हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

मंगलवार, 30 जुलाई 2013

वर्धा में फिर होगा महामंथन

हिंदी विश्वविद्यालय की अनूठी पहल से हिंदी ब्लॉगिंग को मिलेगी नयी ऊर्जा 

mgahvwardhaहिंदी ब्लॉगिंग का एक दशक पूरा हुआ। अब इसके लिए शैशव काल का विशेषण बेमानी हुआ। अब इसकी अनगढ़ न्यूनताओं, चिरकुट गुटबाजियों और हास्यास्पद कलाबाजियों को बालसुलभ गलतियों का नाम देकर संदेह का लाभ देना नहीं जमेगा। साथ ही तमाम होनहार और प्रतिभासंपन्न ब्लॉग-लेखकों के उपयोगी उत्पाद रूपी मोती को इस महासागर से छानकर आकर्षक ढंग से सजाना होगा ताकि जो गुणग्राही हैं वे इसकी सही कीमत लगा सकें। वे जिसके पात्र है उन्हें वैसी गरिमा दिलानी होगी। अब इस माध्यम की औकात और नियति पर कुछ ठोस निष्कर्ष निकालने होंगे।

आज सोशल-मीडिया के रूप में तमाम मंच हमारे कंप्यूटर और मोबाइल स्क्रीन पर हमें लुभा रहे हैं, हमारा समय खा रहे हैं और प्रायः चु्टकुलों, गपबाजी, चैटिंग, गाली-गलौज और मानसिक कुंठा को बाहर करने का जरिया बन रहे हैं। इनके बीच कभी-कभी बहुत अच्छी और गंभीर बातें भी सामने आती हैं लेकिन इन मंचों पर शब्दों के आने और चले जाने की गति इतनी तेज है कि इसपर कोई गंभीर बात करने और उसे सहेजकर रखने का सुभीता नहीं रह जाता। फेसबुक का स्टेटस और ट्विटर के ट्वीट कितने क्षणजीवी हैं यह किसी से छिपा नहीं है। खाने में चटनी जैसे। लेकिन जिन्हें थोड़ा आराम से कुछ कहना है, सुव्यवस्थित होकर लिखना और पढ़ना है तथा आगे के लिए बहुत कुछ सहेज कर रखना है उन्हें तो ब्लॉग का आशियाना ही भाएगा।

ब्लॉग-जगत  में जो कुछ श्रेष्ठ और उत्कृष्ट है उसको साधारण और चलताऊ किस्म की सामग्रियों की भारी भीड़ से अलग पहचान देने  की कोई कारगर तकनीक खोजनी होगी। लाखों की संख्या में लिखी जा रही छोटी-बड़ी पोस्टों के आवागमन के लिए कोई एक ऐसा गोल चौराहा तैयार करना होगा जहाँ खड़ा होकर इस साइबरगंज में टहलने वाले अधिकांश रचनाकर्मियों की छटा निहारी जा सके। कोई एक नजर में भा जाय तो उसे दोस्ती का पैग़ाम दिया जा सके। एक दूसरे के यहाँ सहजता से आना जाना हो सके और इस वैचारिक दुनिया की तासीर अधिक से अधिक लोगों तक करीने से पहुँचायी जा सके। कोई नवागन्तुक यहाँ आकर आसानी से यह समझ सके कि इस दुनिया में उसके पसन्द की सामग्री कहाँ मिलेगी और उसकी विशेषज्ञता का मान कहाँ रखा जाएगा।

ब्लॉगवाणी और चिठ्ठाजगत के निष्क्रिय हो जाने के बाद एक ऐसे जंक्शन या डिपो का निर्माण बहुत जरूरी हो गया है जहाँ से इस बहुरंगी दुनिया की सैर को निकला जा सके और इसकी तमाम गलियों की नब्ज टटोली जा सके। इस माध्यम में जो लोग श्रेष्ठ और वरिष्ठ है, जो पूरी दक्षता और निष्ठा से लगे हुए हैं और जो अपना समय और श्रम देकर बहुत अच्छा काम कर रहे हैं उनके कार्य को दूसरों के लिए एक प्रतिदर्श के रूप में रखा जा सके। इस उत्पाद को विशुद्ध रूप से मांग और आपूर्ति के सिद्धान्त के भरोसे छोड़ देना अब शायद हमारी उदासीनता का परिचय देगा। अच्छी से अच्छी सामग्री भी बाजार में तभी स्थापित हो पाती है जब उसके लिए अच्छे प्रोमोशन अभियान चलाये जाते हैं। अपनी भाषा के ब्लॉग को समुन्नत बनाने के लिए हमें गंभीर प्रयास करने ही होंगे। जब एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय हमें जरूरी संसाधन उपलब्ध कराने के लिए पहल करे तब तो यह और भी जरूरी हो जाता है।

