हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

सोमवार, 28 अप्रैल 2008

ले दनादन ट्वेन्टी-२०

वन-डे ने जब टेस्ट को, टक्कर में दी मात।
ट्वेन्टी-ट्वेन्टी ने किया, तब आकर उत्पात॥

तब आकर उत्पात मचा, डी.एल.एफ़ कप में।
जुटे धुरंधर देश-देश के नाहक गप में॥

धन-कुबेर इस मेले की रौनक बढ़वाते।
फ़िल्मी तारे आकर टी. आर.पी. चढ़ाते॥


चीयर-लीडर थक गये, नाच-नाच बेहाल।
चौके-छक्के पड़ रहे भज्जी हो गये लाल॥

भज्जी हो गये लाल, दनादन हार गये जब।
जीना हुआ मुहाल, सन्त को मार गये तब॥

सुन सत्यार्थमित्र, ये खेल है गज़ब निराला।
भाई के हाथों भाई को पिटवा डाला॥

ये मुझे क्या हो गया?

मस्तिष्क, आत्मा और मन। एक विवेचक, दूसरी चिन्तक और तीसरा अति क्रियाशील।
सक्रियता की गति इतनी तेज कि मस्तिष्क के विवेचन और आत्मा के चिन्तन से प्राप्त निष्कर्ष पीछे छूट जांय। यानि इनका सब करा-धरा धरा का धरा रह जाय।
मन रूपी पतंग की डोर थोड़ी ढीली हुई और वह उड़ चला। फिर तो इतना तेज चला कि मस्तिष्क व आत्मा दोनो मिलकर भी उसे सम्हाल पाने में असमर्थ रहे। डोर हाथ से छूटी जा रही थी।
आस-पास के वातावरण की गतिशील वायु उसे उड़ाये जा रही थी। वह ऊपर बढ़ता गया।
लेकिन वह कबतक उड़ता? उसी वायु के थपेड़े उसे फाड़ भी तो सकते थे! उसकी शक्ति किसी ठोस आधार के अभाव में क्षीण होती जा रही थी।
यह ठोस आधार उसे कैसे मिलेगा? उसकी कमानी कैसे मजबूत होगी? धरती छोड़ते समय ही वह कमजोर थी।
हाँ, इतनी मजबूत अवश्य थी कि धरती छोड़ सकी थी।
उँचाई पर जाकर जब तेज झोंकों का सामना हुआ तो धरती की याद आने लगी।
वह धीरे-धीरे डगमगाता हुआ, हिचकोले खाता हुआ, लुंज-पुंज अवस्था में नीचे गिरने लगा। धरती की ओर।
मन आहत हो चुका था। कड़वी सच्चाई का सामना करके वह निढाल हो चुका था।
उसकी दयनीय दशा देखकर आत्मा रो उठी। माँ की तरह।
लेकिन मस्तिष्क इसकी विवेचना में जुट गया। क्यों, कब, कहाँ, कैसे, और किसलिए? यह भी कि इसमें दोष किसका? स्वयं मन का, आत्मा का, मस्तिष्क का, या किसी और का?
आत्मा भी थोड़ी स्थिर हुई तो मन्थन करने लगी। लेकिन मन की कातरता के पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर।
अतः कदाचित्‍ वह निष्पक्ष नहीं हो पायी। दूसरों पर दोष मढ़ने लगी। ठोस आधार न दे पाने वालों को कोसने लगी। भाग्य को कोसने लगी। खुद को भी दोष में सनी हुई महसूस करने लगी। क्लान्त हो उठी।
तभी मस्तिष्क ने सावधान किया। अपना रास्ता मत भूलो। स्वयं को पहचानो।वातावरण और परिस्थितियों से ताल-मेल बैठाओ। निराश मत हो। आत्मा चुप थी। मस्तिष्क उसे उपदेश दिये जा रहा था।
बीच में, मन जर्जर अवस्था में ही कराहते हुए बोल उठा- नहीं, …यह सामान्य परिस्थिति नहीं है। इसके साथ सामंजस्य असम्भव नहीं तो अत्यंत कठिन अवश्य है। यह काम एक स्वस्थ और प्रसन्न आत्मा ही कर सकती है। …लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है। आत्मा दुःखी है। उसे समायोजन का कौशल भूल गया है। वह भावुक हो चली है। वह सही कदम नहीं उठा सकती। तुम्ही कुछ करो।
सेवक स्वामी पर हावी था।
मस्तिष्क किंकर्तव्यविमूढ़ सा चुप रहा। उसका हौसला भी पस्त होने लगा। सारा जोश ठण्डा पड़ गया। विवेक जाता रहा।
तभी आत्मा से धीमी आवाज़ आयी- हाँ, तुम्ही कुछ कर सकते हो। हौसला बनाये रखो। हम तुम्हारा साथ देने की पूरी कोशिश करेंगे।
मस्तिष्क फिर भी चुप रहा। उसकी अवस्था भी शेष दोनो की भाँति हो गयी थी।
यह एक विचित्र परिस्थिति थी। तीन भिन्न-भिन्न दॄष्टिकोण एकाकार हो गये थे। तीनो दुःखी, तीनो चिन्तित,… किंकर्तव्यविमूढ़, एक ही सोच में।
मन को शरारत सूझी। बड़े भाइयों (या स्वामी जनों) को अपने बराबर देखकर मुस्कराने लगा।

