दिल्ली के भीतर गति-सीमा में कार चलाना एक अद्भुत कला है…
सरकारी अफसर बनकर नौकरी में आते ही सबसे पहले मुझे किसी ने नेक सलाह दी कि गाड़ी चलाना जरूर सीख लो नहीं तो ड्राइवर पर आश्रित रहने पर कभी-कभी मुश्किल पेश आ जाती है। यदि कभी कोई बदमाश ड्राइवर मिल गया तो ऐन वक्त पर दाँव दे सकता है और बॉस के आगे फजीहत की नौबत आ सकती है। मैने सोचा कि यदि ऐसी बात न भी होने वाली हो तो भी आज के जमाने में कार चलाना आना ही चाहिए। वैसे भी एल.एम.वी. ड्राइविंग लाइसेंस जो पहले ही बन चुका था उसे औचित्य प्रदान करने के लिए वास्तव में ड्राइविंग सीख लेना जरूरी था।
देहाती क्षेत्रों के सरकारी दौरे पर जाते समय मौका देखकर मैंने अपने ड्राइवर से सीट अदल-बदलकर गाड़ी चलाना सीख लिया। जल्दी ही शहरी भीड़-भाड़ में भी सरकारी जीप चलाने लगा। फिर जब घर में कार आयी तो ड्राइवर नहीं ढूँढना पड़ा। पत्नी और बच्चों के साथ प्राइवेसी एन्जॉय करते हुए घूमना और ड्राइवर से संबंधित अनेक लफ़ड़ों से मुक्त रहने का आनंद वही जान पाएंगे जिन्होंने गाड़ी चलाना सीख रखा हो। अब जबकि दस-बारह साल से गाड़ी चलाते हुए मैं अपने आपको एक्सपर्ट और बेदाग ड्राइवर समझने लगा था, अच्छी बुरी सभी सड़कों पर कार चलाने का पर्याप्त अनुभव इकठ्ठा कर चुका था, तेज गति के साथ भी संतुलित और नियंत्रित ड्राइविंग कर लेने का दावा करने लगा था और मौके-बेमौके नौसिखिए लोगों को ड्राइविंग के गुर सिखाने लगा था तभी मुझे एक नये ज्ञान की प्राप्ति हो गयी।
हुआ यूँ कि मुझे दिल्ली आकर अपनी श्रीमती जी के साथ उनके भाई के घर रुकने का अवसर प्राप्त हुआ। हमें दिल्ली से बाहर करीब पचास-साठ किलोमीटर की यात्रा लगातार पाँच-छः दिन करने की जरूरत पड़ी। इसके पहले भी एक बार दिल्ली आना हुआ था और करीब दस दिनों तक टैक्सी का सहारा लेना पड़ा था। पिछले अनुभव के आधार पर इस बार मैं बेहतर विकल्प तलाश रहा था।
पिछली बार यह अनुभव मिला था कि गेस्ट-हाउस से गंतव्य तक टैक्सी से यात्रा करना काफी खर्चीला और उबाऊ तो था ही, प्राइवेसी और निश्चिंतता के लाले भी पड़ गये थे। यात्रा के दौरान अपनी ही पत्नी और बच्चे से सँभल-सँभलकर बात करनी पड़ती थी या बिल्कुल चुपचाप यात्रा करनी पड़ती थी। टैक्सी वाले को घंटों खड़ा रखने का किराया ही हजारों में देना पड़ा था। इतना ही नहीं उसकी ड्राइविंग का ढंग देखकर कोफ़्त भी बहुत होती थी। दायें-बायें से दूसरी गाड़ियाँ ओवरटेक करती रहतीं और यह सबको साइड देता रहता। ‘लेन-जंपिंग’ के उस्ताद ड्राइवर अचानक इसके आगे आ जाते और यह आराम से ब्रेक लगाता रहता। कदम-कदम पर रेड-लाइट के सिग्नल भी मात्र कुछ सेकेंड से पिछड़ जाने के कारण रास्ता रोक देते। फिर वह आराम से इंजन बंद कर देता और हरी बत्ती जल जाने के बाद ही इंजन स्टार्ट करता, गियर लगाता और धीरे-धीरे आगे बढ़ता। इस बीच पीछे की अनेक गाड़ियाँ आगे हो लेतीं। मुझे यह लिजलिजी ड्राइविंग बोर करती। सोचता कि काश कोई ‘स्मार्ट’ ड्राइवर मिला होता।
