मार्च की क्लोजिंग हो जाने के बाद थोड़ी फुर्सत निकालकर गाँव जाने का मन हुआ। पिताजी जबसे सेवानिवृत्त होकर गाँव पर अपनी धुनी रमाये हैं तबसे उनकी एक ही इच्छा रहती है कि बच्चे यानि मैं और मेरे बड़े भाई जल्दी-जल्दी गाँव जाते रहें। नौकरी की मजबूरियाँ ऐसी हैं कि उनकी इच्छा पूरी करने में हमें तमाम जुगाड़ लगाना पड़ता है। इस बार मेरे बॉस ने थोड़ी ना-नुकुर के बाद सेकेंड सैटर्डे तथा सन्डे को शामिल करते हुए कुल तीन दिन की छुट्टी तो दे दी लेकिन उसमें इतना बिलम्ब कर दिया कि ट्रेन में कन्फर्म रिजर्वेशन नहीं मिल पाया था। भला हो अपनी ब्लॉगर बिरादरी का कि टिकट कन्फर्म कराने का जुगाड़ लग गया।
लखनऊ से गोरखपुर की इन्टरसिटी में बठते ही मैंने उन्हें धन्यवाद ज्ञाप करने हेतु एस.एम.एस. किया कि- “धन्यवाद सर, मुझे बिठाकर गाड़ी चल दी है”
“What? You have been left sitting at station?” मेरे संदेश पर जाने क्यों वे चिंताग्रस्त (शायद विनोदपूर्ण) हो गये और त्वरित जवाब मांगा।
मैंने फौरन जवाब दिया, “ना ना, गाड़ी में बैठा हूँ “
“आपकी गाड़ी मुझे छोड़ कैसे सकती है”
खैर, रात को दस बजे गोरखपुर बड़े भैया के आवास पर पहुँच गया। अगले दिन सुबह ससुराल होते हुए गाँव जाना था।
लौटते समय गाँव से गोरखपुर जल्दी आना पड़ा क्योंकि लखनऊ के लिए अवध एक्सप्रेस का निर्धारित समय दोपहर डेढ़ बजे ही था। भतीजे ने इन्टरनेट से अपडेट लिया तो गाड़ी एक घंटे विलम्ब से बतायी गयी। घर वालों से विदा लेकर मैंने ढाई बजे रेलवे स्टेशन की राह पकड़ी। पौने तीन बजे प्लैटफ़ॉर्म-१ पर पहुँचा तो प्लैटफ़ॉर्म-७ पर अवध एक्सप्रेस खड़ी दिखायी दी। इस घबराहट में कि कहीं यह मेरे सामने ही न निकल जाय मेरी साँस फूल गयी। दौड़कर ओवरब्रिज की दो-दो सीढ़ियाँ एक-एक बार में फाँदते हुए प्लैटफ़ॉर्म-७ पर पहुँचा। देखा तो ट्रेन ज्यों की त्यौं खड़ी थी और सारे डिब्बों में ताला लगा था। सभी खिड़कियाँ बन्द थीं। प्लैटफ़ॉर्म पर यात्री तो थे लेकिन किसी दूसरी गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे।
मुझे अब समझ में आया कि जिस अवध एक्सप्रेस से मुझे जाना है वो यह नहीं है। यह तो बान्द्रा (मुम्बई) से आयी है और अपनी यात्रा समाप्त कर चुकी है। मुझे अपनी बेवकूफ़ी पर झेंप आयी। मुझे ध्यान आया कि इस छोटी सी दौड़ में मैंने शायद राह में आने वाले कितने ही लोगों को पार करने के लिए धक्का दे दिया होगा।
थोड़ा रुककर मैंने अपनी साँसे स्थिर कीं और स्टेशन पर प्रसारित की जाने वाली सूचना को सुनने का यत्न करने लगा। पूरा एक चक्र सुन लेने के बाद भी मुझे अपनी गाड़ी का कोई उल्लेख सुनने को नहीं मिला। मैंने भतीजे को फोन लगाकर नेट से अपडेट लेने को कहा। उसने बताया कि गाड़ी ढाई घंटे विलम्ब से चल रही है। अब मैं दुबारा प्लैटफ़ॉर्म-१ पर वापस आकर कहीं बैठने की जगह तलाशने लगा। काफ़ी पसीना हो चुका था और बैठने की कोई हवादार जगह नहीं दिख रही थी। खटर-पटर के साथ चल रहे एक पंखे के नीचे खड़ा होकर थोड़ी राहत मिली लेकिन अब पैर दर्द करने लगा। हवा की जरूरत पर बैठने की जरूरत हावी होने लगी। मैंने पिठ्ठू बैग उठाया और एक कोने में लगी पत्थर की बेंच पर बैठ गया। अब दुबारा पसीना होने लगा लेकिन मैं बैठा रहा।
