हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

शनिवार, 17 सितंबर 2022

सहारनपुर डेटलाइन प्रारंभ

मित्रों, मुझे सहारनपुर में नई तैनाती के पद पर कार्यभार ग्रहण किए हुए तीन महीने हो गए। लेकिन इन तीन महीनों पर ही जैसे ग्रहण लगा हुआ था जो अब छँटता दिख रहा है। माँ शाकंभरी देवी के पवित्र तीर्थ क्षेत्र में उन्हीं के नाम से राज्य सरकार द्वारा नव-स्थापित विश्वविद्यालय में प्रथम अधिकारी के रूप में पहले कुलपति जी, फिर कुलसचिव व उसके बाद वित्त अधिकारी के रूप में मेरी तैनाती हुई है। हम तीन पूर्ण कालिक अधिकारियों के अतिरिक्त जो लोग भी इस विश्वविद्यालय के लिए काम कर रहे हैं वे सभी या तो उधार के हैं, या बेगार के हैं या किसी ठेकेदार के हैं। सभी इस उम्मीद में हैं कि जल्द ही यह ग्रहण कटेगा, उम्मीद की किरण फूटेगी और शिक्षा के प्रसार का यह सूरज चमकेगा। माननीय मुख्यमंत्री जी की विशेष अभिरुचि इस विश्वविद्यालय को एक भव्य और उत्कृष्ट अध्ययन केंद्र बनाने में है। बेहद प्राथमिकता के साथ इस विश्वविद्यालय कि प्रगति समीक्षा निरंतर की जा रही है और इसके निर्माण व विकास के कार्य को गति प्रदान करने का भरपूर प्रयास किया जा रहा है।

विश्वविद्यालय की सर्वोच्च नियामक संस्था है - इसकी कार्यपरिषद (Executive Council) और वित्तीय व्यवस्था संबंधी निर्णय लेती है - वित्त समिति (Finance Committee) जिसकी संस्तुतियों का अनुमोदन कार्यपरिषद करती है। लंबी प्रतीक्षा के बाद कार्य परिषद का गठन होते ही इसकी प्रथम बैठक का कार्यक्रम तय हुआ और गत 14 सितंबर 2022 को जब सबलोग अपने-अपने तरीके से हिन्दी-दिवस का जश्न मना रहे थे तब हम लोग कार्य-परिषद से विश्वविद्यालय के लिए बजट स्वीकृत करा रहे थे और दूसरे तमाम नीतिगत फैसलों पर मुहर लगवा रहे थे। इस बैठक के सम्पन्न होने के साथ ही अब महत्वपूर्ण निर्णयों को क्रियान्वित करने का समय आ गया है। विश्वविद्यालय के लिए कार्मिक प्रबंधन से लेकर सम्बद्ध महाविद्यालयों में प्रवेश प्रक्रिया का संचालन, और परीक्षा कराने के लिए ली गई उधारी और बेगारी का भुगतान करने का समय भी आ गया है। मतलब अब थोड़ा व्यस्त रहने का समय है।

मेरा निजी अनुभव है कि लेखन या कोई भी रचनात्मक कार्य बिल्कुल बेकारी के समय करने का मन ही नहीं होता है। मैं अगर किसी सार्थक काम के अभाव में खाली बैठा रहता हूँ तो कोई शौकिया काम भी करने का उत्साह नहीं रह जाता है। इस दौरान मैं अपने ब्लॉग पर तो प्रायः निष्क्रिय रहा ही चटपट स्टैटस वाला फेसबुक भी अपडेट करने में मुझे आलस्य घेरे रहा है। नियमित योगासन, प्राणायाम और ध्यान की अपनी ऑनलाइन कक्षा की झलकियां तथा साइकिल से सैर के रोचक अनुभव भी आपसे साझा करने में कोताही हुई है। इस नई जगह पर कितने ही नए अनुभव हुए जिसपर मजेदार पोस्ट लिखी जा सकती थी। लेकिन पता नहीं क्यों मेरा मन कुंजी-पटल से दूर ही रहा। माँ शाकंभरी की शक्ति-पीठ का प्रसिद्ध मंदिर वह प्रथम स्थान था जहां मैं ज्वाइन करने के बाद दर्शन के लिए गया था। उसकी झलक तो दिखानी ही थी। सहारनपुर में एक किराये का घर खोजने का अनुभव, घर मिल जाने के बाद उसमें गृहस्थी बसाने का अनुभव, भोजन बनाने वाला या वाली को ढूँढने और अपने मन-माफिक भोजन पाने-न पाने के संघर्ष का अनुभव, पास के सुरम्य मंदिर प्रांगण के हरे-भरे लॉन में नियमित योगाभ्यास व पैरामाउंट ट्यूलिप कॉलोनी की सड़कों व पार्कों में साइकिल चलाते हुए बारिश में भींगने का अनुभव। क्या कुछ नहीं था इस अञ्चल में पसरा हुआ मेरे लिए बिल्कुल तारों-ताजा! लेकिन पता नहीं क्यों खलिहर बैठे रहने का स्थायी भाव मेरे भीतर तक इतनी गहरी पैठ बना चुका था कि मैं उसी का रसास्वादन करने लगा था। निठल्लेपन का सुख कैसा होता है इसकी थोड़ी अनुभूति मुझे इस दौर में हुई है।

पिछली तैनाती प्रयागराज में हुई तो लगा था कि ब्लॉगरी की यात्रा जहां से शुरू हुई थी वहाँ पहुंचकर सबकुछ फिरसे लहलहा उठेगा लेकिन करोना प्रतिबंधों से बाहर निकलकर दुबारा सामान्य दिनचर्या बहाल करते हुए आप सबसे सक्रियता से जुडने की तैयारी हो ही रही थी कि सरकार ने मेरी पदोन्नति कर दी और एक नए घोषित विश्वविद्यालय को धरातल पर उतारे जाने की प्रक्रिया का वित्तीय पक्ष सम्हालने की चुनौती देकर मुझे अपने परिवार से बहुत दूर और पैतृक गाँव से सर्वाधिक संभव दूरी के स्थान पर भेज दिया। आज्ञा शिरोधार्य करनी ही थी।

