हाल ही में मुझे इलाहाबाद से सटे कौशांबी जिले में स्थित कड़ा-धाम की शीतला देवी के मंदिर जाने का अवसर मिला। मेरे कार्यालय का स्टाफ़ व रायबरेली के अन्य लोगों ने भी बताया था कि यह बहुत ही महत्वपूर्ण मंदिर है, सिद्ध पीठ है जहाँ दूर-दूर से देवी के दर्शनार्थी आते हैं। साल में एक बड़ा मेला भी लगता है।
लखनऊ से इलाहाबाद जाने वाली सड़क पर ऊँचाहार से आगे आलापुर व मानिकपुर के बीच से एक सड़क सिराथू के लिए जाती है। इसी सड़क पर देवीगंज है जिसके निकट यह प्राचीन मंदिर अपनी बदहाली की कहानी कह रहा है। वहाँ जाने वाली सड़क इतनी खराब है कि आप इसकी कल्पना ही नहीं कर सकते। यह सड़क नहीं बल्कि छोटे-बड़े गढ्ढों की एक अन्तहीन श्रृंखला है जिनमें धूल, मिट्टी और कंकड़ पत्थर से सना हुआ कीचड़ आपके धैर्य की परीक्षा लेता रहता है। गंगा नदी पर नये बने पक्के पुल को पार करके कौशांबी जिले में प्रवेश करने के बाद सड़क कुछ ठीक हो गयी है। लेकिन इसपर भी बीस-पच्चीस किलोमीटर प्रति घंटे से अधिक की रफ़्तार संभव नहीं है।
फिलहाल मैदानी क्षेत्र के ऐसे दुरूह रास्ते को पार करके जब मैं ‘कड़ा-धाम’ पहुँचा तो यह एक अत्यन्त साधारण गाँव जैसा दिखा। गाँव के बीच में स्थित मंदिर तक जाने के लिए एक संकरी सी गली उपलब्ध है। इसके दोनो ओर रिहाइशी मकानों के दरवाजे खुलते हैं और दरवाजों के बाहर साइकिले, मोटरसाइकिलें, प्रसाद बेचने वाली चौकियाँ, औरतें, बच्चे व बुजुर्ग आदि आराम फरमाते रहते हैं। गलती से यदि कोई कार या जीप लेकर अंदर घुस गया तो उसकी गाड़ी में इधर-या उधर से खँरोच लगने की पूरी संभावना है। कहीं कहीं तो दोनो ओर की दीवारें एक साथ गाड़ी से रगड़ खाने को उद्यत लगती हैं। मेरे कार्यालय से हाल ही में सेवानिवृत्त हुए चीफ़ कैशियर इसी इलाके के रहने वाले हैं। वे हमारे साथ चल रहे थे। उस गली में गाड़ी सहित घुस जाने की गलती उन्होंने सम्मान-वश हमसे भी करा दी।
मंदिर के पास गाड़ी से उतरते ही चार-पाँच लोग एक साथ हमारी ओर लपके। हमें लगा कि हमारी फँसी हुई गाड़ी को निकालने में मदद के लिए आ रहे होंगे; लेकिन आते ही उन्होंने जिस तरह मंदिर तक हमें ले जाने में रुचि दिखायी उससे स्पष्ट हो गया कि ये लोग पंडा जी हैं जिनकी जीविका इस मंदिर के भरोसे ही चलती है। अपने सहयात्रियों के साथ हम जो काम अपने आप आराम से कर सकते थे उसे कराने के लिए करीब आधे दर्जन स्थानीय लोगों में प्रतियोगिता हो रही थी। गनीमत यह थी कि यह सब विंध्याचल या मथुरा के पंडो की तरह आक्रामक नहीं था। वहाँ तो यदि आपने किसी एक का वरण तत्काल नहीं कर लिया तो उनमे आपसी सिर-फुटौवल की नौबत आ जाती है। मंदिर के द्वार तक जाते-जाते प्रसाद खरीद लेने का आग्रह करती आवाजें कान में शोर मचाती रहीं। मेरी दृष्टि एक ऐसी दुकान पर पड़ी जिसपर एक अत्यन्त बूढ़ी औरत बैठी थी। वह इतनी कमजोर थी कि दूसरों की तरह चिल्ला नहीं सकती थी। मैं उसकी दुकान पर रुक गया। उसने नारियल, इलायचीदाना, सिंदूर, कर्पूर, अगरबत्ती, दियासलाई, फूल, माला इत्यादि ‘प्रसाद’ एक चुनरीनुमा रुमाल में लपेटकर प्लास्टिक की डलिया में थमा दिया।
