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मंगलवार, 21 जुलाई 2009

बच के रहना रे बाबा... जाने कौन कैसा मिल जाय- भाग-२

(इस पोस्ट को पढ़ने से पहले इसका पूर्वार्द्ध जानना आवश्यक है। यदि आप पिछली पोस्ट न पढ़ पाये हों तो यहाँ चटका लगाएं...।)

अब आगे... 

failed marriageजुलाई की ऊमस भरी गर्मी...। मैं अपने ऑफिस में बैठा कूलर की घर्र-घर्र के बीच चिपचिपे पसीने पर कुढ़ता हुआ सरकारी फाइलों और देयकों (bills) आदि का काम निपटा रहा था। बाहर का मौसम तेज धूप और रुक-रुक कर पड़ते बारिश के छींटो से ऐसा खराब बन गया था कि बहुत मजबूरी में ही बाहर निकला जा सकता था। मेरे कमरे में कोई दूसरा न था।

तभी एक स्मार्ट सा युवक अन्दर आया और मेरी अनुमति लेकर कुर्सी पर बैठ गया। उसका चेहरा कुछ जाना पहचाना लगा। एक दिन पहले ही इस चेहरे से परिचय हुआ था जब लखनऊ से कुछ प्रशिक्षु अधिकारियों का एक दल हमारे कोषागार में भ्रमण के लिए आया था। करीब पन्द्रह प्रशिक्षणार्थियों ने एक-एक कर अपना नाम बताया था और अपना संक्षिप्त परिचय दिया था। सुन्दर काया और किसी जिमखाने से निकली सुडौल देहयष्टि वाला यह नौजवान भी उस टी्म का एक सदस्य था। लेकिन तब उस परिचय में सबका नाम तत्काल याद कर पाना सम्भव नहीं हो पाया था।

“तुम तो कल आए थे...? सॉरी यार, मैं तुम्हारा नाम याद नहीं रख पाया...” मैने संकोच से पूछा।

“जी सर, मैं कल आया था। आपसे अकेले मिलने की इच्छा थी इसलिए आज चला आया। ...मेरा नाम आप जानते होंगे। ...मैं अमुक हूँ। ...आज फेमिली कोर्ट में सुनवायी थी, लेकिन वो लोग फिर नहीं आए। केवल डिले करने की टैक्टिक्स अपना रहे हैं।”

“ओफ़्फ़ो, यार मैं तो तुम्हारे बारे में सुनकर बड़ा रुष्ट था। आखिर यह सब करने की क्या जरूरत थी? अच्छी भली लड़की का जीवन नर्क बना दिया।” मैं तपाक से बोल पड़ा।

उसके चेहरे पर एक बेचैनी का भाव उतर आया था, “सर, लगता है उसने यहाँ आकर भी अपनी कलाकारी का जादू चला दिया है...। सच्चाई यह है सर, कि जिन्दगी मेरी तबाह हुई है। उसने जो कहानी गढ़ी है वह उसके वकील की बनायी हुई है।”

मैंने अपने हाथ का काम बन्द कर दिया और उसकी बात ध्यान से सुनने लगा।

“सर, जब इन्स्टीट्यूट में यहाँ से फोन गया था तो मैं वहीं था। बाद में मुझे पता चला कि आपको भी इस मामले में गुमराह किया गया है। ...उसने जो आरोप लगाया है वह पूरी तरह बेबुनियाद है।”

“भाई मेरे, इस आरोप को सही सिद्ध करने के लिए तो शायद उसने मेडिकल एक्ज़ामिनेशन की चुनौती दी है...।”

“सर, मैने तो एफिडेविट देकर इसकी सहमति दे दी है। लेकिन इक्ज़ामिनेशन उसका भी होना चाहिए। शादी के बाद हम साथ-साथ रहे हैं। वह अपनी सेक्सुअल एक्टिविटी को कैसे एक्सप्लेन करेगी...?”

“ऐसी परसनल बातें यहाँ करना ठीक नहीं है... लेकिन वो बता रही थी कि आप उसके साथ किसी डॉक्टर से भी मिले थे, फर्जी नाम से...”

“नहीं सर, मेरी जिन्दगी का सुख चैन छिन गया है। रात-दिन की घुटन से परेशान हूँ। सच्चाई कुछ और है और मेरे ऊपर वाहियात आरोप लगाया जा रहा है। ...आप ही बताइए, मेरे घर में ही तीन-चार डॉक्टर हैं। मुझे कोई दिक्कत होती तो मैं उनसे परामर्श नहीं लेता?”

मैं चुपचाप सुनता रहा, इतनी अन्तरंग बातें कुरेदने की मंशा ही नहीं थी। लेकिन उसे अपने साथ हुए हादसे को बयान करना जरूरी लग रहा था। इसलिए मुझे भी उत्सुकता हो चली...

सर, यह मामला ‘थर्ड-परसन’ का है। लड़की का ऑब्सेसन एक दूसरे लड़के से है जिससे वह शादी नहीं कर सकती क्योंकि वह उसके ‘ब्लड रिलेशन’ में है। ...विदा होकर जब यह मेरे साथ मेरे घर गयी तो अगले दिन ही ये जनाब मेरे घर पहुँच गये। ...सीधा मेरे बेडरूम में जाकर पसर गये और फिर दिनभर जमे रहे। मेरे ही शहर में उसकी बहन का घर भी था। लेकिन सारा समय मेरे घर में, मेरी नयी नवेली पत्नी के साथ गुजारता रहा...

