मेरी वर्धा यात्रा की प्रथम, द्वितीय, और तृतीय रिपोर्ट आप यहाँ पढ़ चुके हैं। अब आगे…
विश्वविद्यालय गेस्ट हाउस से जब हम सेवाग्राम आश्रम के लिए निकले तो धूप चढ़ चुकी थी। यद्यपि यह आश्रम घूमने का सबसे अच्छा समय नहीं था, लेकिन हमारे पास कोई दूसरा विकल्प उपलब्ध भी नहीं था। हम वर्धा शहर के बीच से होकर ही गुजरे लेकिन रास्ते में कोई भीड़ भरी ट्रैफ़िक नहीं मिली। निश्चित ही गर्मी का असर सड़कों पर उतर आया था। हमें किसी मोड़, तिराहे या चौराहे पर रुककर सेवाग्राम का रास्ता पूछने के लिए गाड़ी से उतरकर किसी दुकानदार तक जाना पड़ता क्यों कि सड़क पर राहगीर नहीं मिल रहे थे। लेकिन हमें दो स्थानों पर इस कड़ी धूप को धता बताते लोग मिले जो पूरी सज-धज के साथ समूह में इकठ्ठा होकर किसी जश्न की तैयारी में जाते दिखायी दिए।
मैने नजदीक पहुँचकर देखा तो पता चला कि ये लोग बाबा साहब के जन्मदिन की शोभायात्रा निकाल रहे हैं। नीले अबीर का तिलक लगाकर एक दूसरे का अभिवादन करते लोगों में बड़े-बुजुर्ग, मर्द-औरतें, लड़के व लड़कियाँ, सभी मौजूद थे। एक अदम्य उत्साह और उमंग से लबरेज़ ये श्रद्धालु अपने नेता के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए जिस स्वतः स्फूर्त भाव से इस आयोजन में शामिल हो रहे थे उसे देखकर सहज ही अनुमान किया जा सकता था कि डॉ.भीमराव अम्बेडकर ने किस प्रकार एक बहुत बड़े समाज को अपनी अस्मिता पर गौरव महसूस करने और सिर ऊँचा उठाकर जीने की प्रेरणा दे दी है।
एक पेट्रोल पंप के अहाते में जमा हो रहे समूह को पीछे छोड़कर जब हम सेवाग्राम में बापू के आश्रम के मुख्यद्वार पर पहुँचे तो वहाँ भी एक ऐसा ही जुलूस जश्न के उल्लास में डूबा हुआ मिला। एक खुली हुई गाड़ी पर बाबा साहब अम्बेडकर के आदमकद चित्र को सजाकर झाँकी तैयार की गयी थी जिसके सामने बड़ी संख्या में लड़के और वयस्क पुरुष नाच रहे थे। ढोल-नगाड़े और बैण्ड-बाजे की तेज ध्वनि पर उनके पाँव खुशी-खुशी तारकोल की गर्म सड़क पर भी सहजता से थिरक रहे थे। मैने गेट के किनारे गाड़ी खड़ी की और अपना कैमरा निकाल कर इस शोभा यात्रा की कुछ तस्वीरें लेनी चाही। लेकिन पहले स्नैप के बाद ही कैमरा स्वचालित तरीके से बन्द हो गया। स्क्रीन पर यह संदेश आया कि सीमा से अधिक गर्म हो जाने के कारण कैमरा बन्द हो रहा है। ए.सी. कार के डैश बोर्ड पर शीशे से छन कर आ रही धूप इस सोनी डिजिटल कैमरे की नाजुक कार्यप्रणाली को बन्द करने में सक्षम थी लेकिन अपने नेता के जन्मदिन को यादगार बनाने में जुटे उन लोगों के ऊपर कड़ी धूप का जरा भी असर नहीं दिखा। माथे पर नीली पट्टी बाँधे हुए दर्जनों नौजवान लड़के मोटरसाइकिलों पर फर्राटा भरते किसी बाराती का सा उत्साह लिए समूह में आ जा रहे थे।