गुरुवार, 24 अप्रैल 2008

आज मेरे घर के पीछे बम फटा

आज दोपहर लगभग बारह बज रहे थे कि एक धमाके की आवाज हुई। ऐसा लगा घर के पिछ्वाड़े ही हुई है। अभी इस बारे में सोच ही रहा था कि तभी एक और धमाका। मन सशंकित हुआ- कुछ अनहोनी तो नही हुई? पर फिर यह सोच कर कि कचहरी है, कुछ हुआ होगा, बैठा ही रह गया। तभी घर में काम करने वाली चम्पा की आवाज ने कान खड़े कर दिये- “भैया जी, उधर धुँआ उठ रहा है, लोगों की आवाजें आ रही हैं, लगता है बम फटा है. "मैं लगभग दौड़ते हुए कमरे से बाहर आया और छत पर चढ़ गया धमाके की आवाज को घर के सभी लोगों ने सुना था, और उस पर चंपा के इस निष्कर्ष ने कि 'बम फटा है' सभी के चेहरे पर चिंता की लकीरें खींच दी थी मेरे पीछे ही भाभी, छोटा भाई और स्वयं चंपा भी छत पर आ गए घर से पूरब की तरफ़ जनपद न्यायालय की बिल्डिंग से चीखने की आवाजें आ रही थीं, और उसकी चारो तरफ़ धुआं पसरा हुआ था।

मुझे अपनी भतीजी की चिंता होने लगी, जिसके स्कूल में उसी समय छुट्टी होती है मुझे डर लग रहा था कि स्कूल से लौटते वक्त कचहरी में मची अफरा-तफरी से कहीं वो डर न जाए डर इस बात का भी था कि कहीं और भी बम विस्फोट न हों भाभी भइया को फ़ोन लगा रहीं थीं, और मैं छत से उतर कर अपनी भतीजी को लिवा लाने के लिए स्कूल की तरफ़ चल दिया।

रास्ते में पुलिस-वालों की भाग-दौड़, लोगों की संशय-युक्त बातें सुनते हुए स्कूल पहुंचा तो स्कूल में छुट्टी हो चुकी थी वागीषा (मेरी भतीजी) को साथ ले घर लौटते वक्त, मैंने उसे बम विस्फोट के बारे में बताया उसने कहा- "हाँ मैंने भी आवाज सुनी थी, पर इसमें बड़ी बात क्या है?" मैंने उसे बम विस्फोट से होने वाले संभावित जान-माल के नुकसान की बात बताई तो वो थोड़ा घबरा गई, पर तत्काल ही उसने पूछा "क्या यह ख़बर टीवी पर आ रही होगी? मैंने कहा "सम्भव है" तब तक हम घर पहुँच चुके थे आते ही मैंने टीवी खोला, वहाँ तेंदुलकर के जन्मदिन की पार्टी की ख़बर आ रही थी । इसी बीच भाभी से पता चला की उन्होंने भइया को फोन कर वस्तु-स्थिति की जानकारी दे दी है। कई चैनलों पर घूमते हुए अचानक ‘आज-तक’ पर ब्रेकिंग न्यूज़ पढ़ने को मिला- "इलाहाबाद कचहरी में विधायक पर देसी बम से हमला" अगले दस मिनट तक मैं कई चैनल बदल-बदल कर इस ख़बर के बारे में और कुछ जानने की कोशिश में लगा रहा पर हर जगह तेंदुलकर और उनकी पार्टी मैंने टीवी बंद की और खाना खाकर आराम करने बिस्तर पर आ गया