नयी-नयी शादी, ससुराल से आया हुआ चचेरा साला, संकोच में कुछ कहते नहीं बनता...। एक दिन बीता, दूसरा दिन गया, तीसरा दिन भी ढल गया...। रोज की वही दिनचर्या.... सुबह दोनो का एक साथ ब्रश करना, नाश्ता करना, आगे-पीछे नहाना-धोना, लन्च, डिनर सब कुछ साथ में; और देर रात हो जाने पर... “अब इतनी रात को कहाँ जाओगे, ताऊजी को फोन करदो, यहीं लेट जाओ”

“मैं बगल का कमरा ठीक करा देता हूँ? वहाँ आराम से सो जाओ...” मैने कहा था।

“नहीं-नहीं, किसी को क्यों डिस्टर्ब करेंगे। यहीं सोफ़े पर लेट जाता हूँ। ...या फर्श पर ही गद्दा डाल लिया जाय... ” उसने ‘बेतक़ल्लु्फी’ दिखायी।

“हाँ-हाँ ठीक तो है, यहीं ठीक है।” मेरी पत्नी ने खुशी से ‘इजाजत’ दे दी थी।

यह सब करने में उन दोनो को कोई शर्म या संकोच नहीं था। भाई-बहन का रिश्ता  मेरे सामने ही अन्तरंग दोस्ताना बना रहता, एक दूसरे के बिना उनका मन ही नहीं लगता। अपने ही बेडरूम में अपनी ब्याहता पत्नी के साथ एकान्त क्षण पाने के लिए मैं तरसता रहता। 

धीरे-धीरे मेरा माथा ठनका। मैने उन्हें चेक करना शुरू किया और उन्होंने मुझे टीज़ करना...। मैने उस लड़के के घर वालों से बात की। उन्होंने इस ‘इल्लिसिट रिलेशन’ की बात स्वीकार की लेकिन इसे रोक पाने में अपने को असहाय प्रदर्शित किया। बोले, “हमने लड़की की शादी में इसी उम्मीद से सहयोग किया था कि शायद इसके बाद हमारा लड़का हमारे हाथ में आ जाय। ...लेकिन अफ़सोस है कि वह हमारे हाथ से निकल चुका है।”

फिर मैंने अपने ससुर और साले से कहा। लेकिन उनकी बात से यही लगा कि सबकुछ जानते हुए भी उन्होंने यह शादी बड़े जतन से इस आशा में कर दी थी कि एक बार पति के घर चले जाने के बाद मायके की कहानी समाप्त हो जाएगी और लोक-लाज बची रह जाएगी। ...दुर्भाग्य का यह ठीकरा मेरे ही सिर फूटना लिखा था। मुझे पिछले दो साल में जो ज़लालत और मानसिक कठिनाई झेलनी पड़ी है उसे बयान नहीं कर सकता।

“आपने पता चलने के बाद उस लड़के को घर से बाहर क्यों नहीं कर दिया?” मैंने अपनी व्यग्रता को छिपाते हुए पूछा।

उसने मुझे इसका मौका ही कहाँ दिया...? शुरू-शुरू में तो मैं संकोच कर रहा था। इतने बड़े धोखे की मुझे कल्पना भी नहीं थी। लेकिन जब उनकी गतिविधियाँ पूरी तरह स्पष्ट हो गयीं और आठवें-नौवें दिन जब उन्हें लगा कि असलियत जाहिर हो चुकी है तब वह उस लड़के के साथ अपने सारे जेवर और कीमती सामान गाड़ी में लेकर मायके चली आयी...।

“आजकल जेवर वगैरह तो लॉकर में रख दिए जाते हैं? आपने सबकुछ घर में ही रख छोड़ा था?”

नहीं सर, मैने उससे कीमती जेवर वगैरह पास के ही बैंक लॉकर में रखने को जब भी कहा था तो वह कोई न कोई बहाना बनाकर टाल जाती। अब मुझे लगता है कि सबकुछ योजनाबद्ध था। यहाँ तक की नौकरी मिलने के बाद मेरे पापा ने मेरे नाम से जो गाड़ी बुक करायी थी उसे भी इन लोगों ने कैन्सिल कराकर इसके नाम से रजिस्ट्रेशन कराया जबकि बुकिंग एमाउण्ट का रिफण्ड लेकर हमने इनके खाते में ट्रान्सफर किया था। सारे बैंक रिकॉर्ड मौजूद हैं।

“अभी क्या स्थिति है?”

अब मैं तलाक का मुकदमा लड़ रहा हूँ। फेमिली कोर्ट सुनवायी कर रही है। नियमित हाजिर होकर जल्द से जल्द निपटारा कराना चाहता हूँ ताकि दूसरी शादी कर सकूँ। उसे अब शादी करनी नहीं है इसलिए उन्के द्वारा किसी न किसी बहाने से मामले को लटकाए रखा जा रहा है। ऐसे मामलों की सुनवायी शुरू होने से पहले पत्नी के निर्वाह की धनराशि कोर्ट द्वारा तय की जाती है जो उसके पति को मुकदमें के अन्तिम निस्तारण होने तक प्रति माह अदा करनी पड़ती है। अभी कोर्ट ने मेरे वेतन को ध्यान में रखते हुए ढाई हजार तय किया है। वे लोग इसे बढ़वाना चाहते हैं। इसी लिए ‘पे-स्लिप’ की खोज कर रहे हैं...। अपने वेतन की सूचना तो मैने एफीडेविट पर दी है लेकिन उन्हें विश्वास नहीं है।

पहले उसने मेडिकल जाँच की माँग उठायी। मैने कोर्ट में इसके लिए सहमति दे दी। साथ में यह भी अनुरोध कर दिया कि उसकी भी जाँच होनी चाहिए। यदि उसके अनुसार मैं नपुंसक हूँ तो उसकी वर्जिनिटी भी सिद्ध होनी चाहिए। यदि उसमें नॉर्मल सेक्सुअल एक्टिविटी पायी जाती है तो उसका आधार भी उसे स्पष्ट करना पड़ेगा। इसके बाद उसका दाँव उल्टा पड़ गया है। अब ‘सबकुछ भूलकर साथ रहने को तैयार’ रहने का सन्देश आ रहा है। लेकिन सर, मैं इस नर्क से निकलना चाहता हूँ...।

वह अपने पिता के घर में ही रह रही है। प्रायः उस लड़के के साथ सिविल लाइन्स, मैक्डॉवेल्स, हॉट स्टफ या दूसरे स्पॉट्स पर घूमती और मौज उठाती दिख जाती है। लड़का भी एक सरकारी महकमें में मालदार पोस्ट पर काम करता है।

“उसके पिताजी यह सब करने की उसे अनुमति क्यों देते हैं? उन्हें यह सब कैसे देखा जाता है?”

