हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

मंगलवार, 30 सितंबर 2008

ढपोर शंख की कथा… ज्ञान जी के लिए

आज मानसिक हलचल पर गुरुदेव ने ढपोर शंखी कर्मकाण्ड और बौराए लोग की चर्चा की। लेकिन अन्त में आते-आते उनका जिज्ञासु मन ढपोर शंख पर आकर अटक गया। हम यह जुमला अक्सर सुनते हैं।कहाँ से आया यह ढपोर शंख? कदाचित् यह कम लोग जानते हैं। लेकिन जिस अर्थ में यह प्रयोग होता है, शायद सबको पता है।

मैने बचपन में यह कहानी किसी पण्डित जी से सुनी थी। तबसे लम्बा समय बीत गया है। जुमला तो हमेशा ताजा होता रहा, लेकिन कहानी आज ज्ञानजी के बहाने ताजा करने की कोशिश करता हूँ।

प्राचीन समय में एक ब्राह्मण अपनी गरीबी के कारण भीक्षाटन से अपना और अपने परिवार का पेट पालता था। जब परिवार में सदस्यों की संख्या बढ़ने लगी तो दिन भर मांगने पर भी गुजारा सम्भव नहीं हो पाता। भुखमरी की नौबत आ गयी। किसी ने उन्हें बताया कि समुद्र देवता यदि प्रसन्न हो जाँय तो उसकी गरीबी दूर हो जाएगी। ब्राह्मण देवता समुद्र के तट पर पहुँच कर तपस्या करने लगे।

समुद्र देवता ने ब्राह्मण की आर्त प्रार्थना सुनी। तपस्या से प्रसन्न हुए और ब्राह्मण के समक्ष प्रकट होकर वरदान माँगने को कहा।
ब्राह्मण बोले, “हे रत्नाकर, मुझ गरीब ब्राह्मण को अपने परिवार के भरण-पोषण में कठिनाई उत्पन्न हो गयी है। भीख मांगकर भी बच्चों का पेट भरने में असमर्थ हो गया हूँ। पूजा-पाठ, और अध्ययन करने का समय भी नहीं मिल पाता। मेरी इस समस्या का कोई समाधान कर दें प्रभो! मेरी दूसरी कोई इच्छा नहीं है।”

समुद्र ने ब्राह्मण को एक शंख देकर बताया- “रोज स्नानादि करने के बाद पूजा-पाठ से निवृत्त होकर पवित्र मन से जो भी इस शंख से मांगोगे वह फौरन उपलब्ध हो जाएगा। इसे ले जाओ, और अपनी आवश्यकता की वस्तुएं इससे प्राप्त कर लेना।”

ब्राह्मण देवता प्रसन्न होकर समुद्र को आभार प्रकट करते हुए घर की ओर चल पड़े। रास्ते में शाम हो गयी, और उन्हें एक वणिक के घर रुकना पड़ा। सायंकाल भोजन के लिए ब्राह्मण ने वह अद्भुत शंख बाहर निकाला, स्नान करके उसकी पूजा की और उससे भोजन प्रदान करने की प्रार्थना की। तत्काल ब्राह्मण के समक्ष स्वादिष्ट व्यञ्जनों का थाल आ गया।

अपने मेजबान वणिक के परिवार के लिए भी भोजन की आपूर्ति ब्राह्मण ने उसी शंख के माध्यम से कर दी। चमत्कृत वणिक ने पूछा तो ब्राह्मण ने पूरी कहानी उसे सुना दी, और निश्चिन्त हो कर सो गया।

यह सब देखकर लालची वणिक के मन में लोभ का संचार हो गया था। उसने रात में सो रहे ब्राह्मण की पोटली से शंख चुराकर दूसरा साधारण शंख रख दिया। ब्राह्मण ने घर जाने की जल्दी में भोर में ही अपनी यात्रा प्रारम्भ कर दी।

घर पहुँचकर कई दिनों की भूखी पत्नी और बच्चों को ढाढस बधाया, और झट स्नान करके पूजा पर बैठ गये। शंख देवता का आह्वाहन करने पर जब कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तो उन्हें बड़ा दुःख पहुँचा। उल्टे पाँव वणिक के पास पहुँच कर अपनी विपदा सुनायी। चतुर वणिक ने उन्हें सुझाया कि यह गड़बड़ जरूर समुद्र ने की होगी। कदाचित् वह शंख एक बार प्रयोग हेतु ही बना रहा हो।

भोले ब्राह्मण देवता समुद्र की तट पर जा पहुँचे। फिरसे तपस्या प्रारम्भ कर दी। इस बार समुद्र देव ने अपने भक्त की आवाज फौरन सुन ली। प्रकट हुए। ब्राह्मण ने पूरी कहानी सुना दी, और समस्या के स्थायी समाधान की प्रार्थना की।

सबकुछ जानकर समुद्र ने एक दूसरा शंख दिया और बोले- “इसे ले जाओ… घर जाने से पहले पोटली से बाहर मत निकालना। इससे जो भी मांगोगे उससे दूना देने को तैयार रहेगा।”

ब्राह्मण दूनी प्रसन्नता से घर लौट पड़े। राह में अन्धेरा हुआ। उसी वणिक के घर रुके। लालची वणिक तो प्रतीक्षा में था ही। खूब सत्कार किया, और हाल पूछा। ब्राह्मण ने पूरी बात बतायी और यह भी बता दिया कि दूसरा शंख घर ही जाकर बाहर निकालेगा। दूना देने की बात भी बता डाली।

लोभी वणिक रात में जगता रहा। ब्राह्मण के सो जाने के बाद उसने पोटली से शंख निकाला और उसके स्थान पर पहले वाला शंख रख दिया। … ब्राह्मण देवता सबेरे मुँह-अन्धेरे उठकर अपने घर के लिए प्रस्थान कर गये।

वणिक ने अगले दिन जल्दी-जल्दी स्नान करके नया शंख निकाला और पूजनोपरान्त अपनी इच्छित वस्तुओं की लम्बी फेहरिश्त पढ़नी शुरू कर दी।

“महल जैसा मकान दें!”
शंख से आवाज आयी- “एक नहीं दो ले लो…”

वणिक प्रसन्न होकर मांगने लगा।
“अप्सरा जैसी पत्नी दें!”
फिर आवाज आयी, “एक नहीं दो ले लो...!”

