हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

गुरुवार, 29 जून 2017

बेहटा खुर्द एक बेहतर गाँव है

(29.06.2017) 
आज परसदेपुर मार्ग पर इंदिरानहर के पुल की चढ़ाई शुरू करने वाला था तभी दाहिनी ओर एक नयी-नवेली ग्रामीण सड़क दिखायी दे गयी। देखने से लग रहा था कि इसकी 'पेंटिंग' अभी एक-दो सप्ताह के भीतर ही हुई होगी। शायद योगी सरकार के गढ्ढा-मुक्ति अभियान के अंतर्गत। मैंने पीछे देखकर किसी सवारी के न आने की तसल्ली करते हुए साइकिल दाहिनी ओर इस नयी सड़क पर मोड़ दी। सड़क के दोनों ओर खूब हरियाली थी। मन प्रसन्न हो गया। एक तो चढ़ाई चढ़ने से बच गया था और दूसरे सुनसान सड़क पर हरियाली और स्वच्छता के बीच इस नयी राह पर कुछ नया देखने का लाभ मिल रहा था।
इधर सड़क के किनारे कुछ एकल मकान दिख रहे थे जो गाँव की घनी बस्ती से बाहर आकर बनाये गये लग रहे थे। समकोण पर बनी चारदीवारी और गेट के भीतर बने पक्के मकान। जानवर इत्यादि पालने का पूरा प्रबंध एक सलीके से। निश्चित ही गाँव के भीतर घनी बस्ती में निवास की कठिनाई से अब खेती की जमीन पर नये मकानों का कब्ज़ा होने लगा है। साथ ही बाग-बगीचे काटकर खेती के लिए जमीन बढ़ायी जा रही है। धरती पर जनसंख्या के दबाव की एक भौतिक तस्वीर मेरे सामने थी। मेरे मन में इस गाँव का नाम जानने की जिज्ञासा पैदा हो रही थी तभी एक बोर्ड पर "रामनगर (ग्रामसभा जगदीशपुर) रामप्रताप यादव की याद में" लिखा हुआ मिला। मैं मुस्कराकर आगे बढ़ गया।
थोड़ी दूर बाद ही सड़क पर से तारकोल व बारीक बजरी की नयी परत समाप्त हो गयी और उसका पुराना रूप सामने आ गया। लेकिन सड़क में गढ्ढे फिर भी नहीं थे। आगे सड़क बायीं ओर मुड़ी तो थोड़ी दूरी पर एक विशाल बरगद का पेड़ दिखा जो एक सिकुड़ते हुए तालाब के किनारे जाने कितने सालों से खड़ा था। इसकी मोटी-मोटी डालें खुद ही किसी पेड़ के तने जैसी थीं। इनसे अनेक जटाएँ लटक रहीं थी। तालाब में जो थोड़ा पानी बचा हुआ था उसपर हरे रंग की काई जमी हुई थी। पेड़ के नीचे कुछ औरतें खड़ी थीं और एक भैंस बंधी हुई थी। आगे बढ़ा तो रंगा-पुता प्राथमिक