इस बार जब मुझे आना हुआ तो मेरे नजदीकी व प्रिय रिश्तेदार ने मेरी समस्या समझते हुए अपने घर पर ही ठहरने का प्रबंध किया और अपनी निजी कार मेरी सेवा में लगा दी। पहले दिन एक दैनिक भाड़े का ड्राइवर बुला लिया गया ताकि मैं उसके साथ चलकर रास्ते की पहचान कर सकूँ। यात्रा शुरू होते ही मैने उसके बगल में बैठकर अपना लैपटॉप खोल लिया और गूगल अर्थ का पेज खोलकर दिल्ली को जूम-इन करते हुए सभी गलियों और सड़कों के लेवेल का नक्शा सेट कर लिया। अपने गंतव्य तक का रूट चिह्नित कर उससे वास्तविक मार्ग का मिलान करता रहा। वापसी में भी पूरे रास्ते का मानचित्र दिमाग में बैठाता रहा।
अगले दिन मैंने गाड़ी की कमान खुद संभाल ली। ड्राइवर की छुट्टी कर दी गयी। सीट बेल्ट बाँधते ही मेरी स्थिति थोड़ी असहज हो गयी। इस प्रकार बाँधे जाने के बाद शरीर का हिलना-डुलना काफी मुश्किल सा हो गया। लेकिन मैंने अपनेआप को समझाया कि यह नियम तो फायदे के लिए ही बना होगा। हाथ और पैर तो खुले हुए थे ही। ड्राइविंग तो मजे में की जा सकती है। फिर दोनो तरफ़ के ‘साइड-मिरर’ खोलकर सही कोण पर सेट किए गये। इससे पहले मैने केवल सिर के उपर लगे बैक-मिरर का ही प्रयोग किया था। इन बगल के शीशों में झाँकने पर ऐसा लगा कि दोनो तरफ़ से आने वाली गाड़ियाँ बस मेरे ही पीछे पड़ी हैं और उनका एकमात्र लक्ष्य मेरी गाड़ी को ठोंकना ही है। मैंने एक-दो बार पीछे मुडकर उनकी वास्तविक स्थिति देखा और आश्वस्त हुआ कि मेरा भय निराधार है।
सुबह-सुबह घर से निकलते हुए सड़क पर ट्रैफिक कम देखकर मन प्रसन्न हो गया। रिंग रोड पर भी गाड़ियों की संख्या ज्यादा नहीं थी। ऑफ़िस और स्कूल-कालेज जाने वालों का समय अभी नहीं हुआ था। चार-छः लेन की इतनी चौड़ी सड़क पर प्रायः सन्नाटा दे्खकर मेरे मन से रहा-सहा डर भी समाप्त हो गया और मैने गाड़ी को टॉप गियर में डाल दिया। बड़े-बड़े फ़्लाई ओवर बनाकर लेवेल-क्रॉसिंग्स की संख्या बहुत कम करने की कोशिश की गयी है। जहाँ तिराहे या चौराहे हैं वहाँ स्वचालित ट्रैफिक सिग्नल की व्यवस्था है। दूर से ही लाल, हरी, व पीली बत्तियाँ दिख जाती हैं। सेकेंड्स की उल्टी गिनती करती डिजिटल घड़ियाँ यह भी बताती हैं कि अगली बत्ती कितनी देर में जलने वाली है। मेट्रो रेल की लाइनें तो इन फ़्लाई ओवर्स के भी ऊपर से गुजारी गयी हैं। ...दिल्ली का मेट्रो-सिस्टम मानव निर्मित चंद अद्भुत रचनाओं में से एक है। इसकी चर्चा फिर कभी।