इस सम्पूर्ण विवरण को पढ़ने के बाद आपको कुछ असामान्य लगा? नहीं न? मुझे भी नहीं लगा था पर अचानक मुझे अन्दर से एक अन्जान कीड़े ने काट लिया. मैं सोचने लगा कि मैं कितना संवेदनशून्य हो चुका हूँ यह जानते हुए भी कि उस बम विस्फोट में कुछ लोग घायल हुए होंगे, शायद कुछ की मृत्यु भी हो गई हो, मैंने वहाँ जाने की, किसी तरह की, कोई भी मदद करने की, कोशिश नहीं कीवह भी दुर्घटना स्थल से महज सौ या दो सौ कदमों की दूरी पर रहते हुए? दुर्घटना के बारे में जानने के लिए मैंने टीवी का सहारा लिया जबकि मैं वहाँ जा सकता था मुझे सिर्फ़ अपनी भतीजी, और भाभी को सिर्फ़ अपने पति व बच्चों की चिंता हुई

शायद इसे सावधानी बरतना कहकर मुक्ति पाई जा सके, पर क्या यह सही है? ऐसे में क्या करना चाहिए था? जो मैंने किया वह ठीक था, या इसके अलावे कुछ और भी किया जा सकता था? कोई विकल्प है? यह सारे प्रश्न मैं आप लोगों के सुपुर्द करता हूँ.

बुधवार, 23 अप्रैल 2008

तकिया...?


आज बिस्तर पर पहली बार
तकिये को खड़ा पाया ,
तो घबरा गया,
सोचा यह कैसा जमाना आ गया

तकिये ने मेरी बात समझ ली
और बोली -"आज तक तुने मुझे बहुत सताया है
कभी पैरो से उछाला है,
तो कभी सीने से लगाया है,
पैरों के बीच फंसा तूने,
मुझे अपनी वासना का शिकार भी बनाया है.

अपने जीवन की अनगिनत लम्हों को
मेरे सानिध्य में बिताया है,
फ़िर भी तुम्हे मेरी फिक्र नही है?
मेरे बिगड़ते हालात का,
तेरी देश-भर की चर्चाओं में कोई जिक्र नहीं है?

मेरे तन के कपड़े फटे जा रहे हैं,
मेरे अन्दर की रूई अब दबकर,
हाड़ हो गई है,
मोड़ते मोड़ते
यह कई फाड़ हो गई है।

तूने क्या मुझे अपनी बीबी समझ रखा है?
जैसे चाहेगा वैसे रख लेगा?
और जब चाहे, जैसे चाहे,
साथ का मजा चख लेगा।

होशियार किए देती हूँ,
कल ही मेरे लिए नए कपड़े लाओ,
मेरे अन्दर कुछ बढ़िया रूई डलाओ,
वरना अब सोने नहीं दूँगी,
लोकतंत्र का जमाना है,
मैं भी आन्दोलन करूंगी।"

आन्दोलन के नाम से मैं घबरा गया,
बिस्तर से लुढ़क कर जमीन पर आ गया,
उठ कर देखा तो मैं पसीने से नहा गया था,
नींद टूट गई थी और मैं होश में आ गया था।

पर एक बात का
कन्फ्यूजन अभी भी जारी है,
कि सपने की बातें तकिये ने सुनाई थी,
या तकिये में छुपी
कोई भारतीय नारी है।

दोनों की दशा एक सी है ,
दोनों की व्यथा एक सी है,
पर दोनों में एक ही अन्तर है,
एक बिस्तर पर है,
और एक स्वयं बिस्तर है ।

पाठकों की प्रतिक्रिया के बाद बालमन द्वारा एक भूल सुधार किया गया। आखिरी पद निम्नवत है:

दोनों की दशा एक सी है,
दोनों की व्यथा एक सी है ,
पर क्या दोनों में एक ही अन्तर है?
कि एक बिस्तर पर है और
एक स्वयं बिस्तर है ?


