सोशल मीडिया और हिंदी ब्लॉगिंग के विषय पर राष्ट्रीय सेमिनार के लिए अच्छे पैनेल की तलाश करते हुए मैंने बहुत से लोगों तक इस सेमिनार की रूपरेखा पहुँचायी। ट्विट्टर और फेसबुक पर सक्रिय अनेक प्रोफाइलें देख डालीं। एक से बढ़कर एक व्यक्तित्व देखने को मिले। मैंने अपनी ओर से संदेश भेजे। बहुत से लोगों ने रुचि दिखायी। आने का वादा किया। कुछ लोग आना चाहते हुए भी निजी कारणों व अन्यत्र व्यस्तता से आने में असमर्थ थे। उन्होंने खेद के साथ सेमिनार के लिए शुभकामनाएँ व्यक्त कर दी। इसी सिलसिले में ट्विट्टर पर राजनैतिक रूप से सक्रिय दो महिला प्रवक्ताओं के बारे में एक मित्र के माध्यम से पता चला। आभासी पटल पर ही उनसे संपर्क हुआ। यद्यपि वे अंग्रेजी भाषा में लिखती हैं, दक्ष और सहज हैं फिर भी उनकी प्रोफाइल, लोकप्रियता, फॉलोवर्स की संख्या और राजनैतिक विषयों पर उनके ट्वीट्स देखकर मैं प्रभावित हुआ और इस सेमिनार में सोशल मीडिया और राजनीति विषयक सत्र के लिए उन्हें बुलाने का लोभ संवरण नहीं कर सका।
जब मेरे संदेश का जवाब दो दिनों तक नहीं आया तो मैंने फोन मिला दिया। औपचारिक अभिवादन के बाद उन्होंने कहा कि हम इसमें आना तो चाहते थे लेकिन एक झिझक की वजह से आने में संकोच कर रहे हैं। मैंने तफ़सील पूछी तो बोलीं- असल में हमारी हिंदी उतनी अच्छी नहीं है जितनी आप लोगों की है। आपका मेल देखने के बाद हमें लगा कि शायद उस मंच पर हिंदी के बड़े-बड़े साहित्यकार आयेंगे जिनके सामने हम लोग शुद्ध हिंदी में अपनी बात नहीं बोल पाएंगे। दूसरी नेत्री ने भी लगभग यही बात बतायी। कहने लगीं- मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि आप आयोजकों द्वारा हमारे चुनाव में जरूर कोई चूक हुई है। हम ऐसे तो हिंदी में बात-चीत कर लेते हैं लेकिन उतने बड़े मंच पर हिंदी के विद्वानों के बीच बोलना थोड़ा मुश्किल हो जाएगा।
उनकी बातों का जो संक्षिप्त जवाब मैंने दिया और जिससे संतुष्ट होकर उन्होंने अपनी झिझक तोड़ी और आने की संभावना टटोलने और पूरा प्रयास करने का वादा किया वही सब मैं यहाँ थोड़ा विस्तार से बताना चाहता हूँ ताकि इस बहाने इस सेमिनार के एक बहुत ही महत्वपूर्ण उद्देश्य को समझा जा सके।
आजादी के इतने साल बीत जाने के बाद भी देश में हिंदी भाषा के प्रति आम दृष्टिकोण बहुत उत्साह वर्द्धक नहीं कहा जा सकता है। उत्तर भारत के तथाकथित हिंदी प्रदेशों में भी इसका स्थान जो होना चाहिए वह नहीं है। दक्षिण के गैर हिंदी भाषी क्षेत्रों का तो कहना ही क्या? आज भी हिंदी को साहित्य रचने और स्कूल कॉलेज में एक विषय के रूप में पढ़ने –पढ़ाने वाली भाषा तो माना जाता है लेकिन आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को पढ़ने-समझने और दूसरों को पढ़ाने-समझाने के लिए इस भाषा पर भरोसा करने वाले बहुत कम हैं।
कविता, कहानी, ग़जल और उपन्यास लिखकर पत्र-पत्रिकाओं में छपवाने या पुस्तक प्रकाशित कराने के लिए तो हिंदी का प्रयोग किया जा रहा है लेकिन जब कोई वैज्ञानिक शोध पत्र लिखने की बात होती है या कानूनी, वाणिज्यिक, या आर्थिक मुद्दों पर कोई संदर्भ लेख लिखना होता है तो देश के विद्वान उसे अंग्रेजी में तैयार करते हैं और फिर आवश्यक होने पर उसका अनुवाद हिंदी के किसी विद्वान से कराया जाता है। भाषा के ऐसे विद्वान जिसे मूल विषय का शायद ही कोई ज्ञान होता है। ये अनुवादक कभी-कभी ऐसा अर्थ का अनर्थ कर देते हैं कि हँसी भी आती है और क्षोभ भी होता है। मैंने एक बार Pearl Harbor का अनुवाद ‘मोती पोताश्रय’ पढ़ा था तो बहुत देर तक इस पोंगा-पंडिताई पर कुढ़ता रहा। पाश्चात्य लेखकों की लिखी किताबों से तैयार इग्नू (IGNOU) की अनूदित अध्ययन सामग्री कभी पढ़ने को मिले तो इस कष्ट को समझा जा सकता है जहाँ MORE OFTEN THAN NOT को ‘‘नहीं से अधिक बहुधा’’ अनूदित करते हैं।
