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रविवार, 21 नवंबर 2010

बुरे फँसे दिल्ली में... आपबीती

delhi trafic police

दिल्ली के भीतर गति-सीमा में कार चलाना एक अद्‍भुत कला है…

सरकारी अफसर बनकर नौकरी में आते ही सबसे पहले मुझे किसी ने नेक सलाह दी कि गाड़ी चलाना जरूर सीख लो नहीं तो ड्राइवर पर आश्रित रहने पर कभी-कभी मुश्किल पेश आ जाती है। यदि कभी कोई बदमाश ड्राइवर मिल गया तो ऐन वक्त पर दाँव दे सकता है और बॉस के आगे फजीहत की नौबत आ सकती है। मैने सोचा कि यदि ऐसी बात न भी होने वाली हो तो भी आज के जमाने में कार चलाना आना ही चाहिए। वैसे भी एल.एम.वी. ड्राइविंग लाइसेंस जो पहले ही बन चुका था उसे औचित्य प्रदान करने के लिए वास्तव में ड्राइविंग सीख लेना जरूरी था।

देहाती क्षेत्रों के सरकारी दौरे पर जाते समय मौका देखकर मैंने अपने ड्राइवर से सीट अदल-बदलकर गाड़ी चलाना सीख लिया। जल्दी ही शहरी भीड़-भाड़ में भी सरकारी जीप चलाने लगा। फिर जब घर में कार आयी तो ड्राइवर नहीं ढूँढना पड़ा। पत्नी और बच्चों के साथ प्राइवेसी एन्जॉय करते हुए घूमना और ड्राइवर से संबंधित अनेक लफ़ड़ों से मुक्त रहने का आनंद वही जान पाएंगे जिन्होंने गाड़ी चलाना सीख रखा हो। अब जबकि दस-बारह साल से गाड़ी चलाते हुए मैं अपने आपको एक्सपर्ट और बेदाग ड्राइवर समझने लगा था, अच्छी बुरी सभी सड़कों पर कार चलाने का पर्याप्त अनुभव इकठ्ठा कर चुका था, तेज गति के साथ भी संतुलित और नियंत्रित ड्राइविंग कर लेने का दावा करने लगा था और मौके-बेमौके नौसिखिए लोगों को ड्राइविंग के गुर सिखाने लगा था तभी मुझे एक नये ज्ञान की प्राप्ति हो गयी।

हुआ यूँ कि मुझे दिल्ली आकर अपनी श्रीमती जी के साथ उनके भाई के घर रुकने का अवसर प्राप्त हुआ। हमें दिल्ली से बाहर करीब पचास-साठ किलोमीटर की यात्रा लगातार पाँच-छः दिन करने की जरूरत पड़ी। इसके पहले भी एक बार दिल्ली आना हुआ था और करीब दस दिनों तक टैक्सी का सहारा लेना पड़ा था। पिछले अनुभव के आधार पर इस बार मैं बेहतर विकल्प तलाश रहा था।

dtp2पिछली बार यह अनुभव मिला था कि गेस्ट-हाउस से गंतव्य तक टैक्सी से यात्रा करना काफी खर्चीला और उबाऊ तो था ही, प्राइवेसी और निश्चिंतता के लाले भी पड़ गये थे। यात्रा के दौरान अपनी ही पत्नी और बच्चे से सँभल-सँभलकर बात करनी पड़ती थी या बिल्कुल चुपचाप यात्रा करनी पड़ती थी। टैक्सी वाले को घंटों खड़ा रखने का किराया ही हजारों में देना पड़ा था। इतना ही नहीं उसकी ड्राइविंग का ढंग देखकर कोफ़्त भी बहुत होती थी। दायें-बायें से दूसरी गाड़ियाँ ओवरटेक करती रहतीं और यह सबको साइड देता रहता। ‘लेन-जंपिंग’ के उस्ताद ड्राइवर अचानक इसके आगे आ जाते और यह आराम से ब्रेक लगाता रहता। कदम-कदम पर रेड-लाइट के सिग्नल भी मात्र कुछ सेकेंड से पिछड़ जाने के कारण रास्ता रोक देते। फिर वह आराम से इंजन बंद कर देता और हरी बत्ती जल जाने के बाद ही इंजन स्टार्ट करता, गियर लगाता और धीरे-धीरे आगे बढ़ता। इस बीच पीछे की अनेक गाड़ियाँ आगे हो लेतीं।  मुझे यह लिजलिजी ड्राइविंग बोर करती। सोचता कि काश कोई ‘स्मार्ट’ ड्राइवर मिला होता।

इस बार जब मुझे आना हुआ तो मेरे नजदीकी व प्रिय रिश्तेदार ने मेरी समस्या समझते हुए अपने घर पर ही ठहरने का प्रबंध किया और अपनी निजी कार मेरी सेवा में लगा दी। पहले दिन एक दैनिक भाड़े का ड्राइवर बुला लिया गया ताकि मैं उसके साथ चलकर रास्ते की पहचान कर सकूँ। यात्रा शुरू होते ही मैने उसके बगल में बैठकर अपना लैपटॉप खोल लिया और गूगल अर्थ का पेज खोलकर दिल्ली को जूम-इन करते हुए सभी गलियों और सड़कों के लेवेल का नक्शा सेट कर लिया। अपने गंतव्य तक का रूट चिह्नित कर उससे वास्तविक मार्ग का मिलान करता रहा। वापसी में भी पूरे रास्ते का मानचित्र दिमाग में बैठाता रहा।