सौभाग्य से हिंदी ब्लॉगिंग के प्रोमोशन के लिए एक गंभीर कदम उठाने का निर्णय वर्धा विश्वविद्यालय ने लिया है। जी हाँ, महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा द्वारा एक बार फिर से इन सभी जरूरतों को पूरा करने के उद्देश्य से आगे बढ़कर पहल की गयी है। कुलपति श्री विभूति नारायण राय ने एक बार फिरसे मुझे यह चुनौती दी है कि हिंदी ब्लॉगिंग के दशम्‌ वर्ष में एक बार फिर महामंथन का संयोजन करूँ। एक वृहद्‌ मंच सजाकर इसकी दशा और दिशा की न सिर्फ़ पड़ताल की जाय बल्कि इसे एक सकारात्मक मोड़ देते हुए इस माध्यम की गरिमा को एक नयी उँचाई देने का प्रयास किया जाय। इसे अराजकता के झंझावात से निकालकर एक सुव्यवस्थित, परिमार्जित और उद्देश्यपरक चिन्तन का सकारात्मक वातावरण दिया जाय। मुझे यह लोभ है कि उनके इस औदार्य का सदुपयोग ब्लॉगवाणी या चिठ्ठाजगत की कमी पूरी करने और हिंदी ब्लॉग्स के लिए उससे भी अधुनातन प्लेटफ़ॉर्म बनाने के लिए किया जाय।

“एक बार फिर से” का अर्थ वे लोग तो समझ ही रहे होंगे जिन्होंने 2009 में इलाहाबाद और 2010 में वर्धा में आयोजित राष्ट्रीय सेमिनारों में प्रत्यक्ष या परोक्षा हिस्सा लिया था। ये दोनो ही कार्यक्रम हिंदी ब्लॉगिंग की यात्रा में मील के पत्थर साबित हुए थे। जो लोग बाद में इस माध्यम से जुड़े हैं उन्हें समय निकालकर इस ऐतिहासिक समागम का हाल जानना चाहिए।

Wardha2011कुलपति जी ने जब पहली बार इलाहाबाद में इस सिलसिले की दागबेल डाली थी तब किसे पता था कि चन्द जुनूनी लोगों के नितान्त निजी प्रयासों से शुरू हुआ हिंदी ब्लॉगरी का कारवाँ आगे चलकर सार्वजनिक प्रतिष्ठानों, सरकारी संस्थाओं और लोक कल्याणकारी राज्य के प्रायः सभी घटकों का ध्यान आकर्षित करने में सफल होगा। लगभग सभी समाचारपत्र समूह, न्यूज चैनेल और बड़े वेबसाइट्स में ब्लॉग के लिए अनिवार्य रूप से एक मंच बनाया गया है।

तो मित्रों, अब इस महामंथन की तिथियाँ नोट कर लीजिए :

तिथि : 20-21 सितंबर, 2013 (शुक्रवार-शनिवार)
स्थान : महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र)

आप इस वैचारिक सम्मेलन में जिन-जिन बातों पर चर्चा कराना चाहते हों उनकी सूची बनाकर मुझे एक सप्ताह के भीतर बता दीजिए। अपना ठोस प्रस्ताव तथ्यपरक तर्कों के साथ प्रस्तुत कीजिए। विश्वविद्यालय द्वारा इनपर विचार किया जाएगा। प्रथमदृष्टया जिनके प्रस्ताव महामंथन में सम्मिलित किये जाने हेतु चुने जाएंगे उन्हें वहाँ सादर आमंत्रित किया जाएगा।  कोशिश होगी कि वहाँ देश के शीर्ष कोटि के पैनेल को बुलाया जाय और उनसे आपका साक्षात्कार हो। आप स्वयं उसका हिस्सा बनें। इस बीच आप चाहें तो अपना रेल टिकट बुक करा सकते हैं। निजी जोखिम पर। क्योंकि देर हो जाने पर कन्फ़र्म बर्थ मिलने में कठिनाई हो सकती है।  हाँ, विश्वविद्यालय केवल उनका व्यय भार ही वहन कर सकेगा जिन्हें औपचारिक आमन्त्रण भेजकर बुलाएगा। हार्दिक स्वागत उन सबका होगा जो इस अवसर पर प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष या आभासी तौर पर उपस्थित रहेंगे।