इन सारी स्वचालित व्यवस्थाओं को समझते-बूझते और अपनी गाड़ी को रिंग रोड की चिकनी सतह पर भगाता हुआ मैं एक फ्लाई ओवर से उतर रहा था तभी अचानक करीब आधा दर्जन वर्दी धारी जवान सड़क के बीच में आकर मुझे रुकने का इशारा करने लगे। वर्दी देखकर मुझे यह तो समझ में आ गया कि ये ट्रैफिक पुलिस के सिपाही हैं लेकिन मेरी गाड़ी को रोके जाने का क्या कारण है यह समझने में मुझे कुछ देर लगी। उनका अचानक प्रकट हो जाना और मेरी गाड़ी को लगभग घेर लेना मुझे कुछ क्षणों के लिए एक ‘मेंटल शॉक’ दे गया। सहसा मुझे अपने रिश्तेदार की उस बात का ध्यान आया कि यहाँ गति को मापने के लिए कई जगह खुफ़िया कैमरे लगे हैं जो कम्प्यूटर तकनीक से पल भर में ट्रैफिक पुलिस को बता देते हैं कि अमुक नंबर की गाड़ी निर्धारित गति से इतना तेज चल रही है और इतने मिनट में फलाँ ट्रैफिक बूथ पर पहुँचने वाली है।
जब एक इंस्पेक्टर ने मेरा ड्राइविंग लाइसेंस माँगते हुए यह बताया कि मैं 76 किमी. प्रति घंटे की रफ़्तार से चल रहा था जो निर्धारित सीमा से सोलह किमी/घं. अधिक है तो मेरी आशंका सही साबित हुई। घबराहट की मात्रा मुझसे अधिक मेरी धर्मपत्नी के चेहरे पर थी। मुझे उस ट्रैफिक वाले से अधिक श्रीमती जी के कोप की चिंता सताने लगी जो यहाँ से निकलने के बाद फूटने वाला था। मेरी गति को लेकर उनका बार-बार टोकना और मेरा अपने आत्मविश्वास को लेकर उन्हें बार-बार आश्वस्त करते रहना एक नियमित बात थी जो हमारे बीच चलती रहती थी। इस समय उनका पलड़ा पर्याप्त भारी हो चुका था और मेरा उसके नीचे दबना अवश्यंभावी था।
यह सब एक पल में मैं सोच गया क्योंकि उससे ज्यादा समय उस सिपाही ने दिया ही नहीं। वह मेरा ड्राइविंग लाइसेंस माँगता रहा और मैं उसे अपने पर्स में तलाशता रहा। चौदह साल पहले गोरखपुर में बनवाये जाने के बाद आजतक किसी पुलिस वाले ने इसे चेक नहीं किया था। इसका प्रयोग केवल परिचय व पते के सबूत के तौर पर एक-दो बार ही हुआ होगा वह भी जहाँ पैन-कार्ड पर्याप्त न समझा गया हो। मेरी घबराहट को देखते हुए ड्राइविंग लाइसेंस ने मिलने से मना कर दिया। मैंने हैरानी से अपने पर्स के सभी खाने दो-दो बार तलाश लिए। पीछे खड़े सिपाही आपस में बात करने लगे कि इसके पास डी.एल. भी नहीं है। सामने खड़ा इंस्पेक्टर भी ड्राइविंग लाइसेंस मिलता न देखकर मेरा नाम पूछने लगा। तभी मुझे ध्यान आया कि पर्स में सामने की ओर मैंने जहाँ बजरंग बली की तस्वीर लगा रखी है उसी के नीचे कार्डनुमा डी.एल. भी कभी फिट कर दिया था। मैंने फ़ौरन बजरंग बली को प्रणाम कर उनकी तस्वीर बाहर निकाली और उसके नीचे से डी.एल.कार्ड भी नमूदार हो गया।