अगले दिन मैंने गाड़ी की कमान खुद संभाल ली। ड्राइवर की छुट्टी कर दी गयी। सीट बेल्ट बाँधते ही मेरी स्थिति थोड़ी असहज हो गयी। इस प्रकार बाँधे जाने के बाद शरीर का हिलना-डुलना काफी मुश्किल सा हो गया। लेकिन मैंने अपनेआप को समझाया कि यह नियम तो फायदे के लिए ही बना होगा। हाथ और पैर तो खुले हुए थे ही। ड्राइविंग तो मजे में की जा सकती है। फिर दोनो तरफ़ के ‘साइड-मिरर’ खोलकर सही कोण पर सेट किए गये। इससे पहले मैने केवल सिर के उपर लगे बैक-मिरर का ही प्रयोग किया था। इन बगल के शीशों में झाँकने पर ऐसा लगा कि दोनो तरफ़ से आने वाली गाड़ियाँ बस मेरे ही पीछे पड़ी हैं और उनका एकमात्र लक्ष्य मेरी गाड़ी को ठोंकना ही है। मैंने एक-दो बार पीछे मुडकर उनकी वास्तविक स्थिति देखा और आश्वस्त हुआ कि मेरा भय निराधार है।

सुबह-सुबह घर से निकलते हुए सड़क पर ट्रैफिक कम देखकर मन प्रसन्न हो गया। रिंग रोड पर भी गाड़ियों की संख्या ज्यादा नहीं थी। ऑफ़िस और स्कूल-कालेज जाने वालों का समय अभी नहीं हुआ था। चार-छः लेन की इतनी चौड़ी सड़क पर प्रायः सन्नाटा दे्खकर मेरे मन से रहा-सहा डर भी समाप्त हो गया और मैने गाड़ी को टॉप गियर में डाल दिया। बड़े-बड़े फ़्लाई ओवर बनाकर लेवेल-क्रॉसिंग्स की संख्या बहुत कम करने की कोशिश की गयी है। जहाँ तिराहे या चौराहे हैं वहाँ स्वचालित ट्रैफिक सिग्नल की व्यवस्था है। दूर से ही लाल, हरी, व पीली बत्तियाँ दिख जाती हैं। सेकेंड्स की उल्टी गिनती करती डिजिटल घड़ियाँ यह भी बताती हैं कि अगली बत्ती कितनी देर में जलने वाली है। मेट्रो रेल की लाइनें तो इन फ़्लाई ओवर्स के भी ऊपर से गुजारी गयी हैं। ...दिल्ली का मेट्रो-सिस्टम मानव निर्मित चंद अद्भुत रचनाओं में से एक है। इसकी चर्चा फिर कभी।

dtpइन सारी स्वचालित व्यवस्थाओं को समझते-बूझते और अपनी गाड़ी को रिंग रोड की चिकनी सतह पर भगाता हुआ मैं एक फ्लाई ओवर से उतर रहा था तभी अचानक करीब आधा दर्जन वर्दी धारी जवान सड़क के बीच में आकर मुझे रुकने का इशारा करने लगे। वर्दी देखकर मुझे यह तो समझ में आ गया कि ये ट्रैफिक पुलिस के सिपाही हैं लेकिन मेरी गाड़ी को रोके जाने का क्या कारण है यह समझने में मुझे कुछ देर लगी। उनका अचानक प्रकट हो जाना और मेरी गाड़ी को लगभग घेर लेना मुझे कुछ क्षणों के लिए एक ‘मेंटल शॉक’ दे गया। सहसा मुझे अपने रिश्तेदार की उस बात का ध्यान आया कि यहाँ गति को मापने के लिए कई जगह खुफ़िया कैमरे लगे हैं जो कम्प्यूटर तकनीक से पल भर में ट्रैफिक पुलिस को बता देते हैं कि अमुक नंबर की गाड़ी निर्धारित गति से इतना तेज चल रही है और इतने मिनट में फलाँ ट्रैफिक बूथ पर पहुँचने वाली है।

जब एक इंस्पेक्टर ने मेरा ड्राइविंग लाइसेंस माँगते हुए यह बताया कि मैं 76 किमी. प्रति घंटे की रफ़्तार से चल रहा था जो निर्धारित सीमा से सोलह किमी/घं. अधिक है तो मेरी आशंका सही साबित हुई। घबराहट की मात्रा मुझसे अधिक मेरी धर्मपत्नी के चेहरे पर थी। मुझे उस ट्रैफिक वाले से अधिक श्रीमती जी के कोप की चिंता सताने लगी जो यहाँ से निकलने के बाद फूटने वाला था। मेरी गति को लेकर उनका बार-बार टोकना और मेरा अपने आत्मविश्वास को लेकर उन्हें बार-बार आश्वस्त करते रहना एक नियमित बात थी जो हमारे बीच चलती रहती थी। इस समय उनका पलड़ा पर्याप्त भारी हो चुका था और मेरा उसके नीचे दबना अवश्यंभावी था।

यह सब एक पल में मैं सोच गया क्योंकि उससे ज्यादा समय उस सिपाही ने दिया ही नहीं। वह मेरा ड्राइविंग लाइसेंस माँगता रहा और मैं उसे अपने पर्स में तलाशता रहा। चौदह साल पहले गोरखपुर में बनवाये जाने के बाद आजतक किसी पुलिस वाले ने इसे चेक नहीं किया था। इसका प्रयोग केवल परिचय व पते के सबूत के तौर पर एक-दो बार ही हुआ होगा वह भी जहाँ पैन-कार्ड पर्याप्त न समझा गया हो। मेरी घबराहट को देखते हुए ड्राइविंग लाइसेंस ने मिलने से मना कर दिया। मैंने हैरानी से अपने पर्स के सभी खाने दो-दो बार तलाश लिए। पीछे खड़े सिपाही आपस में बात करने लगे कि इसके पास डी.एल. भी नहीं है। सामने खड़ा इंस्पेक्टर भी ड्राइविंग लाइसेंस मिलता न देखकर मेरा नाम पूछने लगा। तभी मुझे ध्यान आया कि पर्स में सामने की ओर मैंने जहाँ बजरंग बली की तस्वीर लगा रखी है उसी के नीचे कार्डनुमा डी.एल. भी कभी फिट कर दिया था। मैंने फ़ौरन बजरंग बली को प्रणाम कर उनकी तस्वीर बाहर निकाली और उसके नीचे से डी.एल.कार्ड भी नमूदार हो गया।