-“सर्वगुण सम्पन्न पुत्र दें!”
-“एक नहीं दो ले लो...”
-“सात घोड़ों वाला रथ दें”
-“एक नहीं दो ले लो…”
-“एक राजा का राज-पाठ दें”
-“एक नहीं दो ले लो…”

सूची बढ़ती गयी, और दूने का वादा होता गया। अन्ततः वणिक बोला, “अब मैं थक गया, मुझे कुछ और नहीं चाहिए, बस…”

कुछ और समय बीता तो सामान प्रकट होने की प्रतीक्षा अब व्याकुलता में बदलने लगी…। परेशान होकर वणिक ने शंख से पूछा, “आप कैसे दाता हैं जी, पहले वाले शंख ने तो जो भी मांगो, तुरन्त दे दिया था।”

शंख हँसकर बोला, “ अरे मूर्ख, देने वाला शंख तो वही था जिसे उसका असली अधिकारी ले गया। मैं तो बोलता भर हूँ। “अहम् ढपोर शंखनम्, वदामि च ददामि न”

(स्मृति पर आधारित)

सोमवार, 29 सितंबर 2008

किताबों की खुसर-फुसर… भाग-२

पिछली कड़ी से आगे…

‘मातृत्व तथा बच्चों की फिक्र’(१९३१) की भूमिका में लिखा अथर्ववेद का श्लोक समझने का प्रयास कर ही रहा था कि दीवार से लगी बड़ी सी मेज पर फड़फड़ाहट की आवाज तेज हो गयी। उसपर बहुत सी पत्रिकाएं बिखरी पड़ी थीं। वहाँ की नोक-झोंक इतनी तेज थी कि अनायास ही आलमारियों में रखी किताबें भी अपनी बतकही बन्द करके उधर कान लगाकर सुनने लगीं।

“अरे चुपकर बावरी, यह तो बस दिखा रहे हैं, इन्हें मातृत्व से क्या लेना देना… उस किताब ने टोक दिया तो उसका मन रख रहे हैं। ”

“हाँ जी, …इतने ही साहित्य रसिक होते तो इधर न आते…”

“तू बड़ी भोली है, इन्हें तो शायद पता ही न हो कि हिन्दी में कितनी साहित्यिक पत्रिकाएं छपती हैं…” आखिरी बात सुनकर मैं वाकई झेंप गया।

…मुझे तो हंस, कादम्बिनी, आजकल और इण्डिया टुडे की साहित्य वार्षिकी के अतिरिक्त कोई पत्रिका पता ही नहीं थी। …हाल ही में हिन्दुस्तानी त्रैमासिक की जानकारी हुई जब एकेडेमी का लेखा-जोखा सम्हालने के लिए नामित हो गया। …छः-सात साल पहले लखनऊ में किताब की शक्ल वाला एक त्रैमासिक ‘तद्‍भव’ जरुर खरीद कर देखा था। …और हाँ, छात्र जीवन में धर्मयुग पढ़ा था और इसके बन्द हो जाने पर साहित्य जगत की श्रद्धाञ्जलि भी देखी थी।

मैने झटसे मातृत्व को गोपालजी के हवाले किया और उस मेज के पास चला गया। मेज क्या थी; दो लोगों के आराम से पसर कर सोने भर का क्षेत्रफल था उसका। …लेकिन तिल रखने की जगह नहीं थी उसपर। एक दूसरे के ऊपर चढ़ी हुई साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक और वार्षिक पत्र-पत्रिकाएं अटी पड़ी थीं। उनके ऊपर धूल तो नहीं जमीं थी, क्योंकि गोपालजी उनकी इतनी सेवा का खयाल जरूर रखते हैं; लेकिन उनके चेहरे पर छायी उदासी यह जरूर बता रही थी कि इनकी उपेक्षा हुई है। …दूर-दूर से चलकर यहाँ एक अदद प्रेमी (पाठक) की तलाश में ये आ तो गयी हैं, लेकिन इन्हें मन के मीत से मुलाकात की प्रतीक्षा जारी है। मुझे कबीर दास जी याद आ गये-

अंखड़िया झाईं पड़ीं, पन्थ निहारि-निहारि।

जीभड़्याँ छाला पड़्या, राम पुकारि-पुकार॥


पोर्टब्लेयर (अंडमान) से छपने वाली ‘द्वीपलहरी’ हो या वर्धा की ‘राष्ट्रभाषा’, बीकानेर की ‘वैचारिकी’ हो या देहरादून की ‘लोकगंगा’ , समस्तीपुर से आयी ‘सुरसरि’ हो या आणंद (गुजरात) से पधारी ‘रचनाकर्म’, इन्दौर में प्रस्फुटित ‘वीणा’ का राग हो या रायपुर में अनुष्ठानित ‘अक्षरपर्व’ हो, या फिर पूना की ‘समग्र दृष्टि’ हो, राजसमन्द (राजस्थान) का ‘सम्बोधन’ हो अथवा गोरखपुर का ‘दस्तावेज’ व सुल्तानपुर (उ.प्र.) की ‘रश्मिरथी’; ये सभी भारतवर्ष के कोने-कोने से आकर संगम नगरी में एक ही पटल पर सामुदायिक जीवन जी रहे, या कहें, काट रहे हैं। सबकी साझा तकलीफ देखकर मैं ग्लानि और अपराध बोध से भर गया।

