स्कूली बच्चों की हस्तकला प्रदर्शनी ने मन मोह लिया
लखनऊ का सिटी मॉंटेसरी स्कूल अपनी सभी शाखाओं को मिलाकर भारत के किसी भी एक शहर में स्थित सबसे बड़ा स्कूल माना जाता है। विशाल स्कूल भवन और बड़े भव्य प्रांगण इस स्कूल की पहचान हैं। लेकिन इसकी सबसे बड़ी खूबी है इसके छात्रों की पाठ्येतर गतिविधियाँ। इसके संस्थापक प्रबन्धक जगदीश गांधी जी का सपना है पूरे विश्व को एकता के सूत्र में पिरो देना और विश्वशांति का संदेश चारो ओर फैलाने का अहर्निश प्रयास करना। इस स्कूल के बच्चों को ‘विश्व-नागरिक’ के रूप में विकसित करने के उद्देश्य से तमाम गतिविधियाँ चलती रहती हैं। प्रांगण में ‘जय जगत’ का अभिवादन इसी की निरन्तर याद दिलाता है। यहाँ बच्चों के व्यक्तित्व के बहुमुखी विकास के लिए क्लासरूम में पाठ्यक्रम के शिक्षण के अलावा हस्तकला, संगीत, नृत्य, गायन, रंगमंच, खेलकूद, सेमिनार, मेला, देशाटन इत्यादि के वृहद आयोजन किये जाते हैं और इसमें प्रायः सभी बच्चों का प्रतिभाग यथासम्भव सुनिश्चित किया जाता है। पारंपरिक शिक्षण के बजाय इसे कार्पोरेट पद्धति का शिक्षण बताया जाता है। इस सारे उपक्रम में अभिभावकों को न सिर्फ़ आर्थिक योगदान करना पड़ता है बल्कि उन्हें अपने पाल्य के उत्साहवर्द्धन के लिए बहुधा स्कूली कार्यक्रमों में उपस्थिति भी देनी होती है।
हाल ही में मेरे सुपुत्र ‘सत्यार्थ’ (५वर्ष) ने जब अपनी डायरी खोलकर मुझे दिखाया और बताया कि उसमें उनकी मैम द्वारा लिखा गया निम्नलिखित वाक्य उन्हें फर्राटे से याद कर लेना है तो मुझे कुछ खास समझ में नहीं आया :
Welcome to the funland…! We made jokers with ball and chart-paper and in fun we learned different shapes. We decorated it by paper folding, bindi pasting and wool sticking.
फिलहाल अपनी दीदी की मदद से उन्होंने यह याद भी कर लिया और सुबह स्कूल जाते समय पूरी रफ़्तार से मुझे सुना भी दिया। इस बीच हम अभिभावकों के नाम से एक आमंत्रण पत्र भी आ गया जिसमें नर्सरी और के.जी. के बच्चों की हस्तकला से निर्मित मॉडल्स की प्रदर्शनी देखने हेतु बुलाया गया था। मेरी जिज्ञासा इतनी बढ़ गयी थी कि मैं नियत समय से कुछ पहले ही स्कूल की ओर सपत्नीक पहुँच गया।
वहाँ करीब दस हालनुमा कमरों और बड़ी सी लॉबी को बेहतरीन कलाकृतियों से सजाया गया था। निश्चित रूप से चार-पाँच साल के बच्चों के हाथ से इतनी शानदार कलाकृतियाँ और वह भी इतनी बड़ी मात्रा में नहीं बनायी जा सकती। जाहिर है सबके अभिभावकों और शिक्षकों का श्रम भी इसमें लगा था। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में नन्हें-नन्हें बच्चों ने बहुत कुछ सीखा भी होगा। यह अनुमान और पुख्ता होता गया जब हमने एक-एक कक्ष में जाकर सभी मॉडल्स को नजदीक से देखा और उनका परिचय देने के लिए खड़े छोटे-छोटे बच्चों की बातें सुनीं। ये बातें पहले से सभी बच्चों को रटा दी गयी थीं जिनमें संबंधित मॉडल या कलाकृति का परिचय और उसको तैयार करने की संक्षिप्त विधि बतायी गयी थी। मेरे बेटे ने जो वाक्य रटा था उसका रहस्य अब समझ में आ गया।
यद्यपि सभी बच्चों ने तैयारी अच्छी कर रखी थी लेकिन कभी-कभी उन्हें यह समझ में नहीं आता था कि उन्हें अपनी रटी हुई बात कब दुहरानी है। उनके मार्गदर्शन के लिए उनकी शिक्षिकाएँ उपस्थित थी जो उन्हें बोलने का संकेत करती रहती थीं। बिल्कुल जैसे रंगमंच पर कभी-कभी नेपथ्य से संवादों की प्रॉम्प्टिंग (prompting) की जाती है। फिर भी सबकुछ बहुत रोचक और सुरुचिपूर्ण लगा।
सबसे पहले तो सत्यार्थ की कक्षा से ही शुरुआत हुई। जनाब अपने जोकर्स के साथ मुस्तैदी से बैठे थे। किसी के आ जाने पर खड़े होकर स्वागत करने और उन जोकर्स के बारे में बताने का पूरा रिहर्सल कर चुके थे लेकिन अचानक मम्मी-डैडी को देखकर रटा हुआ पाठ बोलना भूल गये। उनकी मैम ने जब उन्हें प्रॉम्प्ट किया तो भी झिझकते रहे। शायद यह सोचकर कि जो बोलना है वह तो हमें सुबह से कई बार सुना ही चुके थे, फिर क्या दुहराना। उनकी मैम ही शायद अपने शिष्य के चुप रह जाने पर झेंप गयीं।
हमने उनकी क्लास के युवराज मिश्रा और स्नेहा का मॉडल भी देखा जिन्होंने पूरी दक्षता से अपना वाक्य बोला। बड़ा मनोहारी था वहाँ का दृश्य। फिर तो हम अपना कैमरा लिए सभी कमरों में जाते रहे और मॉडल्स के साथ-साथ भगवान के बनाये अद्भुत मॉडल्स (बच्चों) को उनकी तैयारी के साथ देखते रहे।
सबकुछ इतना भव्य और सुरुचिपूर्ण था कि मन इस भाव से आह्लादित हो गया कि मेरे बच्चों को एक अच्छा सा माहौल उनके विद्यालय में मिल रहा है। बच्चों के भीतर छिपी प्रतिभा को उभारने,एक निश्चित स्वरूप देने और तराशने का कार्य यहाँ की शिक्षिकाओं द्वारा पूरे मनोयोग और उत्साह से किया जा रहा है। कुशल प्रबन्धन का बेजोड़ उदाहरण इस प्रांगण में देखा जा सकता था।
इस अभिनव प्रयास को हमारा सलाम।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)