अब वहाँ खड़े सिपाहियों की रुचि मेरे केस में कम हो गयी। केवल चालान काटने वाला इंस्पेक्टर मेरे ब्यौरे नोट करने लगा। चार सौ रूपये की रसीद काटकर उसने मुझे थमाया और मैने सहर्ष रूपये देकर जिम्मा छुड़ाया। ‘सहर्ष’ इसलिए कि मुझे आशंका थी कि सरकारी फाइन कुछ हजार में हो सकती थी या किसी मजिस्ट्रेट के ऑफिस का चक्कर लगाना पड़ सकता था, या मेरा कोई कागज जब्त हो सकता था। इन सब खतरों को दूर करते हुए कानूनी रूप से कुछ शुल्क अदा करके मुझे छुट्टी मिल रही थी।
इसके बाद जब मैं आगे बढ़ा तो इंस्पेक्टर से पूछता चला कि यदि आगे यही गलती फिर हुई तो फिर चार सौ देने पड़ेंगे क्या? उसने थोड़ी देर तक मुझे अर्थपूर्ण मुस्कराहट के साथ देखा और कहा कि ‘आज की डेट में आप इस चालान से काम चला सकते हैं। वैसे धीमे चलिए तो आपकी ही सुरक्षा रहेगी।’ उसके बाद मेरी निगाह आगे की ट्रैफ़िक पर कम और अपने डैशबोर्ड पर अधिक रहने लगी। गतिमापक की सुई साठ से ऊपर न चली जाय इस चिंता में ही अधिकांश सफ़र कट गया। एक्सीलरेटर पर दाहिने पैर के दबाव को दुबारा सेट करना पड़ा ताकि रफ़्तार निर्धारित सीमा में ही बनी रहे। अब खाली सड़क देखकर अंधाधुंध स्पीड में चलते चले जाने के बजाय सुई को साठ पर स्थिर रखने की कला सीखनी पड़ी। पूर्वी उत्तर प्रदेश के शहरों व देहात में आगे की गाड़ी को केवल उसकी दाहिनी ओर से ओवरटेक करना होता था लेकिन यहाँ दोनो तरफ़ से पार करने के विकल्प खुले हुए हैं। हाँ, लेन-जंप करने में पीछे से आने वाली गाड़ियों पर ध्यान रखना जरूरी होता है।
अब मुझे दिल्ली में गाड़ी चलाने का पाँच दिन का अनुभव हो चुका है। मैंने देखा है अनेक बड़ी लग्जरी गाड़ियों को अस्सी-सौ पर फ़र्राटा भरते हुए, रेड सिग्नल को पार करते हुए और फिर भी न पकड़े जाते हुए। उसी स्पॉट पर सुबह-सुबह रोज मेरे जैसे कुछ नये लोगों का चालान कटते हुए और गरीब टैक्सी ड्राइवरों को जुर्माना भरते हुए भी देखता हूँ। कारों की लम्बी कतारों के बीच लगातार लेन बदलने वाले बाइक सवारों के रोमांचक और खतरनाक करतब भी देखता हूँ और पैदल सड़क पार करने वालों की साहसी चाल भी देखता हूँ जिन्हें बचाने के लिए बड़ी सवारियों का काफ़िला एकाएक ठहर जाता है।
मैं इस सबके आधार पर कह सकता हूँ कि दिल्ली के भीतर गति-सीमा जोन में कार चलाना एक अद्भुत कला है। आपका क्या ख़्याल है?
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
स्थान: वहीं जहाँ कॉमन वेल्थ खेलों के कारण सड़कों की हालत काफी अच्छी हो गयी हैं लेकिन खेल कराने वालों की हालत नाजुक चल रही है।
समय: जब मेरे मेजबान के घर पर सभी लोग सो चुके हैं, सड़क से ट्रैफिक की आवाज आनी प्रायः बंद हो गयी है और मुहल्ले का चौकीदार डंडा फटकारते हुए अपना पहला राउंड अभी-अभी लगाकर जा चुका है।