कुछ बड़े केन्द्रों से प्रकाशित पत्रिकाएं भी उतनी ही क्लान्त थीं। जैसे: दिल्ली की ‘आजकल’, ‘आलोचना’, ‘मन्त्र तन्त्र यन्त्र’, ‘कथादेश’, ‘साहित्य अमृत’, ‘समीक्षा’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘हंस’, ‘राजभाषा भारती’, ‘इण्डिया टुडे’ व ‘सदाकांक्षा’; मुम्बई से छपने वाली ‘सृजन सांख्य’, ‘कथाबिम्ब’ व ‘हिन्दुस्तानी जबान’; भोपाल की ‘दिव्यालोक’, ‘आयुष्मान’, ‘चौमासा’ व ‘साक्षात्कार’, लखनऊ की ‘कथाक्रम’ व ‘तद्‍भव’, इलाहाबाद की ‘त्रिवेणिका’, ‘विज्ञान’, ‘नई आजादी उद्‍घोष’, ‘सम्मेलन पत्रिका’, ‘हिन्दी अनुशीलन’, ‘हिन्दुस्तानी’, ‘हुड़दंग’ व ‘साहित्य वैचारिकी’।

मैं इनके नाम-पते नोट करने लगा तो एक फिकरा कान में पड़ा, “ढूँढते रह जाओगे…! इनकी दुनिया यहीं खत्म नहीं होती ” मैने हड़बड़ा कर उधर देखा।

डॉ. नामवर सिंह द्वारा सम्पादित ‘आलोचना’ बोल रही थी, “यहाँ जो देख रहे हो वह तो बस ‘हिन्दुस्तानी’ के विनिमय में आती हैं। खरीदने की औकात तो इस पुस्तकालय की बस रत्तीभर से थोड़ा ज्यादा समझ लो…”

मैं फिर चौका, “…तो क्या, हिन्दी में छपने वाली सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाएं यहाँ नहीं आतीं?”

जिनकी संख्या को मैं विस्फारित आँखों से देख रहा था वो अभी राष्ट्रीय पटल पर हो रहे हिन्दी अनुष्ठान की बस एक झलक भर देती हैं। उसपर हालत ये कि इनका भी कोई पुरसा हाल नहीं। मन उद्विग्न हो उठा…

मैं कुर्सी खींचकर बैठ गया। छत की ओर निहारता रहा। गोपालजी सूची बनाने लगे। तभी एक पुराने रैक से वीणा का स्वर उभरा। मधुर, कर्णप्रिय किन्तु आर्त…।

मैं उठकर उसके पास गया तो साक्षात् ‘सरस्वती’ दिखायी दीं। मैने धीरे से हाथ बढाया तो मुस्करा उठीं। सौ साल से ज्यादा की उम्र पाकर विलक्षण रूप और अनुभव तो दिख ही रहा था; वर्ष भर के अंकों को एक साथ नत्थी करके मोटा जिल्द चढ़ जाने से स्वास्थ्य भी अक्षुण्ण लग रहा था। इस मुलाकात से मेरा मन प्रसन्न हो गया।

‘हिन्दी’ के बचपन और तरुणाई की सहेली रह चुकी ‘सरस्वती’ अपनी गोद में अमूल्य निधि संजोए किसी पारखी को खोज रही थीं। मुझ अकिंचन ब्लॉगर को देखकर उनका उत्साह जग गया तो अपनी अपात्रता से मेरा दिल जोर से धड़कने लगा। …गला भर आया। अब इनकी उम्मीद का क्या करूँ…।

‘सरस्वती’ अपनी बालसखी ‘नागरी’ की कहानी कहती रही; अरबी, फारसी, अंग्रेजी के बीच संस्कृत की जमीन से अंकुरित हिन्दुस्तानी के बीज से हिन्दी-उर्दू की जुड़वा पैदाइश का वर्णन करती रही; पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, बाबू श्याम सुन्दर दास, और पं.श्रीनारायण चतुर्वेदी के जमाने को याद करके भावुक होकर आँसू बहाती रही; और हम अवश होकर सुनते और भींगते रहे…

लाल तुम्हारे विरह की, अगिनि अनूप अपार।

सरसै बरसै नीर हूँ, झरहूँ मिटै न झार॥

(...जारी)

शनिवार, 27 सितंबर 2008

किताबों की खुसर-फुसर… एक और क्षेपक


(चित्र wordpress.com से साभार)



ब्लॉगर महोदय पुस्तकालय गये, जाने कैसे किताबों की बात-चीत सुन ली; और झेंप मिटाने के लिए कुछ पुराने पृष्ठों को पलटना शुरू किया। लेकिन यह पन्ने पलटना भी बड़ा काम का साबित हुआ। बल्कि यूँ कहें कि इन्हें खजाना हाथ लग गया।

वहाँ सरस्वती से मुलाकात हो गयी। फिर तो गलबहिंयाँ डाले देर तक चिपके रहे। मोबाइल से फोटू खींची। वहाँ के प्रबन्धक ने बार-बार घड़ी देखने के बाद अन्ततः संकोच छोड़ कर जब बाहर अन्धेरा हो जाने और घर के लिए देर होने की बात कह दी, तब बड़े बे-मन से वहाँ से चले थे।

घर आए तो ‘सत्यार्थमित्र’ के पाठकों से सरस्वती की चर्चा करने का तरीका सोचते रहे। अदने से मोबाइल में जो तस्वीर खींच लाए थे उसे ब्लॉग में पोस्ट करने का जुगाड़ खोजते रहे। तब एक बार फिर बीबी-बच्चे अपनी बारी की प्रतीक्षा में टाइम काटते रह गये।
काफी जद्दोजहद के बाद आखिरकार फोटो ठेलने में सफलता मिली, खुशी से नाच उठे। जल्दी से मजमून टाइप किया और देमारा

