदार होता है कि वह अपना भविष्य निर्धारण केवल अपनी अभिरुचियों के अनुसार कर सके ?

एक सत्रह वर्षीय युवा निश्चित रूप से बहुत परिपक्व (mature) फैसले नहीं ले पाता होगा, लेकिन यहाँ बात उच्च प्रतिभा के धनी ऐसे बच्चों की हो रही है जो सामान्य भीड़ से थोड़े अलग और बेहतर हैं। साथ ही उनके निर्णय का स्वरूप निर्धारित करने में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में हम सभी अर्थात्‌ उनके अभिभावक, शिक्षक, रिश्तेदार, मित्र, पत्र-पत्रिकाएं, मीडिया और शासन के नीति-निर्माता इत्यादि शामिल हैं। मैने तो यह सवाल किया ही था कि इस धाँधली(farce) में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में क्या हम सभी शामिल नहीं हैं? मेरा जवाब हाँ में है।

 
@क्या प्रशासनिक या प्रबन्धन सेवाओं में केवल उन लोगों को ही आना चाहिये जिन्हें इन्जीनियरिंग व चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में कुछ भी ज्ञान नहीं ?

मेरा यह आशय कदापि नहीं था। बल्कि प्रशासनिक या प्रबन्धन सेवाओं में इन्जीनियरिंग एवं चिकित्सा सहित जीवविज्ञान, अर्थशास्त्र, कानून, इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र, दर्शन, धर्म, संस्कृति, मनोविज्ञान, समाज, खेल-कूद आदि नाना प्रकार के विषयों का ‘सामान्य ज्ञान’ होना चाहिए। किसी एक विषय की विशेषज्ञता का वहाँ कोई काम नहीं है। यू.पी.एस.सी. द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम इस ओर पर्याप्त संकेत देता है। आयोग द्वारा इस दिशा में निरन्तर परिमार्जन का कार्य भी होता रहता है।

  
@क्या विदेश के कुछ संस्थानों को छोड़कर विशेष शोध का कार्य कहीं होता है?

बिल्कुल नहीं होता। यही तो हमारी पीड़ा है। मैं मानता हूँ कि विकसित और विकासशील देशों के बीच जो मौलिक अन्तर है वह अन्य कारकों के साथ इन उत्कृष्ट शोध संस्थानों द्वारा भी पैदा किया जाता है। भारत में विश्वस्तरीय शोध क्यों नहीं कराये जा सकते? किसने रोका है? केवल हमारी लापरवाही और अनियोजित नीतियाँ ही इसके लिए जिम्मेदार है।

@क्या सारी की सारी तकनीकी सेवायें तीन या चार वर्ष बाद ही प्रबन्धन में प्रवृत्त नहीं हो जाती हैं?

तकनीकी सेवाओं का प्रबन्धन बिल्कुल अलग कौशल की मांग करता है। उसे कोई गैर तकनीकी व्यक्ति नहीं कर सकता। लेकिन प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा जो प्रबन्धन किया जाता है उसमें किसी एक विषय की विशेषज्ञता जरूरी नहीं होती बल्कि प्रबन्धन के सामान्य सिद्धान्त प्रयुक्त होते हैं। इनका शिक्षण-प्रशिक्षण प्रत्येक नौकरशाह को कराया जाता है। एक विशिष्ट विषय का विशेषज्ञ अपने क्षेत्र में उच्च स्तर पर कुशल प्रबन्धक तो हो सकता है लेकिन सामान्य प्रशासक के रूप में उसकी विषय विशेषज्ञता निष्प्रयोज्य साबित होती है।


@देश की प्रतिभा देश में रहे क्या इस पर हमें सन्तोष नहीं होना चाहिये?

प्रतिभा को देश में रोके रखकर यदि उसका सदुपयोग नहीं करना है तो बेहतर है कि वो बाहर जाकर अनुकूल वातावरण पा ले और अखिल विश्व के लाभार्थ कुछ कर सके। इस सम्बन्ध में राजीव गान्धी की उपरोक्त उक्ति मुझे ठीक लगती है।

@समाज का व्यक्ति पर व व्यक्ति का समाज पर क्या ऋण है, मात्र धन में व्यक्त कर पाना कठिन है।