अब वहाँ खड़े सिपाहियों की रुचि मेरे केस में कम हो गयी। केवल चालान काटने वाला इंस्पेक्टर मेरे ब्यौरे नोट करने लगा। चार सौ रूपये की रसीद काटकर उसने मुझे थमाया और मैने सहर्ष रूपये देकर  जिम्मा छुड़ाया। ‘सहर्ष’ इसलिए कि मुझे आशंका थी कि सरकारी फाइन कुछ हजार में हो सकती थी या किसी मजिस्ट्रेट के ऑफिस का चक्कर लगाना पड़ सकता था, या मेरा कोई कागज जब्त हो सकता था। इन सब खतरों को दूर करते हुए कानूनी रूप से कुछ शुल्क अदा करके मुझे छुट्टी मिल रही थी।

dtp1इसके बाद जब मैं आगे बढ़ा तो इंस्पेक्टर से पूछता चला कि यदि आगे यही गलती फिर हुई तो फिर चार सौ देने पड़ेंगे क्या? उसने थोड़ी देर तक मुझे अर्थपूर्ण मुस्कराहट के साथ देखा और कहा कि ‘आज की डेट में आप इस चालान से काम चला सकते हैं। वैसे धीमे चलिए तो आपकी ही सुरक्षा रहेगी।’ उसके बाद मेरी निगाह आगे की ट्रैफ़िक पर कम और अपने डैशबोर्ड पर अधिक रहने लगी। गतिमापक की सुई साठ से ऊपर न चली जाय इस चिंता में ही अधिकांश सफ़र कट गया। एक्सीलरेटर पर दाहिने पैर के दबाव को दुबारा सेट करना पड़ा ताकि रफ़्तार निर्धारित सीमा में ही बनी रहे। अब खाली सड़क देखकर अंधाधुंध स्पीड में चलते चले जाने के बजाय सुई को साठ पर स्थिर रखने की कला सीखनी पड़ी। पूर्वी उत्तर प्रदेश के शहरों व देहात में आगे की गाड़ी को केवल उसकी दाहिनी ओर से ओवरटेक करना होता था लेकिन यहाँ दोनो तरफ़ से पार करने के विकल्प खुले हुए हैं। हाँ, लेन-जंप करने में पीछे से आने वाली गाड़ियों पर ध्यान रखना जरूरी होता है।

अब मुझे दिल्ली में गाड़ी चलाने का पाँच दिन का अनुभव हो चुका है। मैंने देखा है अनेक बड़ी लग्जरी गाड़ियों को अस्सी-सौ पर फ़र्राटा भरते हुए, रेड सिग्नल को पार करते हुए और फिर भी न पकड़े जाते हुए। उसी स्पॉट पर सुबह-सुबह रोज  मेरे जैसे कुछ नये लोगों का चालान कटते हुए और गरीब टैक्सी ड्राइवरों को जुर्माना भरते हुए भी देखता हूँ। कारों की लम्बी कतारों के बीच लगातार लेन बदलने वाले बाइक सवारों के रोमांचक और खतरनाक करतब भी देखता हूँ और पैदल सड़क पार करने वालों की साहसी चाल भी देखता हूँ जिन्हें बचाने के लिए बड़ी सवारियों का काफ़िला एकाएक ठहर जाता है। 

मैं इस सबके आधार पर कह सकता हूँ कि दिल्ली के भीतर गति-सीमा जोन में कार चलाना एक अद्‍भुत कला है। आपका क्या ख़्याल है?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

स्थान:  वहीं जहाँ कॉमन वेल्थ खेलों के कारण सड़कों की हालत काफी अच्छी हो गयी हैं लेकिन खेल कराने वालों की हालत नाजुक चल रही है।

समय: जब मेरे मेजबान के घर पर सभी लोग सो चुके हैं, सड़क से ट्रैफिक की आवाज आनी  प्रायः बंद हो गयी है और मुहल्ले का चौकीदार डंडा फटकारते हुए अपना पहला राउंड अभी-अभी लगाकर जा चुका है।

सोमवार, 15 नवंबर 2010

पुराण चर्चा: लिंग पुराण (क्रोधी दुर्वासा और अंबरीष की कथा) भाग-२

 

भाग-१: लिंग पुराण का संक्षिप्त परिचय

भाग-२: क्रोधी दुर्वासा और अंबरीष की कथा:

durvasaप्राचीन समय की बात है। राजा नाभाग के अंबरीष नामक एक प्रतापी पुत्र थे। वे बड़े बीर, बुद्धिमान व तपस्वी राजा थे। वे जानते थे कि जिस धन-वैभव के लोभ में पड़कर प्राणी घोर नरक में जाते हैं वह कुछ ही दिनों का सुख है, इसलिए उनका मन सदैव भगवत भक्ति व दीनों की सेवा में लगा रहता था। राज्याभिषेक के बाद राजा अंबरीष ने अनेक यज्ञ करके भगवान विष्णु की पूजा-उपासना की जिन्होंने प्रसन्न होकर उनकी रक्षा के लिए अपने ‘सुदर्शन चक्र’ को नियुक्त कर दिया।

एक बार अंबरीष ने अपनी पत्नी के साथ द्वादशी प्रधान एकादशी व्रत करने का निश्चय किया। उन्होंने भगवान विष्णु का पूजन किया और ब्राह्मणों को अन्न-धन का भरपूर दान दिया। तभी वहाँ दुर्वासा ऋषि का आगमन हो गया। वे परम तपस्वी व अलौकिक शक्तियों से युक्त थे किंतु क्रोधी स्वभाव के कारण उनकी सेवा-सुश्रुसा में विशेष सावधानी अपेक्षित थी।

अंबरीष ने उनका स्वागत किया और उन्हें श्रेष्ठ आसन पर बिठाया। तत्पश्चात् दुर्वासा ऋषि की पूजा करके उसने प्रेमपूर्वक भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया। दुर्वासा ऋषि ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया। किंतु भोजन से पूर्व नित्य कर्मों से निवृत्त होने के लिये वे यमुना नदी के तट पर चले गये। वे परब्रह्म का ध्यान कर यमुना के जल में स्नान करने लगे।