अब जबकि इस नए शहर में अपनी गृहस्थी प्रायः जम गई है और विश्वविद्यालय भी अपना आकार लेने लगा है तब एक बार फिर कुंजी-पटल (keyboard) से यारी हो जाने का उत्साह हिलोरें ले रहा है। इस हरे-भरे इलाके में घुमक्कड़ी करने और उसे लिपिबद्ध करने की अपार संभावनाएं हैं। कुछ नए अनुभव हो रहे हैं जिन्हें आप तक पहुंचाने का मन है। कोशिश होगी यहाँ कुछ नियमित आने की और अन्तर्जाल पर पुराने मित्रों से दुबारा जुड़ने की। आशा है आप सबका साथ मिलता ही रहेगा।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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शनिवार, 4 जून 2022

ऐतिहासिक वटवृक्ष की छाया में योग-अभ्यास

282685911_10227128851037219_5303430858485102274_nइलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज के कला संकाय की सड़कों व पगडंडियों पर #साइकिल_से_सैर करने व मच्छरों के साये में योगकक्षा में प्रतिभाग करने का पहला दिन जैसे हड़बड़ी में गड़बड़ी वाले अनुभव दे गया उसका किस्सा बता चुका हूँ। इस अनुभव के आधार पर मैंने अगले दिन की तैयारी में ध्यान रखा कि घर से थोड़ा और पहले निकल लूँ ताकि ऑनलाइन योगकक्षा के प्रारंभ होने से पहले ही उपयुक्त स्थान पर पहुँचकर अपना आसन जमा लूँ। परिसर का वह प्रवेश द्वार भी चुनना था जिसपर किसी बाड़ की बाधा का सामना किए बिना साइकिल सहित अंदर जा सकूँ। परिसर के पूरब की ओर खुलने वाला यह गेट डब्ल्यू.एच. की ओर से करीब पड़ता है। मुझे तो यहाँ बिल्कुल विपरीत दिशा से पहुँचना था। मच्छरों के संभावित हमले से बचाव के लिए मैंने पूरे पैर को ढंकने वाला लोवर और कॉलर वाली टी-शर्ट पहन लिया, पैरों में मोजे डाल लिए और शेष खुली त्वचा पर ऑडोमॉस क्रीम का लेपन भी कर लिया।

इस प्रकार पूर्व नियोजित तैयारी के साथ मैं ठीक समय पर उस विशाल वट-वृक्ष के नीचे पहुँच गया। मैंने जब अपनी साइकिल को उसके चौकोर चबूतरे से टिकाकर खड़ा किया तो मन में कुछ ऐसे भाव पैदा हो गए कि फौरन साइकिल को अलग हटाकर उसकी लंगड़ी के सहारे खड़ा कर दिया। दोनों हाथ अनायास प्रणाम की मुद्रा में जुड़ गए। 286088687_10227128850797213_2148969932489192006_n

सूर्य देवता ने अभी क्षितिज से झाँकना प्रारम्भ ही किया था। इसलिए इस ऊँचे और विशाल घेरे वाले पेड़ की घनी छाया हरी दूब से ढँके मैदान पर दूर-दूर तक फैली हुई थी। इस सुरम्य वातावरण में कुछ विद्यार्थी अपने-अपने पिठ्ठू बैग के साथ एकल या समूह में बैठकर अध्ययन रत थे। कुछ लड़के लड़कियाँ व्यायाम भी कर रहे थे। कुछ बड़ी उम्र के स्त्री-पुरुष किनारे-किनारे टहलते हुए बातें कर रहे थे।

मैंने इस वट वृक्ष के विशाल तने के ठीक सामने पूर्वाभिमुख होकर अपना आसन जमा लिया और मोबाइल खोलकर गूगल-मीट एप्प पर 'आरोग्यम ध्यान योग केंद्र आगरा' की ऑनलाइन योगकक्षा में लॉगिन करके मोबाइल को सामने स्टैंड पर स्थिर रख दिया। इसके बाद योग-गुरू डॉ. आर.के.एस. राठौर जी के निर्देशानुसार क्रमशः मंत्रोच्चार, सूक्ष्म व्यायाम, सूर्यनमस्कार, योगासन, प्राणायाम व ध्यान की क्रिया में सन्नद्ध हो गया। प्रतिदिन किये जाने वाले आसनों के साथ इस दिन डॉक्टर साहब रीढ़रज्जु की काल्पनिक रेखा पर नीचे से ऊपर स्थित सात चक्रों को संतुलित कराने वाले आसनों का अभ्यास करा रहे थे।285748806_10227128845117071_8397330393272350840_n

मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा व सहस्त्रार नामक सातो चक्रों की क्रमिक स्थिति, इन चक्रों का आकार व रंग-रूप, इनमें पंखुड़ियों की संख्या, इनके अंतर्निहित तत्व- क्रमशः पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, प्रकाश आदि और इनसे संबंधित बीज मंत्रों के उच्चारण का परिचय देते हुए सातो चक्रों के संतुलन के लिए अलग-अलग सात आसन कराए गए।

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मूलाधर चक्र के संतुलन के लिए सेतुबंध आसन, स्वाधिष्ठान चक्र के लिए भुजंगासन, मणिपुर चक्र के लिए धनुरासन, अनाहत चक्र के लिए उष्ट्रासन, विशुद्धि चक्र के लिए मत्स्यासन, आज्ञा चक्र के लिए योगमुद्रा व सहस्त्रार चक्र के लिए यथा-सामर्थ्य शीर्षासन या अर्द्ध शीर्षासन का अभ्यास कराते हुए उन्होंने इन चक्रों के संतुलन से प्राप्त होने वाले लाभ भी बताए। ये चक्र क्रमशः अच्छा स्वास्थ्य (health), प्रसन्नता (happiness), शक्ति (power), करुणा (compassion), वाक्-कला (communication), अन्तःप्रज्ञा (intuition), व परमानंद (bliss) प्रदान करने वाले हैं।

सहस्त्रार चक्र को सभी तत्वों से परे बताया गया है जिसमें एक हजार पंखुड़ियाँ होती हैं। यह सिर के सबसे ऊपरी भाग में ब्रह्मरंध्र के साथ अवस्थित है। इसके संतुलित व जागृत होने पर व्यक्ति को परमानंद की प्राप्ति होती है। इसके लिए शीर्षासन का अभ्यास सर्वोत्तम बताया गया है। किंतु यदि शरीर इसकी अनुमति नहीं दे तो अर्द्ध शीर्षासन या सर्वांगासन भी किया जा सकता है।