पूरी तरह सहमत हूँ। बल्कि कठिन नहीं असम्भव मानता हूँ इस अमूल्य ऋण के मूल्यांकन को। किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि इस ऋण को मान्यता ही न दी जाय। पिता द्वारा अपने पुत्र का पालन-पोषण किया जाना एक अमूल्य ऋण है। इसे पुत्र द्वारा धन देकर नहीं चुकाया जा सकता। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि पुत्र अपने पिता के प्रति कर्तव्यों को भूल जाय या यह कहकर चलता बने कि पिता ने अपना प्राकृतिक दायित्व पूरा किया था। किसी बालक की परवरिश परिवार के साथ एक खास समाज और देश के अन्तर्गत भी होती है। उसके व्यक्तित्व के निर्माण में इन सबका योगदान होता है। अपनी प्रतिभा के बल पर जब वह आगे बढ़ता है तो उसकी विकास प्रक्रिया में यह सब भी शामिल होते हैं। सक्षम होने पर उसे निश्चित रूप से ऐसे कार्य करने चाहिए जो उसके समाज और देश की उन्नति में कारगर योगदान कर सके।

मेरा आशय तो यह है कि कदाचित्‌ हम अपने देश की सर्वोच्च मेधा को देश और समाज के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्यों की ओर आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं। मुझे लगता है कि देश की नौकरशाही में सबसे अधिक बुद्धिमान और मेहनती युवक इसलिए नहीं आकर्षित हो रहे कि वे उस पद पर जाकर देश के लिए सबसे अधिक कॉन्ट्रिब्यूट करने का अवसर पाएंगे बल्कि कुछ दूसरा ही आकर्षण उन्हें वहा खींच कर ले जा रहा है। इसकी और व्याख्या शायद जरूरी नहीं है।

बेचैन आत्मा जी ने अपनी टिप्पणी में लिखा है कि सवाल सही है लेकिन समाधान क्या हो..?
...इसके लिए उन्हें क्या करना चाहिए..? माता-पिता के क्या कर्तव्य हैं..? इस लेख में इन सब बातों की चर्चा होती तो और भी अच्छा होता।

आज की तारीख़ में इसका समाधान बहुत आसान नहीं है लेकिन यह असम्भव भी नहीं है। भारत की नौकरशाही का जो स्वरूप आज दिखायी देता है उसकी नींव अंग्रेजी शासन काल में पड़ी थी। ब्रिटिश शासकों की प्राथमिकताएं आज की जरूरतों से भिन्न थीं। उन्हें एक गुलाम देश पर राज करते हुए अपनी तिजोरियाँ भरनी थीं। विरोध के प्रत्येक स्वर को दबाना था। भारत का आर्थिक शोषण और ब्रिटिश हितों का पोषण करना था। इसलिए उन्होंने नौकरशाही का एक ऐसा तंत्र खड़ा किया जो कठोरता से फैसले लेता रहे और मानवाधिकारों की परवाह किए बिना प्रचलित अंग्रेजी कानूनो को अमल में लाकर इंग्लैण्ड की राजगद्दी के हितो का अधिकाधिक पोषण करे। सामाजिक न्याय, लोकतांत्रिक मूल्य, मानवाधिकार, नागरिकों के मौलिक अधिकार, लैंगिक समानता, सामाजिक बुराइयों का उन्मूलन, देश की आर्थिक उन्नति, सामाजिक सौहार्द, सबको शिक्षा तथा स्वास्थ्य इत्यादि की बातें उनकी प्राथमिकताओं में नहीं थी। इसलिए उन्होंने ‘माई-बाप सरकार’ की छवि प्रस्तुत करने वाली नौकरशाही विकसित की।

देश के स्‍वतंत्र होने के बाद एक लोकतांत्रिक, संप्रभु गणराज्य की स्थापना हुई। देश में निर्मित संविधान का शासन लागू हुआ। बाद में हमारी उद्देशिका में समाजवादी और पंथनिरपेक्ष जैसे मूल्य भी जोड़े गये। हमारे देश की नौकरशाही की भूमिका बिलकुल बदल गयी। अब प्रशासनिक ढाँचा देश के आर्थिक संसाधनों के शोषण और गरीब व असहाय जनता पर राज करने के लिए नहीं बल्कि देश को उन्नति के पथ पर आगे ले जाने के लिए, और इस हेतु जरूरी अवयवों के कुशल प्रबन्धन और विभिन्न सेवाओं व सुविधाओं को आम जनता की पहुँच तक ले जाने के लिए सुकारक (facilitator) की भूमिका के निर्वाह के लिए तैयार करना चाहिए था।