इधर द्वादशी केवल कुछ ही क्षण शेष रह गयी थी। स्वयं को धर्मसंकट में देख राजा अम्बरीष ब्राह्मणों से परामर्श करते हुए बोले – “मान्यवरों ! ब्राह्मण को बिना भोजन करवाए स्वयं खा लेना और द्वादशी रहते भोजन न करना – दोनो ही मनुष्य को पाप का भागी बनाते हैं। इसलिये इस समय आप मुझे ऐसा उपाय बताएँ, जिससे कि मैं पाप का भागी न बन सकूँ।”

ब्राह्मण बोले – “राजन ! शास्त्रों मे कहा गया है कि पानी भोजन करने के समान है भी और समान नहीं भी है। इसलिये इस समय आप जल पी कर द्वादशी का नियम पूर्ण कीजिये।” यह सुनकर अंबरीष ने जल पी लिया और दुर्वासा ऋषि की प्रतीक्षा करने लगे।

जब दुर्वासा ऋषि लौटे तो उन्होंने तपोबल से जान लिया कि अंबरीष भोजन कर चुके हैं। अत: वे क्रोधित हो उठे और कटु स्वर में बोले – “ दुष्ट अंबरीष ! तू धन के मद में चूर होकर स्वयं को बहुत बड़ा मानता है। तूने मेरा तिरस्कार किया है। मुझे भोजन का निमंत्रण दिया लेकिन मुझसे पहले स्वयं भोजन कर लिया। अब देख मैं तुझे तेरी दुष्टता का दंड देता हूँ।”

क्रोधित दुर्वासा ने अपनी एक जटा उखाड़ी और अंबरीष को मारने के लिए एक भयंकर और विकराल कृत्या उत्पन्न की। कृत्या तलवार लेकर अंबरीष की ओर बढ़ी किंतु वे बिना विचलित हुए मन ही मन भगवान विष्णु का स्मरण करते रहे। जैसे ही कृत्या ने उनके ऊपर आक्रमण करना चाहा; अंबरीष का रक्षक सुदर्शन चक्र सक्रिय हो गया और पल भर में उसने कृत्या को जलाकर भस्म कर दिया।

जब दुर्वासा ऋषि ने देखा कि कि चक्र तेजी से उन्हीं की ओर बढ़ रहा है तो वे भयभीत हो गये। अपने प्राणों की रक्षा के लिए वे आकाश, पाताल,पृथ्वी,समुद्र, पर्वत, वन आदि अनेक स्थानों पर शरण लेने गये किंतु सुदर्शन चक्र ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। घबराकर उन्होंने ब्रह्मा जी से रक्षा की गुहार लगायी।

ब्रह्मा जी प्रकट हुए किंतु असमर्थ होकर बोले, “वत्स, भगवान विष्णु द्वारा बनाये गये नियमों से मैं बँधा हुआ हूँ। प्रजापति, इंद्र, सूर्य आदि सभी देवगण भी इन नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकते। हम नारायण की आज्ञा के अनुसार ही सृष्टि के प्राणियों का कल्याण करते हैं। इस प्रकार भगवान विष्णु के भक्त के शत्रु की रक्षा करना हमारे वश में नहीं है।”durvasa1

ब्रह्माजी की बातों से निराश होकर दुर्वासा ऋषि भगवान शंकर की शरण में गये। पूरा वृत्तांत सुनने के बाद महादेव जी ने उन्हें समझाया, “ऋषिवर ! यह सुदर्शन चक्र भगवान विष्णु का शस्त्र है जो उनके भक्तजन की रक्षा करता है। इसका तेज सभी के लिए असहनीय है। अतः उचित होगा कि आप स्वयं भगवान विष्णु की शरण में जाएँ। केवल वे ही इस दिव्य शस्त्र से आपकी रक्षा कर सकते हैं और आपका मंगल हो सकता है।”

वहाँ से भी निराश होकर दुर्वासा ऋषि भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे और उनके चरणों में सिर नवाकर दया की गुहार लगायी। आर्त स्वर में दुर्वासा बोले, “भगवन मैं आपका अपराधी हूँ। आपके प्रभाव से अनभिज्ञ होकर मैंने आपके परम भक्त राजा अंबरीष को मारने का प्रयास किया। हे दयानिधि, कृपा करके मेरी इस धृष्टता को क्षमा कर मेरे प्राणों की रक्षा कीजिए।”

भगवान नारायण ने दुर्वासा ऋषि को उठाया और समझाया, “मुनिवर ! मैं सर्वदा भक्तों के अधीन हूँ। मेरे सीधे-सादे भक्तों ने अपने प्रेमपाश में मुझे बाँध रखा है। भक्तों का एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ। अतः मैं स्वयं अपने व देवी लक्ष्मी से भी बढ़कर अपने भक्तों को चाहता हूँ। जो भक्त अपने बंधु-बांधव और समस्त भोग-विलास त्यागकर मेरी शरण में आ गये हैं उन्हें किसी प्रकार छोड़ने का विचार मैं कदापि नहीं कर सकता। यदि आप इस विपत्ति से बचना चाहते हैं तो मेरे परम भक्त अंबरीष के पास ही जाइए। उसके प्रसन्न होने पर आपकी कठिनाई अवश्य दूर हो जाएगी।”

नारायण की सलाह पाकर दुर्वासा अंबरीष के पास पहुँचे और अपने अपराध के लिए क्षमा माँगने लगे। परम तपस्वी महर्षि दुर्वासा की यह दुर्दशा देखकर अंबरीष को अत्यंत दुख हुआ। उन्होंने सुदर्शन चक्र की स्तुति की और प्रार्थना पूर्वक आग्रह किया कि वह अब लौट जाय। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर सुदर्शन चक्र ने अपनी दिशा बदल ली और दुर्वासा ऋषि को भयमुक्त कर दिया।

जबसे दुर्वासा ऋषि वहाँ से गये थे तबसे राजा अम्बरीष ने भोजन ग्रहण नहीं किया था। वे ऋषि को भोजन कराने की प्रतीक्षा करते रहे। उनके लौटकर आ जाने व भयमुक्त हो जाने के बाद अम्बरीष ने सबसे पहले उन्हें आदर पूर्वक बैठाकर उनकी विधि सहित पूजा की और प्रेम पूर्वक भोजन कराया। राजा के इस व्यवहार से ऋषि दुर्वासा अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें अनेकशः आशीर्वाद देकर वहाँ से विदा लिये।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