विद्यालय बेहटा-खुर्द मिला जो बन्द था। जुलाई में खुलेगा। इस गाँव में समृद्धि के चिह्न दिखायी दे रहे थे। केनरा बैंक की एक शाखा थी। लगभग सभी मकान पक्के थे। चाय-पान और परचून की दुकानें थीं और अधिकांश घरों में दुधारू पशु भी थे। सड़क किनारे एक-दो खटालें भी दिखी जो दूध के व्यावसायिक उत्पादन होने का संकेत दे रही थीं। संयोग से मुझे कोई व्यक्ति खुले में शौच के लिए भी आता-जाता नहीं दिखा। सड़क पर दिखी तो एक महिला जो कमर पर एक खाली टोकरा टिकाये चली आ रही थी। शायद कूड़ा या गोबर फेंक कर आ रही हो। इस काम के दौरान भी उसका घूँघट में चेहरा छिपाकर रखना रोचक था।
जब यह सड़क गाँव के भीतर घुसकर कई शाखाओं में बंटकर विलीन होने लगी तो मैं वापस मुड़ आया। एक जगह गोबर की खाद से एक ट्रॉली भरी जा रही थी जिसमें ट्रैक्टर जुता हुआ था। भरे हुए गढ्ढे से खाद उठाकर ट्रॉली में भरने का काम औरतें, बच्चे और मर्द मिलकर कर रहे थे। यह जरूर कोई खाता-पीता, सम्पन्न व परिश्रमी गृहस्थ परिवार रहा होगा। वापस लौटते हुए मैंने ध्यान दिया कि गेंहूँ की कटाई से खाली हुए खेतों में गोबर की खाद की ढेरियां लगी हुई हैं। इन्हें कुदाल से फैलाकर जोत दिया जाएगा और बारिश का पानी पाकर मिट्टी अधिक उर्वर हो जाएगी। यह जैविक खाद फसल के लिए कृत्रिम रासायनिक उर्वरकों से बेहतर तो होती ही है, यह पर्यावरण के संरक्षण में भी सहायक है।
एक खेत के किनारे एक झोपड़ी का भग्नावशेष देखकर मैं रुक गया। खेत खाली था जिसमें गोबर की खाद गिरायी गयी थी। इसमें मक्का या ऐसी ही कोई अन्य फसल रही होगी जिसकी रखवाली के लिए यह झोपड़ी डाली गयी होगी। रखवाली का काम हो जाने के बाद इसे इसके हाल पर छोड़ दिया गया था तो यह यूँ क्षत-विक्षत हो गयी थी जैसे बॉर्डर के किसी पाकिस्तानी चौकी पर बीएसएफ ने हमला करके ध्वस्त कर दिया हो।
मैंने आज ज्यादा तस्वीरें नहीं ली। मनोरम प्रकृति के बीच आनंदित होकर और स्वच्छ ऑक्सीजन में भरपूर सांस लेकर वापस आ गया। फिर भी एक-दो दृश्यों ने बरबस ही मेरे मोबाइल कैमरे को जेब से बाहर खींच ही लिया। आप भी देखिए।