एक ऐसा तंत्र जहाँ देश के वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशालाओं में विश्वस्तरीय शोध कर सकें, इन्जीनियर उत्कृष्ट परियोजनाओं का निर्माण कर उनका क्रियान्वयन करा सकें, विकास को बढ़ावा देने वाले उद्योग स्थापित करा सकें, चिकित्सा वैज्ञानिक देश और दुनिया में रोज पैदा होती नयी बीमारियों से लड़ने के लिए गहन शोध और अनुसंधान द्वारा नयी चिकित्सा तकनीकों और दवाओं की खोज कर सकें, रक्षा वैज्ञानिक देश के भीतर ही हर प्रकार के बाहरी खतरों से लड़ने के लिए आवश्यक साजो-सामान और आयुध तैयार कर सकें, अर्थ शास्त्री देश के हितों के अनुसार समुचित नीतियाँ बना सकें, कृषि वैज्ञानिक इस कृषि प्रधान देश की जरूरतों के मुताबिक पर्याप्त मात्रा में उन्नत बीज, उर्वरक और रसायन बना सकें तथा नयी कृषि तकनीकों का आविष्कार कर उसके उपयोग को सर्वसुलभ बनाने का रास्ता दिखा सकें। देश में विश्वस्तरीय शिक्षा संस्थान और विश्वविद्यालय संचालित हों जिनमें मेधावी छात्रों को पढ़ाने के लिए उच्च कोटि के शिक्षक उपलब्ध हों।

ऐसी स्थिति तभी आ सकती है जब हम एक इन्जीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक, शिक्षक,  के कार्य को अधिक महत्वपूर्ण और सम्मानित मानते हुए अपने पाल्य को उस दिशा में कैरियर बनाने को प्रेरित कर सकें। व्यक्तिगत स्तर पर अधिकाधिक धनोपार्जन को सफलता की कसौटी मानने वाली मानसिकता से बाहर आकर जीवन की नैतिक गुणवत्ता (moral quality of life) को महत्व देना होगा। यह सब अचानक नहीं होगा। हमें इसकी आदत डालनी होगी। हम जितना भी कर सकते हैं इस सन्देश को फैलाना होगा। हाथ पर हाथ धरे बैठने से अच्छा है कि हम देश में पैदा होने वाली प्रतिभाओं की पहचान कर उनकी मेधा का उचित निवेश कराने की दिशा में जो बन पड़े वह करें। राजनेताओं और वर्तमान नीति-निर्माता नौकरशाहों से उम्मीद करना तार्किक नहीं लगता। अपने हितों का संरक्षण सभी करते हैं। वे भी हर हाल में यही करना चाहेंगे।

आदरणीय अरविन्द मिश्र जी जैसे लोग जब यह कहते हैं कि  “बात आपकी लाख पते की है मगर सुनने वाला कौन है?” तो मैं पूछना चाहता हूँ कि आप स्वयं एक सरकारी महकमें में जो नौकरी कर रहे हैं उसे चलाने के लिए साइंस ब्लॉग खोलना जरूरी तो नहीं था, न ही वैज्ञानिक कहानियाँ लिखना। दुनिया भर के मुद्दों पर बहस करना भी आपकी आजीविका और आय में कोई परिवर्तन करते नहीं दीखते। फिर भी ऐसा करके आप मन में एक सन्तुष्टि का अनुभव करते होंगे। इसका कारण यह है कि वैज्ञानिक विषयों की महत्ता को रेखांकित करना अपने आप में एक साध्य है। कोई तो जरूर सुनेगा… बस आशावादी बने रहिए।

इस चर्चा में उपरोक्त मित्रों के अतिरिक्त  सर्व श्री जय कुमार झा (Honesty Project Democracy), सतीश पंचम, डॉ. दिनेशराय द्विवेदी, सुरेश चिपलूनकर, राजेन्द्र मीणा, संजय शर्मा, एम. वर्मा, रश्मि रविजा, राज भाटिया, हर्षकान्त त्रिपाठी ‘पवन’, गिरिजेश राव, काजल कुमार, मीनाक्षी, व राम त्यागी जी ने अपने सकारात्मक विचार रखे जिससे इस मुद्दे पर एक राय बनती नजर आयी। आप सबको बहुत-बहुत धन्यवाद।

इसके अतिरिक्त समीरलाल जी ‘उड़न तश्तरी’, दीपक मशाल, सुलभ जायसवालमहफ़ूज अली ने भी मुद्दे की गम्भीरता को समझा इसलिए मैं उनका आभारी हूँ।

पुछल्ला: जब देश की सर्वोच्च मेधा नौकरशाही में लगी हुई है तो भी हमारा डेलीवरी सिस्टम इतना खराब क्यों है? इनके होने के बावजूद यदि इसे खराब ही रहना है तो इन विशेषज्ञों को अपने मौलिक कार्य पर वापस क्यों न भेंज दिया जाय?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)