बालमन

रविवार, 20 अप्रैल 2008

INTEGRITY TEST

मेरे एक सीनियर ने मुझे एक शुभकामना संदेश भेजा। इस प्रिंटेड कार्ड पर जो सामग्री लिखी हुई थी वह मेरे लिए बहुत सहायक सिद्ध हुई है। दरअसल, मुझे अपने घर परिवार और शुभेच्छुओं के बीच अक्सर असहज होना पड़ता था जब मैं उनकी निगाहों में 'दुनियादारी' की बातें समझने और उनका पालन करने में अक्षम साबित होता था। अब मुझे इससे बहुत संबल मिला है। मूल लेखक के प्रति सादर आभार अर्पित करते हुए इस संदेश को हुबहू प्रस्तुत कर रहा हूँ .
People really need help but may
attack you, if you do help them.
Help people anyway.
If you do good, People will accuse you
of selfish ulterior motives;
Do good anyway.
The good you do today
will be forgotten tomorrow;
Do good anyway.
If you are successful,you will win
false friends and true enemies;
Succeed anyway.
Honesty and frankness,
make you vulnerable;
Be honest and frank anyway.
Give the world the best you have
And you'll get kicked in the teeth;
Give the world the best you have anyway.
- Kent. M. Keith

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2008

नवागत

साइकिल यक-ब-यक चिचियाकर खड़ी हो गई. उसने बार-बार पैडल घुमाने की कोशिश की पर सारी मेहनत बेकार गई. तब वह कैरियर पकड़ कर पिछला पहिया उठाये आगे वाली दुकान की ओर बढ़ गया ,जहाँ साइकिलों की मरम्मत होती थी. वहाँ पहुँच कर उसने साइकिल पटक दी.
“ देखो भाई, इसमें क्या गड़बडी हो गई है.” उसने मरम्मत करने वाले से कहा.
दुकान पर और भी कुछ सीधी, कुछ उल्टी साइकिलें खड़ी थी. अकेला बूढा मिस्त्री, बैठा हुआ एक रिम सीधी कर रहा था. वह रिम को नचाता, उंगली से मिलान करता और तीलियों को कसता या ढीला करता जाता.
“ थोड़ी देर लगेगी, बाबूजी.” मिस्त्री ने तीली कसते हुए कहा.
‘उफ !’ कहकर वह पास रखे एक मैले से स्टूल पर धूल पोंछकर बैठ गया. पसीना पोंछकर वह बेचैनी से नाचती हुई रिम को देखने लगा. कलाई पर घड़ी की सूइयाँ तेजी से बढ़ रही थी.
‘ कंगाली में आटा गीला ’- वह सोच रहा था... उधार के पैसों में भी अब सिर्फ़ दस रुपये बचे हैं. तीन-चार दिन अचार आदि से काम चलाने के बाद आज वह सब्जी खरीदने निकला था. अब पता नहीं साइकिल में कितना खर्च हो जाए...चाहे जो हो जाए, अब और उधार नहीं लूंगा. देखूं पिताजी कब तक पैसा भेजतें हैं... उन्होंने भी हद कर दी है. कितनी बार चिट्ठियों में लिख चुका की २५ जून से परीक्षा शुरू हो जायेगी. गर्मी की छुट्टी में घर नहीं आ पाउँगा. समय से पैसा भेज दीजियेगा, इसकी चिंता हो तो पढ़ाई नहीं हो पाती. मकान-मालिक से रोज- रोज की खटपट में क्या कोई खाक पढेगा. इसके बाद रिजल्ट भी अच्छा चाहिए. लिखते हैं- बेटा, बड़े अरमान से तुम्हें इतनी दूर पढ़ने को भेजा है. खूब मेहनत करना. परिवार का नाम रौशन करना...ऐसे ही चलता रहा तो खूब नाम रौशन होगा. यूनिवर्सिटी में हॉस्टल मिलना नहीं है. इलाहाबाद की भयानक गर्मी में जीना वैसे ही मुश्किल है. ऊपर से लॉज में आये दिन बिजली-पानी की किल्लत, शोर-शराबा और झगड़ा-फसाद. सुबह-शाम का चौका-बर्तन और बदले में जला-गीला-कच्चा भोजन. अभी तो रोटियां भी सेंकने नहीं आती... यह ख्याल आते ही उसकी जली हुई अंगुलियों का दर्द उभर आया, फ़िर माँ की याद आ गई. कितने प्यार से मना-मनाकर खाना खिलाती थी. छोटी सी नाराजगी में खाना छोड़ देते. फ़िर माँ के हाथ से खा लेते. यहाँ तो थोड़ा आलस्य करें तो भूखा ही सोना पड़े.