अभी बस इतना ही। शेष बातें टिप्पणियों के माध्यम से अथवा अगली पोस्ट में। इस कार्यक्रम से संबंधित संदेश इस पोस्ट के टिप्पणी बक्से के अतिरिक्त मेरे दूसरे ई-मेल पते (sstwardha@gmail.com) पर प्रेषित कीजिए। प्रतीक्षा रहेगी।

सादर !

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

मंगलवार, 23 जुलाई 2013

खो गया बटुआ मिल गयी चिठ्ठी : कितनी मिठ्ठी

[A Letter in a lost wallet] (http://piqmug.blogspot.in  से अनूदित व साभार)

करीब तीस साल पुरानी बात है। कड़कड़ाती सर्दी की एक शाम जब मैं ऑफ़िस से अपने घर की ओर जा रहा था तो रास्ते पर एक बटुआ पड़ा देखकर रुक गया। शायद किसी की जेब से गिर गया होगा। मैंने उसे उठा लिया और इसे खोलकर देखने लगा कि इसमें शायद इसके मालिक का कोई अता-पता मिल जाय; या शायद कोई नम्बर ही मिल जाय तो उसे फोन करके बता दूँ। लेकिन उस बटुए में सिर्फ़ तीन डॉलर के नोट थे और एक मुड़ा-तुड़ा पत्र था जो देखने में लगता था कि कई सालों से इसी में पड़ा हुआ है।

walletवह पत्र जिस लिफाफे में था वह काफी घिस चुका था और उसपर लिखा हुआ प्रायः सबकुछ मिट चुका था, केवल प्रेषक का पता बचा हुआ था जो मुश्किल से पढ़ा जा सकता था। मैंने पत्र को खोलना शुरू किया। इसमें शायद कोई सुराग मिल जाय। तभी मैंने पत्र की तारीख देखी- 1924। इसका मतलब यह पत्र तबसे करीब साठ साल पहले लिखा गया था।

पत्र की लिखावट बहुत सुन्दर थी जो किसी कन्या द्वारा लिखी जान पड़ती थी। हल्के नीले रंग के आकर्षक कागज के ऊपरी बायें कोने पर एक छोटा सा सुन्दर फूल बना हुआ था। पत्र को पढ़ने से यह पता चला कि यह किसी ‘प्रिय जॉन’ को लिखा गया था जिसका नाम माइकल रहा होगा। पत्र लिखने वाली अब उसे आगे से नहीं मिलने वाली थी क्योंकि उसकी माँ ने उसे मना कर दिया था। इसके बावजूद, उसने लिखा था कि वह उसे हमेशा प्यार करती रहेगी।

नीचे जो हस्ताक्षर थे उसमें नाम था – हना।

पत्र बहुत ही बढ़िया था। लेकिन उसके पाने वाले के नाम ‘माइकल’ के अलावा उसमें ऐसी कोई भी सूचना नहीं थी जिससे इसके मालिक की पहचान की जा सके। मैंने सोचा कि क्यों न प्रेषक का जो पता लिखा हुआ है उसके बारे में पता किया जाय। शायद उस पते का कोई फोन नंबर ही मिल जाय। मैंने टेलीफोन सूचना विभाग में फोन लगा दिया।

“मैडम ऑपरेटर” मैंने धैर्य से समझाते हुए कहा, “मैं आपसे एक विचित्र अनुरोध कर रहा हूँ। ...मुझे रास्ते में पड़ा एक बटुआ मिला है। मैं इसके मालिक का पता लगाने की कोशिश कर रहा हूँ। ...इसमें एक पत्र मिला है जिसपर एक पता लिखा है। क्या आप किसी तरह यह बता सकती हैं कि इस पते से संबंधित कोई फोन नंबर है या नहीं...?”