सुबह जब कम्प्यूटर पर सत्यार्थमित्र खुला तो अचानक चिल्ला उठे; “अरे सुनती हो जी! …ये देखो, …मेरी पचासवीं पोस्ट।”
“अरे, …इसमें इतना चिल्लाने की क्या बात है?”
“है न… मुझे तो कल ध्यान ही नहीं आया, जब इसे लिख रहा था।”
“अच्छा हुआ जो ध्यान नहीं आया” पत्नी ने उलाहना दे ही डाली; “…कल तो आपने बच्चों पर भी ध्यान नहीं दिया था।”
फिर पूछ बैठीं, “वैसे आप क्या करते जो ध्यान आ जाता।”
“वही जो अर्द्धशतक लगाने पर नये बल्लेबाज करते हैं।”
“क्या हेलमेट उतारकर (कम्प्यूटर छोड़कर) धरती पर लेट जाते?”
“…हेलमेट तो शतक पर उतारा जाता हैं, …लेकिन यहाँ बल्ले को चूमकर साथियों की ओर इशारा तो कर ही सकता था।”
“तो अब कसर पूरी कर लीजिए न…!”
“नहीं …अब तो स्कोर आगे बढ़ गया। …चलो, अब शतक के लिए कमर कसते हैं… सारा जश्न तभी मनाएंगे।”

इधर खुसर-फुसर की दूसरी किश्त तैयार करने में चिन्तित हो लिये हैं। पहली पोस्ट की लम्बाई फुरसतिया इश्टाइल की हो गयी तो बहुतों ने बीच में ही कट लेना उचित समझा। सोच रहे हैं कि उस लाइब्रेरी के भीतर जो करुणामय बातें सुन रखी हैं उन्हें पूरा का पूरा दुनिया को नहीं बताया तो शायद पाप लग जाएगा। इनकी ओर बड़ी उम्मीद भरी निगाहें उठ खड़ी हुई थीं। अब देखिए क्या करते हैं…।
(सत्यार्थमित्र की ओर से)

शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

एक दुर्लभ विज्ञापन... सरस्वती से

हिन्दी भाषा सीखने का विज्ञापन उत्तरी भारत के शिक्षा केन्द्र इलाहाबाद से निकलने वाली पत्रिका में देखकर आप क्या सोचेंगे? मुझे तो थोड़ी हैरत हो रही है। ...लेकिन रोमांच कहीं ज्यादा हो रहा है। क्योंकि आम बोल-चाल और चिठ्ठी-पत्री लिखने, अदालतों में प्रार्थना-पत्र आदि लिखने भर की हिन्दी तो हम यूँ ही जान लेते हैं। फिर ऐसा विज्ञापन क्यों...?

आजादी से पहले २०वीं सदी की शुरुआत में ऐसी स्थिति कतई नहीं थी। उसी समय हिन्दी भाषा में सरस्वती पत्रिका का प्रकाशन देश की साहित्यिक गतिविधियों का निरूपण करते हुए हिन्दी भाषा के विकास का साक्षी बन रहा था। इस प्रतिष्ठित पत्रिका के फरवरी-१९०१ के अंक के पृष्ठ आवरण पर छपा यह रोचक विज्ञापन देखिए। इस समय बाबू श्याम सुन्दर दास, बी.ए. इस पत्रिका के सम्पादक हुआ करते थे:



(स्पष्ट देखने के लिए चित्र पर चटका लगाएं)



विज्ञापन का मजमून इस प्रकार है:
सरकारी हुक्म है
कि पश्चिमोत्तर प्रदेश व अवध की सब अदालतों में हिन्दी जारी हो और सब अमले, वकील, मुख़तार, उम्मीदवार और अदालती लोग उर्दू के साथ-साथ हिन्दी पढ़ना लिखना भी सीखें।
आप हिन्दी जानते हैं?
जो न जानते हों तो सीखनी जरूर चाहिए। और जब सीखना ही है तो बाबू नन्दमल, एकस्ट्रा असिस्टन्ट कनसरवेटर, महकमें जंगलात, नैनीताल, की बनाई हुई
मुअल्लिम नागरी
से बढ़कर घर बैठे हिन्दी सिखाने वाली किताब दूसरी और पैदा नहीं हुई है। आप ही के लिए यह किताब छापी जा रही है। पहिली मार्च तक छप कर तैयार हो जाएगी। इसमें उर्दू और नागरी के हरूफ़ों में सरकारी अदालत और दफतरों की सब जरूरी बातें बहुत उमूदः तौर पर समझाई गई है । यह किताब घर बैठे बिना गुरूजी के आपको पण्डित बना देगी।
दाम सिर्फ आठ आने।
डाक महसूल अलग।
कुतुब फ़रोशों और दस जिल्द इकठ्ठा लेने वालों को कमीशन दिया जाएगा।
मिलने का पता-
मैनेजर इण्डियन प्रेस, इलाहाबाद

बुधवार, 24 सितंबर 2008

किताबों की खुसर-फुसर… एक क्षेपक

मेरी कल की पोस्ट में किताबों की बात-चीत के बीच-बीच में दिया हुआ उनका कोड क्रमांक शायद आपको परेशान कर रहा हो। मुझे तो कर ही रहा था। इसलिए सोचता हूँ, अगली कड़ी देने से पहले इसके बारे में थोड़ी चर्चा कर ली जाय।

कम्प्यूटर के युग में पैदा होने वाले बच्चों को शायद यह अजूबा लगे; लेकिन किसी विशाल पुस्तकालय की लाखों पुस्तकों को उनकी विषय-वस्तु के क्रम में सुव्यवस्थित करने, उसी के अनुसार भौतिक रूप से उन्हें क्रमबद्ध करके रखने और मांगे जाने पर बिलकुल सटीक स्थान पर जाकर किताब निकाल लाने के लिए सन् १८७६ में मेल्विल डेवी (१८५१-१९३१) ने एक शानदार पद्धति विकसित कर ली थी। इसमें बिना किसी कम्प्यूटर की मदद लिए प्रत्येक पुस्तक को एक विशिष्ट पहचान संख्या (unique code number) से पहचाना जाता है, जो उस पुस्तक के बारे में बहुत सा परिचय अपने भीतर छिपाए रखती है।