(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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गुरुवार, 22 जून 2017

गढ्ढामुक्त सड़कों का सपना

(22.06.217) 
गढ्ढा मुक्त टूटी सड़कें

कल मानसून की दस्तक देती बरसात के बीच योग कार्यक्रम के बाद आज साइकिल ने रायबरेली शहर के भीतर ही घूमने का मन बनाया। मामा चौराहे की रेलवे क्रॉसिंग पारकर जेल रोड के अंत तक पहुँचा और वहाँ से दाहिनी ओर मुड़कर जिलाधिकारी आवास की चारदीवारी के बगल से जिला अस्पताल चौराहे पर निकल आया। सुबह साढ़े छः बजे भी यहाँ पर्याप्त चहल-पहल थी। साइकिल-रिक्शा, ऑटोरिक्शा, विक्रम, बाइक इत्यादि का आगमन अस्पताल की ओर हो रहा था। दवा की कुछ दुकानें खुल चुकी थी। एक ठेले पर अंकुरित चना और मूंग की बिक्री शुरू हो गयी थी। बन-मक्खन और चाय की दुकाने भी ग्राहकों से घिरने लगी थीं। इनमें इमरजेंसी वाले मरीजों के तीमारदार ही ज्यादा होंगे।
अस्पताल चौराहे से कचहरी रोड पकड़कर मैं फ़िरोज गांधी चौराहे पर आया जहाँ एक नुक्कड़ पर शहीद स्मारक बना हुआ है। इस समय तक जिन सड़कों से मैं गुजरा था उनपर योगी जी के गढ्ढा-मुक्ति आदेश की स्पष्ट छाप दिखायी दे रही थी। मैं मन ही मन प्रसन्न था। खासतौर पर इसलिए कि मुझे साइकिल से सैर में सहूलियत होने वाली थी। वैसे इस प्रकार की प्रसन्नता का भाव मेरे मन में उस समय भी पैदा हो गया था जब सभी शहरों में साइकिल-पथ का निर्माण जोर-शोर से हो रहा था। लेकिन दुर्भाग्यवश मुझे किसी 'साइकिल-पथ' पर अपनी द्विचक्री दौड़ाने का अनुकूल अवसर नहीं मिल सका। आगे का राम जाने।
फ़िरोज गांधी चौराहे से अपनी कॉलोनी के लिए मैं प्रायः ओवर-ब्रिज पर चढ़ाई करके रायबरेली क्लब के बगल से होकर 'सेशन्स-हाउस' के सामने से जाता हूँ। लेकिन आज मैं विकासभवन के सामने से होकर बरगद चौराहा क्रासिंग की ओर जाने वाले रास्ते पर गया। मैं विकास भवन के सामने तक पहुंचा था तबतक सड़क-गढ्ढा-मुक्ति से उपजी खुशी काफ़ूर हो गयी। हालाँकि मुझे इस सड़क पर जो मिला उसे गढ्ढा नहीं कहा जा सकता लेकिन हिचकोले इतने जबरदस्त थे कि मुझे अपना भार सीट के बजाय पैडल्स पर ट्रांसफर करना पड़ा। इस सड़क की ऊपरी सतह जगह-जगह से उघड़ गयी है।
आज की सैर का कोटा पूरा नहीं हो पाया था तो मैं नेहरू नगर की ओर मुड़कर सीधे जेलरोड की ओर चल दिया। सड़क किनारे के नाले की मरम्मत का काम प्रगति पर था। नाले को ढंकने के लिए सीमेंट के अनेक स्लैब ढाले गये थे जो अभी सूख रहे थे। इधर से निकलकर इंदिरानगर की ओर जाने वाली सड़कों के टी-पॉइंट अवरुद्ध थे। आगे अच्छी सुविधा मिलने की आस में अभी कष्ट उठा रहे होंगे इधर के लोग। मैं जेल रोड पहुँचकर बायें मुड़ा और #बालमखीरा वाले की खटाल से आगे पुलिस चौकी तक जाकर दाहिनी ओर सई नदी के अमर शहीद स्मारक लोहे के पुल की ओर चला गया। नदी पर बने धोबीघाट पर खूब रौनक थी। पाट पर पटके जाते कपडों की आवाज ऊपर तक आ रही थी।
नदी और सड़क के संगम के पास पीपल का एक विशाल वृक्ष है। इसके नीचे शंकर जी की प्रतिमा वाला एक छोटा सा मंदिर है जिसके सामने कुछ लोग सत्संग कर रहे थे। पेड़ के ऊपर एक बड़ी सी चील मंडरा रही थी जिससे आक्रांत कुछ पक्षी पेड़ पर बैठे चांव-चांव कर रहे थे। उसमें कुछ कौवों की कांव-कांव भी समाहित थी। सड़क पर नियमित टहलने वाले आ-जा रहे थे। वहाँ कुछ तस्वीरें लेकर मैं वापस चल दिया लेकिन कुछ ही दूर बाद रुक जाना पड़ा।
एक रिक्शेवाला भारी सामान लादे बड़बड़ाता हुआ चला आ रहा था। उसकी नाराज़गी का विषय योगी जी के फरमान के बावजूद इस सड़क का न बनना था। यह सड़क क्षेत्रीय ग्राम्य विकास संस्थान के सामने से सई घाट तक जाती है जहाँ एक नामी पब्लिक स्कूल भी है। बच्चों से लेकर बड़े-बूढ़ों तक और गृहिणी औरतों से कामकाजी माहिलाओं तक सभी यहाँ से गुजरते हैं। लेकिन इस सड़क का भाग्योदय नहीं हो सका है।
मैंने देखा उसका रिक्शा हमारी साइकिल से ज्यादा हिचकोले खा रहा था। एक बुजुर्ग के टहलने की चाल भी यहाँ धीमी हो गयी थी। मैंने रुककर जो तस्वीरें लीं उसे आप भी देखिए।













(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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मंगलवार, 20 जून 2017

झाड़-फ़ूंक की अदृश्य शक्ति से सामना

रायबरेली (20.06.2017)

