हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

रविवार, 20 मार्च 2011

गाँव की होली का जोगीरा...

इस बार की होली में गाँव जाना नहीं हो पाया है। त्यौहारों में गाँव की होली ही सबसे अधिक मिस करते हैं हम। वहाँ होली के दिन सबसे रोचक होता है जोगीरा पार्टी का नाच-गाना। गाँव के दलित समुदाय के बड़े लड़के और वयस्क अपने बीच से किसी मर्द को ही साड़ी पहनाकर स्त्रैंण श्रृंगारों से सजाकर नचनिया बनाते हैं। यहाँ इसे  ‘लवण्डा’ नचाना कहते हैं। जोगीरा बोलने वाला इस डान्सर को जानी कहता है। दूसरे कलाकार हीरो बनकर जोगीरा गाते हैं। और पूरा समूह प्रत्येक कवित्त के अन्त में जोर-जोर से सररर... की धुन पर कूद-कूद कर नाचता है। वाह भाई वाह... वाह खेलाड़ी वाह... का ठेका लगता रहता है।

कुछ जोगीरा दलों के (दोहा सदृश) कवित्तों की बानगी यहाँ पेश है :

[दोहे की पहली लाइन दो-तीन बार पढ़ी जाती है, उसके बाद दूसरी लाइन के अन्त में सबका स्वर ऊँचा हो जाता है।]

jogira-party

जोगीरा सर रर... रर... रर... 


फागुन के महीना आइल ऊड़े रंग गुलाल।

एक ही रंग में सभै रंगाइल लोगवा भइल बेहाल॥

जोगीरा सर रर... रर... रर...


गोरिया घर से बाहर ग‍इली, भऽरे ग‍इली पानी।

बीच कुँआ पर लात फिसलि गे, गिरि ग‍इली चितानी॥

जोगीरा सर रर... रर... रर...


चली जा दौड़ी-दौड़ी, खालऽ गुलाबी रेवड़ी।

नदी के ठण्डा पानी, तनी तू पी लऽ जानी॥

जोगीरा सर रर... रर... रर...


चिउरा करे चरर चरर, दही लबा लब।

दूनो बीचै गूर मिलाके मारऽ गबा गब॥

जोगीरा सर रर... रर... रर...


सावन मास लुग‍इया चमके, कातिक मास में कूकुर।

फागुन मास मनइया चमके, करे हुकुर हुकुर॥

जोगीरा सर रर... रर... रर...


एक त चीकन पुरइन पतई, दूसर चीकन घीव।

तीसर चीकन गोरी के जोबना, देखि के ललचे जीव॥

जोगीरा सर रर... रर... रर...


भउजी के सामान बनल बा अँखिया क‍इली काजर।

ओठवा लाले-लाल रंगवली बूना क‍इली चाकर॥

जोगीरा सर रर... रर... रर...


ढोलक के बम बजाओ, नहीं तो बाहर जाओ।

नहीं तो मारब तेरा, तेरा में हक है मेरा॥

जोगीरा सर रर... रर... रर...


बनवा बीच कोइलिया बोले, पपिहा नदी के तीर।

अंगना में भ‍उज‍इया डोले, ज‍इसे झलके नीर॥

जोगीरा सर रर... रर... रर...


गील-गील गिल-गिल कटार, तू खोलऽ चोटी के बार।

ई लौण्डा हऽ छिनार, ए जानी के हम भतार॥

जोगीरा सर रर... रर... रर...


आज मंगल कल मंगल मंगले मंगल।

जानी को ले आये हैं जंगले जंगल॥

जोगीरा सर रर... रर... रर...


कै हाथ के धोती पहना कै हाथ लपेटा।

कै घाट का पानी पीता, कै बाप का बेटा?

जोगीरा सर रर... रर... रर...

laloo-jogira

ये पंक्तियाँ पूर्वी उत्तर प्रदेश व बिहार के भोजपुरी लोकगायकों द्वारा अब रिकार्ड कराकर व्यावसायिक लाभ के लिए भी प्रयुक्त की जा रही हैं। शायद यह धरोहर बची रह जाय।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

बुधवार, 9 मार्च 2011

रेलवे की जुगाड़ सुविधा...