असल में वह पूरा परिवार ही व्यभिचार और अनैतिक सम्बन्धों के मकड़जाल में उलझा हुआ है। ससुर जी का व्यक्तिगत जीवन भी मौज-मस्ती से भरा रहा है। उनके बड़े भाई का लड़का उनकी बेटी के साथ जिस अन्तरंगता से रहते हुए उनकी छाती पर मूँग दल रहा है उसे अलग करने का नैतिक बल उनके पास नहीं है। सुरा और सुन्दरी उनकी पुरानी कमजोरी रही है। यह सब उनकी लड़की बखूबी जानती है और यही सब देखते हुए बड़ी हुई है। उस लड़के के माँ-बाप ने स्वयं अपनी व्यथा मुझसे बतायी है। उस परिवार में केवल मेरे सगे साले की पत्नी है जो मेरे साथ हुए अन्याय की बात उठाती है। बाकी पूरे कुँए में भाँग मिली हुई है...।

“मुझे जहाँ तक याद है उन लोगों ने दहेज उत्पीड़न का मुकदमा भी कर रखा है। सामान वापस देने और क्षतिपूर्ति के लिए यदि आप तैयार हो जाँय तो क्या निपटारा हो सकता है?” मैने पूछा।

सर, मैं तो कबसे तैयार बैठा हूँ। लेकिन वे लोग बहुत लालची है। सुरसा की तरह उनका मुँह फैलता जा रहा है। मेरा प्रस्ताव है कि जिन लोगों ने यह शादी तय करायी थी, वे दोनो पक्ष के मध्यस्थ एक साथ बैठ जाँय, जो भी दहेज का सामान और रुपया पैसा मिला था उसकी सही-सही सूची बना दें। मैं उससे कुछ ज्यादा ही देकर इस कलंक से छुट्टी पाना चाहता हूँ।

दूसरी शादी के लिए भी उम्र निकल जाएगी तो मैं कहीं का नहीं रहूँगा। उसे तो अब शादी की जरूरत ही नहीं है। वह चाहती है कि मैं उसे अपना आधा वेतन देता रहूँ, पति का नाम बना रहे और वह मायके में रह कर अपने साथी के साथ लिव-इन रिश्ता बनाये रखे। मुकदमा यूँ ही अनन्त काल तक चलता रहे...। (इति)

उसने इस दौरान जाने कितनी कानून की किताबें पढ़ ली हैं कि उसकी हर बात में आइपीसी, सीआरपीसी और सीपीसी की अनेक धाराएं उद्धरित होती रहती हैं। कानूनी पेंचों को वह समझने लगा है और सभी बातों में सतर्कता झलकती है। पीसीएस की तैयारी करके अपने दम पर नौकरी पाने वाले इस युवक की प्रतिभा और अनुशासन पर कोई सन्देह तो वैसे भी नहीं है लेकिन वह ऐसे सन्देह के घेरे में तड़प रहा है जिससे पार पाना मुश्किल जान पड़ता है...।

इतना सब सुनने के बाद मेरा दिमाग शून्य हो गया...। मैं निःशब्द होकर बैठा रहा। यह तय करना मुश्किल है कि कौन सच बोल रहा है और कौन झूठ। आप कुछ निष्कर्ष निकाल पाएं तो जरूर बताएं।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

सोमवार, 20 जुलाई 2009

बच के रहना रे बाबा... जाने कौन कैसा मिल जाय !?!

 

मुझे तो अपने ही ऊपर तरस आ रही थी। कैसे यह सब सुनकर भी मैं उसके लिए कुछ खास नहीं कर पाया था। बेचारी कितनी हिम्मत करके आयी होगी अपना दुखड़ा सुनाने...।

मैं अपने बॉस के पास उनके चैम्बर में बैठा कुछ सरकारी कामकाज पर विचार-विमर्श में तल्लीन था। मई का महीना... बाहर सूर्यदेवता आग उगल रहे थे। कमरे के भीतर आती-जाती बिजली की आँख-मिचौनी के बीच ए.सी. की अधकचरी सेवा मन को उद्विग्न कर रही थी। गर्मी के कारण दफ़्तर में प्रायः सन्नाटा ही था। इसी बीच उसने अपने पिता के साथ कमरे में प्रवेश किया था।

साफ-सुथरे परिधान में पूरा शरीर ढँका हुआ था। पूरी बाँह ढँकने वाला कुर्ता, एड़ियों के नीचे तक पहुँचने वाली सलवार, और गले में लिपटा व सिर को ऊपर तक ढँकने वाला सूती दुपट्टा कान के पीछे करीने से दबाया गया था। कट-शू में पूरी तरह छिपे हुए पाँव उसके नख-शिख आवृत्त होने के सायास उपक्रम की कहानी कह रहे थे। दुग्ध धवल चेहरे पर प्रायः कोई मेक-अप नहीं था। जैसे सोकर उठने के बाद किसी अच्छे फेसवाश से चेहरा धुलकर साफ़ तौलिए से पोंछ लिया गया हो... बस। चेहरे पर असीम गाम्भीर्य और स्थिरता का भाव चस्पा था। निगाहें जमीन की ओर अपलक ताकती हुईं। करीब दो घण्टे की बात-चीत में कुछ सेकेण्ड्‌स के लिए ही नज़र ऊपर उठी होगी।

साथ में जो सज्जन आए थे वे काफी थके-हारे और दुखी दिख रहे थे। चेहरे पर उभरता पसीना जो रुमाल से बार-बार पोंछने के बाद भी छिटक आता। उम्र साठ के पार रही होगी। हमने सोचा शायद पेंशन के फरियादी होंगे जो अपनी बेटी के साथ आए हैं। बिना कुछ बोले कुर्सी पर आराम से बैठ गये। अपने थैले से कुछ कागज निकालने और रखने लगे। जैसे कोई खास कागज दिखाने के लिए ढूँढ रहे हों...।

बॉस ने हमारी बात-चीत बीच में रोककर उनसे आने का प्रयोजन पूछा तो उन्होंने इशारे से कहा कि आपलोग अपनी बात पूरी कर लें और ध्यान से सुनने को तैयार हों तभी वे अपनी बात कहेंगे। हम फौरन उनकी बात सुनने को तैयार हो लिए।

“हमें अमुक विभाग के एक अधिकारी की पे-स्लिप चाहिए...”