उपर्युक्त आसनों द्वारा इन सात चक्रों को संतुलित करने के बाद इन्हें जागृत करने का अभ्यास भी बताया गया। इसके लिए ध्यानात्मक आसन में बैठकर दोनों हाथों से क्रमशः सात प्रकार की अलग-अलग मुद्राएं बनानी होती हैं और उनके बीजाक्षर का जप करना होता है। क्रमशः पृथ्वी मुद्रा, वरुण मुद्रा, अग्नि मुद्रा, वायु मुद्रा, आकाश मुद्रा, शंख मुद्रा व षडमुखी मुद्रा द्वारा इन सात चक्रों का जागरण होता है। इसप्रकार शरीर रूपी यंत्र के साथ मंत्र और तंत्र के सम्मिलित प्रयोग द्वारा व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की परिकल्पना को साकार करने का साप्ताहिक प्रयास इस विशेष दिन की कक्षा में किया जाता है। इसके पहले वाले दिन रीढ़ की समस्याओं से मुक्ति पाकर इसे मजबूत करने वाले आसन बताए गए थे।

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इस योगकक्षा में जितने साधक सम्मिलित होते हैं उनमें कुछ लोग ही शीर्षासन का अभ्यास करते हैं। उम्र व शारीरिक सीमा के कारण शेष लोगों को अर्द्ध शीर्षासन या सर्वांगासन की ही अनुमति दी जाती है। मैंने जब इस वटवृक्ष के समक्ष शीर्षासन की तैयारी की तो इस ऐतिहासिक देशकाल व वातावरण के अविस्मरणीय क्षण को सहेजने का मन हुआ। थोड़ी दूर पर व्यायाम कर रहे एक विद्यार्थी को मैंने इशारे से बुलाया और उन्हें मोबाइल कैमरा थमाते हुए अनुरोध किया कि मेरे शीर्षासन की तस्वीर खींच लें। उन्होंने सहर्ष मुझे उपकृत किया। मेरी अपेक्षा से भी आगे जाकर क्रमवार अनेक मुद्राओं व अनेक कोणों से मेरे शीर्षासन की अच्छी फोटुएं खींच डाली। इसके लिए मैने हृदय से आभार व्यक्त किया। इसलिए भी कि वे चित्र कदाचित् यहाँ पहुँचकर अनेक मित्रों की प्रसन्नता बढ़ा देंगे।

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मैंने आप लोगों के लिए उस स्थल के जो चित्र सहेज लिए थे उनमें से कुछ यहाँ छोड़ जाता हूँ। आनंद लीजिए। शेष किस्सा यूँ ही समय-समय पर जारी रहेगा।

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(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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गुरुवार, 2 जून 2022

विश्वविद्यालय परिसर में साइकिल से सैर व योग-साधना

#साइकिल_से_सैर #योग_साधना

285542573_10227119878892921_8071141837975921966_n (1)    इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज के कला संकाय का प्रांगण मेरे जीवन की उपलब्धियों के लिए एक ग्रीन हाउस की तरह रहा है। ग्रामीण पृष्ठभूमि की स्कूली शिक्षा के बाद जब मैं स्नातक बनने इस प्रांगण में आया तबसे लेकर उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा एक राजपत्रित अधिकारी के रूप में चुने जाने तक की यात्रा का संवाहक यह प्रांगण ही रहा है। इसलिए इस परिसर से भावनात्मक लगाव स्वाभाविक है। इसीलिए बारह साल के अंतराल पर जब प्रयागराज में दूसरी बार तैनाती मिली तो मन में अतिरिक्त उत्साह भर गया।   

कल मैंने योगासन-प्राणायाम-ध्यान के अपने दैनिक कार्यक्रम को प्रातःकालीन #साइकिल_से_सैर के शौक के साथ जोड़कर चलने की योजना बनायी। योग की चटाई और दरी-चादर लपेटकर मैंने साइकिल के पीछे दबाया और विश्वविद्यालय की ओर चल पड़ा। विज्ञान संकाय का मुख्य द्वार बंद मिला। एक आदमी ने बताया कि इसके भीतर का स्टेडियम दो-तीन साल पहले बन्द कर दिया गया है। मैंने साइकिल मोड़ी और यूनिवर्सिटी रोड पर चलता हुआ लाल पद्मधर की प्रतिमा वाले गेट से कला संकाय के परिसर में प्रवेश कर गया। 'गूगल मीट' पर ऑनलाइन योग-कक्षा प्रारम्भ होने का समय हो चुका था इसलिए मैं जल्दी में था। 285702768_10227119894053300_3024193389550851120_n

परिसर के भीतर जाने के इस रास्ते पर लोहे की पाइप से ऐसी बाड़ लगी है जिसे पैदल ही पार किया जा सकता है। लेकिन सुबह के निर्जन सन्नाटे में एक किनारे ऊंघ रहे सिक्योरिटी गार्ड की नज़र बचाकर मैंने उस बाड़ के नीचे से आड़ा-तिरछा करके साइकिल निकाल ली। अब आसन बिछाने के लिए सर्वोत्तम स्थान चुनने के लिए समय नहीं था। मैंने दर्शनशास्त्र विभाग के सामने वाले लॉन में ही एक किनारे साइकिल खड़ी की और गोल्डमोहर के नीचे फौरन आसन बिछा लिया। जब मोबाइल एप्प पर मैंने लॉगिन किया तो योग-गुरु डॉ.आर.के.एस. राठौर मंत्रोच्चार आदि पूरा कराकर सूक्ष्म व्यायाम प्रारम्भ करा चुके थे। मैंने जैसे-तैसे उनकी रफ्तार से अपनी गति मिलाने का प्रयास तो किया लेकिन एक बाधा आ पड़ी। जिससे डरते थे वही बात हो गयी।