मिस्त्री उसके साइकिल की जांच करने लगा. उसके अन्दर एक डर सा समां गया. कहीं कोई बड़ा खर्चा न पड़ जाय. उसका हाथ अपने आप जेब में पड़ी दस रुपये की नोट के ऊपर चला गया. मन ही मन सोचने लगा कि देखें सब्जी भर का पैसा बचता है कि नहीं. मिस्त्री ने रिंच उठाया, पिछली पहिया का नट ढीला किया और टायर को एक तरफ़ दबाकर नट को फ़िर से कस दिया. पहिया नाचने लगा. "ले जाओ बाबूजी, गाड़ी ठीक है". कितना हुआ? जो चाहे दे दो बाबूजी, काम तो देख लिया". दस का फूटकर है क्या ? मेरे पास चेंज नही है. बूढे ने कुटिलता से मुस्कराकर देखा और बोला-"ठीक है, फ़िर कभी दे देना."

उसका चेहरा तो शर्म से लाल हो गया लेकिन मन को बड़ा संतोष मिला. फ़िर साइकिल पर बैठा तो चेहरे पर मुस्कान खिल उठी थी. अब उसे सब्जी मिल जायेगी.

गुरुवार, 17 अप्रैल 2008

मौन क्यों तू?

ब्लॉगर मित्रों,
लीजिये, आज उस कुत्ते की कहानी फ़िर बताने का मन कर रहा है जिसके बारे में मैंने तेरह साल पहले एक ‘आंखों देखा हाल’ लिखा था। दरअसल हाल ही में मुझे एक मित्र ने एक विचित्र रहस्य की बात बताई है। इलाहाबाद के छात्रावास में रहते हुए जब मैंने यह आइटम लिखा था तो दीवार-पत्रिका पर लगाते वक्त मैंने कत्तई नहीं सोचा था कि एक सचमुच के कुत्ते पर ईमानदारी से लिखी गई यह कहानी मेरे पड़ोसी अन्तःवासी को इतनी अखर जायेगी कि वो मरने - मारने पर उतारू हो जाएगा। मुझे अब पता चला है कि उस मूर्ख ने ख़ुद को इस कहानी का लक्षित मुख्य पात्र समझ लिया था और मुझे सबक सिखाने कि फिराक में रहने लगा था। अब सौभाग्य से उसके निशाने से बच ही निकला हूँ तो इस कहानी को हूबहू दुबारा पेश करता हूँ। इस उम्मीद में कि कोई यह बतायेगा कि मुझसे लिखने में गलती कहाँ हुई थी...।


मौन क्यों तू ?
कुत्ता भी अजीब जानवर होता है। इसका व्यक्तित्व भी अजीब है। आप पूछेंगे कुत्ते में भी व्यक्तित्व हो सकता है क्या? अजी जनाब ,व्यक्तित्व केवल आदमी में थोड़े ही होता है जानवर में भी हो सकता है ( हाँ ,कुत्ते के मामले में यदि कोई भाषाई रूढिवादी चाहे तो इसे कुत्त्रित्व कह ले) आखिर व्यक्ति भी तो जानवर ही है। ऐसा जानवर जो सबसे बुद्धिमान है और संभवतः इसीलिए सबसे खतरनाक भी .लेकिन मैं यहाँ कुत्ते कि बात कर रहा हूँ ,जिसका व्यक्तित्व होता है और उसमे विविधता भी होती है। यहाँ मैं ऐसे कुत्ते कि बात करने वाला हूँ जिसका व्यक्तित्व ऐसा है, जो किसी दूसरे कुत्ते में नहीं दिखा।

