वर्धा वि.वि. के स्थापना-दिवस पर बड़े बुद्धिजीवियों ने दिया जवाब…
कुलदीप नैयर का कहना है कि हिंदुस्तान में धर्मनिरपेक्षता का भविष्य बहुत सुंदर है। यहाँ सेक्युलरिज्म बहुत मजबूत होता जा रहा है। इस देश का आम आदमी सांप्रदायिक नहीं है। जिन (साम्प्रदायिक) पार्टियों द्वारा हिंदू-हिंदू की रट लगायी जाती है उनको देश के बहुसंख्यक हिंदुओं ने ही सत्ता से बाहर बैठा रखा है।
यह चर्चा हो रही थी महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के हबीब तनवीर प्रेक्षागृह में और अवसर था विश्वविद्यालय की स्थापना को तेरह साल पूरा होने पर आयोजित समारोह का। यहाँ देश के तीन बड़े बुद्धिजीवी और विचारक आमंत्रित किये गये थे - इस प्रश्न पर विचार मंथन करने के लिए कि देश के वर्तमान परिदृश्य में धर्मनिरपेक्षता का मूल्य कितना महत्वपूर्ण है और इसका भविष्य कितना सुरक्षित है। पाकिस्तान के साथ भाईचारा बढ़ाने के लिए वाघा सीमा पर मोमबत्तियाँ जलाकर अभियान चलाने वाले वरिष्ठ स्तम्भकार कुलदीप नैयर, गांधी संग्रहालय पटना के सचिव व प्रतिष्ठित इतिहासकार डॉ.रज़ी अहमद और देश विदेश की मीडिया में अनेक प्रकार से सक्रिय रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी ने इस परिचर्चा में अपने विचार रखे।
इस विषय पर चर्चा क्यों : विभूति नारायण राय
विश्वविद्यालय के कुलपति विभूतिनारायण राय ने अपने अतिथियों का स्वागत करने के बाद विषय प्रवर्तन करते हुए यह स्पष्ट किया कि इस समय धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर चर्चा की आवश्यकता क्यों पड़ी। उन्होंने कहा कि हाल की दो घटनाओं ने इस मुद्दे पर दुबारा विचार के लिए प्रेरित किया। एक तो अयोध्या के विवादित मुद्दे पर हाईकोर्ट के अनपेक्षित फैसले ने और दूसरा विनायक सेन को देशद्रोह के आरोप में आजीवन कारावास की सजा ने।
कुलपति ने कहा कि अयोध्या पर उच्च न्यायालय ने जो निर्णय लिया उसमें आस्था को आधार बनाया। यह एक खतरनाक बात है। अगर देश का कायदा-कानून आस्था के आधार पर चलने लगा तो अनेक मध्यकालीन कुरीतियाँ दुबारा सिर उठा सकती है। संभव है कि सती-प्रथा दुबारा जन्म ले ले; क्योंकि आज भी देश में एक बड़ी संख्या सती को पूजनीय मानती है। अस्पृश्यता की प्रथा भी दुबारा सिर उठा सकती है क्योंकि बहुत लोग आज भी उसमें आस्था रखते हैं। विनायक सेन की सजा हमें ‘ककड़ी के चोर को कटार से काट डालने’ की कहावत याद दिलाती है। जनता के हक के लिए लड़ने वाले को एक लोकतांत्रिक देश में ऐसी सजा होना दुर्भाग्यपूर्ण है। क्या हमारी न्याय व्यवस्था अब जन आंदोलनों को दबाने का काम भी करेगी?