कई दिनों के व्यतिक्रम के बाद आज साइकिल से सैर करने निकला। हालाँकि सोकर उठने में थोड़ी देर हो गयी थी लेकिन मैंने मन को बहानेबाज़ी का कोई मौका देना उचित नहीं समझा। बाहर का मौसम बहुत ख़ुशगवार नहीं था। सूरज निकल चुका था और सुबह की हवा में अपनी किरणों की आंच मिलाने लगा था। आसमान में कुछ फुटकर बादल इधर-उधर तैर रहे थे। इन विरल बादलों से धूप की तेजी पर यदा-कदा विराम लगने का झूठा संतोष हो रहा था। जमीन से धूल उठने लगी थी और 'इंदिरा-उद्यान' में टहलने वाले आखिरी लोग घरों की ओर लौटने लगे थे।
घर से बाहर निकलते ही एडीएम साहब मिल गये। रुककर कुशल-क्षेम पूछने के लिए ब्रेक लगाया। बायें पैर से जमीन पर टेक लेकर मैं साइकिल की सीट पर ही खुद को अटकाये रहा। वे एक-दो महीने में ही सेवानिवृत्त होने वाले हैं इसलिए उनका हाल-चाल लेता रहता हूँ। मैंने देखा कि उनकी तर्जनी अंगुली में पट्टी बंधी थी। वह लाल दवा से सनी हुई थी। पूछने पर उन्होंने बताया कि सीलिंग फैन की ब्लेड लग गयी थी। टाइप-4 के सरकारी आवास के बरामदे की छत में लगा पंखा इतना नीचे होता है कि सामान्य ऊंचाई के व्यक्ति का हाथ भी छू ले। ये साहब तो छः फुट वाले हैं। मैंने अफसोस व्यक्त करते हुए चलने की इज़ाजत मांगी और बताया कि आज भुएमऊ गेस्ट-हाउस तक जाऊँगा। उन्होंने अनुमान लगाया- मतलब आठ किलोमीटर जाएंगे।
परसदेपुर रोड पर इंदिरानहर पुल की ढलान से उतरते हुए पैडल नहीं मारना पड़ता। ढलान खत्म होने के सौ मीटर बाद भुएमऊ गाँव शुरू हो जाता है जिसकी शुरुआत कांग्रेस पार्टी के गेस्ट-हाउस से होती है। आज जब मैं ढलान से नीचे उतरते हुए अपनी साँसे स्थिर कर रहा था तो सड़क की दाहिनी ओर घने पेडों के बीच एक स्थान पर कुछ हलचल दिखी। झाड़ियों के पीछे एक लंबे पेड़ के नीचे कुछ महिलाएँ थीं। वहीं सड़क किनारे एक रिक्शा, एक बाइक और कुछ साइकिलें खड़ी थीं।
मैंने अपनी गति धीमी कर दी और अभी-अभी रिक्शे से उतरकर खड़ी हुई युवती से पूछा - यहाँ क्या हो रहा है? उसने कोई जवाब नहीं दिया बल्कि कंधे पर सो रहे बच्चे का सिर अपने पल्लू से ढंकने लगी। उसके चेहरे पर एक असुरक्षा व संकोच का भाव तैर गया था। रिक्शे वाले ने तबतक अपने मुँह का मसाला थूक दिया था। उसने बताया - कुछ नहीं, वहाँ बाबा बैठते हैं। उन्हीं को दिखाने आयी हैं। मैंने पूछा- क्या, झाड़-फूँक? उसने सहमति में सिर हिलाया। मुझे तत्काल वहाँ से आगे बढ़ जाना ठीक लगा।
आगे गेस्ट-हाउस के गेट तक जाते-जाते मेरा खोजी मन कुलबुलाने लगा। आखिर इस निर्जन स्थान पर घनी झाड़ियों के बीच, ऊँचे जंगली पेड़ों की ओट में ऐसा क्या हो रहा है जो इन गरीबों को यहाँ खींचे ले जा रहा है? मैंने साइकिल वापस मोड़ दी और उसी स्थान पर लौट आया। एक किशोर अपनी बाइक खड़ीकर उसकी सीट पर बैठा हुआ था। वह अपनी भाभी को लेकर आया था जो अपने नवजात शिशु को दिखाने आयीं थीं। मैंने सड़क पर से ही वहाँ की तस्वीर ली। लेकिन इससे कुछ खास स्पष्ट नहीं हो सका। मैंने साइकिल को सड़क से उतारकर नीचे खड़ा किया और ताला लगाकर उस पगडंडी पर उतर गया जो सड़क किनारे के गढ्ढे को पारकर मुझे उस पेड़ के पास ले गयी।