यह किसी बड़ी हवेली के ऊँचे दरवाजे पर बंधा 'बब्बर' नहीं है जो अन्दर हो रहे हर कृत्य से बेखबर होता है; जिसकी नजर बाहर से आने वाली हस्तियों और अन्दर से आने वाली हड्डियों पर लगी रहती है। वह 'अन्दर जाने लायक' लोगों को पहचानता है। यह कुत्ता झबरे सफ़ेद बालों वाला 'बाबी' भी नहीं है, जो नर्म मुलायम गोद में बैठकर कार की खिड़की से झांकता हुआ शाम के वक्त अपने लिए बिस्कुट और शैम्पू वगैरह खरीदवाने या छींक की दवा कराने निकलता है।

यह शहर का आवारा कुत्ता भी नहीं है जो सड़कों पर अपनी बिरादरी के साथ बात-बात पर 'झौंझौं' करता है और चाय-पानी व चाट की दुकान पर मंडराते हुए जूठे पत्तलों की ताक में रहता है। उसकी स्पर्धा तो मैले -कुचैले कपड़ों में लिपटे छोटे-छोटे अनाथ बच्चों व बूढ़ी औरतो से रहती है; जो कटोरा लिए या हाथ फैलाये ऐसी जगहों के चक्कर लगाती हैं। यह कुत्ता ऐसा नहीं है। गाँव में भी मैंने ऐसा कुत्ता नही देखा। वहाँ तो कुत्ते अपना इलाका बाँट लेते हैं, और शहरी शोहदों की तरह अपने-अपने इलाके के बादशाह बने फिरते हैं। ये अपने इलाके के भीतर तो पूँछ उठाये, शान मे इतरा कर उछल-उछल कर चलते हैं; लेकिन दुर्योग से अगर दूसरे इलाके में जाना हुआ तो कान गिरा कर जमीन सूंघते हुए चलते हैं। थोड़ी-थोड़ी दूर पर टांग उठा कर ये कुछ ऐसी निशानी छोड़ते चलते हैं, जो संभवतः इन्हे वापस लौटने में मदद करती है। खतरा भाँपते ही इनकी पूँछ सीधी होकर जाने क्यों दोनों टांगो के भीतर जा समाती है?

गावों में कुछ रईसजादे कुत्ते भी होते है। 'कुत्ता-समाज' में इनकी बड़ी धाक होती है। अपने मालिक के घर से इन्हें नियमित भोजन मिल जाता है, इसलिए स्वास्थ्य अच्छा रहता है। इन कुत्तों के इर्द-गिर्द कुछ दुबले-पतले मरियल कुत्ते पूँछ हिलाते रहते हैं। इनकी दशा धाकड़ नेताओं के चमचों की तरह होती है। ये अपने मुखिया की खुराक से बचे जूठन पर ही अपना पेट पालते हैं। असल में, जब से गाँव में पक्के मकान और मजबूत दरवाजे बनने लगे हैं तबसे चोरी से रसोई में घुसकर रोटियां चुराना मुश्किल हो चला है। इसी वजह से अब चमचों को सुविधा-सम्पन्न कुत्तो की दया पर जीना पड़ता है।

कुत्तों के एक समाज शास्त्री ने पता नहीं किस अध्ययन के आधार पर मुझे बताया था की धीरे-धीरे ग्रामीण कुत्तों का शहर की ओर पलायन होता जा रहा है। उन्होंने शायद आदमियों की इस प्रवृत्ति को कुत्तों पर लागू कर दिया था। मुझे पहले तो यह बात खटकी थी; लेकिन अब विश्वास करने का मन हो रहा है इसकी वजह वही कुत्ता है जिसके व्यक्तित्व की चर्चा मैं करना चाहता हूँ।

इसका व्यक्तित्व बड़ा रहस्यमय है। जैसे कोई देहाती नया-नया शहर में आया हो। अनजानी, अनदेखी, एक ऐसी दुनिया में जहाँ उसका कोई परिचय नहीं। लेकिन वहीं पर रहने और जीविकोपार्जन की मजबूरी हो; या, जैसे कोई मज़नू अपनी लैला की अन्यत्र शादी हो जाने पर उसका ग़म भुलाने की गरज से बहुत दूर किसी अनजाने शहर में चला आया हो, लेकिन उसकी याद मिटती न हो। मन खोया-खोया रहे। यह कुत्ता जब चलता है तो पैर कहाँ पड़ रहे हैं, इसे शायद इसका पता ही नहीं रहता है। इतना शऊर भी नहीं कि दो-चार मित्र ही बना ले। कुछ हँसी-खेल ही हुआ करे। बिल्कुल अकेला रहता है। देखते-देखते कार्तिक का महीना भी निकल गया। बेअसर। योगी की तरह काट दिया।