जब वह शोभा यात्रा थोड़ी दूर चली गयी तो हम एक और महापुरुष की कर्मस्थली के प्रांगण में चले गये। यह था बापू का सेवाग्राम आश्रम।
सन् १९३४ में गांधीजी को उनके प्रिय मित्र और प्रसिद्ध उद्योगपति जमनालाल बजाज ने वर्धा में निवास हेतु आमन्त्रित किया था। वर्धा के करीब शेगाँव (Shegaon) नामक ग्रामीण क्षेत्र में जंगली वनस्पतियों से हरे-भरे इलाके में बापू के रहने के लिए स्थानीय सामग्री के उपयोग से खपरैल की छत वाला जो मकान बना उसे अभी भी ज्यों का त्यों सजोकर रखा गया है। सबसे पहले हम उसी ‘आदि निवास’ के बरामदे में पहुँचे। हमने वहाँ उल्लिखित निर्देश के सम्मान में अपने पैर के जूते निकाल दिए। पूरे प्रांगण में पत्थर की छोटी गिट्टियों की परत बिछायी गयी थी जो धूप से गर्म तो हो ही चुकी थी, उनपर नंगे पाँव चलने से इनकी तीखी नोक से चुभन भी खूब हो रही थी। वहाँ कार्यरत एक बुजुर्ग महिला ने बताया कि इस स्थान पर साँप और बिच्छू बहुत निकलते हैं। इन गिट्टियों के बीच उनका चलना कठिन होता है इसलिए सुरक्षा की दृष्टि से यह गिट्टी डाली गयी है। एक्यूप्रेशर चिकित्सा में विश्वास करने वाले इन गिट्टियों पर नंगे पाँव चलना स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद मानते हैं। एक कक्ष में साँप पकड़ने का पिजरा भी रखा हुआ था जिसमें साँपों को पकड़कर दूर जंगल में छोड़ दिया जाता था।
बताते हैं कि बापू के कार्यकाल में निर्मित भवनों जैसे- आदि निवास, बा-कुटी, बापू- कुटी, आखिरी निवास, परचुरे कुटी, महादेव कुटी, किशोर निवास, रुस्तम भवन इत्यादि में से किशोर निवास को छोड़कर किसी भी भवन में पक्की ईंटों व सीमेण्ट का प्रयोग नहीं किया गया था। इस प्रांगण में गांधी जी द्वारा व्यक्तिगत रूप से उपयोग की गयी वस्तुओं को करीने से सजाकर आगन्तुकों के दर्शनार्थ रखा गया है। आश्रम में आकर मेरा कैमरा अबतक ठण्डा हो चुका था इसलिए हमने कुछ यादगार तस्वीरें उतार लीं।
बापू कुटी का परिचय देता यह बोर्ड हमारा ध्यान बरबस खींचता है। इसमें सात सामाजिक पातक (social sins) उल्लिखित हैं जो यंग इण्डिया से उद्धरित हैं। समाज को पतन की ओर ले जाने वाले जिन तत्वों की पहचान गांधी जी ने तब की थी वे आज हमारे सामने प्रत्यक्ष उपस्थित हैं और उनका वैसा ही प्रभाव होता भी दिखायी दे रहा है। सिद्धान्तहीन राजनीति, विवेकभ्रष्ट भोग-विलास, बिना श्रम के अर्जित सम्पत्ति, मानवीय मूल्यों से विहीन वैज्ञानिक विकास, अनैतिक बाणिज्य-व्यापार, त्याग और बलिदान से रहित पूजा-पाठ, और चरित्र निर्माण से रहित शिक्षा जैसे घटक हमारे समाज को आज भी अन्धेरे की ओर ले जा रहे हैं। यदि हमारे देश के नीति नियन्ता राष्ट्रीय स्तर पर इन्हीं विन्दुओं को दृष्टिगत रखकर नीति निर्माण करें और उनके अनुपालन की कार्ययोजना तैयार करें तो बहुत कुछ सुधारा जा सकता है।