“कौन सा अधिकारी? कहाँ काम करता है?”

“आज-कल लखनऊ में ट्रेनिंग ले रहा है...”

“तो पे-स्लिप तो वहीं से मिलेगी, यहाँ से उसकी कोई सूचना कैसे मिल सकती है?”

“वहाँ से नहीं मिल पा रही है, तभी तो ट्रेजरी में आपकी मदद के लिए आए हैं...” पिता का स्वर लाचार सा था।

“किसी भी ट्रेजरी से प्रदेश के सभी अफसरों की पे-स्लिप नहीं मिलती...। ऐसी क्या जरूरत पड़ गयी आपको पे-स्लिप की..? और मिलने में क्या समस्या आ रही है?” बॉस के प्रश्न में हैरानी थी।

इसके बाद उन्होंने जो कहानी सुनायी वह सिर पीट लेने लायक थी।

“हमने इस लड़की की शादी उस अफसर लड़के से की थी। दहेज में काफी रकम खर्च किया था मैने। गाड़ी और जेवर अलग से...। ...लेकिन हमें धोखा हो गया है। ...अब नौबत तलाक की आ गयी है। ...कोर्ट में मुकदमा चल रहा है। उसी सिलसिले में हमें उसकी नौकरी से सम्बन्धित कागजात की जरूरत है” बगल में शान्त बैठी बेटी के बाप की आवाज रुक-रुककर निकल रही थी।

सहसा लड़की ने भी बोलना शुरू कर दिया, “वह झूठ पर झूठ बोल रहा है। हम उसकी असलियत साबित करना चाह रहे हैं लेकिन सरकारी विभाग हमारी मदद नहीं कर रहे हैं।”

हमने पूछा, “आखिर गड़बड़ी क्या हो गयी जो बात तलाक तक पहुँच गयी? ”

इसपर बाप-बेटी दोनो एक दूसरे का मुँह देखने लगे। जैसे यह तय कर रहे हों कि बात खोली जाय कि नहीं...। फिर दोनो ने इशारे से एक-दूसरे को सहमति दी।

imageलड़की ने बड़े इत्मीनान से बताया, “इन-फैक्ट... वो इम्पोटेन्ट है”

यह सुनकर हम सन्न रह गये, “ओफ़्फ़ो... आपलोगों को बड़ा धोखा हुआ!”

“...अगर ऐसा था तो उसे क्या पड़ी थी शादी करने की”, मैने हैरत से कहा और मन में उभर आये अजीब  से भाव को संयत करने के लिए कुर्सी की पीठ पर टेक लेकर छत की ओर निहारने लगा।

...ईश्वर ने इस लड़की को इतना सुन्दर व्यक्तित्व दिया, एक सक्षम पिता के घर जन्म लेकर सुख सुविधाओं में पली बढ़ी, घर वालों ने अच्छे दान-दहेज के साथ एक राजपत्रित अधिकारी के साथ इसका विवाह कर दिया; ...फिर भी बेचारी आज भरी दुपहरी में कोर्ट  कचहरी और सरकारी दफ़्तरों के चक्कर काट रही है। निश्चित्‌ रूप से बुरे ग्रहों का प्रभाव झेल रही है यह...। ...ऐसा दुर्भाग्य जिसकी कल्पना भी न की जा सके!

इस बीच बॉस ने फोन मिलाकर उस ट्रेनिंग इन्स्टीट्यूट के अधिकारियों से बात करनी शुरू कर दी थी। स्वार्थ में अन्धे युवक द्वारा अपनी कमजोरी छिपाकर एक मालदार बाप से दहेज ऐंठने के लालच में एक सुन्दर सुशील कन्या का जीवन नर्क बना देने वाले का परोक्ष रूप से सहयोग करने वालों को भी लानत भेंजी जाने लगी।

मैने भी ‘सूचना का अधिकार कानून (RTI Act)’ के अन्तर्गत पे-स्लिप की सूचना मांगने की सलाह दे दी। इसपर उन्होंने बताया कि वे इसप्रकार के सारे उपाय आजमा चुके हैं। कोई परिणाम नहीं निकला। मैने प्रदेश के ‘सूचना आयुक्त’ से अपील करने को कहा। वहाँ कार्यरत अपने एक मित्र से मदद के लिए फौरन मोबाइल पर बात कर लिया और इन लोगों से परिचय भी करा दिया।

इस काम से मेरे मन को थोड़ी तसल्ली मिली...।

हमने उन दोनो के मुँह से ही शादी तय होने, बारात का भव्य स्वागत सत्कार किए जाने और मोटी दहेज देने के साथ ही साथ लड़की के ससुराल जाने के बाद एक-दो दिन के भीतर उसे अपने दुर्भाग्य की जानकारी होने, संकोच में बात छिपाकर रखने, उस लड़के द्वारा ‘फर्जी नाम से पर्चा बनवाकर’ अनेक डाक्टरों से परामर्श लेने तथा अपनी अक्षमता को छिपाने के प्रयासों का विस्तृत वर्णन सुना। पूरी दास्तान बताने में लड़की ज्यादा मुखर हो उठी थी। उसने कहा कि मैने कोर्ट से इसका मेडिकल टेस्ट कराने की प्रार्थना की है लेकिन वह इससे भग रहा है।

हमने यथासामर्थ्य मदद का आश्वासन देकर उन्हें सहानुभूति पूर्वक विदा किया। उन्होंने भी अपने ठगे जाने की कहानी विस्तार से बताने के बाद हमसे सधन्यवाद विदा लिया।