डीडीसी पद्धति [The Dewey Decimal Classification (DDC)], जिसे Dewey Decimal System भी कहते हैं, में यद्यपि आवश्यकतानुसार समय-समय पर इसका परिमार्जन और प्रसार भी होता रहा है तथा २००४ तक इसमें करीब बाइस बड़े बदलाव किये जा चुके हैं; फिरभी मूल सिद्धान्त यह है कि ज्ञान के समस्त विषयों को १० प्रमुख वर्गों या श्रेणियों (catagories) में बाँटा गया है; फिर इन सभी श्रेणियों को १०-१० उप-श्रेणियों (sub-catagories) में विभक्त किया गया। इस प्रकार प्राप्त १०० उपश्रेणियों का विभाजन १०-१० खण्डों (sections) में करके कुल १००० खण्ड बनाये गये हैं। दुनिया की कोई भी पुस्तक इनमें से किसी एक खण्ड में अवश्य रखी जा सकती है। विद्वानों ने इसके आगे जाकर प्रत्येक खण्ड में दशमलव अंकों का प्रयोग करके विशिष्ट विषय सामग्री का अति सूक्ष्मता से विभाजन भी किया है।

यहाँ मैं केवल उन १० प्रमुख श्रेणियों का उल्लेख कर रहा हूँ जो विषय विभाजन के सर्वोच्च सोपान पर हैं

(००००९९) ......कम्प्यूटर विज्ञान, सूचना, और अन्य सामान्य विषय
(१००१९९) ......दर्शन मनोविज्ञान
(२००२९९) ......धर्म
(३०० - ३९९) ......सामाजिक विज्ञान
(४००४९९) ......भाषा, भाषा विज्ञान
(५००५९९) ......शुद्ध विज्ञान
(६००६९९ )......प्रौद्यौगिकी (अनुप्रयुक्त विज्ञान)
(७०० - ७९९) ......कला मनोरंजन
(८००८९९ )......साहित्य, (उदात्त साहित्य)
(९००९९९) ......सामान्य भुगोल, इतिहास और जीवन वृत्त

इस विभाजन के पारिभाषिक शब्दों को विस्तार से जानने और पद्धति को समझने के लिए यहाँ चटका लगाइए।

मैने उस पुस्तकालय में इस पद्धति का प्रयोग देखा तो पहले कुछ समझ में नहीं आया; लेकिन अब जान गया हूँ कि कल १०० और २०० नम्बर वाली आलमारी की चर्चा खुसर-फुसर में क्यों थी। ...मैं अगली कड़ी में किताबों की बात-चीत वापस लाऊंगा। जिसमें वे मेरे पीछे ही पड़ गयीं थीं।
(सिद्धार्थ)

मंगलवार, 23 सितंबर 2008

किताबों की खुसर-फ़ुसर... भाग-१

एक बड़े और भव्य पुस्तकालय में जाने का मेरा अनुभव पहला तो नही था; लेकिन जाने क्यों इस बार जब मैं इस पुस्तकालय में दाखिल हुआ तो मुझे बड़ी खुसर-फुसर और आपस में गड्ड-मड्ड होती आवाजें सुनायीं पड़ीं।

मैने चारो ओर नजर दौड़ाई तो एक भी पुस्तक-प्रेमी या ज्ञान-पिपासु वहाँ मौजूद नही मिला। मिलता भी कैसे? यह इसके खुले होने का निर्धारित समय था ही नहीं। मैं तो ऑफिस से छुट्टी मिलने के बाद यहाँ पहुँचा था। विशेष अनुरोध पर गोपाल जी ने; जो इसके प्रबन्धक हैं, इसे मेरे लिए खोल दिया था।

अन्दर के सन्नाटे को भेदती आवाजों ने मुझे चौका दिया। …फिर भी इनपर विश्वास न करके मैने गोपालजी से पुस्तकों के रख-रखाव के बारे चर्चा शुरू की। उन्होंने एक मोटा सा ग्रन्थ खोल लिया था। डीडीसी पद्धति (Hindi Dewey Decimal Classical system & Relative Index) के बारे में कुछ बताना चाहते थे| मुझे पीछे रखी आलमारी के भीतर से आती आवाज स्पष्ट सुनायी पड़ी-

“देखो-देखो, यह भी बेवक्त घूमने आया है, …थोड़ी देर कुछ पलट लेगा, या गप लड़ाकर चलता बनेगा।”
“नहीं जी सुना है, कम्प्यूटर पर ब्लॉग लिखता है। उसी के लिए कुछ ढूँढने आया है…”
“क्या बकते हो”; …किसी ने डपट दिया था।
“ मैं सही कह रहा हूँ, देखना यह सबसे पीछे वाली लाइन में १०० और २०० नम्बर की ओर जाएगा।” स्पष्ट विश्वास से भरी हुई आवाज आयी।
“…मैं भी जानता हूँ, ये राजा पुरंजन की कहानी खोज रहे है। भागवत पुराण के चतुर्थ स्कंध में नारद जी ने इस कहानी को सुनाया है।” यह एक तीसरी आवाज थी।

अरे! मेरे पुराण-चर्चा की बात यहाँ कैसे पता चली? मैं सोचने लगा। …गोपालजी मेरे मन के भाव पढ़ नहीं पा रहे थे। सोचते होंगे, मैं उनकी डेवी डेसिमल सिस्टम की बात पर ध्यान नहीं दे रहा हूँ। …मैं मुस्कराता हुआ उठ खड़ा हुआ।


www.queens.cam.ac.uk से साभार



मैने उनसे पुराणों वाली आलमारी दिखाने को कहा। उन्होंने इस विषय-परिवर्तन के लिए मेरी ओर विस्मय से प्रश्नवाचक दृष्टि डाली। …मैं अभी कुछ कहता, इससे पहले ही यह अबूझ टिप्पणी मुझे चक्कर में डाल गयी,

“जिसे यह किताबों का विद्वान समझ रहा है, उसके कष्ट को समझने की फिक्र इसे भी नहीं है।”