प्रांगण में अनेक छायादार और फलदार वृक्ष दिखे जिनका रोपण देश की महान विभूतियों ने किया था और उनकी नाम पट्टिकाएं वृक्षों पर लगी हुई थीं। भारतीय स्वतंत्रता संगाम के अन्तिम दशक में देश का ऐसा कोई भी महत्वपूर्ण व्यक्ति नहीं रहा होगा जो वर्धा के सेवाग्राम आश्रम तक न आया हो। गांधी जी ने अपने जीवन के अन्तिम भाग में अधिकांश समय यहीं बिताया। विभाजन के बाद उपजे साम्प्रदायिक दंगो से लड़ने के लिए बंगाल के नोआखाली के लिए प्रस्थान करने के बाद गांधी जी यहाँ नहीं लौट सके।
इस प्रांगण से बाहर आकर हमने खादी की दुकान से कुछ खरीदारी की। भूख और प्यास ने जब हमें नोटिस थमायी तो हमें बगल के प्राकृतिक आहार केन्द्र की ओर जाना पड़ा। इस रेस्तराँ को देखकर हम झूम उठे। डाइनिंग टेबल के स्थान पर यहाँ चौकोर चौकियाँ रखी हुई थीं जिनके बीच में तिपाये पर ठण्डे पानी से भरे मिट्टी के घड़े रखे हुए थे। हमने वहाँ किसी फूल के अर्क से तैयार किया हुआ ठंडा स्वादिष्ट शरबत लिया, कुछ तस्वीरें ली और अपनी गाड़ी की ओर बढ़ चले। गेस्ट हाउस की कैण्टीन में बना भोजन हमारा इन्तजार कर रहा था।
शाम को गेस्ट हाउस के चबूतरे पर आयोजित एक अद्भुत कार्यक्रम में शामिल होने का अवसर मिला। अम्बेडकर जयन्ती के अवसर पर विश्वविद्यालय के संस्कृति विभाग ने इस विशेष कार्यक्रम का आयोजन किया था। विभाग के विशेष कार्याधिकारी (OSD) राकेश जी ने कार्यक्रम के प्रथम चरण में डॉ. अम्बेडकर की राजनैतिक आर्थिक दृष्टि और आज का समय विषय पर बोलने के लिए नागपुर से आमन्त्रित प्रोफ़ेसर श्रीनिवास खान्देवाले का परिचय दिया। अर्थशास्त्र के प्रतिष्ठित विद्वान प्रोफ़ेसर खान्देवाले ने करीब एक घण्टे के अपने भाषण में डॉ. भीमराव अम्बेडकर के जिस व्यक्तित्व से परिचित कराया उसे इतनी गहराई से हम पहले नहीं जान पाये थे। भारतीय संविधान के निर्माता और दलित समुदाय के मसीहा के रूप में अम्बेडकर की जो छवि हमारे मन में थी उसके दो रूप थे। एक रूप वह था जिसमें वे राजनैतिक रूप से जागरूक हो रहे एक खास सामाजिक जाति वर्ग के प्रेरणापुंज और उपास्य देवता थे जिनकी अन्धभक्ति में डूबे हुए लोग अपने समर्थक समूह से इतर प्रत्येक व्यक्ति को मनुवादी कहकर गाली देने का काम करते रहे हैं।