भाग-दो 

जुलाई की ऊमस भरी गर्मी...। मैं अपने ऑफिस में बैठा कूलर की घर्र-घर्र के बीच चिपचिपे पसीने पर कुढ़ता हुआ सरकारी फाइलों और देयकों (bills) आदि का काम निपटा रहा था। बाहर का मौसम तेज धूप और रुक-रुक कर पड़ते बारिश के छींटो से ऐसा खराब बन गया था कि बहुत मजबूरी में ही बाहर निकला जा सकता था। मेरे कमरे में कोई दूसरा न था।

तभी एक स्मार्ट सा युवक अन्दर आया और मेरी अनुमति लेकर कुर्सी पर बैठ गया। उसका चेहरा कुछ जाना पहचाना लगा...।

(कहानी थोड़ी लम्बी खिंचने वाली है, इसलिए अभी यहीं बन्द करता हूँ। शेष अगली पोस्ट में बहुत शीघ्र...)

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

कलियुग में सत्य की आराधना: लालच ने छिपायी मूलकथा

 

भारतीय सनातन परम्परा में किसी भी मांगलिक कार्य का प्रारम्भ भगवान गणपति के पूजन से एवं उस कार्य की पूर्णता भगवान सत्यनारायण की कथा के श्रवण से समझी जाती है। स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड से इस कथा का  प्रचलित रूप लिया गया है। लेकिन भविष्यपुराण के प्रतिसर्ग पर्व में इस कथा को विशेष रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।

इस कथा में कुल पाँच प्रसंग बताये जाते हैं:

  1. शतानन्द ब्राह्मण की कथा
  2. राजा चन्द्रचूड का आख्यान
  3. लकड़हारों की कथा
  4. साधु वणिक्‌ एवं जामाता की कथा
  5. लीलावती और कलावती की कथा

imageइन पाँचो प्रसंगों में कहानी का सार यही है कि सत्यनारायण व्रत-कथा के ‘श्रवण’ से मनुष्य की सभी कठिनाइयाँ दूर हो जाती हैं और जीवन की सभी इच्छाओं की पूर्ति हो जाती है।

नाना प्रकार की चिन्ताओं और न्यूनताओं में डूबता उतराता मनुष्य यदि अपनी सभी समस्याओं के इतने सरल समाधान का वादा किसी धार्मिक पुस्तक के माध्यम से पाता है तो गारण्टी न होने पर भी उसे आजमा लेने को सहज ही उद्यत हो जाता है।

एक कथावाचक पुरोहित को बुलाकर एक-दो घण्टे हाथ जोड़े बैठने और कुछ सौ रुपये दक्षिणा और प्रसाद पर खर्च कर देने से यदि सांसारिक कष्टों को मिटाने में थोड़ी भी सम्भावना बन जाय तो ऐसा कौन नहीं करेगा। धार्मिक अनुष्ठान करने से सोसायटी में भी आदर तो मिलता ही है। इसीलिए इस कथा का व्यवसाय खूब फल-फूल रहा है।

लेकिन हमारे ऋषियों ने सत्यनारायण भगवान की ‘कथा सुनने’ के बजाय इसमें निरूपित मूल सत्‌ तत्व परमात्मा की अराधना और पूजा पर जोर दिया था। गीता में स्पष्ट किया गया है कि ‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ अर्थात्‌ इस महामय दुःखद संसार की वास्तविक सत्ता ही नहीं है। परमेश्वर ही त्रिकाल अबाधित सत्य है और एक मात्र वही ज्ञेय, ध्येय एवं उपास्य है। ज्ञान-वैराग्य और अनन्य भक्ति के द्वारा वही साक्षात्कार करने के योग्य है।

सत्यव्रत और सत्यनारायणव्रत का तात्पर्य उन शुद्ध सच्चिदानन्द परमात्मा से तादात्म्य स्थापित करना ही है। संसार में मनीषियों द्वारा सत्य-तत्व की खोज की  बात निर्दिष्ट है जिसे प्राप्तकर मनुष्य सर्वथा कृतार्थ हो जाता है और सभी आराधनाएं उसी में पर्यवसित होती हैं। निष्काम उपासना से सत्यस्वरूप नारायण की प्राप्ति हो जाती है।

प्रतिसर्ग पर्व के २४वें अध्याय में भगवान सत्यनारायण के व्रत को देवर्षि नारद और भगवान विष्णु के बीच संवाद के माध्यम से कलियुग में मृत्युलोक के प्राणियों के अनेकानेक क्लेश-तापों से दुःखी जीवन के उद्धार और उनके कल्याण का श्रेष्ठ एवं सुगम उपाय बताया गया है। भगवान्‌ नारायण सतयुग और त्रेतायुग में विष्णुस्वरूप में फल प्रदान करते हैं और द्वापर में अनेक रूप धारण कर फल देते हैं। परन्तु कलियुग में सर्वव्यापक भगवान प्रत्यक्ष फल देते हैं

धर्म के चार पाद हैं- सत्य, शौच, तप और दान। इसमें सत्य ही प्रधान धर्म है। सत्य पर ही लोक का व्यवहार टिका है और सत्य में ही ब्रह्म प्रतिष्ठित है, इसीलिए सत्यस्वरूप भगवान्‌ सत्यनारायण का व्रत परम श्रेष्ठ कहा गया है।

लेकिन दुर्भाग्य से धर्म के ठेकेदारों ने सत्य के बजाय धर्म का स्वरूप उल्टे क्रम में दान, तप और शौच के भौतिक रूपों में रूपायित करने की परम्परा को स्थापित किया और वह भी इस रीति से कि उनके लाभ की स्थिति बनी रहे। दान के नाम पर पुरोहित और पण्डा समाज की झोली भरना, तप के नाम पर एक दो दिन भूखा रहना, कर्मकाण्डों में लिप्त रहना और पुरोहित वर्ग को भोजन कराना, और शौच के नाम पर छुआछूत की बेतुकी रूढ़ियाँ पैदाकर शुद्धिकरण के नाम पर ठगी करना। इन पाखण्डों के महाजाल में सत्यनारायण की आराधना भला कैसे अक्षुण्ण रह पाती।

मन, कर्म और वचन से सत्यधर्म का पालन करना अत्यन्त कठिन है इसलिए यजमान को भी इसी में सुभीता है कि पण्डितजी जैसे कहें वैसे करते रहा जाय। उसका पाप-पुण्य भी उन्हीं के माथे जाए।  धार्मिक कहलाने का इससे सस्ता और सुगम रास्ता क्या हो सकता है?