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उस लॉन की घास और आवारा झाड़ियों की कटाई-छटाई हाल ही में हुई थी। जिसमें पलने वाले मच्छरों की खेप मानो खार खाए बैठी थी। मुझ अकिंचन को वहाँ पाकर वे सब मुझपर टूट ही पड़े। मैंने उमस भरी गर्मी को देखते हुए हाफ पैंट और छोटी बांह की वी-गले वाली हल्की टी-शर्ट पहन रखी थी। हवा का नामोनिशान नहीं था। लंबी-लंबी टांगों व सूंड़ वाले काले-काले मच्छरों ने मेरे कानों में संगीत सुनाते हुए ऐलानिया युद्ध शुरू कर दिया था। अब मुझे समझ में आया कि उस लॉन में मेरे अलावा उपस्थित जो एकमात्र सज्जन अखबार लेकर आये थे वे बेंच पर बैठने के बजाय अखबार टहलते हुए क्यों पढ़ रहे थे।    

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यहाँ बताता चलूँ कि आगरा में अपनी तैनाती होने पर अपने आवास के निकट जिस पार्क में मैंने योगासन का अभ्यास डॉ. राठौर के सान्निध्य में प्रारम्भ किया था उसी पार्क से वे अब भी हम जैसे बिछड़े हुए दूरस्थ लोगों का ऑनलाइन निर्देशन करते रहते हैं। पार्क में उनके प्रत्यक्ष फॉलोवर्स की संख्या तो अच्छी खासी है ही, उनकी निःशुल्क, निःस्वार्थ व निश्चित समय से प्रारंभ होने वाली निर्बाध व निरंतर कक्षा का ऑनलाइन लाभ उठाने वाले भी कम नहीं हैं। हाल ही में प्रकाशित उनकी पुस्तक "योग के प्रयोग" की चर्चा मैं पहले भी कर चुका हूँ। कॅरोना के आतप से अपने-अपने घरों में बंद रहने को मजबूर लोगों के स्वास्थ्य को योग के माध्यम से अक्षुण्ण रखने का सफल प्रयास डॉक्टर साहब ने ऑनलाइन कक्षाओं के माध्यम से प्रारंभ किया था जो बदस्तूर जारी है।

खैर, मच्छरों से युद्ध का मोर्चा सम्हालते हुए मैंने योगासन, प्राणायाम व ध्यान का क्रम पसीना बहाते हुए पूरा किया। इस दौरान मेरे हाथों जितने मच्छर काल-कवलित हुए उनकी संख्या गिनी जाती तो मुझे आसानी से “तीसमार खां” की उपाधि मिल जाती। लेकिन मेरा उस ओर कोई झुकाव नहीं था।     

286060409_10227119901373483_7509108661807860114_nमैंने इस बीच यह भी देखा कि अनेक उम्रदराज स्त्री-पुरुष व किशोरवय छात्र-छात्राएं प्रांगण में घूमने-टहलने आते रहे। कोई पूजा के फूल तलाशता मिला तो कोई सपरिवार कुत्ता भी टहलाता-बहलाता दिखायी दिया। जब एक दो सुरक्षा कर्मी बाइक दनदनाते हुए चक्कर लगा गए तो मुझे ज्ञान हुआ कि अंदर आने का कोई रास्ता बिना बाड़ का भी होगा। अतः साइकिल सहित बाड़ पार करने का मेरा अपराधबोध जाता रहा।

   मैंने अपना आसन समेटा और साइकिल पर सवार हो दो-तीन लक्ष्य निर्धारित किए - पहला, पूरे परिसर का चक्कर लगाकर यह देखना कि एक विद्यार्थी के रूप में जब मैंने पच्चीस साल पहले यह परिसर छोड़ा था तबसे अवस्थापना संबंधी क्या परिवर्तन हुए हैं; दूसरा, यह पता लगाना कि परिसर के भीतर आने और बाहर जाने के लिए बाधा रहित मार्ग किस गेट से जुड़ा है और तीसरा, परिसर की शुद्ध हवा व हरियाली का आनंद लेते हुए शांतिपूर्वक योगासन प्राणायाम व ध्यान के लिए आसन बिछाने का सबसे उपयुक्त स्थल क्या हो सकता है इसकी खोज करना। मैंने अपनी साइकिल से चक्कर लगाते हुए प्रायः सभी विभागों और कार्यालयों की देहरी देखी। बहुत कुछ बदला और बढ़ा हुआ देखा। अनेक भवन जो पहले खुले-खुले होते थे उन्हें बंद-बंद देखा। सुरक्षा पर अधिक जोर है शायद। विकलांग छात्रों की सुविधा के लिए बने रैंप देखे। मुख्य प्रशासनिक भवन के बगल में नया-नया बना एक विशाल भवन देखा जिसपर अभी कोई परिचयात्मक बोर्ड नहीं लगा है।     

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   अंत में मैंने देखा वह विशाल बरगद का पेड़ जो शायद सौ साल से भी ज्यादा पुराना है। एक किंवदंती बना यह वटवृक्ष हरियाली और ऊर्जा के अजस्र स्रोत के रूप में बेशक अभी भी भरपूर जवान है। इसकी घनी छाया पूरे मैदान पर फैली हुई थी जिसमें बैठे कुछ विद्यार्थियों को पढ़ते देखकर मेरा मन भावुक हो गया। मन में Quot Rami Tot Arbores (जितनी शाखाएं उतने वृक्ष) का ध्येय वाक्य बरबस कौंध उठा। साथ ही मुझे आसन बिछाने की उपयुक्त जगह भी दिख गयी। कुछ चित्र सहेजकर मैं पूर्वी गेट से बाहर निकल आया हूँ। अगले दिन की बात अगली किश्त में जारी...!