…क्या इशारा गोपाल जी की ओर था? यहाँ और कोई तो था नहीं। मैने अपना सिर झटककर इन विचारों को दूर फेंका। इनके कष्टों के लिए मैं क्या कर सकता हूँ, यह सोचने के लिए वक्त कहाँ था? लेकिन सोचना तो पड़ेगा ही …गोपालजी सचमुच सबसे पीछे वाली कतार की ओर बढ़े जा रहे थे। उनके पीछे-पीछे मैं भी चल पड़ा।

मुझे महसूस हुआ, जैसे मैं किसी जनसभा की बैरिकेडिंग के बीच से गुजर रहा हूँ, दोनो तरफ़ भीड़ खड़ी है, और तरह-तरह की बातें कर रही हैं। कुछ अपने बारे में, कुछ दुनिया जहान के बारे में और कुछ मेरे बारे में भी…

“जाइये-जाइये, देख आइए… अपने पुराणों की हालत!” किसी ने चुटकी ली थी।
“…अरे चुपकर जी, कोई तो आया इधर पिछवाड़े… खुशियाँ मना ” किसी ने नसीहत दी।
“हाँ, भला आदमी लगता है जी…” ठकुरसुहाती कान में पड़ी।
“क्या खाक भला है? अपने मतलब का यार है… चालीस साल हो गये मुझे यहाँ आए, किसी ने तो नहीं पलटा मुझे…” झन्नाटेदार आवाज थी।

मैं रुक गया। गोपाल जी से इस अन्तिम टिप्पणीकार को बाहर निकालने के लिए कहा। कोड संख्या २३०.०३- ग्रीस पुराण कथा कोश, लेखक- कमल नसीम, वर्ष-१९६०।

इसे देखकर सोचने लगा- “…तो क्या बिना पन्ना पलटे ही पीली पड़ गयी?”

भीतर देखा तो इडिपस की कहानी झाँक रही थी। बी.ए. करते समय मनोविज्ञान की कक्षा में व्यक्तित्व विकास पर फ्रायड की चर्चा के दौरान ‘इडिपस-काम्प्लेक्स’ सुना था। फिर तो इसमें इलेक्ट्रा भी होगी।

मेरी मुस्कराहट देखकर गोपालजी पूछ बैठे, “ग्रीस में भी पुराण लिखा जाता था क्या सर?”

मैं क्या बताता, मुझे भी आज ही पता चला था। मैने लगता तो है कहकर किताब उसके स्थान पर रख दी।

बगल की आलमारी से धीर-गम्भीर आवाज में कोई मंत्र जाप करता सुनाई पड़ा। झाँककर देखा तो ०३०नं. कोड पर ‘हिन्दी विकास समिति के प्रयास से उद्भूत विश्वज्ञान संहिता की भारी भरकम पुस्तक आसन जमाए बैठी थी, गोपालजी निकालने को बढ़े तो मैने रोक दिया, ध्यान भंग नहीं करना चाहता था। उसी के बगल में ०३१ नं. वाली हिन्दी विश्वकोषभी साधना कर रही थी।

मैं नगेन्द्रनाथ वसु और विश्वनाथ वसु की इस मेहनत को विस्फारित आँखों से देख रहा था; तभी आलमारी से उछलकर एक छोटी सी पुस्तक पैर के पास गिर पड़ी। …मैने पैर हटा लिया था, झुककर उसे उठाया तो पाया कि कोड क्रमांक ८० वाली १९५०-५१ की वर्षवोध (राजकमल) थी, प्रोफेसर बलराज की लिखी वार्षिकी।

...शायद वर्षों से पढ़े न जाने का उपेक्षित भाव सहन न कर पायी थी। मैंने उसे सहलाते हुए समझाने की कोशिश की। यहकि सामयिक पत्र-पत्रिकाओं की उम्र एक दिन, एक सप्ताह, एक माह, तीन माह, या एक वर्ष की तो हो सकती है ५०-६० वर्ष की नहीं …इस इण्टरनेट के जमाने में इतना अधीर होने से क्या फायदा?

इतना सुनते ही वहीं दूसरी ओर रखी आलमारी से झगड़े जैसी स्थिति की ध्वनियाँ आने लगीं।

“देखा, कहा था न मैने, …इस जमाने में अब खूब पढ़े जाने की उम्मीद मत करो। कोई भूला-भटका शोधार्थी आ जाय तो धन्य मानो, अपने-आपको।” स्वर में सांत्वना थी।
“…अरे नहीं जी, आज पहले से ज्यादा पढ़े-लिखे लोग हो गये हैं। किताबें पहले से अधिक छप रही हैं। अबके लेखक पहले के लेखकों जैसे गरीब नहीं रह गये हैं।” आशावादी स्थापना।
“अच्छा तो पाठक लोग हैं कहाँ? …यहाँ आते क्यों नहीं?” व्यंग पूर्ण प्रश्न था।
“आते तो हैं। …यहाँ की कुर्सियाँ और बेन्चें अपने आप तो जर्जर नहीं हो गयी हैं।” कमजोर जवाब जिसमें विश्वास की कमी थी।
“जर्जर तो यहाँ बहुत सी किताबे भी हैं। तो क्या मान लें कि बहुत पढ़ी गयी हैं। …मैं सैकड़ों गिना दूँ जिनका खाता नहीं खुला है, और पन्ने भंगुर हो गये हैं।” यह आवाज अरस्तू (कोड१८५ लेखक-शिवानन्द शर्मा, सूचना विभाग) की थी।

“तुम मत बोलो जी, चार लोगों ने पढ़ क्या लिया, लगे महान बनने।” तल्ख आवाज में हिन्दुस्तान के इतिहास की सरल कहानियाँ बोल पड़ी।

मैने इसके उद्धत वचन सुनकर इसे बाहर निकाल लिया। कोड ३७२.८९ की यह भारी पुस्तक . मार्सडेन - बी.., एफ.आर.जी.एस., एम.आर..एस. तथा लाला सीताराम - बी.., एफ..यू. एम.आर..एस. द्वारा संयुक्त रूप से लिखी गयी थी।