सत्यनारायण कथा इसी सोच का परिणाम यह हुआ कि सत्यनारायण व्रत से पूजा और आराधना का तत्व लुप्त हो गया, सत्य के प्रति आस्था विलीन हो गयी और कथा बाँचने और सुनने का अभिनय प्रधान हो गया। मैने ऐसे कथा-कार्यक्रम में पण्डितजी को अस्फुट ध्वनि में अशुद्ध और अपूर्ण श्लोकों वाली संस्कृत पढ़ते और हाथ जोड़े यजमान को ऊँघते, घर-परिवार के लोगों से बात करते या बीच-बीच में कथा सुनने आए मेहमानों का अभिवादन करते देखा है। प्रायः सभी उपस्थित जन इस प्रतीक्षा में समय बिता रहे होते हैं कि कब कथा समाप्त हो और प्रसाद ग्रहण करके चला जाय।

कहीं कहीं इस कथा का हिन्दी अनुवाद भी पढ़कर बताया जाता है। लेकिन वहाँ भी जो कथा सुनायी जाती है उसमें उपरोक्त प्रसंगों के माध्यम से उदाहरण सहित यही समझाया जाता है कि कथा सुनने से निर्धन व्यक्ति धनाढ्‌य और पुत्रहीन व्यक्ति पुत्रवान हो जाता है। राज्यच्युत व्यक्ति राज्य प्राप्त कर लेता है, दृष्टिहीन व्यक्ति दृष्टिसम्पन्न हो जाता है, बन्दी बन्धन मुक्त हो जाता है और भयार्त व्यक्ति निर्भय हो जाता है। अधिक क्या? व्यक्ति जिस-जिस वस्तु की इच्छा करता है वह सब प्राप्त हो जाती है। यह भी कि जो व्यक्ति इस कथा का अनादर करता है उसके ऊपर घोर विपत्ति और दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है। सत्यनारायण भगवान उसे शाप दे देते हैं... आदि-आदि।

कलियुग में मनुष्य का मन भौतिकता में इतना खो जाता है कि सत्य की न्यूनतम शर्त भी नहीं निभा पाता। मोक्ष की प्राप्ति के लिए सतयुग, द्वापर और त्रेता में जहाँ कठिन तपस्या और यज्ञ अनुष्ठान करने पड़ते वहीं कलियुग में शुद्ध मन से भगवान का नाम स्मरण ही  कल्याणकारी फल देता है:

नहिं कलि करम न भगति विवेकू। राम नाम अवलम्बन एकू॥

राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥

लेकिन यह छोटी शर्त भी इतनी आसान नहीं है हम कलियुगी मनुष्यों के लिए। हमें तो काम, क्रोध, मद और लोभ ने इस प्रकार ग्रसित कर रखा है कि सत्य न दिखायी पड़ता है, न सुनायी पड़ता है और न वाणी से निकल पाता है। दुनियादारी के नाम पर हम सत्य से बँचने को ही समझदारी और चालाकी मान बैठते हैं।

इसलिए जिस व्रतकथा का माहात्म्य हम बारम्बार सुनते हैं वह कोई कहानी नहीं बल्कि सत्य के मूर्त-अमूर्त स्वरूप में अखण्ड विश्वास और अटल आस्था रखने तथा  मन वचन व कर्म से सत्य पर अवलम्बित जीवनशैली और व्यवहार अपनाने से है। ‘सत्य में आस्था’ की अवधारणा का प्रचार हमारे कथावाचकों के हित में नहीं रहा इसलिए हम ‘कथा की कथा’ ही सुनते आए हैं। अस्तु।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

रविवार, 5 जुलाई 2009

कथा-पूजा में विघ्न पड़ा... कैसे?

 

श्रीसत्यानारायण व्रतकथा मैने पिछली पोस्ट में बताया था कि सत्यनारायण की कथा में लुप्त कथा का सूत्र आप सबके हाथ पकड़ाउंगा। सोचा कि यह बताऊंगा कि पण्डित जी जब कथा कहते हुए साधु वणिक्‌, काष्ठविक्रेता, शतानन्द ब्राह्मण, उल्कामुख, तुंगध्वज, आदि के प्रसंग में इनके द्वारा सत्यानारायण कथा सुनने की बात बताते हैं तो वे कौन सी कथाएं रही होंगी जो इन्होंने सुनी होगी। वे कथाएं कहाँ गयीं और इस कथा का प्रचार कैसे हुआ।

लेकिन जैसाकि हम जानते हैं प्रत्येक यज्ञ, व्रत, अनुष्ठान में विघ्न-बाधाएं आ ही जाती हैं। पुराने समय में ऋषि-मुनि जब कोई यज्ञादि का आयोजन करते थे तो विघ्नकारी तत्वों से रक्षा के लिए विशेष प्रबन्ध करते थे। गुरु वशिष्ठ ने राजा दशरथ से राम-लक्ष्मण को यज्ञ की रक्षा के लिए ही मांगा था। इसी प्रकार मेरे पुण्यकार्य में भी व्यवधान आ गया है। विघ्न डाला है एक शातिर चोर ने...