शीतला देवी के इस प्राचीन मंदिर को भौतिक रूप में देखकर मेरे मन में श्रद्धा व भक्तिभाव के स्थान पर रोष और जुगुप्सा ने डेरा डाल दिया। चारो ओर गंदगी का अंबार, बजबजाती नालियाँ जिनसे बाहर फैलता कींचड़युक्त पानी, इधर-उधर बिखरी पॉलीथीन, दोने और पत्तल, उनपर भिनभिनाती मक्खियाँ। मंदिर की टूटी हुई सीढियों के नीचे हमने चप्पल उतारी और ऊपर चबूतरे पर चढ़ लिये। फूलमाला और चढ़ावे की चुनरियों से लदी हुई माँ शीतला देवी की मूर्ति तक पहुँचा नहीं जा सकता था। स्टील पाइप का एक घेरा उनकी रक्षा कर रहा था और एक पुजारी जी भक्तों के हाथ की डलिया लेकर उसमें से फूल माला मूर्ति के ऊपर फेंकते जा रहे थे। एक अनाहूत पंडा जी ने अगरबत्ती जलाने में मेरी मदद की और इशारा करते रहे कि क्या-क्या करना है। पुजारी महोदय ने मेरी डलिया लेकर उसमें कुछ दक्षिणा द्रव्य डालने की याद दिलायी। जब मैंने यथाशक्ति अपनी श्रद्धा अर्पित कर दी तब उन्होंने दुर्गासप्तशती के कुछ मंत्र बोलना प्रारंभ किया। उनका उच्चारण इतना भ्रष्ट और अशुद्ध था कि मुझे लगा जैसे मुंह में खाने के बीच कंकड़ आ गया हो।
उस घेरे के भीतर मूर्ति के ठीक सामने एक छोटा सा टाइल्स लगा जलकुंड बना हुआ था जिसमें देवी जी को अर्पित जल, नारियल का पानी, व अन्य प्रसाद बहकर इकठ्ठा होता था। वह कुंड लबालब भरा हुआ था और उसमें फूल,पत्ते, अगरबत्ती के टुकड़े और जाने क्या-क्या तैर रहे थे। पूरा भर जाने के बाद उसका पानी बहकर फर्श पर फैल रहा था। उसी चिपचिपी फर्श पर हम खड़े थे। मैं सोचने लगा कि कदाचित उस कुंड के पानी से पुजारी जी के पैर का प्रक्षालन भी होता होगा। दर्शनार्थियों के पैर से उस कुंड से उफनाते द्रव्य का सम्पर्क तो होता ही जा रहा था। तभी पुजारी जी कुंड की ओर झुके और हाथ की अजुरी में वही पानी भर लिया और मुझे इस महाप्रसाद को ग्रहण करने के लिए इशारा करने लगे। मैंने दाहिना हाथ बढाकर हथेली को गहरा करके प्रसाद प्राप्त तो कर लिया लेकिन उसे मुँह में डालने की हिम्मत नहीं हुई। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ होकर सोचता रहा। इसी सोच-विचार में अधिकांश पानी हथेली से चू गया और वापस उसी कुंड में समा गया। अपने भींगे हुए हाथ को मैंने होंठ से सुरक्षित स्पर्श करा लिया और देवी के आगे शीश नवाकर वापस मुड़ गया।
अबतक वे अनाहूत पंडा जी मेरा मौन स्वीकार पाप्त कर चुके थे। उन्होंने इशारा किया कि मंदिर की एक परिक्रमा कर लीजिए। परिक्रमा पथ पर टहलते हुए मैंने उनसे पूछ ही लिया कि मंदिर में सफाई की व्यवस्था किसके जिम्मे है। वे झेंपते हुए बोले कि आज भीड़ कुछ ज्यादा थी। हमलोग ही सफाई करते हैं। मेरी शिकायत पूर्ण मुस्कान देखकर उन्हें यह अनुमान हो गया कि इस गंदगी और दुर्व्यवस्था के प्रति मेरे मन में कितना असंतोष है, और इसलिए शायद मैं उन्हें कोई दक्षिणा नहीं देने वाला। उनके कदमों का उत्साह ठंडा पड़ गया था और वाणी मौन हो गयी थी। फिर भी सीढियों से उतरकर मैंने उन्हें नीचे बुलाया, उनके सहयोग के लिए आर्थिक धन्यवाद दिया और सफाई रखने का आग्रह करते हुए विदा ली।
हमारे धर्मप्राण देश में देवी देवताओं के असंख्य मंदिर हैं। बड़े-बड़े मठों, ट्रस्टों और धर्माचार्यों द्वारे विशाल और भव्य मंदिर बनाये भी जा रहे हैं जिनका प्रबंधन भी शानदार है। अक्षरधाम मंदिर हो या कृपालु जी महराज के मथुरा और मनगढ आश्रम के मंदिर हों। इनका वैभव देखते बनता है। लेकिन कुछ बहुत ही पुराने और असीम श्रद्धा के केंद्र रहे ऐसे मंदिर भी हैं जहाँ की दुर्व्यवस्था और कुप्रबंध देखकर मन दुखी हो जाता है। कुछ दिनों पहले मैं नैमिषराण्य के प्राचीन ललिता देवी के मंदिर गया था। वहाँ की गंदगी और पंडो की लालची प्रवृत्ति देखकर मन कुपित हो गया था।
क्या हमारी सरकारें कोई ऐसा कानून नहीं ला सकतीं जिससे इन प्राचीन आस्था के केन्द्रों की गरिमा बहाल हो सके और यहाँ आने वाले धार्मिक दर्शनार्थी आत्मिक संतुष्टि और तृप्ति का भाव लेकर लौटें?
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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