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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शुक्रवार, 29 अप्रैल 2022

हरियाली और ऑक्सीजन का खजाना

आज #साइकिल_से_सैर करते हुए मैं एक बार फिर चंद्रशेखर आजाद पार्क की ओर चला गया था। लेकिन हर बार यहाँ वही टटकापन महसूस होता है। जो लोग रात में देर तक जागते हैं और सबेरे देर तक सोते हैं वे बहुत कुछ मिस करते हैं। प्रकृति द्वारा सुबह सुबह मुफ्त की अमृत-वर्षा की जाती है। इसमें जागरूक लोग नहाते हैं। भोर का धुंधलका छटते ही सभी पेड़-पौधे उजाले की ऊर्जा लेकर भरपूर ऑक्सीजन का उत्पादन शुरू कर देते हैं। पक्षियों की चहचहाहट इसी बात की घोषणा तो करती है।   

सूरज निकला चिड़ियाँ बोलीं, कलियों ने भी आँखें खोलीं।

आसमान में छाई लाली, हवा बही सुख देने वाली।

न्हीं-नन्हीं किरणें आईं, फूल हँसे कलियाँ मुस्काईं।।

 278569653_10226910368095282_1670074207435678447_nअल्फ्रेड पार्क के गेट पर पहुंचते ही महसूस होता है कि भीतर हरियाली और ताजगी का खजाना है जिसे लूटने के लिए तमाम स्त्री, पुरुष, बच्चे व बुजुर्ग जमा हो गए हैं। प्रकृति की व्यवस्था ऐसी है कि इन सबको शुद्ध हवा और विटामिन-डी के लिए कोई धक्का मुक्की नहीं करनी पड़ती। बस हाजिर होते ही प्रचुर मात्रा में यह सबको सुलभ हो जाता है।     

लेकिन यहाँ सड़क पर लगे ठेले-खोमचे पर अंकुरित अनाज का दोना, खीरा-ककड़ी- फल सलाद, बेल शरबत, बन-मक्खन, चाय या नारियल पानी के लिए जरूर नंबर लगाना पड़ता है। मुझे इसका प्रत्यक्ष अनुभव हुआ जब मैं एक ठेले पर जमा भीड़ के पास पहुँचा। यहाँ अंकुरित चने में मूली, टमाटर, चुकंदर, पुदीना, गाजर, आदि की कतरन तथा अनेक चटपटे मसाले व नमक मिलाकर बरगद के पत्ते पर परोसा जा रहा था। चम्मच के बजाय पत्ते का एक टुकड़ा ही इसका काम भी कर रहा था। उस दोने में नीबू के रस का उदारतापूर्वक प्रयोग विशेष आकर्षण का केंद्र था।

स्टील के दो बर्तनों में सामग्री तैयार करके उसे दोने में भरने के लिए दो लड़के लगातार हाथ चला रहे थे लेकिन ग्राहकों को कुछ प्रतीक्षा करनी ही पड़ रही थी। नोट पकड़े हाथ आगे बढ़े हुए परस्पर प्रतिस्पर्धा कर रहे थे। कुछ लोग मोबाइल से क्यूआर कोड स्कैन करके डिजिटल भुगतान करने के बाद मोबाइल की स्क्रीन ही दिखा रहे थे। कई लोग अपने घर वालों के लिए तीन-तीन, चार-चार दोने पैक भी करा रहे थे। इसमें मेरे जैसे एकल दोने के ग्राहकों को लंबे धैर्य का परिचय देना पड़ रहा था।

मैंने इस प्रतीक्षा काल में आसपास की कुछ तस्वीरें उतार लीं। बहुत मोहक वातावरण दिखा मुझे। जब गेट के बाहर इतना अच्छा माहौल था तो भीतर की हरियाली से भरी पगडंडियों और रंग-बिरंगी क्यारियों से सजे टहल-पथ के क्या कहने। अपनी साइकिल लेकर मैं अंदर जा नहीं सकता था इसलिए अंदर जाते लोगों को ही देखकर संतोष करना पड़ा। आप भी इनका दर्शन लाभ लीजिए। इसका भौतिक लाभ तो तभी मिलेगा जब सुबह-सबेरे बिस्तर का मोह त्याग कर स्वयं सदेह पधारेंगे।

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(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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शुक्रवार, 15 अप्रैल 2022

गार्ड का डिब्बा

IMG_20220413_192410अगले दो दिन की छुट्टी और फिर सप्ताहांत अवकाश के कारण सरकारी कर्मचारियों को इस बार लंबी अवधि का आराम मिलना था। मैंने भी इस मौके का लाभ उठाने के लिए बच्चों के पास जाने का कार्यक्रम बनाया। बस की यात्रा में सात-आठ घंटे लग जाते इसलिए इंटरसिटी एक्सप्रेस से जाने का विचार बना। मैंने ए.सी.चेयरकार का वेटिंग टिकट तत्काल कोटे में बुक कराया जो दुर्भाग्य से कन्फर्म नहीं हो सका। आगे की छुट्टियों की वजह से इस दिन इस गाड़ी पर यात्रियों का लोड बहुत ज्यादा था। मुझे रेलयात्राओं में यथावश्यक सहयोग देते रहने वाले मेरे एक शुभेच्छु रेल अधिकारी ने इस ट्रेन में चलने वाले टीटीई से बात की तो उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। उन्होंने फिर भी इसी ट्रेन से मुझे गंतव्य तक पहुँचवाने का भरोसा दिलाया और स्टेशन पहुँचने को कहा।

एक साधारण श्रेणी का टिकट खरीदने के लिए मैंने स्टेशन की टिकट खिड़की का रुख किया तो वहाँ पर लगी लंबी लाइन देख कर मेरे हाथ-पाँव फूल गए। दोपहर की गर्मी में पसीना चुआते टिकटार्थियों की बेचैनी भरी जद्दोजहद देखकर मुझे भी पसीना आ गया। इस बार गर्मी का आगमन कुछ जल्दी ही हो गया है। गाड़ी छूटने में केवल पाँच मिनट बचे थे और लाइन खत्म होने वाली नहीं थी। इसके फलस्वरूप टिकट के लिए मुझे विद्यार्थी जीवन की एक तकनीक अपनानी पड़ी। वहाँ महिलाओं की लाइन में सिर्फ दो बच्चियां खड़ी थीं। उनमें से एक ने मेरी समस्या पर सहानुभूति दिखाई और एक अतिरिक्त टिकट लेकर सहर्ष मुझे दे दिया।

टिकट पाकर प्रसन्न हुआ मैं जब प्लेटफार्म पर पहुँचा तो यात्रियों की भारी भीड़ देखकर ठिठक गया। अधिकांश तो विद्यार्थी ही थे जो तीन-चार दिन का ब्रेक लेने अपने गाँव-घर को जा रहे थे। गाड़ी के आने की उद्घोषणा हो गयी थी जो बस आने ही वाली थी। सभी अपना सामान उठाकर सीट कब्जाने की होड़ के लिए तैयार थे। इन बच्चों की तरह पिठ्ठू बैग के बजाय मेरे पास एक छोटा सा स्लिंग बैग ही था। मुझे भी लगा कि अब पच्चीस साल पहले वाली फुर्ती आजमाने का समय आ गया है। ए.सी. की आरक्षित सीट पर यात्रा करने की आदत पड़ जाए तो सामान्य श्रेणी की यात्रा कठिन लगने लगती है। मैंने सोचा की यह अच्छा ही है कि बीच-बीच में साधारण श्रेणी का स्वाद भी मिलता रहे ताकि इन बहुसंख्यक सहयात्रियों के अनुभव से दो-चार हुआ जा सके और अपनी काया भी प्राकृतिक हवा, धूप और गर्मी से जुड़ाव महसूस कर सके और तादात्म्य स्थापित कर सके।