image कथा प्रसंग यह है कि मेरी श्रीमतीजी अपने मायके से अपने भतीजे के मुण्डन में उपहार आदि बटोरकर इलाहाबाद वापस आ रही थीं। दोनो बच्चे और मेरा भतीजा अचल (१९ वर्ष) चौरीचौरा एक्सप्रेस के एसी कोच में उनके साथ थे। सुबह-सुबह जब बनारस से आगे इनकी नींद खुली तो पता चला कि बर्थ के नीचे जंजीर से बाँध कर रखे एयर-बैग की चेन के बगल में एक लम्बा चीरा लगाकर  भीतर रखा हैण्डबैग उड़ा लिया गया है। उस पर्स में रखी नगदी और ज्यूलरी मिलाकर करीब पच्चीस हजार का चूना तो लगा ही, इनके मन में घर से बाहर निकलकर अकेले यात्रा कर लेने का जो आत्मविश्वास पैदा हो रहा था वह भी सेंसेक्स की तरह धड़ाम से नीचे आ गिरा। 

image चोरी का पता चलने के बाद कोच कण्डक्टर, अटेण्डेन्ट, सुरक्षाकर्मी आदि सभी पल्ला झाड़कर चलते बने। सहयात्रियों ने अपनी-अपनी लुटने की कहानी बता-बताकर इन्हें ढाँढस बँधाया। इलाहाबाद उतरकर जीआरपी थाने में प्राथमिकी दर्ज करायी गयी। पूरा दिन इस प्रक्रिया को पूरा करने और इष्टमित्रों को रामकहानी बताने में चला गया। अगले दिन अखबारों में खबर छप गयी। फिर दिनभर फोन का जवाब देने, कथा सुनाने और संवेदना बटोरने का क्रम चला।

इस विघ्न कथा का एक सर्वसम्मत निष्कर्ष यही निकला कि जो जाने वाला है उसे कोई रोक नहीं सकता। चाहे जैसी सुरक्षा व्यवस्था की गयी हो आप कभी भी आश्वस्त नहीं हो सकते। चोरी का धन्धा कभी मन्दा नहीं होने वाला है। इसी की देखभाल के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों ने बहुत बड़ा पुलिस महकमा जो खड़ा कर रखा है।

हम भी इसी निचोड़ पर ध्यान लगा रहे हैं कि इस अकिंचन मानव के वश का कुछ नहीं है। जीवन में कल्याण और सर्वमंगल की गारण्टी देने की क्षमता इस लोक में किसी के पास नहीं है। यह तो केवल उसी एक परमेश्वर के हाथ में है जो त्रिकाल अबाधित सत्य है। वही सबके अभीष्ट मनोरथों को पूर्ण करने वाला है:

नवाम्भोजनेत्रं रमाकेलिपात्रं

चतुर्बाहुचामीकरं चारुगात्रम्‌।

जगत्त्राणहेतुं रिपौ धूम्रकेतुं

सदा सत्यनारायणं स्तौमि देवम्‌॥

तो आइए, हम सभी मिलकर श्री सत्यनारायन व्रत कथा के मूल तक पहुँचने की कोशिश करें। और अपने भीतर भक्तिभाव भरकर इस अमृतमय कथा का रसपान करें...

नोट: खेदप्रकाश करते हुए वचन देता हूँ कि अगली पोस्ट में सीधे कथा ही बता दूंगा :)

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

गुरुवार, 2 जुलाई 2009

बहुत मिलावटी है जी... पुराण चर्चा

 

मेरी पिछली पोस्ट पर मित्रों की जो प्रतिक्रियाएं आईं उनको देखने के बाद मैं दुविधा में पड़ गया। विद्वतजन की बातों को लेकर चर्चा को आगे बढ़ाया जाय या पुराण प्रपंच छोड़कर कुछ दूसरी बात की जाय। कारण यह था कि मैंने पुराणों के बारे में बहुत गहरा अध्ययन नहीं किया है। दो-चार पुस्तकों तक ही सीमित रहा हूँ। मेरा ज्ञान इस बात तक सीमित है कि यद्यपि वेद और पुराण एक ही आदिपुरुष अर्थात्‌ ब्रह्माजी द्वारा मूल रूप से रचित हैं, तथापि इनमें वर्णित ज्ञान, आख्यानों, तथ्यों, शिक्षाओं, नीतियों और घटनाओं आदि में एकरूपता होते हुए भी इनमें कुछ मौलिक भिन्नताएं है:

  • पुराण वेदों का ही विस्तृत और सरल स्वरूप है जो सामान्य गृहस्थ को लक्षित है।
  • वेद अपौरुषेय और अनादि है जिसे ब्रह्माजी ने स्वयं रचा था। किन्तु वेदव्यास जी ने जनमानस के कल्याणार्थ ब्रह्माजी द्वारा मौलिक रूप से रचित पुराण का  पुनर्लेखन और सम्पादन किया और इसके श्लोकों की संख्या सौ करोड़ से घटाकर चार लाख तक सीमित कर दी। अतः पुराण पौरुषेय भी है।
  • वेदों की साधना करने वाले योगी पुरुष ऋषि कहलाये जबकि पुराणों में वर्णित ज्ञान की बातों, मन्त्रों, उपासना विधियों और व्रत आदि का अनुसरण करने वाले योगी मुनि कहलाए।
  • वेदों की अपेक्षा पुराण अधिक परिवर्तनशील और श्रुति परम्परा पर निर्भर होने के कारण लम्बे समय तक स्मृतिमूलक रहे हैं। परिवर्तनशील प्रवृत्ति होने के कारण ही पुराणों में ऐतिहासिक घटनाओं का सटीक चित्रण मिल जाता है।

वेद-पुराण-उपनिषद वैसे तो समग्र वेद-पुराण के एक मात्र रचनाकार वेद-व्यास जी को माना जाता है लेकिन कोई भी इस विशद साहित्य का आकार जानकर यह सहज अनुमान लगा सकता है कि इतना विपुल सृजन किसी एक व्यक्ति के द्वारा अपने एक जीवनकाल में नहीं किया जा सकता।

भाई इष्टदेव जी ने मुझे मेल भेजकर याद दिलाया कि “...व्यास कोई एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक पूरी परम्परा हैं। जिसने भी उस ख़ास परम्परा के तहत कुछ रचा उसे व्यास कहा गया। अभी भी कथा वाचन करने वाले लोगों को व्यास ही कहा जाता है....”