 

समय: प्रातःकाल 6:30 बजे

स्थान: बर्थ सं.18 - A1, पटना-सिकंदराबाद एक्सप्रेस

इस पोस्ट को लिखने का तात्कालिक कारण तो इस ए.सी. कोच का वह ट्वॉएलेट है जिससे निकलकर मैं अभी-अभी आ रहा हूँ और जिसके दरवाजे पर लिखा है- ‘पाश्चात्य शैली’। लेकिन उसकी चर्चा से पहले बात वहाँ से शुरू करूँगा जहाँ पिछली पोस्ट में छोड़ रखा था।

आप जान चुके हैं कि वर्धा से कार में इलाहाबाद के लिए चला था तो एक चौथाई रास्ता टायर की तलाश में बीता। जबलपुर में टायर मिला तो साथ में एक पोस्ट भी अवतरित हो ली। आगे की राह भी आसान न थी। रीवा से इलाहाबाद की ओर जाने वाला नेशनल हाई-वे पिछले सालों से ही टूटा हुआ है। अब इसकी मरम्मत का काम हो रहा है। नतीज़तन पूरी सड़क बलुआ पत्थर, पथरीली मिट्टी और बेतरतीब गढ्ढों का समुच्चय बनी हुई है। पिछले साल इसी रास्ते से वर्धा जाते समय मुझे करीब चालीस किमी. की दूरी पार करने में ढाई घंटे लग गये थे। इसलिए इस बार मैं सावधान था।

मैंने अपने एक मित्र से वैकल्पिक रास्ता पूछ लिया था जो रीवा से सिरमौर की ओर जाता था; और काफी घूमने-फिरने के बाद रीवा-इलाहाबाद मार्ग पर करीब साठ किमी आगे कटरा नामक बाजार में आकर मिल जाता था। रीवा से सिरमौर तक चिकनी-चुपड़ी सड़क पर चलने के बाद हमें देहाती सड़क मिली जो क्यौटी होते हुए कटरा तक जाती थी। हमें दर्जनों बार रुक-रुककर लोगों से आगे की दिशा पूछनी पड़ी। एक गाँव के बाहर तिराहे पर भ्रम पैदा हो गया जिसे दूर करने के लिए हमें पीछे लौटकर गाँव के भीतर जाना पड़ा। अँधेरा हो चुका था। कोई आदमी बाहर नहीं दिखा। एक घर के सामने गाड़ी रोककर ड्राइवर रास्ता पूछने के लिए उस दरवाजे पर गया। दो मिनट के भीतर कई घरों के आदमी हाथ में टॉर्च लिए गाड़ी के पास इकठ्ठा हो गये। फिर हमें रास्ता बताने वालों की होड़ लग गयी। कम उम्र वालों को चुप कराकर एक बुजुर्गवार ने हमें तफ़्सील से पूरा रास्ता समझा दिया। उनके भीतर हमारी मदद का ऐसा जज़्बा था कि यदि हम चाहते तो वे हमारे साथ हाइ-वे तक चले आते।

खैर, आगे का करीब चालीस किमी. का सर्पाकार देहाती रास्ता प्रायः गढ्ढामुक्त था। रात का समय था इसलिए इक्का-दुक्का सवारी ही सामने से आती मिली। सड़क इतनी पतली थी कि किसी दुपहिया सवारी को पार करने के लिए भी किसी एक को सड़क छोड़ने की नौबत आ जाती। जब हम हाइ-वे पर निकल कर आ गये तो वही क्षत-विक्षत धूल-मिट्टी से अटी पड़ी सड़क सामने थी। उफ़्‌... हम हिचकोले खाते आगे बढ़ते जा रहे थे और सोचते जा रहे थे कि शायद हमारा वैकल्पिक रास्ते का चुनाव काम नहीं आया। खराब सड़क तो फिर भी मिल गयी। हमने कटरा बाजार में गाड़ी रुकवायी। सड़क किनारे दो किशोर आपस में तल्लीनता से बात कर रहे थे। उनमें से एक साइकिल पर था। जमीन से पैर टिकाए। दूसरा मोबाइल पर कमेंट्री सुन रहा था और अपने साथी को बता रहा था।

मैंने पूछा- भाई, यह बताओ यह सड़क अभी कितनी दूर तक ऐसे ही खराब है?