उनकी छवि का दूसरा रूप वह था जो अरुण शौरी जैसे लेखकों द्वारा ‘फर्जी भगवान’ के रूप में गढ़ा गया था- जिसके प्रति विद्वेष से भरे हुए लोगों द्वारा चौराहे पर लगी उनकी मूर्तियों को तोड़ने, अपमानित करने और एक जाति विशेष के लोगों के लिए अपशब्द प्रयोग करने और उत्पीड़ित करने का जघन्य कार्य किया जाता रहा है। कदाचित् डॉ. अम्बेडकर को एक खास राजनैतिक उद्देश्य से इस्तेमाल करने की होड़ में लगी पार्टियों ने इस प्रकार की परस्पर विरोधी छवियों का निर्माण कर रखा है। प्रो. खान्देवाले ने अपने वक्तव्य में अम्बेडकर की एक मध्यमार्गी छवि पेश की। उनका कहना था कि अम्बेडकर की दृष्टि सच्चे समाजवाद से ओतप्रोत थी। वे शान्तिपूर्ण ढंग से सामाजिक परिवर्तन लाने के हिमायती थे। उनकी राजनैतिक दृष्टि तो उनके द्वारा तैयार किये गये हमारे संविधान में परिलक्षित होती ही है, साथ में उनकी आर्थिक दृष्टि को भी संविधान के सूक्ष्म अध्ययन से समझा जा सकता है।
समाज में फैली घोर आर्थिक विषमता को दूर करने के लिए सम्पत्ति का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर होना आवश्यक है लेकिन हो रहा है इसका उल्टा। गरीब मजदूर और किसान अपनी विकट परिस्थिति से हारकर आत्महत्या कर रहे हैं और पूँजीपति वर्ग लगातार अपनी सम्पत्ति बढ़ाता जा रहा है। आई.पी.एल. के अर्थशास्त्र का उदाहरण देकर उन्होंने बताया कि जबतक समाज के पिछ्ड़े तबके को आर्थिक उन्नति के उचित और न्यायपूर्ण अवसर नहीं प्राप्त होंगे तबतक सामाजिक समरसता नहीं पायी जा सकेगी। यही उचित अवसर दिलाने की लड़ाई शान्तिपूर्ण तरीके से लड़ने की राह डॉ.अम्बेडकर ने दिखायी। पारस्परिक विद्वेष को भुलाकर इस लड़ाई में समाज के सभी तबकों से बराबर का सहयोग करने का आह्वान भी प्रो. खान्देवाले ने वहाँ उपस्थित छात्रों, अध्यापकों और वि.वि. के पदाधिकारियों से किया।
कार्यक्रम के अगले चरण में लखनऊ से आयी संगीत मण्डली रवि नागर एण्ड ग्रुप ने कुछ बेहतरीन कविताओं का मोहक संगीतमय पाठ किया। इसमें सबसे पहले डॉ.दिनेश कुमार शुक्ल के कुछ दोहे गाकर सुनाये गये-
भाषा के सोपान से, शब्द लुढकते देख।
पढ़ा लिखा सब पोंछकर, लिखो नया आलेख॥
जीवन को अर्था रहा, गूंगा बहरा मौन।
किसने देखा राम को, रमता जोगी कौन॥
सीली-सीली है हवा, ठण्डी-ठण्डी छाँव।
सन्निपात का ज्वर बढ़ा, झुलस रहा है गाँव॥
यहाँ न सूर्योदय हुआ, यहाँ न फैली धूप।
कालरात्रि फैली रही, जैसे अन्धा कूप॥
काले भूरे खुरदुरे, ले अकाल के रंग।
गगन पटल पर लिख रहा, औघड़ एक अभंग॥
जंगलों में रहने वाले आदिवासी समुदाय के जीवन पर आधारित निर्मला पुतुल की कविता ‘तुम्हारे हाथों बने पत्तल पर भरते हैं पेट हजारो, पर हजारों पत्तल भर नहीं पाते पेट तुम्हारा’ के भावुक प्रस्तुतिकरण ने वातावरण बहुत मार्मिक बना दिया। इसके बाद अदम गोंडवी की प्रसिद्ध रचना चमारों की गली का गायन हुआ। आइए महसूस करिए जिन्दगी के ताप को। मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको॥