मेरे ख़याल से पुराणों का स्वरूप कुछ-कुछ हमारे ब्लॉगजगत जैसा रहा है। बल्कि एक सामूहिक ब्लॉग जैसा जिसमें अपनी सुविधा और सोच के अनुसार कुछ न कुछ जोड़ने के लिए अनेक लोग लगे हुए है। बहुत सी सामग्री जोड़ी जा रही है, कुछ नयी तो कुछ री-ठेल। बहुत सी वक्त के साथ भुला दी जा रही है। लिखा कुछ जाता है और उसका कुछ दूसरा अर्थ निकालकर बात का बतंगड़ बना दिया जा रहा है। लेकिन इसी के बीच यत्र-तत्र कुछ बेहतरीन सामग्री भी चमक रही है। अनूप जी के अनुसार यहाँ ८० प्रतिशत कूड़ा है और २० प्रतिशत काम लायक माल है। यहाँ सबको स्वतंत्रता है। चाहे जो लिखे, जैसे लिखे। इसपर यदि बेनामी की सुविधा भी हो तो क्या कहने? पुराणों के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ लगता है।

वैदिक ऋषि परम्परा से निकली ज्ञान की गंगा पुराणों की राह पकड़कर जैसे-जैसे आगे बढ़ती गयी उसमें स्वार्थ और लोलुपता का प्रदूषण मिलता गया। धार्मिक अनुष्ठान के नामपर कर्मकाण्ड और पाखण्डपूर्ण आडम्बर बढ़ते गये। पुरोहितों द्वारा यजमान के ऊपर दान-दक्षिणा की नयी-नयी मदें लादी जाने लगीं। धर्म-भीरु जनता को लोक-परलोक का भय दिखाकर उसकी गाढ़ी कमाई उड़ाने की प्रवृत्ति पुरोहितों और पण्डों में बढ़ने लगी। यही वह समय था जब हिन्दू धर्म के प्रति आम जनमानस में पीड़ा का भाव पैदा होने लगा और गौतम बुद्ध व महावीर जैन ने इन कर्म-काण्डों और आडम्बरों के विरुद्ध बौद्ध और जैन धर्म का प्रवर्तन कर दिया। हिन्दू कर्मकाण्डों और नर्क जाने के भय से पीड़ित जनता ने उन्हें हाथो-हाथ लिया। ऐसी विकट परिस्थिति पैदा करने में इन पुराणों का बड़ा दुरुपयोग किया गया था।

तो क्या यह मान लिया जाय कि पुराण अब बेमानी हो चुके हैं? क्या इनसे किनारा करके इन्हें कर्म-काण्डी पुरोहितों के हाथ में छोड़कर अब भी उन्हें मनमानी ठगी करने देना उचित है? अन्धविश्वासों और रूढ़ियों मे पल रही एक बड़ी आबादी आजभी इनपर आस्था रखती है। जिनकी आस्था नहीं है वे भी छिप-छिपाकर सत्यनारायण की कथा करा ही डालते हैं, या जाकर प्रसाद ही ले आते हैं। कदाचित्‌ एक अन्जाना डर उन्हें यह सब करने को प्रेरित करता होगा। कुछ तो सार-तत्व होगा इनमें...!

यहाँ यह भी उल्लेख कर दूँ कि जिन कर्मकाण्डों और आडम्बरों के खिलाफ़ सन्देश देकर ये नये धर्म खड़े हुए, कालान्तर में इनके भीतर भी उसी प्रकार की बुराइयाँ पनपने लगीं। इधर आदि शंकराचार्य (८वीं-९वीं शताब्दि)ने वेदान्त दर्शन की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए यह सन्देश दिया कि सारे वाह्याडम्बर मिथ्या हैं। एक मात्र सत्य ब्रह्म है। प्रत्येक जीवित व्यक्ति के भीतर निवास करने वाली आत्मा ब्रह्म का ही एक रूप है। भौतिक जगत एक माया है जो जीव को जन्म मृत्यु के बन्धन में बाँधे रखती है।

ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव ना परः

हमारे वैदिक ज्ञान भण्डार की मौलिक बातों का पुराणों में सरलीकरण कर दिया गया। कम पढ़े-लिखे गृहस्थ को सामान्य जीवनोपयोगी बातें समझाने के लिए भी धर्म का सहारा लिया गया। यहाँ धर्म का आशय केवल पूजा पद्धति और देवी देवताओं में आस्था पैदा करना नहीं रहा बल्कि मनुष्य के जीवन में जो कुछ भी धारण करने योग्य था वह धर्म से परिभाषित होता था। जो कुछ भी करणीय था उसे धार्मिक पुस्तकों में शामिल कर लिया गया और जो कुछ अकरणीय था उसके भयंकर परिणाम बताकर उन्हें रोकने की कोशिश की गयी। कदाचित्‌ शुभ-अशुभ और स्वर्ग-नर्क की अवधारणा इसी उद्देश्य से गढ़ी गयी होगी। हमारे ऋषि-मुनियों ने इन पुस्तकों को एक प्रकार से मनुष्य की आचार संहिता बना दिया था। लेकिन लालची पंडितों ने इसका रूप ही बिगाड़ दिया।

ऐसी स्थिति में इन आदिकालीन शास्त्रों को पूरा का पूरा खारिज नहीं किया जा सकता। उचित यह होगा कि इनकी समीक्षा इस रूप में की जाय कि इनमें छिपे मूल सन्देशों को अलग पहचाना जा सके और आधुनिक परिवेश में उनकी उपादेयता को चिह्नित किया जा सके। मेरा विश्वास है कि मानवकल्याण के इन सूत्रों को अपना कर और प्रसारित करके हम आजकल की अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान ढूँढ सकते हैं।

तो क्या आप सच्चे मोतियों की खातिर समुद्र-मन्थन करने को तैयार हैं?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

नोट: सत्यनारायण की कथा में ‘कथा के माहात्म्य’ का जिक्र और मूल कथा के लोप का सूत्र मिल गया है। अगले अंक में उसकी चर्चा होगी।