लड़का मुस्कराया- “अंकल जी, अब तो आप ‘कढ़’ आये हैं। पाँच सौ मीटर के बाद तो क्या पूछना। गाड़ी हवा की तरह चलेगी।” उसने अपने दोनो हाथों को हवा में ऐसे लहराया जैसे पानी में मछली के तैरने का प्रदर्शन कर रहा हो। जब हमने बताया कि हम हाई-वे से होकर नहीं आ रहे हैं बल्कि सिरमौर होकर आ रहे हैं तो उसने हमें शाबासी दी और बुद्धिमान बता दिया। बोला- जो लोग हाई-वे से आ रहे हैं उनकी गाड़ी लाल हो जाती है। गेरुए मिट्टी-पत्थर की धूल से। आप अपनी कार  ‘चीन्ह’  नहीं पाते। हमें समझ में आ गया कि आगे का रास्ता बन चुका है। हम खुश हो लिए और आगे चल दिए। इलाहाबाद तक कोई व्यवधान नही हुआ।

इलाहाबाद में सरकारी काम निपटाने के अलावा अनेक लोगों से मिलने का सुख मिला। आदरणीय ज्ञानदत्त पांडेय जी के घर गया। श्रद्धेया रीता भाभी के दर्शन हुए। सपरिवार वर्धा जाकर नौकरी करने के हानि-लाभ पर चर्चा हुई। गुरुदेव के स्वास्थ्य की जानकारी मिली। लम्बे समय तक चिकित्सकीय निगरानी में रहने और लगातार दवाएँ लेते रहने की मजबूरी चेहरे पर स्थिर भाव के रूप में झलक रही थी। वे इस बार कुछ ज्यादा ही गम्भीर दिखे।

प्रयाग में मेरे पूर्व कार्यस्थल-कोषागार से जुड़े जितने भी अधिकारी-कर्मचारी और इष्टमित्र मिले उन सबका मत यही था कि मुझे अपना प्रदेश और इलाहाबाद छोड़कर बाहर नहीं जाना चाहिए था। इस विषय पर फिर कभी चर्चा होगी।

वर्धा वापस लौटने का कार्यक्रम रेलगाड़ी से बना। दिन भर मंगल-व्रत का फलाहार लेने के बाद शाम को एक मित्र की गृहिणी के हाथ की बनी रोटी और दही से व्रत का समाहार करके मैं स्टेशन आ गया। अनामिका प्रकाशन के विनोद शुक्ल और वचन पत्रिका के संपादक प्रकाश त्रिपाठी गाड़ी तक विदा करने आये। उन्हें हार्दिक धन्यवाद देकर हम विदा हुए। रात में अच्छी नींद आयी।

आज सुबह जब हम ‘पाश्चात्य शैली’ के शौचालय में गये तो वहाँ का अद्‌भुत नजारा देखकर मुस्कराए बिना न रह सके। साथ ही पछताने लगे कि काश कैमरा साथ होता। फिलहाल ट्वॉएलेट की देखभाल करने वालों के बुद्धि-कौशल और गरीबी में भी काम चला लेने की भारतीय प्रतिभा का नमूना पेश करते इस ए.सी. कोच के पश्चिमी बनावट वाले शौचालय की कुछ तस्वीरें मैंने अपने मोबाइल से ही खींच डाली हैं। खास आपके लिए। देखिए न...