यह छात्रावास के लंबे से बरामदे में रहता है। हर कमरे से कुछ न कुछ ऐसा जरूर फेंका जाता है जिसे चाटकर वह जी लेता है। बाहर की सड़क पर कम ही निकलता है। अन्तःवासियों की ही तरह स्वाध्याय में लीन रहता है। बाकी कुत्तों से भी दोस्ती नहीं है जैसे बिरादरी ने हुक्का-पानी बंद कर रखा हो। शरीर का ढांचा तो अच्छा है, लेकिन भोजन का कोई मुकम्मल इंतजाम न होने से शरीर सूख सी गई है। सफ़ेद और जामुनी छापों वाली चमड़ी किसी 'खानदानी' प्रजाति का परिचय तो देती है; लेकिन जब से यहाँ आया है, उसके बारे में लोगों की धारणा लगातार बदलती जा रही है।

यह जब आया था तो दुत्कारने पर आम कुत्तों की तरह भागता नही था बल्कि दुत्कारने वाले को पलट कर देखने लगता था। लोगों ने समझा पागल है। कुछ लोग मारने दौड़े तो इसने पागल जैसा कुछ भी नहीं किया। न भगा, न दांत निपोरे, न भौंका और न ही हमला किया। सबको विस्मय हुआ। किसी ने उसे 'विचित्र' कहा, किसी ने 'खतरनाक' तो एक सज्जन ने उसे 'चूतिया' तक कह डाला। किसी ने गाली दी- "स्साला! कुत्ता ही नहीं है!" मतैक्य नहीं रहा। मैंने समझा शायद मंद बुद्धि का होगा, क्योंकि कुत्ते जैसी चालाकी उसमें नहीं थी। लेकिन जल्दी ही पता चला कि भोजन का जुगाड़ वह भी चालाकी से ही करता है। फिर कुत्तों कि बिरादरी से अपना दामन बचा कर रखना भी कम चालाकी है क्या? फिर यह है क्या?


वाह रे कुदरत का खेल! कितने आदमियों को कुत्ता बना डाला लेकिन एक कुत्ता, कुत्ता नहीं रह पाया. फिर मैंने सोचा, शायद कोई गहरी चोट खाया है। चोट खाकर आदमी दार्शनिक हो जाता है। ...लेकिन यह तो कुत्ता है? ...तो क्या हुआ? ...यदि आदमी कुत्तों जैसा व्यवहार कर सकता है तो कुत्ता आदमी जैसा क्यों नहीं? इसे कुत्तों की दुनिया से ऊब सी हो गई है। जैसे कभी-कभी आदमी को अपनी दुनिया से हो जाती है। अकेला बरामदे में बैठा रहता है। दूसरे कुत्तों या कुतियों को देखकर मुंह फेर लेता है।

इसने शायद मौन व्रत ले रखा है। जाने किससे नाराज है? अब यह कुत्तों से नहीं, आदमियों से नजरें मिलाता है। बगल से गुजरिये तो आँखों में घूरेगा, पार कर जाइये तो पीछे से घूरेगा. ...तब तक घूरेगा जब तक आँखों से ओझल न हो जाइये। जाने क्या जानना चाहता है? इसे क्या पता कि आदमी को पहचानना आदमी के लिए ही मुश्किल है। फिर कुत्ते की क्या बिसात? मुझे इस निरीह प्राणी से सहानुभूति होने लगी है। जाने कैसा दर्द है? किससे शिकायत है? किसका वियोग है? कैसे पता करूं? इसने तो मौन धारण कर रखा है। वैसे यह बोले भी तो कौन समझेगा? एक दार्शनिक कुत्ते का मर्म कौन समझ पायेगा?