हमने आज भी हिंदी को एक पवित्रता का चोला पहनाकर उसे दीवार पर टंगी देवी-देवताओं की तस्वीर बना दी है जिसे केवल अगरबत्ती दिखायी जाती है और दूर से सिर झुकाकर अपनी श्रद्धा व्यक्त कर दी जाती है। गनीमत है कि अभी इस तस्वीर पर चन्दन की माला नहीं टांग दी गयी है।
मुझे लगता है कि हिंदी को इस गोबर-गणेश की छवि से बाहर निकालकर एक आधुनिक चिन्तन-मनन और ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाने, जीवनोपयोगी बातों को कहने समझने का माध्यम बनाने और सबसे बढ़कर रोजगार की भाषा बनाने का समय आ गया है। इसके लिए हिंदी के दरवाजे चारो ओर से खोलने होंगे। इसे प्रवचन की व्यास गद्दी और कवि-सम्मेलन के मंच से उतारकर भारतवर्ष और अखिल विश्व के आम जनमानस पर जमाना होगा। इसे बाजार में काम करने वालों से लेकर उसे नियंत्रित करने वालों तक सबकी जुबान पर चढ़ाना होगा। पांडित्य प्रदर्शन के बजाय सभी प्रकार के विचारों, तथ्यों, सिद्धान्तों, प्रयोगों, व्यापारों, नौकरियों, साक्षात्कारों, और आचार-व्यवहार में इसके प्रयोग को सहज और सरल बनाने के यत्न करने होंगे। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा की स्थापना अन्य के साथ-साथ कदाचित इस उद्देश्य से भी की गयी थी।
अधकचरी अंग्रेजी में गिट-पिट करने वालों को भी हम आधुनिक और पढ़ा-लिखा मान लेते हैं लेकिन हिंदी बोलने वाले से उम्मीद करते हैं कि वह आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की परम्परा का पोषक हो। रूढ़िवादी हम हिंदी भाषा के व्याकरण और वर्तनी को लेकर इतने आग्रही हो जाते हैं कि इधर कदम बढ़ाने वाला अपना रास्ता मोड़ लेने को बाध्य हो जाय। जब कोई भारी-भारी शब्दों से लदी हुई अबूझ बात कहे, रस छंद अलंकार की कसौटी पर कसी हुई शुद्ध हिंदी का प्रयोग करे तभी उसे विद्वान कहा जाय और उसे सम्मान की माला पहनायी जाय; और फिर…? फिर एक ऊँचे मंच पर स्थापित करके अक्षत-फूल से पूज दिया जाय। बस, काम खत्म।
…ऐसी सोच वालों की जकड़बन्दी से हिंदी को छुड़ाये बगैर इसका भला नहीं होने वाला।
मुझे अच्छा लगता है जब फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग स्पेस में बिना कोई साहित्यिक दावा किये तमाम लोग अपने मन की बात हिंदी में कहते हैं। बहुत प्रभावशाली ढंग से कहते हैं। उसपर त्वरित प्रतिक्रियाएँ होती हैं और विचारों का बिन्दास आदान-प्रदान होता रहता है। यहाँ थोड़ी सी तकनीक अपनाकर अभिव्यक्ति का बड़ा सा माध्यम हमारे हाथ आ जाता है। लेकिन जब देखता हूँ कि देश के तमाम युवा अपनी हिंदी बात कहने के लिए रोमन लिपि का प्रयोग करते हैं और इस मजबूरी में अपनी बात असंख्य संक्षेपाक्षरों में और बहुत खंडित तरीके से करते हैं तो दुख होता है। मन में एक कसक उठती है कि काश इन्हें यूनीकोड के बारे में पता होता, लिप्यान्तरण के औंजारों का पता होता तो वे अपनी बात अधिक सहज और सरल तरीके से कह पाते। रोमन में लिखी हुई हिंदी को प्रवाह के साथ पढ़ना कितना कठिन है…! उस बात का पूरा आनंद भी नहीं मिल पाता।
…तो क्या हमें इस विकलांगता से उबरने के बारे में नहीं सोचना चाहिए?