IMG0069A भारत की एक बड़ी आबादी जैसे स्थानों पर शौच आदि से निवृत्त होती है उससे बेहतर सफाई है यहाँ। यह दीगर बात है कि सीट को ट्‍वाएलेट पेपर से अपने हाथों साफ़ करने के बाद फोटो लेने का विचार आया।
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IMG0070A ट्‍वाएलेट पेपर ...? पूरा बंडल उपलब्ध है जी। भले ही इसे रखे जाने का मूल बक्सा बेकार हो गया है लेकिन ठेकेदार ने इसे पॉलीथीन से बाँधकर वहीं लटका छोड़ा है। इसे प्रयोगार्थ निकालने के लिए थोड़ी ही मशक्कत करनी पड़ी।
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IMG0061A हाथ धुलने के लिए पेपर सोप रखने की कोई जरूरत नहीं। रेलवे द्वारा लिक्विड सोप की सुविधा गारंटीड है। इसे रखने की डिबिया अपने स्थान से उखड़ गयी तो भी कोई बात नहीं।  'रेलनीर'  की बोतल तो है। साबुन भरकर बेसिन के बगल में ही लटका रखा है। जी भर इस्तेमाल करें।
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IMG0062A ट्‍वाएलेट पेपर रोल को पॉलीथीन से बाँध कर रखने का काम बहुत बुद्धिमानी से किया गया है। स्टील फ्रेम में न होने के बावजूद यह नाचता भी है और थोड़ी  मेहनत करने पर टुकड़ों में निकल भी आता है। मनोरंजक भी है और स्किल टेस्टिंग भी...
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IMG0068A येजो चमक रहे हैं उनमें एक स्टील का जग है, पानी की टोटी है, और स्वयं पानी है जो नीचे जमा है। जो नहीं चमक रही है वह लोहे की जंजीर है जिससे जग बँधा हुआ है। कौन जाने यह कीमती जग किसी को भा जाय और दूसरे यात्रियों को परेशानी उठानी पड़े। इसीलिए बाँध के डाल दिया होगा।
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IMG0066A यदि आप पेपर का प्रयोग नहीं कर पाते और संयोग से टंकी का पानी खत्म होने के बाद आपकी बारी आयी तो क्या करेंगे? चिंता मत करिए...। एक बोतल एक्स्ट्रा पानी भी में डाल दिया गया है उधर कोने में...
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रेल  हमारी सुविधाओं का कितना
ख्याल रखती है

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

शनिवार, 5 मार्च 2011

मान गये जबलपुर की मिट्टी में ब्लॉगिंग का कीड़ा है...

 

स्थान: जबलपुर का एक कार वर्कशॉप

समय: दोपहर के १२: ३० बजे

अपनी निजी कार से वर्धा से इलाहाबाद के लिए निकलते समय यह कत्तई नहीं सोचा था कि रास्ते में रुककर ब्लॉग पोस्ट लिखने का मौका मिलेगा। लेकिन किसी अदृश्य शक्ति ने मानो मुझे धकेलकर यहाँ बैठा दिया है। मुझे इलाहाबाद की यात्रा सड़कमार्ग से करने की योजना अचानक नहीं बनानी पड़ी। पूरा सोच समझकर पहले से तैयारी थी। लेकिन गड़बड़ तो हो ही गयी।

विश्वविद्यालय परिसर के सबसे अच्छे ड्राइवर को इसके लिए पहले से ही तैयार कर लिया था। दिशाशूल इत्यादि का विचार करने के बाद आज सुबह पाँच बजे निर्धारित समय पर निकला था। इसके पहले गाड़ी की पूरी सर्विसिंग  भी इसी सप्ताह करा ली थी कि कोई समस्या न आये। ऑयल, फिल्टर, कूलैंट, बैटरी, लाइट इत्यादि के बाद वर्कशॉप वाले की सलाह पर ह्वील बैलेन्सिंग व एलाइनमेन्ट भी करा लिया। पहियों में पहली बार आम हवा के बजाय नाइट्रोजन डलवाया गया। उसने बताया कि यह इनर्ट गैस होती है जो स्थिर ताप की होती है। लम्बी यात्रा में भी पहिए गर्म नहीं होते।