उसने मुझे सलाह दी कि मैं उसके सुपरवाइजर से बात कर लूँ। सुपरवाइजर ने थोड़ी हिचकिचाहट के बाद कहा, “हाँ ठीक है, ...उस पते पर एक फोन नंबर तो है लेकिन उसे मैं आपको नहीं दे सकती।” उसने कहा कि वह मेरी इतनी मदद कर सकती है कि वह स्वयं उन लोगों से बात कर ले और यदि वे इजाजत दें तो मेरी बात उन लोगों से करा दे। मैंने कुछ ही मिनट प्रतीक्षा की होगी कि वह दुबारा फोन लाइन पर आ गयी, “लीजिए, कोई आपसे बात करना चाहता है।”

फोन पर दूसरी ओर जो महिला मिलीं उनसे मैंने पूछा कि क्या वे किसी हना नाम की लड़की को जानती हैं। थोड़ी देर वो अचंभित सी चुप रहीं, फिर बोलीं, “ओह, हम लोगों ने जिस परिवार से यह मकान खरीदा था उनकी एक बेटी थी - हना नाम की। लेकिन यह तीस साल पहले की बात है।”

मैंने पूछा- “क्या आपको पता है कि वे लोग इस समय कहाँ मिल सकते हैं?”

“मुझे हना के बारे में इतना याद है कि कुछ साल पहले उसे अपनी माँ को एक नर्सिंग होम में रखना पड़ा था।” उस महिला ने बताया। “हो सकता है यदि आप उस नर्सिंग होम वालों से संपर्क करें तो शायद उनसे हना के बारे में कुछ पता चल सके।”

उन्होंने मुझे नर्सिंग होम का पता दिया और मैंने वहाँ फोन मिला दिया। उन लोगों ने बताया कि वहाँ भर्ती बुजुर्ग महिला कुछ साल पहले गुजर गयी; लेकिन उनके पास एक फोन नंबर जरूर था जिसकी मदद से उसकी बेटी तक पहुँचा जा सकता था। कम से कम ऐसा उनका अनुमान था।

मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और उस नंबर पर फोन मिलाया। जिस औरत ने फोन उठाया उसने बताया कि हना अब खुद ही एक नर्सिंग होम में रहती है।

अब मैं सोचने लगा कि मुझसे यह कितनी बड़ी बेवकूफ़ी हो रही है। आखिर मैं यह क्यों कर रहा हूँ..? सड़क पर पड़े मिले एक साधारण से पर्स के मालिक का पता लगाकर ऐसा क्या बड़ा तीर मार लूंगा जिसमें पड़े हैं केवल तीन डॉलर और एक चिठ्ठी जो लगभग साठ साल पुरानी है...?

ऐसा सोचते हुए भी मैंने उस नर्सिंग होम को फोन मिला ही दिया जिसमें हना के निवास करने की आशा थी। जिस आदमी ने फोन उठाया उसने बताया, “जी हाँ, हना जी हमारे साथ ही रहती हैं।”

हाँलाकि तबतक रात के दस बज चुके थे फिर भी मैंने पूछ लिया कि क्या मैं उनसे मिलने वहाँ आ सकता हूँ।

“ठीक है...,” उसने सकुचाते हुए कहा- “यदि आप कोशिश करना चाहते हैं तो आइए, हो सकता है अभी वे दिन वाले कमरे (डे-रूम) में बैठकर टीवी देख रही हों।”

मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और गाड़ी लेकर उस नर्सिंग होम में पहुँच गया। रात्रिकालीन ड्यूटी नर्स और सिक्यूरिटी गार्ड ने दरवाजे पर मेरा अभिवादन किया। हम इस विशाल इमारत की तीसरी मंजिल पर गये। डे-रूम में नर्स ने मेरा परिचय हना से कराया।

चेहरे पर ताजी मुस्कान और आँखों में अनोखी चमक लिए चाँदी से चमकते बालों वाली वह पुराने जमाने की एक खूबसूरत महिला थीं।

मैंने उन्हें बटुए के बारे में बताया और उसमें रखी वह चिठ्ठी दिखायी। जिस क्षण उन्होंने उस हल्के नीले रंग के लिफाफे और उसके कोने पर बने छोटे से फूल को देखा, उन्होंने एक गहरी साँस भरी और बोल पड़ी, “नौजवान, माइकल के साथ मेरा आखिरी संपर्क इस चिठ्ठी से ही हुआ था।”

वे थोड़ी देर के लिए मुँह घुमाकर गहरी सोच में डूब गयीं। उसके बाद बहुत कोमल आवाज में बताने लगीं, “मैं उसे बहुत प्यार करती थी। लेकिन तब मैं केवल सोलह साल की थी और मेरी माँ को लगा कि मैं बहुत छोटी हूँ। ...ओह, वह बेहद खूबसूरत इन्सान था। ...वह अभिनेता सीन कोनेरी की तरह दिखता था।”