पुराण चर्चा: लिंग पुराण (क्रोधी दुर्वासा और अंबरीष की कथा) भाग-१

भाग-१: लिंग पुराण का संक्षिप्त परिचय:

ग्यारह हजार श्लोकों व १६३ अध्यायों में विभक्त इस पुराण में भगवान शिव से संबंधित विभिन्न पौराणिक आख्यानों, उपाख्यानों व घटनाओं का वर्णन करते हुए शैव सिद्धांतों का प्रतिपादन अत्यंत सहज, सरल और तर्कसंगत रीति से किया गया है।

यद्यपि लिंग का एक अर्थ जननेंद्रिय भी होता है, लेकिन इस पुराण में इसका तात्पर्य ‘ॐकार’ से है। समस्त पुराणों में यह माना गया है कि सृष्टि की उत्पत्ति निर्गुण निराकार ‘परब्रह्म’ से हुई है। उसी निर्गुण परब्रह्म के स्वरूप को व्यक्त करने का प्रतीक है ‘लिंग’। लिंग पुराण में भगवान शिव के तीन रूपों को निम्नवत्‌ परिभाषित किया गया है।

“एकेनैव हृतं विश्वं व्याप्त त्वेन शिवेन तु।

अलिंग चैव लिंगं च लिंगालिंगानि मूर्तयः॥”

अर्थात्‌ भगवान इस सृष्टि से पूर्व ही अव्यक्त लिंग अर्थात्‌ ब्रह्म स्वरूप में सदा विद्यमान रहते हैं। तत्पश्चात्‌ वे ही व्यक्त लिंग के रूप में प्रकट होकर सृष्टि की रचना करते हैं। इस प्रकार वे अव्यक्त (निर्गुण) व व्यक्त (सगुण) दोनो स्वरूपों से सृष्टि में विद्यमान हैं।

लिंग पुराण के अनुसार जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना का विचार किया तो उन्होंने सर्वप्रथम अहम (अविद्या) को उत्पन्न किया। इस अहंकार से क्रमशः पाँच तन्मात्राएँ उत्पन्न हुईं- शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध। इन पाँच गुणविशेष ने पंचतत्वों को उत्पन्न किया- आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी। इस प्रकार तन्मात्राएँ सूक्ष्म तथा तत्व स्थूल कहे जाते हैं।

इस उत्पत्ति का क्रम निम्नवत्‌ समझाया गया है: अहंकार से शब्द नामक तन्मात्रा, शब्द से आकाश रूपी तत्व, आकाश तत्व से स्पर्श तन्मात्रा, स्पर्श से वायु तत्व, वायु से रूप तन्मात्रा, रूप से अग्नि तत्व, अग्नि से रस तन्मात्रा, रस से जल तत्व, जल से गंध तन्मात्रा व गंध से पृथ्वी रूपी तत्व का प्रादुर्भाव हुआ। तत्वों और तन्मात्राओं के इसी उत्पत्ति क्रम से सृष्टि का प्राकट्य होता है।

इस पुराण में धर्म की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि इस चराचर जगत की रचना भगवान द्वारा ही की गयी है।  इसलिए मनुष्य को ऊँच-नीच, जाति-पाँति, तथा वर्ण संकीर्णता को त्यागकर अपने हृदय में समस्त प्राणियों के प्रति आत्मीयता तथा दया का भाव रखना चाहिए। वस्तुतः यही मनुष्य का धर्म है।

इस पुराण में सदाचार का वर्णन करते हुए साररूप में कहा गया है कि संयमी, धार्मिक, दयावान, तपस्वी, सत्यवादी तथा सभी प्राणियों के लिए हृदय में प्रेम का भाव रखने वाले मनुष्य ही भगवान शिव को प्रिय हैं। जो  मनुष्य अपने जीवन में इन गुणों को उतार लेता है उसे ईश्वर सुख, शांति और समृद्धि प्रदान करते हैं।

इस पुरान में अंधकासुर नामक दैत्य की उत्पत्ति व भगवान शिव द्वारा उसके पराभव  की कथा, विष्णु भगवान द्वारा वाराहावतार धारणकर पृथ्वी के उद्धार की कथा तथा दैत्य जलंधर के उद्धार की कथा वर्णित है। इन सभी कथाओं द्वारा यह समझाने का प्रयास किया गया है कि एक सदाचारी मनुष्य के सद्कर्म उसकी उन्नति के तथा  तथा दुराचारी व्यक्ति के दुष्कर्म उसके पराभव का कारण बनते हैं। ईश्वर इस न्यायपूर्ण व्यवस्था का नियामक है।

लिंग पुराण में दक्ष प्रजापति की कथा, पार्वती जन्म, कामदेव दहन, शिव-पार्वती विवाह, गणेश जन्म, शिव तांडव, तथा उपमन्यु चरित्र का वर्णन बहुत रोचक शैली में किया गया गया है। ये सभी प्रसंग किसी न किसी सकारात्मक उद्देश्य की ओर भी ले जाते हैं। जम्बू-प्लक्ष आदि सात द्वीपों सहित भारतवर्ष का वर्णन, क्षुप-दधीचि की कथा, ध्रुव की कथा व काशी माहात्म्य इत्यादि देखकर लगता है जैसे यह पुस्तक अपने जमाने की ट्रेवेल गाइड के रूप में भी लिखी गयी होगी।

लिंग पुराण के अंतिम भाग में राजा अंबरीष व महाक्रोधी दुर्वासा ऋषि की रोचक कथा का वर्णन है जिसके माध्यम से सदाचार एकादशी व्रत के माहात्म्य का निरूपण किया गया है।

भाग-२: क्रोधी दुर्वासा और अंबरीष की कथा:

प्राचीन समय की बात है। राजा नाभाग के अंबरीष नामक एक प्रतापी पुत्र थे। वे बड़े बीर, बुद्धिमान व तपस्वी राजा थे। वे जानते थे कि जिस धन-वैभव के लोभ में पड़कर प्राणी घोर नरक में जाते हैं वह कुछ ही दिनों का सुख है, इसलिए उनका मन सदैव भगवत भक्ति व दीनों की सेवा में लगा रहता था। राज्याभिषेक के बाद राजा अंबरीष ने अनेक यज्ञ करके भगवान विष्णु की पूजा-उपासना की जिन्होंने प्रसन्न होकर उनकी रक्षा के लिए अपन्ने ‘सुदर्शन चक्र’ को नियुक्त कर दिया।

एक बार अंबरीष ने अपनी पत्नी के साथ द्वादशी प्रधान एकादशी व्रत करने का निश्चय किया। उन्होंने भगवान विष्णु का पूजन किया और ब्राह्मणों को अन्न-धन का भरपूर दान दिया। तभी वहाँ दुर्वासा ऋषि का आगमन हो गया। वे परम तपस्वी व अलौकिक शक्तियों से युक्त थे किंतु क्रोधी स्वभाव के कारण उनकी सेवा-सुश्रुशा में विशेष सावधानी अपेक्षित थी…(जारी)

रविवार, 7 नवंबर 2010

उफ़्फ़्‌ वो बीस मिनट…

इस बार दीपावली की छुट्टियाँ वर्धा विश्वविद्यालय के प्रांगण में ही बीत गयी हैं। अपने पैतृक घर (गाँव) से बहुत दूर हूँ। केवल आने-जाने की यात्रा में ही चार दिन खर्च हो जाते इसलिए जाना न हुआ। वैसे भी अपने निवास स्थान पर ताला डालकर गाँव जाने का काम मैंने कभी भी दीपावली के मौके पर नहीं किया है। जहाँ रहकर रोजी-रोटी चलती हो वहाँ ज्योतिपर्व पर अँधेरा रखना हमारी पारंपरिक आस्था के विपरीत है। गाँव की यात्रा दशहरे के मौके पर ही होती आयी है। अस्तु… हम वर्धा के पंचटीला प्रांगण में ही सपरिवार दीपावली मनाते रहे।

दीपावली के दो दिन पहले धनतेरस के मौके पर हम भी बाजार गये। दिवाली की खास खरीदारी के अलावा बच्चों के कपड़े और नये जूते वगैरह खरीदे गये। बाजार में दीपावली के अवसर पर लक्ष्मी जी की पूजा संबंधी सामानों की विशेष दुकानें लगी हुई थीं। मिट्टी के दीये, कलश, लक्ष्मी गणेश की मूर्तियाँ, लाल चमकीले रंग में पुते हुए नक्काशीदार दीपक; लाचीदाना, बताशा और धान की लाई से बने ‘प्रसाद’ के पैकेट, देवी-देवताओं के कैलेंडर, उबले हुए सिंघाड़े, गेंदा व कमल के फूल,  रंगोली बनाने के सांचे व रंगीन रेत नुमा पाउडर, कच्ची रूई व उससे बनी बाती के पैकेट, आतिशबाजी के सामान और न जाने क्या-क्या। दुकानों पर उमड़ी भीड़ और सड़क पर ठसाठस भरी जनसंख्या को देखकर घबराहट सी हो रही थी। सत्यार्थ को भीड़ की रगड़ से बचाने के लिए गोद में उठाना पड़ा। बहुत से ऐसे सामान भी खरीदे गये जिनकी पहले कोई योजना ही नहीं थी। राह चलते रोककर माल टिका देने वाले अनेक सीजनल विक्रेता टकराते रहे और हम बचते-बचाते भी अपनी जेब खाली करके ही घर वापस पहुँचे।

धनतेरस के अगले दिन छोटी दिवाली मनाने का मेरा ग्रामीण अनुभव बस इतना था कि घर के तृण-तृण और कोने-कोने की सफाई का जो सिलसिला कई दिनों से चला आ रहा है उसको अंतिम सोपान पर पहुँचाकर दीपावली से पहले समाप्त कर लिया जाय। इस ‘नरक चतुर्दशी’ के दिन सूर्यास्त के समय घर से बाहर जिस गढ्ढे में घरेलू कूड़ा और जानवरों का गोबर फेंका जाता है, अर्थात्‌ ‘घूरा’- उसपर (यमराज का) दीया जलाया जाता है। यहाँ वर्धा में यह रस्म करने की गुंजाइश नहीं थी, न आवश्यकता महसूस हुई। श्रीमती जी ने घर की विशेष सफाई का जो लंबा अभियान कई दिनों पहले से चला रखा था उसके बाद आखिरी समय के लिए कुछ खास काम बचा भी नहीं था। ब्लॉगरी का काम भी इन दिनों यूँ ही छूटा हुआ था और मैं किसी फड़कते हुए विषय की प्रतीक्षा के बहाने आलस्य गति को प्राप्त हो चुका था। अहमदाबाद में न्यूजीलैंड के साथ टेस्टमैच का पहला दिन था और सबकी निगाह भारत के सूरमा बल्लेबाजों के नये बनते रिकार्डों की ओर थी।

मैंने भी बैडमिंटन खेलकर लौटने के बाद टीवी के आगे सोफ़े पर आसन जमाया, कुछ ही देर में सहवाग की आतिशबाजी शुरू हो गयी तो एक मसनद लगाकर सोफ़े पर ही लेट गया। पूरे दिन भारत की बल्लेबाजी देखने की मंशा थी इसलिए वहीं आराम के साधन और चाय-नाश्ते के सामान जुटने लगे।