पूरी सावधानी बरतने के बाद मैंने वर्धा से यात्रा प्रारंभ की। नागपुर जल्दी पहुँच गया। भोर का रास्ता सुनसान था। हमारी गाड़ी आगे बढ़ते हुए पहाड़ी जगलों के बीच बने राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-७ पर बढ़ रही थी। अचानक ट्रकों की लम्बी कतार सड़क के किनारे खड़ी मिली। हमारे ड्राइवर ने गाड़ी खड़ी करने के बजाय सड़क की दाहिनी पटरी पर आगे बढ़ते हुए उस बिन्दु तक गाड़ी पहुँचा दी जहाँ सामने से आने वाली गाड़ियों की कतार प्रारम्भ हो रही थी। आमने-सामने खड़े ट्रकों के बीच महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश की सीमा थी जहाँ कई किस्म की जाँच चौकियाँ अपना काम कर रही थीं। ड्राइवर ने बड़ी कुशलता से उस भीड़ के बीच से हमें बाहर निकाल लिया। लेकिन इसके लिए उसे कई बार सड़क छोड़कर किनारे के कीचड़ युक्त गढ्ढों में गाड़ी उतारनी पड़ी।

खैर हम आगे बढ़े और फर्राटे से चलते बने। करीब अस्सी किलोमीटर चलने के बाद ड्राइवर ने अचानक गाड़ी रोक दी। पता चला कि दाहिनी ओर का पिछला पहिया फ्लैट हो चुका है। अब हमारा माठा ठनका। पता नहीं कितनी देर से पंक्चर पहिया चलता रहा। हम स्टेपनी बदलकर आगे बढ़े और अगली ही दुकान पर टायर चेक कराया। पता चला कि रिम पर चलते हुए नये नवेले टायर का कबाड़ा हो चुका है। अब इस जंगल के बीच नया टायर मिलने से रहा। शिवनी, धूमा, लाखनखेड़ा, बर्गी आदि बाजारों में टायर खोजते हम अंततः जबलपुर आ गये हैं। यहाँ टायर मिल गया है। करीब दो सौ किमी. चिन्तित अवस्था में चलते हुए अब हमें सकून मिला है तो यह हाल आपके हवाले कर रहा हूँ। यदि स्टेपनी का कमजोर टायर भी पंक्चर हो जाता तो हम क्या करते?

इस डर को खत्म करने के लिए हमने दो टायर खरीदे। स्टेपनी भी नयी हो गयी। अब इस कथा को ठेलते हुए हम इलाहाबाद की ओर बढ़ रहे हैं। जबलपुर के प्रिय मित्रों से क्षमा याचना सहित कि इच्छा रहते हुए भी हम उनके साथ चाय नहीं पी सके।

जबलपुर की ब्लॉग-उर्वर मिट्टी को हमारा सलाम।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

गुरुवार, 3 मार्च 2011

अंकल जी…

पिछले कुछ समय से

जब राह चलते स्कूल-कॉलेज के बच्चे

किसी पार्टी या बारात में उछलते-कूदते लड़के-लड़कियाँ

किसी रिश्तेदार या मित्र के घर

कालबेल बजाने पर दरवाजा खोलते

किशोर-किशोरियाँ

मेरा अभिवादन करते

तो मैं सतर्क हो जाता

‘अंकल जी’ सुनकर

चिहुँक जाता

मेरा युवा मन मचल उठता

यह बताने को कि मैं उनका दोस्त सरीखा हूँ

अभी इतना बड़ा नहीं कि पिछली पीढ़ी का कहलाऊँ

भैया या सर कहलाना अच्छा लगता

चाचा नहीं

...

लेकिन अब

समय की पटरी पर वह चिह्‍न आ ही गया

जब स्वीकार लूँ

मेरे नीचे एक नयी पीढ़ी आ चुकी है

चालीस बसंत जो देख लिए

...

सोचता हूँ

अब तो बड़ा बनके रहना पड़ेगा

बहुत कठिन है यह सब

जिम्मेदारी का काम है

अनुशासन और मर्यादा की चिंता

जो पहले भी थी

लेकिन एक शृंगार की तरह

अब तो जवाबदेही होगी

नयी पीढ़ी के प्रति

...

तथापि

मन तो युवा रहेगा ही

हमेशा

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(सिद्धार्थ)