रायबरेली के स्थानीय शायरों की संगत में पड़कर मैंने जो मासिक तरही नशिस्त पकड़ी थी उसमें सरकारी कामों की व्यस्तता के कारण व्यतिक्रम होता रहता है। इस बार भी यह नशिस्त छूटने ही वाली थी लेकिन मैंने गिरते पड़ते इसमें दाखिला ले ही लिया। इलाहाबाद से भागकर रायबरेली आया। इसबार मशहूर शायर तश्ना आलमी साहब हमारे विशेष मेहमान थे। इनका परिचय इनका एक शेर देता है-
पूर्णिमा का चाँद ये मुझसे न देखा जाएगा
मैं बहुत भूखा हूँ रोटी का ख़्याल आ जाएगा
मैं बहुत भूखा हूँ रोटी का ख़्याल आ जाएगा
तश्ना साहब ने अपने ताज़ा संग्रह “बतकही तश्ना की” से कुछ बेहतरीन रचनाएँ सुनायीं। इसके पहले तरही नशिस्त का सिलसिला शुरू हुआ। दस-बारह शायरों ने अपनी-अपनी ग़जलें पेश की। उस्ताद शायर नाज़ प्रतापगढ़ी ने सबकी ग़जलों का बह्र, काफ़िया और रदीफ़ परखा और पास किया। मैंने तो उसी दिन इलाहाबाद से रायबरेली लौटते हुए कुछ तुकबन्दियाँ कर डाली थीं ताकि शून्य अंक से बच सकूँ। उस्ताद ने तो पास ही कर दिया। आप भी देखिये, यहाँ ठेलने का तो हक बनता ही है -
हर आदमी बेज़ार है
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बेइन्तहाँ सा प्यार है
करता नहीं इज़हार है
डर है न मर जाये कहीं
जो सुन लिया इन्कार है
मत दर-बदर भटका करो
बस एक ही भरतार है
बस एक ही सध जाय तो
समझो हुआ उद्धार है
ये दोस्ती ये दुश्मनी
तय कर रहा बाजार है
खुद ही विपक्षी हो गये
यह आप की सरकार है
विष की गरज शायद न हो
फुफकार की दरकार है
यह आप की किस्मत नहीं
हर आदमी बेज़ार है
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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