सीबीआई अदालत द्वारा आज बाबा #रामरहीम को बलात्कार का दोषी पाया गया है - दो साध्वी
स्त्रियों के साथ बलात्कार का दोषी। लेकिन इनके भक्तों को लग रहा है कि उनके महान ‘पिताजी’ के साथ अदालत ने अन्याय कर दिया है। आगजनी,
तोड़-फोड़ और लोगों की हत्या का क्रम शुरू हो गया है। राज्य
सरकार इन आततायी गुन्डों के उन्माद को सम्हाल पाने में असफल सिद्ध हो रही है। अपने
धर्मगुरू को जेल जाते हुए देखना इनके लिए खुलेआम कानून का उल्लंघन करने का
लाइसेन्स देता हुआ दिख रहा है। सरकारी बसें, रेलवे स्टेशन, मेट्रो, आदि
जनसंपत्तियों पर और मीडिया के ओबी वाहन, कैमरे आदि तोड़े और आग के हवाले किये जा
रहे हैं।
लोग ऐसी सनक कैसे पाल लेते हैं? धार्मिक उन्माद ऐसा कैसे हो जाता है कि सारा विवेक मर जाय?
आखिर ये बाबा लोग कौन सी घुट्टी पिला देते हैं इन मूर्ख
भक्तों को? आसाराम बापू और रामरहीम जैसे धर्मगुरू कानून के हाथों नंगे हो जाते हैं लेकिन
इन भक्तों के आँख का परदा क्यों नहीं हट पाता?
कल ही हरितालिका तीज का भीषण निर्जला व्रत वाला त्यौहार बीता है। इसमें भी
स्त्रियाँ अन्न-जल त्यागकर अपने सुहाग की रक्षा का अनुष्ठान करती हैं। इसके पीछे
जो कथा प्रचलित है उसको पढ़कर कोई भी तार्किक और विवेकशील व्यक्ति माथा पकड़ लेगा।
धर्म के ठेकेदारों द्वारा एक अज्ञात भय हमारे मानस में इस प्रकार घुसा दिया जाता
है कि हम आस्था के नाम पर कुछ भी ऊल-जुलूल आँख मूँदकर करते चले जाते हैं।
ईश्वर ने मनुष्य को इतना घटिया जीव तो नहीं बनाया होगा। फ़िर ये लोचा कैसे आ जाता
है?
दर्शनशास्त्र की किताबों मे “अशुभ की समस्या- Problem of
Evil" पढ़ायी जाती
है। सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्वज्ञाता ईश्वर के होते हुए भी इस असार संसार
में इतनी मारकाट मची हुई है। चारो ओर उन्माद और अविवेक का नंगा नाच हो रहा है।
मूर्ख और पापी लोग अपने धत्कर्म बिना किसी अंकुश के बदस्तूर करते जा रहे हैं।
पूरी दुनिया धार्मिक कट्टरता की आग की लपटों में घिरती जा रही है। सत्यमेव जयते का
पाठ धूल खा रहा है। लगता है भगवान अभी पाप का घड़ा भरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। “यदा-यदा
हि धर्मस्य ग्लानिर्भवतु भारत...” का क्रान्तिक बिन्दु (Threshold Point) अभी आया नहीं लगता है। अभी
निर्दोष, मासूम जानों की आहुति लेने का दौर चलता जा रहा है।
कुछ लोग कहते हैं कि धर्म और आस्था, भक्त और भगवान, पन्थ और संप्रदाय, यह सब
मनुष्य की बनायी चीजें हैं। ये सब इहलौकिक धारणाएं है जिसे हम मनुष्यों ने ही
बनायी है। इसके लिए किसी अन्य पारलौकिक सत्ता को दोष देना ठीक नहीं है। लेकिन सारा
बवाल तो उस पारलौकिक सत्ता के चक्कर में ही हो रहा है जो बड़ा दयालु है, सबकुछ
जानने वाला है और सर्वशक्तिमान है। धर्मभीरु जनता उसी के डर से तो ऐसा कर रही है।
रे मनुष्य, तुम्हारा भगवान ऐसा क्यों है जो
तुम्हें खून बहाने और तमाम अमानुषिक कार्य करने की छूट देता है? बल्कि मानो वही इस
सबके लिए प्रेरित कर रहा है। क्यों वह तुम्हारी बुद्धि और विवेक का अपहरण कर लेता
है? ये कैसी दयालुता, कैसी शक्ति, कैसी दिव्यदृष्टि है उसकी? धर्म में भयतत्व न हो तो यह सब भयंकर कुकृत्य भी न हों। कुछ तो लोचा है इस
निर्मिती में। इस समस्या का समाधान मनुष्य जाति अबतक नहीं खोज पायी है।
धर्म में भयतत्व को एक बार मैंने हरितालिका व्रतकथा में देखा था। कल ही बीता है यह निर्जला उपवास का व्रत। इसी मौके पर आठ साल पहले लिखी एक पोस्ट याद आ गयी है- हरितालिका व्रत कथा में भयतत्व। फ़ुर्सत से पढ़िये और सोचिए...। इस समस्या का कोई समाधान हो तो जरूर बाँटिए...
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
www.satyarthmitra.com
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आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन महिला असामनता दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है।कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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