मैने पूछा, “इन सरल कहानियों में यही शिक्षा लिखी है क्या जी…?” शायद उसे झेंप हुई हो, गोपालजी ने मेरे हाथ से लेकर उसे वहीं सजा दिया।

मैं आगे बढ़ता, इससे पहले ही फिर खुसर-फुसर शुरू हो गयी। लेकिन मैं अनसुना करके आगे बढ़ गया। तभी पीछे से कुछ पक्षियों का धीमा कलरव सुनायी पड़ा। पाँव रुक गये, पीछे मुड़ा तो हरे कपड़े की जिल्द में लिपटी भारत के पक्षी[कोड सं.५९८.२९०५४ (१९५८, पुनर्मुद्रण १९८२) लेखक-राजेश्वर प्रसाद नारायण सिंह, प्रकाशन विभाग-सूचना और प्रसारण मन्त्रालय, भारत सरकार,] नामक पुस्तक बिलकुल तरोताजा हालत में मिल गयी। समय कम था और किताबें घर ले जाने की सुविधा नहीं थी; इसलिए ललचायी नजरों से देखते हुए पुराणों वाली आलमारी की ओर चल पड़ा।

अचानक बीच में ही कदम फिर रुक गये। एक आलमारी के निचले खाने से कराहने की आवाज आ रही थी। मैने बैठकर देखा तो उस खाने की चौड़ाई और ऊँचाई के बराबर की ही एक अत्यन्त मोटी पुस्तक सबसे किनारे की ओर ठोंककर बैठा दी गयी थी। जैसे किसी बढ़ई ने नापकर फिट कर दिया हो। वर्षों तक एक ही मुद्रा में चारो ओर से दबी रही यह पुस्तक पहलू बदलने की मांग सी कर रही थी। मैने गोपाल जी से इसे निकालने को कहा।

पहले प्रयास में यह हिल न सकी। आलमारी के लोहे से इसका आवरण चिपक गया था। चर्रर्र… की आवाज हुई, टुकड़े में फिरोजी रंग का जिल्द आवरण बाहर आ गया। च्च, च्च, च्च… बरबस मुँह से निकल पड़ा।

तब गोपालजी ने जमीन पर आसन जमाकर कोड क्रमांक ४२३ वाले इस ‘ए-फोर’ साइज़ से भी बड़े १५७६ पृष्ठों वाले ‘मानक अंग्रेजी-हिन्दी कोश’ (१९८३) को बाहर निकालने का प्रयास किया। वहाँ यह ऐसा अटका पड़ा था कि उनके पसीने छूट गये। …लेकिन हम भी ठहरे जिद्दी इन्सान। उसके पड़ोस की दर्जन भर किताबें निकालकर जगह बनायी गयी। फिर उसे धीरे से लिटाकर सम्हालते हुए बाहर किया गया। हिन्दी साहित्य सम्मेलन की इस वृहत्तर सुकृति को तैयार किया था सम्पादकद्वय डॉ. सत्यप्रकाश, डी.एस.सी. और बलभद्र प्रसाद मिश्र जी ने। इसकी मोटी जिल्द के भीतर कितने शब्दों की प्रविष्टियाँ दी गयीं हैं, यह अनुमान करना भी दुष्कर था।

उसे झाड़-पोंछकर दुबारा उसी रीति से वहीं फिट करवाकर मैं अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने लगा तो साहित्यिक ब्रजभाषा कोश (१९८९)- डॉ. विद्यानिवास मिश्र, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान-लखनऊ ने भी रोकने की कोशिश की। बहुत सी अन्य मोटी पुस्तकों ने अपने झरोखे से झाँक-झाँककर कर मुझे न्यौता दिया। आखिरकार, मुझे लगने लगा कि आज पुराण चर्चा का लक्ष्य नही हासिल कर पाऊंगा।

वहीं से वापस लौटने लगा तो १९३१ में अभ्युदय प्रेस-प्रयाग से पद्मकान्त मालवीय द्वारा प्रकाशित तथा कृष्ण कान्त मालवीय की लिखी एक छोटी पुस्तक सामने पड़ गयी। टोककर पूछा, “कहिए ब्लॉगर महोदय, सिर्फ़ टहलने आये थे कि कुछ ले भी जा रहे हैं।”
अब मैं क्या बताता…, उसी पुस्तक के पन्ने पलटने लगा। …कोड क्रमांक- ६४९ मातृत्व तथा बच्चों की फिक्र’(१९३१) भूमिका में अथर्ववेद का यह श्लोक उद्धरित था-

विश्वरूपां सुभगामच्छा वदामि जीवलाम्
सा नो रुद्रस्यास्तां हेतु दूरं नयतु गोभ्यः

विश्वरूपाम् नाना प्रकार के समस्त पदार्थों को उत्तम रूप से बनाने वाली, उनका निरीक्षण करने वाली, जीवलाम् सबको जीवन प्रदान करने वाली, सुभगम् सौभाग्यशीला- ऐश्वर्यवाली स्त्री को हम लोग अच्छा कहते हैं।(…जारी)

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

इनकी संख्या अठारह क्यों? …पुराण चर्चा।

कहते हैं कि ब्रह्मा जी ने करीब एक अरब श्लोकों वाले एक ही पुराण की रचना की थी। लेकिन इसका अध्ययन करने के इच्छुक देवताओं और मनुष्यों की सुविधा के लिए महर्षि वेद व्यास ने इस वृहत् पुराण को अठारह भागों में बाँट दिया, और श्लोकों की संख्या में भी काट-छाँट करके इसे चार लाख तक कर दिया। इस संख्या को अठारह ही क्यों रखा गया, इसके पीछे भी विद्वानों ने खोज की है। आप भी जानिए इस अठारह के रहस्य को:

१.अठारह सिद्धियाँ: अणिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, सिद्धि, ईशित्व अथवा वाशित्व, सर्वकामावसायिता, सर्वज्ञत्व, दूरश्रवण, सृष्टि, परकायप्रवेशन, वाक्सिद्धि, कल्पवृक्षत्व, संहारकरणसामर्थ्य,भावना, अमरता, सर्वनायकत्व।
२.अठारह तत्व: पंच महाभूत (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, एवं आकाश), पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, नासिका, एवं रसना), पाँच कर्मेन्द्रियाँ (वाक् पाणि, पाद, पायु, एवं उपस्थ), साँख्य दर्शन में पुरुष, प्रकृति और अन्तिम ‘मन’।
३.अठारह विद्याएं: छः वेदांग, चार वेद, मीमांसा, न्यायशास्त्र, पुराण, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद, और गंधर्ववेद
४.काल के अठारह भेद: एक संवत्सर, पाँच ऋतुएं, और बारह महीने।
५.अठारह अध्याय: श्रीमद् भागवत गीता में।
६.अठारह हजार श्लोक: श्री मद् भागवत पुराण में।
७.अठारह स्वरूप: भगवती जगदम्बा के प्रसिद्ध स्वरूप- काली, तारा, छिन्नमस्ता, षोडशी, त्रिपुरभैरवी, धूमावती, वगलामुखी, मातंगी, कूष्माण्डा, कात्यायनी, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, गायत्री, पार्वती, श्रीराधा, सिद्धिदात्री, स्कन्दमाता।
८. अठारह भुजाएं: श्री विष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र आदि देवताओं के अंश से प्रकट हुई भगवती दुर्गा अठारह भुजाओं से सुशोभित हैं जिनमें उतने ही प्रकार के अस्त्र शस्त्र धारण करती हैं।

महर्षि वेद व्यास जी ने अपने वर्गीकरण में अठारह पुराणों के अतिरिक्त कुछ उप पुराणों को अलग से रच डाला। ये मुख्य पुराणों के ही संक्षिप्त रूप हैं। इन्हें आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में मोटी-मोटी पाठ्य-पुस्तकों के साथ मिलने वाली गाइड बुक्स या कुञ्जी के रूप में समझा जा सकता है। परीक्षा के समय इन्हें पढ़ना आसान समझा जाता है। कुछ विद्यार्थी तो इन्हीं शॉर्टकट औंजारों पर भरोसा करके साल भर मस्ती काटते हैं।

कुछ उप-पुराणों के नाम यहाँ देखें:

सनत्कुमार पुराण, नृसिंह पुराण, दुर्वासा पुराण, मनु पुराण, कपिल पुराण, उशनः पुराण, वरुण पुराण, कालिका पुराण, साम्ब पुराण, नंदी पुराण, सौर पुराण, पराशर पुराण, आदित्य पुराण, माहेश्वर पुराण, भागवत पुराण, वसिष्ठ पुराण।


प्रस्तुति: सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी

शनिवार, 13 सितंबर 2008

आइए हिन्दुस्तानी एकेडेमी में...

“रात भर कम्प्यूटर पर बैठकर क्या किया जी?” …पत्नी ने सुबह-सुबह जगा कर पूछा।

“क्या मतलब?” मैं आँखे मलते हुए उठ बैठा।

“कोई नयी पोस्ट तो दिख नहीं रही है!” रातभर खटर-पटर का नतीजा सिफ़र…!

हिन्दुस्तानी एकेडमी का काम कर रहा था।” मैने बताया।

ये कौन सा नया काम शुरू कर दिया? सत्यार्थमित्र क्या कम था, जो एक और नया ब्लॉग…

अरे यार, ये मेरा ब्लॉग नहीं है। इसको तो बस शुरू किया है मैने… इसमें लिखने वाले और दूसरे लोग होंगे। यह एक बड़ा प्रोजेक्ट है,… अगर चल निकला तो…

“तो… फिर आपने दो बजे तक किया क्या?”

मैने इसका नया ब्लॉग बना दिया है… और पहली पोस्ट लिखकर डाल दी है… बस।

“अच्छा; …अब आगे?”

“आगे की वो जानें, जिन्हें हिन्दी से प्यार है, लगाव है, या कहें इसके लिए एक जुनून है… अब तो वे ही इसे आगे बढ़ाएंगे…”

“चलिए हमारी भी शुभकामनाएं, इस सामूहिक प्रयास की सफलता के लिए…। …लेकिन ये हिन्दुस्तानी एकेडमी है क्या?”

“सब कुछ जानना है तो उस ब्लॉग पर जाने का कष्ट करो जी… धीरे-धीरे सब पता चल जाएगा। ...अभी तो बस शुरुआत है|”


तो मित्रों, ये है संवाद आज अलस्सुबह का। पिछले चार पाँच दिनों से ब्रॉडबैण्ड ने इतना दुःखी कर रखा था कि कम्प्यूटर पर बैठना सम्भव नहीं हो पा रहा था। न कोई पोस्ट, ना कोई टिप्पणी… बस डायल करते जाइए, लिंक फेल का फेल ही रहा। अन्ततः जब कल शाम लाइन ठीक हुई तो रात भर का प्रोग्रॉम बना डाला। सोचा था ढेर सारी पोस्टें पढ़ूंगा, गूगल रीडर में लगा लम्बा जाम हटाऊँगा, खूब टिप्पणियाँ लिखूंगा, और मौका मिला तो नयी पोस्ट का सूखा भी दूर करूंगा...।

...लेकिन मैने रात भर जो किया, उसमें यह कुछ भी नहीं हो सका। फिरभी मुझे अफ़सोस नहीं है, क्योंकि हिन्दुस्तानी एकेडेमी को आप लोगों के बीच लाकर मुझे बहुत प्रसन्नता हो रही है। अलबत्ता तकनीकी कौशल की कमीं से अभी वहाँ बहुत कुछ किया जाना शेष है जिसके लिए आप सभी का सहयोग अपेक्षित है।

तो देर किस बात की… दोनो हाथों से स्वागत कीजिए इस गौरवपूर्ण संस्था के नये कदम का…।