फिर सोचता हूँ, कहीं ऐसा तो नहीं कि इसकी दृष्टि सभी आदमियों के मन के भीतर तक पहुँच रही है? सबके अन्दर छिपे जानवर को यह देख रहा है? इसीलिए भयभीत है, और चुप भी?

ठेला

प्रयाग विश्वविद्यालय शहर के उत्तरी छोर पर पसरा हुआ है.यहाँ से भी उत्तर बढे तो एक गाँव मिलता है -चांदपुर सलोरी, शहर से बिल्कुल जुड़ा हुआ.पहले तो यह गाँव ही था लेकिन अब सुना है नगर-निगम इस के उस पार तक पसर गया है. अब से करीब बीस साल पहले जब मैं पहली बार प्रयाग आकर इसी गाँव में एक कमरा किराये पर लेकर रहने लगा था तो वहाँ की आबो-हवा बिल्कुल गाँव जैसी ही मिली थी .लेकिन महानगर से जुड़े होने के कारण उस समय भी वहाँ एक डिग्री कॉलेज, लड़के और लड़कियों के लिए दो अलग इंटर कॉलेज और अनेक शिशु मन्दिर खुल चुके थे. बैंक भी था और पक्के मकानों की छतों पर स्टार टीवी की छतरियाँ भी उग आई थी. सब कुछ शहर से मेल खाता हुआ. इलाहाबाद में अपना कॅरिअर सवारने आये असंख्य विद्यार्थी इस गाँव में तब भी रहते थे. किरायेदारी का धंधा यहाँ खूब फल- फूल रहा था. इसी गाँव के नुक्कड़ पर चाय -पानी, शाक-सब्जी और परचून की दुकानों की कतार से अलग एक निराला विक्रेता था- ‘कंठी-बजवा’. लंबे छरहरे बदन पर साठ से उपर की उमर बताने वाली झुर्रियां, पतली, नुकीली सफ़ेद मूछे, लाल डोरेदार आँखों के नीचे झूलती ढीली चमड़ी और गंजे सिर के किनारों पर बचे सफ़ेद बाल उसकी अपरिमित सक्रियता को रोमांचक बना देते थे. चारखाने की मैल में चिमटी उतंग लुंगी, टेरीकाट की मटमैली सफ़ेद कमीज और कंधे पर लटका काला पड़ चुका सफ़ेद गमछा जो धूप में उसके सिर पर बने चाँद को ढक लेता था. हमेशा यही बाना...
डिग्री कॉलेज के गेट से लेकर गाँव के नुक्कड़ तक उसका ठेला उसकी सुपरिचित और विशिष्ट आवाज़ के साथ कहीं भी मिल जाता था. लड़के हमेशा उसे घेरे रहते थे. कुछ खरीदारी के लिए तो कुछ सिर्फ़ उसकी बे सिर-पैर की हंसोड़ बातों का मज़ा लेने के लिए. ग्रामीण शैली के मुहावरों व लोकोक्तियों से अटी उसकी धारा प्रवाह भाषा का नाम हम कभी तय नहीं कर पाए. हाँ, बीच-बीच में एक शब्द नगीने की तरह जड़ा हुआ हमारे कान से टकरा जाता था –‘कंठी-बजवा’. तभी तो हम उसे इसी नाम से जानने लगे थे. यह या तो उसकी कहानियो का कोई नायक होगा या उसका ही कोई प्रतिनिधि ..जो हर आने -जाने वाले को मानो हाथ पकड़ कर खींच लाता था. इलाहाबाद के नामी अमरूद हों या छील -काट कर बेंचे जाने वाले कच्चे कटहल की सब्जी, कच्ची अमियाँ और नीबू हो या पके दशहरी आम और केले. बदले सामान के साथ न तो उसका स्थान बदला, न ही स्टाइल और न ही खरीदारों की जमघट ....
...उसकी उम्र भी शायद रुक गई थी .चार -चार बेटियों की शादी ,बेटों की पढ़ाई और सड़क के किनारे पक्का मकान सब कुछ उसने इसी ठेले से कर लिया ."लड़के तो जवान हो गए ,अब यह पसीना क्यों बहाते हो दादा?”, पूछने पर उसने कैफियत दी- "यही तो हमरी ‘लच्छमी’ है बाबूजी !"