यहाँ लगभग एक घंटे की प्रतीक्षा करनी ही थी। जल्द ही बोर होने लगा तो पास के स्टाल से कोई पत्रिका लेने उठ गया। वहाँ कोई वेंडर नहीं था। ‘शुक्रवार’ का ताजा अंक पसंद आया क्योंकि उतने ही पृष्ठों की ‘इंडिया-टुडे’ और ‘ऑउटलुक’ के पैंतीस रूपये मूल्य की तुलना में इसका मूल्य मात्र पन्द्रह रूपया था। विषय सामग्री तो एक जैसी ही रही होगी, विज्ञापन वाले पृष्ठ इसमें कम थे। मैंने पर्स से पन्द्रह रूपये निकालकर इधर-उधर देखा तो बगल में जूस बेंचने वाले ने मुझसे पैसे ले लिए और मुझे पत्रिका दे दी। पत्रिका में मैंने देखा कि विष्णु नागर ने अपने सम्पादकीय आलेख में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री द्वारा राह चलते अपनी गाड़ी से उतरकर कींचड़ में फँसे एक मेमने को बचाने के समाचार पर कलम तोड़कर लिखा था। संपादक जी ने अपने मनमोहन सिंह को भी इस मानक पर तौलने की कोशिश की थी।
बहरहाल चार बजे घोषणा हुई कि “अवध एक्सप्रेस” थोड़ी ही देर में प्लैटफ़ॉर्म-७ पर आने वाली है। पहले मुझे ‘सात’ के बजाय ‘चार’ सुनायी दिया। शक होने पर मैंने फटी आवाज वाले भोंपू के पास जाकर कन्फ़र्म किया और प्लैटफ़ॉर्म-७ पर पहुँच गया। आधे घंटे फिर खड़ा रहा। अन्ततः साढ़े चार पर गाड़ी आयी। सीधे ऊपर की बर्थ पर जाकर लेट गया। सभी संबंधित को मोबाइल से सूचित करने का काम तुरन्त निपटाने के बाद तकिया चादर की प्रतीक्षा किये बगैर आंखें बन्दकर सोने की कोशिश करने लगा।
अचानक मोबाइल की घंटी से नींद खुली तो गिरिजेश भैया लाइन पर मिले। पूछ रहे थे - कहाँ हो? अचानक नींद से जागने पर मुझे यह याद करने में कुछ समय लग गया कि आज मैंने उन्हें सपरिवार लखनऊ में अपने घर बुलाया था और साथ भोजन करने का कार्यक्रम था। गाड़ी को सात बजे पहुँच जाना था इसलिए मुझे यह कार्यक्रम बनाने में कोई बाधा नहीं महसूस हुई थी। मैंने सम्हालते हुए पूरी बात बतायी और अनुरोध किया कि आप घर पहुँचिए, मैं भी देर-सबेर पहुँच ही जाऊंगा। घर पर श्रीमती जी को उनके आने के बारे में ताक़ीद करके मैं दुबारा सो गया। लेकिन अब अच्छी नींद नहीं आ रही थी। बार-बार गाड़ी खड़ी हो जाती और मेरी बेचैनी बढ़ती जाती।
लखनऊ में बादशाहनगर स्टेशन पड़ता है जहाँ से उतरकर मुझे इन्दिरानगर जाना था। इस चिन्ता में कि कहीं मैं सोया न रह जाऊँ और गाड़ी आगे बढ़ ले मैं प्रत्येक ठहराव पर नीचे वालों से स्टेशन का नाम पूछता रहा। वे भी बेचारे तंग आ गये होंगे। विलम्ब की हद बढ़ती जा रही थी और मैं घरवाली और घर आये मेहमान को लगातार ढांढस देता जा रहा था। मेहमान घर पर आ गये हैं, खाना तैयार हो चुका है, नौ बज गये हैं कब तक आएंगे.. आदि-आदि। उनके और मेरे बच्चे भी खेल-खेलकर बोर हो चुके थे। दोनों की पत्नियाँ भी सारी गलचौर निपटा चुकी थीं। अन्ततः दस बजे मैंने बताया कि आप लोग भोजन प्रारंभ कर दीजिए मुझे लेट हो जाएगा। खाना खाने के बाद उन लोगों ने थोड़ी और प्रतीक्षा की। ग्यारह बजे मैंने उन्हें अपनी बर्थ से ही खेद प्रकट करते हुए ‘शुभ-विदा’ कहा और पत्नी को ही उन लोगों को नीचे छोड़ आने की जिम्मेदारी सौंप दी।
बारह बज गये तो मैं अपनी बर्थ से नीचे उतरकर गलियारे में चहल-कदमी करने लगा। रुकते-रुकाते गाड़ी डेढ़ बजे बादशानगर पहुँची। लगभग सारे यात्री खीझ और गुस्से से बिलबिला रहे थे। डिब्बे का केयरटेकर मजेदार आदमी था। उतरते हुए मैंने कहा – “आज तो हद ही हो गयी यार। गोरखपुर में तीन घंटे लेट थी और उसके बाद पाँच घंटे की यात्रा में नौ घंटे लगा दिए।”
उसने मुस्कराते हुए कहा, “इसे यूँ भी तो कह सकते हैं कि पाँच घंटे का किराया देकर नौ घंटे ए.सी. का मजा लेते रहे।”
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)