इसी बीच इलाहाबाद से मेरे एक बुजुर्ग परिचित का फोन आया। उन्होंने बहुत बुरी खबर सुनायी। हमारी हम‍उम्र और इलाहाबाद में हाल तक कार्यरत कोषागार सेवा की महिला अधिकारी  जिन्होंने अपना एक गुर्दा अपने पति की जीवन रक्षा के लिए दे दिया था और बीमार पति की सेवा के साथ-साथ दो बच्चों सहित पूरे परिवार का जिम्मा अपने कंधो पर उठा लिया था, धनतेरस के दिन नितांत अकेली हो गयीं। हम लोग जिनके संघर्ष की मिसाल दिया करते थे उनको अलविदा कहते हुए उनके पति ने अचानक दम तोड़ दिया। पदोन्नति पाकर मथुरा स्थानांतरित हो जाने के कारण पति के अंतिम क्षणों में साथ भी नहीं रह पायीं वो। खबर सुनकर मानो हमपर वज्रपात हो गया। सोफे पर सुन्न पड़े रहे। एक दो मित्रों को यह अप्रिय समाचार देने के अतिरिक्त हम कुछ नहीं कर सके।

अब हम बेमन से टीवी देखते हुए समय काट रहे थे। इस बीच मेरी पत्नी रसोई के काम निबटाती हुई ऊपर के कमरे में कंप्यूटर पर जमे बच्चों को आवाज लगाती जा रही थीं कि वो नीचे आकर कुछ खा-पी लें। थोड़ी देर बाद बेटी नीचे आ गयी। आधे घण्टे बीत जाने के बाद भी जब सत्यार्थ नीचे नहीं आया तो उसकी माँ की आवाज तेज हो गयी। बेटी को डाँटते हुए उन्होंने उसे ऊपर भेजा कि ‘बाबू’ को ले आओ। वागीशा ऊपर गयी और फौरन लौटकर बोली कि वो ऊपर नहीं है। फिर उसे नीचे के कमरों में देखा गया। वहाँ भी नहीं था।

इन्होंने कहा, “जाकर देखो डीआर अंकल (डिप्टी रजिस्ट्रार) के घर सनी के साथ खेलने गया होगा।”

वागीशा वहाँ से पूछकर लौट आयी। “मम्मी, बाबू वहाँ भी नहीं है।”

इन्होंने झुँझलाकर उसे डाँटा और खुद ऊपर जाकर सत्यार्थ को खोजने लगीं। दोनो कमरे, बाथरूम, इत्यादि देखने के बाद ऊपर की बालकनी से ही पीछे की ओर रजिस्ट्रार साहब के दरवाजे पर तैनात होमगार्ड से पूछा कि उसने बाबू को कहीं देखा क्या? उसका उत्तर भी नकारात्मक मिला। अब चिंता की लकीरें माथे पर उभरने लगीं। तेज कदमों से पड़ोसी डी.आर. के यहाँ गयीं। घर के भीतर जाकर पूछा। फिर कालोनी में दूसरे प्रायः सभी घरों में ताले पड़े हुए थे। कहाँ जा सकता है? एक किनारे प्रोफेसर भदौरिया का घर खुला हुआ था। वहाँ जाकर माँ-बेटी ने दरियाफ़्त कर ली। लौटकर आयीं तो माथे पर पसीना आ चुका था।

“अरे, आपको कुछ पता है… बाबू बहुत देर से लापता है। सारा अड़ोस-पड़ोस देख आयी हूँ। कहीं नहीं है। आपको तो टीवी के आगे कुछ दिखता ही नहीं है…” आवाज में तल्खी से ज्यादा बेचैनी थी।

मैं हड़बड़ाकर उठा, “एक बार ठीक से घर में ही देख लो, कही सो गया होगा।”

“सब देख चुकी हूँ… आप कहते हैं तो दुबारा देख लेती हूँ” रचना पैर पटकती हुई और बेटे को आवाज लगाती हुई ऊपर की सीढ़ियाँ चढ़ने लगीं। मैंने हाफपैंट और टी-शर्ट में ही स्कूटर स्टार्ट किया और  बेटे को खोजने गेस्ट हाउस की ओर बढ़ चला। वहाँ सन्नाटा पसरा हुआ था। सभी कमरों में ताले लटक रहे थे। गार्ड ने बताया कि आज कोई भी इधर नहीं है। सबलोग घर गये हैं। …कैंपस में और कहाँ जा सकता है मेरा बेटा? मैंने मुख्य द्वार पर तैनात सुरक्षाकर्मियों से भी पूछा। सभी उसे पहचानते हैं। सबने विश्वास पूर्वक बताया कि वो गेट से बाहर नहीं गया है। वैसे भी आज इतना सन्नाटा है कि इधर से आने-जाने वाले सभी लोगों का रिकार्ड हमारे पास है।

इस सन्नाटे ने ही मेरे मन में भय डाल दिया। बाहर अकेला खेलता पाकर कोई भी उसे उठा सकता था।

सुबह जब मैं बैडमिंटन खेलकर लौटा था तो बेटे के हाथ में एक कमल का फूल देखकर मैने उसके बारे में पूछा था तो पता चला कि सामने की सड़क पर टहलती हुई एक लड़की को हाथ हिलाकर इन्होंने अपने पास बुला लिया था। बताया गया कि बिहार की रहने वाली वह छात्रा गर्ल्स हॉस्टेल में अकेली बची थी। उसी ने अपने नन्हें दोस्त को सुबह-सुबह यह फूल भेंट कर दिया था। मेरे मन में यह आशंका हुई कि शायद उसने ही सत्यार्थ को अपना मन बहलाने के लिए अपने साथ हॉस्टल बुला लिया हो। या कोई और भी इस बातूनी लड़के की बतरस का आनंद लेने के लिए अपने साथ ले गया हो।

स्कूटर मोड़कर मैंने सबसे पहले कुलपति आवास का रुख किया। लेकिन रचना वहाँ पहले ही पहुँच चुकी थी। उन्होंने दूर से ही हाथ हिलाकर मुझे बता दिया कि बेटा वहाँ भी नहीं है। मैंने अब कैंपस के दूसरे छोर पर स्थित गर्ल्स हॉस्टल की ओर स्कूटर मोड़ा। मेरे घर के पास झुग्गी डालकर रहने वाली मजदूरन सड़क के किनारे कपड़े फैलाती दिखायी दी तो मैंने उससे भी पूछ लिया। इससे पहले इन लोगों से मेरा कभी कोई संवाद उससे नहीं हुआ था लेकिन वह फिर भी हम सबको जानती पहचानती थी। उनके बीच की एक छोटी बच्ची कभी-कभार मेरे बच्चों के खेल में शामिल हो जाया करती थी। उसकी दुबली-पतली काया, साँवले रंग और चंचल प्रवृत्ति के कारण सभी उसे पी.टी.उषा कहकर बुलाते हैं। मेरे बेटे के बारे में उसने भी अनभिज्ञता जाहिर कर दी।