आपदा में अवसर खोज निकालने की इस सोच पर आत्ममुग्ध हुआ मैं एक अलग तरह की चुनौती से भिड़ने के लिए खुद को तैयार करने लगा था तभी उन शुभेच्छु अधिकारी का फोन आ गया। उन्होंने बताया कि ट्रेन के गार्ड से बात हो गयी है। आप उनके कूपे में बैठकर जा सकते हैं। वहाँ ए.सी. तो नहीं है लेकिन भीड़भाड़ से अलग सुकून से बैठकर यात्रा हो सकती है। टॉयलेट की सुविधा भी अलग से है ही। मेरा मन पुनः प्रसन्न हो गया और मैं ट्रेन के आते ही उसके पिछले हिस्से की ओर लपक लिया। सफेद पैन्ट-शर्ट की यूनिफ़ॉर्म में गार्ड साहब मेरी प्रतीक्षा कर ही रहे थे। उन्होंने गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया। मैंने भी कूपे में चढ़कर राहत की सांस ली और गाड़ी चल पड़ी।

आप सोच रहे होंगे कि अबतक जो हुआ उसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं था, फिर मैं यहसब क्यों बता रहा हूँ। दरअसल जो बताना चाहता हूँ वह इसके बाद हुआ। यह मेरे लिए एक नया अनुभव था।

IMG_20220413_191419मैंने इसके पहले कभी रेलगाड़ी के गार्ड का डिब्बा अंदर से नहीं देखा था। मेरे मन में रेलगाड़ी के गार्ड की छवि एक बेहद जिम्मेदार, सतर्क, जागरूक और लिखित मानक (एस.ओ.पी.) के अनुसार कार्य करने वाले अधिकारी की रही है। इसी छवि के अनुरूप इनकी सुविधाएं और पारिश्रमिक भी रेल विभाग देता होगा ऐसा मेरा मानना है। आज की इस छोटी सी मुलाकात में मुझे इस छवि को नजदीक से देखने का अवसर मिला। कार्य तो उनका वैसा ही है जैसा मेरा आकलन था। मैंने इन्हें बिल्कुल सजग, सतर्क, जिम्मेदार, उत्तरदायी और लिखित मानक के अनुसार निरंतर काम में व्यस्त रहते हुए ही देखा। अलबत्ता इस अधिकारी को प्राप्त सुविधाओं के बारे में मुझे अपनी धारणा को थोड़ा परिमार्जित करना पड़ा है। जब कूपे की आंतरिक सज्जा को मैंने देखा तो मन मसोस उठा।

इस कूपे में दोपहर की प्रचंड गर्मी से उत्पन्न लू को रोकने का कोई प्रबंध नहीं था। ए.सी. या कूलर की कौन कहे कूपे की छत के बीचोबीच लगे पंखे की हसटाकर अंदर की ओर रुख करके फिट की गयी थीं। हर गुजरते स्टेशन पर गार्ड साहब को दरवाजे या खिड़की से हाथ बाहर निकालकर वा जहाँ लग रही थी वहाँ बैठने के लिए कोई सीट ही नहीं थी। मात्र दो साधारण सीटें जो लगी थीं वे दोनों तरफ के दरवाजों से झंडी दिखानी होती है। इसलिए वे आवश्यकतानुसार इस या उस दरवाजे पर काम कर रहे होते हैं। इन्हें दरवाजे व खिड़कियां प्रायः खुली रखनी होती हैं और मौसमी बयार का अवगाहन करना ही होता है। जाहिर है कि कूपे में आजकल की गर्म लू के साथ धूल- मिट्टी का झोंका भी यदाकदा आता ही रहता है।

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गार्ड के बक्से और पोर्टर की साइकिल

रेल विभाग में प्रत्येक गार्ड का एक बक्सा होता है जिसमें वे अपना निजी सामान व ड्यूटी में प्रयोग हेतु जरूरी कागजात व उपकरण आदि रखते हैं। यह बक्सा लकड़ी या लोहे का बना होता है। वह ड्यूटी में उनके साथ चलता है जिसे लाकर लादने व उतारकर ले जाने के लिए एक कुली या पोर्टर की ड्यूटी होती है। आपने प्लेटफार्म पर पड़े ऐसे बक्से देखे होंगे। मैंने देखा कूपे के बीच छत में लगे एकमात्र पंखे के ठीक नीचे यही बक्सा रखा गया था| इसपर बैठकर ही ऊपर से बरसती हवा रूपी किरपा का लाभ लिया जा सकता था। गार्ड साहब ने इस बक्से पर रखे सामान समेटकर एक तरफ रख दिए और एक गमछा बिछाकर बड़े सम्मान से मुझे बैठने के लिए प्रस्तुत कर दिया। सुना है अब रेल विभाग इस बक्से के स्थान पर एक ट्रॉली बैग देने वाला है जिसे गार्ड साहब खुद ही लाएंगे और ले जाएंगे। उस स्थिति में पंखे के नीचे बैठने का यह सस्ता साधन भी चला जाएगा।

इस बक्सासन पर लम्बवत बैठकर मुझे आत्म गौरव का भाव घेरते ही जा रहा था कि कुछ देर में कमर ने कहीं टेक लेने की गुहार लगा दी। मैंने उसे कुछ देर तो अनसुना किया लेकिन कुछ देर बाद मेरी पीठ भी उसके सुर में सुर मिलाने लगी। फिर गर्दन की बारी आयी और उसके साथ सिर भी कोई आश्रय खोजने लगा। अंततः मैं खड़ा हो गया। इसपर रजिस्टर भरने में व्यस्त गार्ड साहब ने सिर उठाकर मेरी ओर प्रश्नवाचक निगाह से देखा। मैंने कहा - टॉयलेट यूज़ कर लूँ क्या? उन्होंने प्रसाधन कक्ष की ओर इशारा किया। मैंने हैंडल घुमाकर दरवाजा खोला और अंदर झांक कर देखा।