इस एक घंटे की संगीतमय प्रस्तुति ने दलित शोषित समाज की जिस कष्टप्रद और शोचनीय परिस्थिति की जिन्दा तस्वीर पेश की उसको और गहनता से महसूस कराया कार्यक्रम के अगले चरण में प्रस्तुत नुक्कड़ नाटक ‘सात हजार छः सौ छियासी’ ने।
प्रोबीर गुहा निर्देशित नुक्कड़ नाटक –७६८६
विश्वविद्यालय के फिल्म व थिएटर विभाग के विद्यार्थी कलाकारों द्वारा इसे कोलकाता के नाट्य समूह ‘अल्टरनेटिव लिविंग थिएटर’ के प्रोबीर गुहा के नाट्य निर्देशन में प्रस्तुत किया गया। श्री गुहा वि.वि. के गेस्ट फैकल्टी हैं जो कुछ दिनों के लिए यहाँ आये हुए थे। महाराष्ट्र में कपास किसानों द्वारा बड़ी संख्या में की जा रही आत्महत्या के पीछे जो सामाजिक-आर्थिक कारण हैं उन्हें समझाने का यह बहुत ही प्रभावशाली प्रयास था। भयंकर गरीबी के बीच नैसर्गिक जिजीविषा से प्रेरित किसान अपनी जमीन पर कपास उगाने में खाद, बीज और कीटनाशक के लिए आने वाली तमाम कठिनाइयों से लड़ता हुआ, पूँजीपतियों, ऋणदाता बैंको, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, भ्रष्ट नौकरशाहों, विपरीत मौसम और पर्यावरण की तमाम समस्यायों से जूझता हुआ जब अपना तैयार माल बाजार में बेंचने ले जाता है तो वहाँ लालची दलालों के हाथों पड़कर अपना सर्वस्व लुटा देता है। ऐसे में जब यह रिपोर्ट आती है कि विदर्भ क्षेत्र में ७६८६ किसानों ने आत्महत्या कर ली तो मात्र कुछ दिनों के लिए हाहाकार मचता है। उसके बाद स्थिति जस की तस हो जाती है।
चौदह अप्रैल की वह शाम मेरे लिए अभूतपूर्व अनुभवों वाली साबित हुई। एक के बाद एक उम्दा कार्यक्रमों को देखने-सुनने का मौका पाकर मुझे वहाँ कुछ और दिन रुकने का मन हो चला लेकिन ये मुई सरकारी नौकरी इतने भर की छुट्टी भी बड़ी मुश्किल से देती है। हम अगले दिन विश्वविद्यालय के नवनिर्मित प्रशासनिक भवन, पुस्तकालय व विभिन्न विद्यापीठ देखने टीले के ऊपर गये। वित्त अधिकारी मो.शीस खान से मिलने के बाद हम अन्त में कुलपति जी के कार्यालय में गये। आधुनिक सुविधाओं और संचार साधनों से लैस कार्यालय में कुर्ता पाजाम पहनकर श्री विभूति नारायण राय एक साथ दक्षता, सादगी और कर्मठता का परिचय दे रहे थे। इस शुष्क टीले को हरा-भरा करके उसपर स्थापित अनेक उत्कृष्ट विद्यापीठों में पठन-पाठन व शोध सम्बन्धी गतिविधियों को गति प्रदान करने का जो कार्य आपने शुरू किया है वह किसी भगीरथ प्रयत्न से कम नहीं है।
हमने उनकी मेज पर रखे कम्प्यूटर से अपने रेल टिकट का पी.एन.आर. स्टेटस जाँचा और टिकट कन्फ़र्म होने की खुशी का भाव लिए उनसे विदा लेकर विनोद जी के साथ सेवाग्राम स्टेशन के लिए चल पड़े।
(समाप्त)
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)