“हाँ...” वे बोलती जा रही थीं, “माइकल गोल्डस्टीन अनोखा आदमी था। यदि तुमसे मिले तो उससे कहना कि मैं अभी भी उसके बारे में सोचती हूँ। और...” थोड़ी देर के लिए वे सकुचाकर रुक गयीं, फिर अपने होंठ लगभग काटते हुए बोलीं, “उससे कहना कि मैं अभी भी उससे प्यार करती हूँ... और...” वे एक ओर मुस्करा रही थीं और दूसरी ओर उनकी आँखों से बड़ी-बड़ी बूँदे टपकती जा रहीं थीं, “मैंने कभी शादी नहीं की...। मैं समझती हूँ कि माइकल जैसा दूसरा कोई था ही नहीं...”

मैंने हना जी को धन्यवाद कहा और विदा ली। लिफ़्ट से पहली मंजिल पर उतर आया। वहाँ जो गार्ड खड़ा था उसने पूछा- “क्या उस बूढ़ी महिला ने आपकी कोई मदद की?”

मैंने उसे बताया कि उन्होंने मुझे एक सूत्र दिया है। “अब मुझे कम से कम इसके मालिक का पूरा नाम पता चल गया है। लेकिन मुझे लगता है कि अब मैं इसे यूँ ही कुछ समय तक रहने दूँगा। मैंने लगभग पूरा दिन इसके मालिक का पता लगाने में खर्च कर दिया है।”

इस बीच मैंने उस बटुए को बाहर निकाल लिया था जो कत्थई रंग के चमड़े का एक साधारण सा बटुआ था जिसके किनारों पर लाल रंग के गोटे लगे थे। जब गार्ड ने उसे देखा तो बोल पड़ा- “अरे, एक मिनट रुकिए तो! यह तो गोल्डस्टीन साहब का बटुआ है। मैं तो इसे कहीं भी पहचान सकता हूँ। इसमें जो चमकता हुआ लाल गोटा लगा है उससे। वे इसे हमेशा खो देते हैं। मैंने इस बटुए को कम से कम तीन बार तो यहाँ के हालों में ही गिरा हुआ पाया है।”

“ये गोल्डस्टीन साहब कौन हैं?” यह पूछते हुए मेरे हाथ काँपने लगे।

“वे आठवीं मंजिल पर रहने वाले बुजुर्गों में से एक हैं। यह निश्चित रूप से माइकल गोल्डस्टीन साहब का ही बटुआ है। जरूर उन्होंने टहलते समय इसे गिरा दिया होगा।”

मैंने गार्ड को शुक्रिया कहा और लगभग दौड़ते हुए नर्स के ऑफिस में घुस गया। मैंने उसे गार्ड की कही बात बतायी। हम लिफ़्ट तक गये और अन्दर चढ़ गये। मैं मन ही मन प्रार्थना करता रहा कि ऊपर श्री गोल्डस्टीन मिल जाँय।

आठवीं मंजिल की नर्स ने बताया, “मुझे लगता है कि वे अभी भी डे-रूम में ही हैं। वे रात को पढ़ना पसन्द करते हैं। वे बहुत प्यारे बुजुर्ग हैं।

हम उस एकमात्र कमरे में पहुँच गये जहाँ कोई बत्ती जल रही थी और एक आदमी किताब पढ़ रहा था। नर्स उनके पास तक गयी और पूछा- क्या आपका बटुआ खो गया है? श्री गोल्डस्टीन ने हैरत से सिर ऊपर उठाकर देखा, अपना हाथ पीछे की जेब पर रखकर टटोला और बोले, “ओह, यह तो गायब है।”

“इन सज्जन को रास्ते में एक बटुआ पड़ा मिला है और हमें आश्चर्य है कि यह आपका हो सकता है...।”

मैंने श्री गोल्डस्टीन को वह बटुआ थमा दिया। उन्होंने उसे देखते ही राहत महसूस की और मुस्कराकर कहा, “हाँ, यही है! जरूर आज शाम को मेरी जेब से यह गिर गया होगा। मैं आपको कुछ ईनाम देना चाहता हूँ।”

“जी नहीं, धन्यवाद,” मैंने इन्कार करते हुए कहा। “लेकिन मुझे आपसे कुछ कहना है। मैंने वह चिठ्ठी पढ़ डाली... इस आशा में कि शायद इस बटुए के मालिक का पता लग जाय।”

उनके चेहरे की मुस्कान अचानक गायब हो गयी, “तुमने चिठ्ठी पढ़ डाली?”