अत्यंत छोटे से कोटरनुमा प्रसाधन कक्ष के एक कोने में वाश-बेसिन था जिसमें पानी की टोटी लगी थी। दूसरे कोने में वेस्टर्न कमोड लगा था जो बिल्कुल सूखा हुआ था। अर्थात् पिछली सफाई किए जाने के बाद यह प्रयोग नहीं किया गया था। बल्कि अंदर जमी धूल बता रही थी कि इसका प्रयोग लंबे समय से नहीं किया गया था। मैंने एक कदम भीतर बढ़ाकर उसके नीचे की व्यवस्था का मुआयना किया। आशा के विपरीत वहाँ कोई टोटी, चेन वाला डिब्बा या जेटस्प्रे की व्यवस्था नहीं दिखी। यानि यदि यहाँ किसी को ‘दीर्घशंका’ मिटानी पड़ जाय तो उसके बाद प्रक्षालन की क्रिया के लिए वाश-बेसिन की टोटी से ही पानी भरना पड़ेगा। उसके लिए किसी पात्र की व्यवस्था भी अपने व्यक्तिगत स्रोत से करनी होगी तथा हैंडवाश लिक्विड की बोतल भी साथ रखनी होगी। मैंने किसी प्रकार की शंका के निवारण का विचार तत्काल स्थगित कर दिया और दरवाजा भिड़ाकर वापस आ गया।

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गार्ड का डिब्बा कभी-कभी प्लेटफॉर्म की सीमा के बाहर भी खड़ा हो जाता है।

गार्ड साहब ने इशारे से ही पूछा कि मैंने टॉयलेट यूज़ क्यों नहीं किया? मैंने कहा कि अभी कोई खास जरूरत नहीं है। वैसे भी इतनी गर्मी है कि शरीर का पानी पसीना बनकर ही उड़ा जा रहा है। फिर कुछ देर बाद मैंने थोड़े संकोच से बताया कि कमोड के आसपास पानी का कोई पॉइंट नहीं है। वे झंडी दिखाकर निवृत्त हुए तो अंदर जाकर देखने लगे फिर बताया कि कमोड वाले कोने में पीछे की ओर एक पाइप है जिसमें लगे नॉब को दबाने पर सीट में पानी फ्लश हो जाता है। मैंने जब प्रक्षालन की व्यवस्था न होने की ओर ध्यान दिलाया तो उन्होंने मुस्कराते हुए कहा कि यह छोटी दूरी की ट्रेन है। इसमें ‘उसकी’ जरूरत पड़ती ही नहीं है। मैंने हाँ में सिर हिलाया लेकिन यह जोड़ दिया – “फिर भी आपात कालीन स्थिति के लिए इसकी व्यवस्था तो होनी ही चाहिए... आपको अपनी डायरी या शिकायत पुस्तिका में इसका उल्लेख कर देना चाहिए।’’ गार्ड साहब के चेहरे से टपकती सज्जनता यह बता रही थी कि वे ऐसी कोई शिकायत दर्ज नहीं करने वाले हैं।

बहरहाल जब आधे घंटे बाद अगले स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो बड़ी संख्या में लोकल यात्री ट्रेन से उतरे। मैंने सोचा कि अब साधारण डिब्बे में निश्चित ही कुछ सीटें खाली हो गयी होंगी जिनपर गद्दी भी लगी होगी, ऊपर पंखा भी चल रहा होगा और पीठ को टेक लेने का सुभीता भी होगा। मैंने गार्ड साहब को अपनी मंशा बतायी, उनकी सदाशयता के लिए धन्यवाद दिया और अपना बैग उठाकर नीचे उतर गया। पीछे का डिब्बा अपेक्षया कम भीड़ वाला था। मुझे आसानी से खिड़की वाली एकल सीट खाली मिल गयी। सूर्य देवता भी अपनी हेकड़ी छोड़कर अस्ताचल में डूब जाने की चिंता में लग गए थे।

जब ट्रेन आगे बढ़ी तो दोनों किनारे फैली हरियाली से छनकर आती हवाओं ने शरीर से चिपके पसीने को चलता कर दिया। इतना सुकून पाकर हमने अपना मोबाइल खोल लिया और आपको यह किस्सा सुनाने के लिए नोटपैड पर लिखना शुरू कर दिया। मेरे शुभेच्छु रेल अधिकारी ने तो नहीं ही सोचा होगा कि उनकी इस सदाशयी अहेतुक सहायता ने मुझे एक अभूतपूर्व अनुभव का लाभ दे दिया। बल्कि मुझे डर है कि इसे एक असुविधा समझकर वे असहज न महसूस करें। मैं तो इस सदाशयता के लिए उन्हें हृदय से धन्यवाद ही दूंगा।

सोच रहा हूँ अंग्रेजों ने गार्ड का डिब्बा जैसा डिजायन किया होगा उसमें आजादी के बाद शायद कोई बड़ा सुधार नहीं किया गया है। इसके पीछे शायद मूल मंत्र यह रहा हो कि अधिक आरामदायक व्यवस्था पाकर गार्ड साहब को कहीं झपकी आ गयी तो गड़बड़ हो जाएगी। रेल के जानकार इसपर बेहतर प्रकाश डाल सकते हैं।

(सत्यार्थमित्र)