मैंने हॉस्टेल के रास्ते में बैंक व दूरशिक्षा विभाग की लाल बिल्डिंग में चलने वाली एक मात्र खुली हुई दुकान पर रुककर पूछा- “मेरा बेटा तो इधर नहीं दिखा था?” सुनने वाले हैरत से देखने लगे। साढ़े-तीन-चार साल का लड़का इतनी दूर कैसे आ सकता है? मेरे पास झेंपने का भी समय नहीं था। मैंने उन्हें समझाने में वक्त न जाया करते हुए आगे बढ़ना उचित समझा। बीच में टीचर्स कॉलोनी पड़ती है। वहाँ भी केवल दो घर बिना ताले के थे। दोनो जगह पूछ लिया। मेरी खोजबीन उन्हें जरूर बेतुकी लगी होगी लेकिन मैंने उन्हें कुछ पूछने का अवसर नहीं दिया। इसके पहले मेरा उस कॉलोनी के अंदर कभी जाना नहीं हुआ था इसलिए भी यह सब असहज लग रहा था।

निराशा और दुश्चिंता के साथ मैं गर्ल्स हॉस्टल पहुँचा। गार्ड को बुलाकर पूछा। उसने भी किसी बच्चे को देखने से साफ इन्कार कर दिया। उसने बताया कि केवल एक लड़की यहाँ ठहरी हुई है। बाकी कमरे बंद हैं। वह लड़की भी अकेली अपने कमरे में मौजूद है। मैंने इस छोर पर बने प्रवेश द्वार के सुरक्षा कर्मियों से भी पूछा। सबने यही कहा कि वे मेरे बेटे को बखूबी पहचानते हैं और वह इधर कत्तई नहीं आया है।

अब तो मेरी हालत बहुत खराब हो गयी। स्कूटर की सीट पर बैठा मैं यह तय नहीं कर पा रहा था कि अब किधर जाना चाहिए। हाफपैंट और टी-शर्ट पसीने से भींग चुके थे। सारी संभावना तलाश ली गयी थी। मन में बहुत से भयानक विचार चोट करने लगे। इस कैंपस में साँप व बिच्छू निकलते रहते हैं। कहीं मेरा बेटा उनका शिकार होकर किसी झाड़ी में अचेत न पड़ा हो। बच्चों के लुटेरे सौदागर तो इस कैंपस में आ नहीं सकते… लेकिन कौन जाने?

कलेजे में उठती हुई हूक अब आँखों से निकलने को उद्यत थी। कमजोर हाथों से स्कूटर संभालते हुए मैं धीमी गति से घर की ओर लौट पड़ा। दूर से ही अपना घर दिखायी पड़ा तो बाहर किसी को न देखकर विस्मय हुआ। घर वाले मेरी प्रतीक्षा नहीं कर रहे थे। लगता है कुछ सकारात्मक हो गया है। उस मजदूरन ने मुझे दूर से देखा। उसने इशारे से बताया कि घर के भीतर जाइए। मैं सहमता हुआ स्कूटर खड़ी करके भीतर गया। अंदर शांति थी- ऐसी जो किसी तूफान के गुजर जाने के बाद होती है। रचना के चेहरे पर संतुष्टि के भाव देखकर मेरा मन हल्का हो लिया। साहबजादे फिर भी नहीं दिखायी दे रहे थे।

कहानी कुछ यूँ पता चली कि दीपावली के लिए जो नये कपड़े आये थे उन्हें जल्दी से जल्दी धारण कर लेने की इच्छा इतनी बलवती हो गयी कि माँ के मना करने के बावजूद ऊपर के कमरे में एकांत पाकर उन्होंने कपड़े डिब्बे से निकालकर पहन लिए। अचानक नीचे से पुकारे जाने पर उन कपड़ों में नीचे जाने की हिम्मत नहीं हुई। आनन-फानन में इन्होंने बालकनी में पनाह ले ली।

बालकनी की ओर खुलने वाली दोनो बड़ी किवाड़ें इतनी चौड़ी हैं कि उन्हें बीच से मुड़ने लायक बनाया गया है। खुली दशा में इन किवाड़ों की फोल्डिंग दीवार से लगकर एक तिकोना गोपनीय कक्ष बना देती हैं। इस घटना से पहले कभी किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया था। रचना ने जब इन्ही किवाड़ों की ओर पीठ करके बालकनी से गार्ड को पुकारकर बात की थी तो हजरत कोने में दुबककर मुस्करा रहे थे। फिर तो ये माँ, दीदी और डैडी की बेचैनी देखकर लुत्फ़ ही लेने लगे। अंततः जब मम्मी चारो ओर से निराश होकर घर में लौटकर रोने-कलपने लगीं और दीदी   भी सीढ़ियों पर बैठकर रोने लगी और ‘बाबू’ को करुण स्वर में पुकारने लगी तब इन्होंने फिल्मी इश्टाइल में ‘‘टैंग्टड़ांग” की आवाज निकालते हुए दीदी के सामने नाटकीय अंदाज में अचानक प्रकट होना जरूरी समझा।

यह सबकुछ बताने में मुझे इतना अधिक समय लग रहा है लेकिन बेचैनी और बेचारगी के वे चरम क्षण मुश्किल से बीस मिनट के रहे होंगे। अब सोचता हूँ तो मन में सवाल उठ खड़ा होता है कि ईश्वर हमारे धैर्य की परीक्षा ले रहा था या ‘नरक चतुर्दशी’ की तिथि अपने नाम को चरितार्थ कर रही थी। उसके बाद दिन भर कुशल-क्षेम पूछने वालों को जवाब देते बीता।Sad smile

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)