“मैंने चिठ्ठी पढ़ ही नहीं डाली, मुझे हना जी का वर्तमान पता भी मालूम हो गया है।”

अब उनका चेहरा पीला पड़ गया। “हना...? तुम जानते हो कि वह कहाँ है? कैसी है वो? क्या वह अभी भी उतनी ही सुन्दर है जैसी पहले थी? प्लीज, ....प्लीज मुझे बताओ...।” उन्होंने याचना की।

“वो ठीक हैं... बिल्कुल वैसी ही सुन्दर जैसी आप को मालूम है।” मैंने धीरे से कहा।

वे बुजुर्ग किसी प्रत्याशा में मुस्कराये और पूछने लगे, “बताइए न, कहाँ है वो? मैं उससे बात करना चाहता हूँ।” उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया और बोले, “महोदय, आप कुछ जानते हैं, मैं उस लड़की से इतना प्यार करता था कि जब वह चिठ्ठी आयी तो मेरी जिन्दगी सच में खत्म हो गयी। ...मैंने कभी शादी नहीं की। ...मुझे लगता है कि मैं हमेशा उसे ही प्यार करता रहा हूँ।”

“श्री गोल्डस्टीन जी, मेरे साथ आइए।” मैंने कहा।

हम लिफ़्ट से तीसरी मंजिल पर उतर आये। गलियारे में अंधेरा था। एक-दो नाइट लैंप जल रहे थे जिनके सहारे हम डे-रूम तक आ गये जहाँ हना जी अकेली बैठी टीवी देख रही थीं। नर्स उनके पास तक गयी।

“हना जी,” उसने फुसफुसाते हुए बुलाया। दरवाजे के पास मेरे साथ खड़े प्रतीक्षा कर रहे माइकल की ओर इशारा करते हुए उसने पूछा, “क्या आप इस आदमी को जानती हैं?”

उन्होंने अपना चश्मा ठीक किया, थोड़ी देरे तक उधर देखा लेकिन कुछ बोला नहीं। माइकल ने हल्के से फुसफुसाकर कहा, “हना, मैं हूँ माइकल...। क्या मैं याद हूँ तुम्हें?”

वह अचानक धक्‌ से रह गयी, “माइकल! मुझे विश्वास नहीं हो रहा। माइकल! यह तुम्हीं हो! मेरे माइकल!” वे धीरे–धीरे उनकी ओर आगे बढ़े और आलिंगन कर लिया। नर्स और मैं, दोनो अपने चेहरों पर आँसू बहाते बाहर आ गये।

“देखो, ” मैंने कहा। “देखो ईश्वर की कैसी लीला है...! होनी को कोई टाल नहीं सकता। उसके घर देर है अन्धेर नहीं है।”

करीब तीन सप्ताह बाद मुझे अपने ऑफ़िस में एक फोन आया, “आप रविवार को आयोजित एक विवाह समारोह में सादर आमंत्रित हैं। आयु. हना और चि. माइकल वैवाहिक गठबंधन में बँधने जा रहे हैं।

यह बहुत ही सुन्दर वैवाहिक समारोह था। नर्सिंग होम के सभी लोग आकर्षक परिधान में सज-धजकर जश्‍न में हिस्सा ले रहे थे। हना ने हल्के कत्थई रंग का जोड़ा पहन रखा था और बेहद आकर्षक लग रही थी। माइकल ने गहरे नीले रंग का सूट पहना था जो दूर से ही पहचाना जा रहा था। मुझे उन लोगों ने सबसे अधिक तवज्जो दी।

हॉस्पिटल ने उन दोनो को एक अलग कमरा दे दिया। यदि आपको किशोर उम्र की तरह चहकती-महकती छिहत्तर साल की दुल्हन और उन्यासी साल का दूल्हा देखना हो तो यह जोड़ा ही देखने लायक होगा। लगभग साठ साल लंबे प्रेम-प्रसंग का ऐसा आदर्श पटाक्षेप और कहाँ।

(अनुवाद : सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

मूल पोस्ट : http://piqmug.blogspot.in/2013/07/a-letter-in-lost-wallet.html