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बुधवार, 16 फ़रवरी 2022

अनामिका प्रकाशन की पुस्तकें मिलीं

प्रयागराज में 15 साल पहले जब हम कोषाधिकारी की नौकरी करने गए और अपने पठन-पाठन के शहर में जाते ही जब हमें ब्लॉगरी का चस्का लगा तो उसी सिलसिले में अनेक प्रतिष्ठित ब्लॉगर्स से संपर्क हुआ। ज्ञानदत्त पांडे, अनूप शुक्ल, डॉ कविता वाचक्नवी, डॉ अरविंद मिश्र और हर्षवर्धन त्रिपाठी जैसे शीर्षस्थ ब्लॉगर्स ने मेरे घर तक आकर मुझे धन्य किया। आदरणीया कविता जी को लेकर प्रकाश त्रिपाठी आए थे जो शहर के प्रतिष्ठित अनामिका प्रकाशन से जुड़े थे। फिर इस प्रकाशन के कर्णधार विनोद कुमार शुक्ल जी से मुलाकात हुई जिनसे बाद में पारिवारिक मित्रता हो गयी। विनोद जी अनेक नामी व स्थापित साहित्यकारों की कृतियां तो छापते ही हैं उनके द्वारा नवोदित लेखकों, कवियों, शोधार्थियों और शौकिया रचनाकारों को भी प्रकाशित किया जाता रहा है। कालांतर में प्रयागराज से स्थानांतरण के बाद भी विनोद जी से हमारा संपर्क निरंतर बना रहा है।

अभी जब प्रयागराज में मेरी दुबारा तैनाती हुई तो एक दिन मैं बेधड़क विनोद जी के घर चाय पीने पहुंच गया। वे बेहद आत्मीयता से मिले। फिर मेरी उत्सुकता को शांत करने के लिए वे एक के बाद एक प्रकाशित नायाब पुस्तकें दिखाते रहे। विषय का वैविध्य और पुस्तकों के आकार-प्रकार व डिज़ाइन के आकर्षण में मैं खोता गया। पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में पिछले दस वर्षों में हुई उनकी प्रगति देखकर मेरा मन अत्यंत प्रसन्न हो गया। इस अद्भुत उत्थान को देखकर मैंने आश्चर्यवश पूछा - आप ने अकेले यह कैसे कर लिया? कॅरोना लॉक-डाउन की लंबी बाधा के बावजूद? उसपर अब तो प्रकाश जी भी वर्धा चले गए हैं?

विनोद जी ने बताया कि प्रकाशन व्यवसाय की कमान अब उनकी अगली पीढ़ी के मानस ने संभाल ली हैं। वही मानस जिसे हमने पहले एक नटखट छोटे बच्चे के रूप में ढेर सारी रोचक बातें करते हुए आनंद से देखा था। नोएडा के एक प्रतिष्ठित संस्थान से एमबीए करने के बाद मानस ने अब अपने पिताजी के इस भावनात्मक व शौकिया उपक्रम को प्रोफेशनल तरीके से विकसित किया है। अत्याधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी, ऑनलाइन कम्प्यूटर तकनीकी व विशेषज्ञ नियोजन के माध्यम से अनामिका प्रकाशन का कायाकल्प अब मानस प्राइवेट लि. कम्पनी के रूप में हो चुका है। विनोद जी कदाचित अब पुस्तकों के संपादक की भूमिका में आ गए है। पुस्तकों की साज-सज्जा व मुद्रण का कार्य दिल्ली में अधुनातन पद्धति से और अधिकांश बिक्री अमेजन जैसे ऑनलाइन माध्यमों से होने के कारण व्यावसायिक दक्षता भी बेहतरीन हो गयी है। किताबें धड़ाधड़ छप व बिक रही हैं।

जब मेज पर सद्यःप्रकाशित व प्रकाशन को तैयार ढेर सारी पुस्तकों का अंबार लग गया तो मैंने बड़े संकोच के साथ उनमें से तीन दुबली- पतली क़िताबों को अपने लिए अलग किया। इससे अधिक इसलिए भी नहीं कि पहले ही घर में अनेक अनपढ़ी किताबें अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रही हैं। नौकरी की व्यस्तता से अलग टीवी की चुनावी चकल्लस, व्हाट्सएप ज्ञान-भंडार के अविरल प्रवाह और ओटीटी की वृहद सामग्री ने इन पुस्तकों के लिए समय की किल्लत पैदा कर दी है।

बहरहाल, विनोद जी ने इन तीनो पुस्तकों को मुझे सहर्ष भेंट किया। मानस ने हमें बढ़िया अदरक वाली चाय पिलायी और हमने इस नौजवान व होनहार उद्यमी की सफलता पर बधाई दी और भविष्य में खूब प्रगति के लिए शुभकामनाएं दीं।

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तथ्यों के आलोक में डॉ अंबेडकर - शूद्र कौन थे, अवलोकन और समीक्षा।
लेखक - डॉ त्रिभुवन सिंह
मूल्य- रू. 300 मात्र
पंडित दीन दयाल उपाध्याय, द्रष्टा दृष्टि और दर्शन।
लेखक - हृदय नारायण दीक्षित
मूल्य- रू. 350 मात्र
कबीर हैं कि मरते नहीं।
लेखक - सुभाष चंद्र कुशवाहा
मूल्य- रू. 150 मात्र
Anamika Prakashan IMG_20220214_224150__01__01 IMG_20220214_223935__01__01

डॉ त्रिभुवन सिंह ने अपनी पुस्तक में अंबेडकर की बहु-प्रचारित पुस्तक में स्थापित मान्यताओं की शोधपरक पड़ताल करते हुए अनेक सार्थक प्रश्न उठाए हैं और इस विषय पर नए सिरे से सोचने को मजबूर किया है। हृदय नारायण दीक्षित की पुस्तक में दीनदयाल उपाध्याय के व्यक्तित्व व कृतित्व पर कुछ नई बात बताई गयी है। सुभाष चंद्र कुशवाहा ने अपनी शोधपरक पुस्तक में कबीर के जीवन व उनके सामाजिक प्रभाव को नितांत विपरीत परिस्थितियों व विरोध के बावजूद दुर्दमनीय बताते हुए उसके युग-प्रवर्तक महत्व को रेखांकित किया है।

इन तीन पुस्तकों के शीर्षक व इनकी विषय-वस्तु से यह सहज ही विश्वास हो जाता है कि इंटरनेट व इलेक्ट्रॉनिक गजेट्स के इस जमाने में भी कागज पर छपी पुस्तकों का महत्व अभी भी कम नहीं हुआ है। छात्र-छात्राओं, अध्येताओं, मनीषियों व सामान्य पाठकों की रुचि का पेट भरने के लिए और तमाम लेखकों, कवियों, साहित्यकारों व नवोदित कलमकारों की बौद्धिक कृतियों को उनके अभीष्ट तक पहुंचाने के लिए अभी भी पुस्तकें अपरिहार्य हैं।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)