धर्मनिरपेक्षता को लोकतंत्र, आधुनिकतावाद व राष्ट्रवाद के परिप्रेक्ष्य में देखें- रामशरण जोशी
पत्रकारिता के क्षेत्र में विशद अनुभव रखने वाले और अबतक तेईस पुस्तकों के प्रणेता डॉ. रामशरण जोशी ने इतिहास का संक्षिप्त संदर्भ देते हुए कहा कि भारत में अलग-अलग चरणों में हिंदू और मुस्लिम शासक व शासित वर्ग के रूप में बँटे रहे हैं। अंग्रेजी गुलामी के समय दोनो शासित वर्ग में आ गये। सम्मिलित संघर्ष के बाद आजादी मिली लेकिन देश का बँटवारा हो गया। भारत में धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना हुई। पाकिस्तान में भी जिन्ना समर्थकों ने ‘पॉलिटिकल सेक्यूलरिज़्म’ की बात उठायी थी। लेकिन वहाँ स्थिति बदल गयी। भारत में स्वतंत्रता मिलने के तिरसठ वर्ष बाद धर्मनिरपेक्षता का स्वरूप क्या होना चाहिए यह मुद्दा विचारणीय बना हुआ है।
उन्होंने बताया कि सोवियत संघ के विघटन के बाद बची विश्व की एकमात्र महाशक्ति अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने संयुक्त राष्ट्र संघ में कहा था कि शीतयुद्ध के बाद सबसे अधिक ‘धार्मिक आतंकवाद (religious terrorism)’ बढ़ा है।
डॉ.जोशी ने यह सवाल उठाया कि क्या हमारे देश के राष्ट्रीय चरित्र में धर्मनिरपेक्षता का मूल्य व्यावहारिक स्वरूप ले पाया है। क्या हम वास्तविक अर्थों में एक बहुलवादी राष्ट्र बन पाये हैं। हमारे संविधान में जिन मूल्यों को समाहित किया गया है क्या उन मूल्यों की पैठ हमारे जनमानस में हो पायी है? अयोध्या के उस विवादित ढाँचे का गिराया जाना उतना चिंताजनक नहीं है जितना उस कृत्य से हमारे संविधान में रचे-बसे भारतीय राष्ट्र के चरित्र का नष्ट हो जाना है। संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को ढहा देने वाले आज भी सुरक्षित हैं और फल-फूल रहे हैं, यह बहुत महत्वपूर्ण है।
धर्मनिरपेक्षता को आज के हालात में समझने के लिए हमें आधुनिकतावाद (modernism) को समझना होगा, लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद की विवेचना करनी होगी। इसके अतिरिक्त राष्ट्र-राज्य के चरित्र पर वैश्वीकरण और तकनीकी विकास के प्रभावों की पड़ताल भी करनी होगी। हमारे राजनेताओं ने धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे का प्रयोग अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेंकने में की हैं। वे `सेलेक्टिव सेकुलरिस्ट’ नीतियों पर चले हैं। (अर्थात् अपनी सुविधा और वोट खींचने की संभावना के अनुसार सेक्यूलरिज़्म की व्याख्या और प्रचार-प्रसार करते रहे हैं)
राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में पक्षपातपूर्ण नीतियों का अनुगमन होने लगता है। अपने देश में यही हुआ है। धर्मनिरपेक्षता आज भी भारतीय नागरिक के जीवन के अविभाज्य अंग के रूप में विकसित नहीं हो सकी है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद केवल दिल्ली में दिनदहाड़े हजारो सिक्खों का कत्ल कर दिया गया लेकिन आजतक किसी को इस जुर्म में फाँसी नहीं हुई। (बल्कि हत्यारों को उकसाने वाले और संरक्षण देने वाले राजनेता सत्तासीन होते रहे हैं)
आज यह देखने में आ रहा है कि वैश्वीकरण और तकनीकी विकास से उपजी नयी अर्थव्यवस्था में उभरने वाला नव-मध्यम वर्ग अधिक धार्मिक प्रतीकों का प्रयोग कर रहा है। नये धनिकों द्वारा सबसे अधिक मंदिर-मस्ज़िद-गुरुद्वारे बनवाये जा रहे हैं। इस परिदृश्य में धर्मनिरपेक्षता के स्थान पर पंथनिरपेक्षता की बात की जा रही है। देश के राष्ट्रीय चरित्र में धर्मनिरपेक्षता का मूल्य बचा होने पर ही शंकाएँ उठने लगी हैं। इन शंकाओं का उठना ही सेक्यूलरिज़्म की हार है। इसलिए यह मुद्दा बहुत गम्भीर चिंतन के योग्य है। वैश्विक पूँजीवाद, तकनीक और अंतरराष्ट्रीयतावाद के परिप्रेक्ष्य में इस मूल्य को व्याख्यायित करना होगा।
इतना बताता चलूँ कि विद्वान वक्ताओं द्वारा कही गयी इन बातों को यहाँ प्रस्तुत करते समय मुझे अपने निजी विचारों को रोक कर रखना पड़ा है। टिप्पणियों की शृंखला में आवश्यकतानुसार चर्चा की जा सकती है। अगली कड़ी में मैं डाँ रज़ी अहमद की चमत्कृत कर देने वाली बातों की चर्चा करूंगा और कुलदीप नैयर के अति आशावादी जुमलों को प्रस्तुत करूंगा। इन विचारों पर आपकी प्रतिक्रिया सादर आमंत्रित है। अभी इतना ही… (जारी)
!!! आप सबको नये वर्ष की कोटिशः बधाई और हार्दिक शुभकामनाएँ !!!
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)