इंटरनेट अब कोई दूर-देश की चिड़िया नहीं है। यह अब हमारे घर-आंगन में चहकने वाली जीवन्त गौरैया है। ट्विटर का नाम शायद यही सोचकर पड़ा होगा। हिंदी ब्लॉग्स की संख्या पिछले दशक में जिस तेजी से बढ़ी उसपर फेसबुक और ट्विटर की तेजी ने थोड़ा ब्रेक लगा दिया। इसका कारण मूलतः तकनीकी है। इनके फॉर्मैट को देखिए। हम पलक झपकते ट्वीट कर लेते हैं और राह चलते फेसबुक पर स्टेटस लिखकर डाल देते हैं। लेकिन ब्लॉग पोस्ट लिखने के लिए थोड़ा समय तो देना ही पड़ता है। यहाँ हिंदी में पोस्ट लिखने के लिए यूनीकोड-देवनागरी जरूरी हो जाती है जबकि वे दोनो ‘छुटके’ (micro-blogging) रोमन में ही निपटाये चले जा रहे हैं। शार्टकट का जो सुभीता इन ‘छुटकों’ के यहाँ है वह ब्लॉग में नहीं। लेकिन कुछ स्थायी किस्म का सहेजकर रखने लायक उपयोगी और जानकारी पूर्ण आलेख लिखना हो तो फेसबुक/ ट्विटर का मंच टें बोल जाता है। यहाँ तो चाय-बैठकी वाली बतकही ही चल पाती है। फास्ट-फूड टाइप है जी यह; निस्संदेह इसका अलग मजा है। यह तकनीक और प्रारूप का अंतर है कि एक है जो एक दिन में कई बार हुआ जाता है तो दूसरा है जो कई दिन में एक बार हो पाता है।
सोशल मीडिया और हिंदी ब्लॉगिंग पर राष्ट्रीय सेमिनार कराने का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य यही है कि हिंदी के प्रयोग को अधिक से अधिक बढ़ावा मिले। देवनागरी में लिखने की तकनीक सहज, सरल और सर्वसुलभ हो। इन माध्यमों का प्रयोग जो लोग धड़ल्ले से कर रहे हैं वे इसे हिंदी में आसानी से कर सकें। साथ ही इन माध्यमों ने हमारे सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में कैसा हस्तक्षेप किया है और पारंपरिक साहित्यिक मानकों की कसौटी पर हम कहाँ ठहरते हैं; इन प्रश्नों पर विचार करने और बड़ी बहस कराने की तैयारी की गयी है।
आज भी भारत में जिस एक भाषा को बोलना और पढ़ना-लिखना सबसे बड़ी संख्या में लोग जानते हैं वह हिंदी ही है। फिर भी हमें इंटरनेट पर अंग्रेजी और रोमन लिपि अधिक दिख रही है तो इसका एक कारण हमारा तकनीकी रूप से पिछड़ा होना है और दूसरा कारण हिंदी भाषा के प्रति हमारा रुढ़्वादी दृष्टिकोण है। इन दोनो कारणों को इतिहास की वस्तु बनाने में इस सेमिनार ने यदि थोड़ा भी योगदान किया तो यह हमारी सफलता होगी। इसीलिए हम आह्वान करते हैं उन सबका जिन्हें हिन्दी से प्यार है, हिन्दुस्तान से प्यार है और जो इन दोनो को गौरवशाली बनाने के लिए कुछ करना चाहते हैं। इंटरनेट पर हिंदी से जुड़िये और हिंदी का प्रयोग कीजिए। एक बार हिंदी से जुड़ जाने के बाद उसे अनगढ़ से सुगढ़ बनते देर नहीं लगेगी, ऐसा हमारा विश्वास है।
आपका क्या ख्याल है? हमें जरूर बताइएगा।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)