वहाँ का नजारा बड़ा रोचक था। करीब दर्जन भर माताएँ अपने-अपने बीमार बच्चों को गोद में लिए मौजूद थीं। एक दुग्ध-धवल लंबे बालों और दाढ़ी वाले बाबा जी पेड़ की जड़ के पास बैठे थे। बगल में एक बड़ी सी पोटली रखी थी जो धीरे-धीरे भर रही थी। उनके हाथ में करीब दस इंच का एक लोहे का चाकू था। उसकी मूठ भी लोहे की थी। बच्चों का इलाज़ प्रत्यक्षतः इसी यंत्र से किया जा रहा था। इसके अतिरिक्त कदाचित कुछ अनसुने मन्त्र भी थे जो चमत्कारी बाबाजी बुदबुदाए जा रहे थे। जिस बच्चे का 'इलाज' होते हुए मैंने देखा उसकी उम्र एक माह से कम ही रही होगी। बाबाजी चाकू की धार को जमीन की मिट्टी में धँसाकर खींचे जा रहे थे। बार-बार चाकू की धार से कटकर वहाँ की सूखी मिट्टी बारीक धूल जैसी हो गयी थी। मंत्र पूरा होने के बाद बाबाजी ने वह धूल मुठ्ठी में भर ली और उसे मसलने लगे और कुछ ध्यान करने लगे। इस प्रकार 'अभिमंत्रित' की जा चुकी धूल को उन्होंने बच्चे की माँ को देकर कुछ अस्फुट निर्देश दिया। उसने उसे लेकर बच्चे की नाभि व तलवों में लगा दिया। फिर अगले बच्चे की बारी आ गयी। बाबाजी इस इलाज़ के लिए कोई फीस नहीं मांग रहे थे। लेकिन सभी माताएँ उन्हें दस-बीस रुपये या/ और आटा-चावल इत्यादि देती जा रही थीं। यह सब उनकी पोटली के पेट में समाता जा रहा था।
एक कम उम्र की औरत के बुखार से तप रहे बच्चे को देखते हुए बाबा जी ने पूछा - कितने बच्चे हैं? उसने सिर झुकाकर बताया - तीन। उफ्फ, बीस-इक्कीस साल की इस दुबली-पतली कृषकाय लड़कीनुमा औरत को तीन बच्चे? मैं सोच में पड़ गया। बाबा जी ने फिर पूछा - इसे अपना दूध पिलाती हो? उसने जिस प्रकार अपना सिर हिलाया उससे मैं नहीं समझ पाया कि उत्तर हाँ है या ना। उसने कहा- बच्चे की टट्टी भी सूख गयी है। बाबा जी बोले - अभी इसका बुखार उतार रहा हूँ। जब बुखार उतर जाय तब आना। तब वह भी देख लेंगे। उसने पॉलीथिन का आटा और दो-तीन सिक्के बाबा जी को थमाये और उठ खड़ी हुई।
मैंने अगले बच्चे से पहले बाबाजी को टोका- आप किन-किन तकलीफों का इलाज करते हैं बाबा जी?
वे बोले- कोई भी तकलीफ हो जो लोग आते हैं उनकी मदद कर देता हूँ। वैसे छोटे बच्चे जिन्हें 'सूखा' हो गया हो, बुखार हो, खाते-पीते न हों उनके लिए कुछ कर देता हूँ।
मैंने पूछा- क्या कुछ? मतलब झाड़-फूँक? क्या सही में फायदा होता है? 
बाबाजी थोड़े अनमने हो गये। लेकिन मेरा यह प्रश्न सबके लिए खुला था। एक लड़के ने स्थानीय बोली (अवधी) में जो कहा उसका अर्थ यह था कि यदि फायदा नहीं होता तो प्रत्येक मंगलवार और रविवार को इतनी भीड़ कैसे लगती? उसकी बात से बाबाजी के चेहरे पर संतुष्टि लौट आयी और नये उत्साह से काम में लग गये। मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही थी।

मैंने बाबाजी से फोटो खींचने की औपचारिक अनुमति मांग ली। उन्होंने मना नहीं किया बल्कि सहर्ष पोज देने लगे।हालाँकि इसके पहले ही अनेक फोटो मेरे मोबाइल कैमरे में कैद हो चुके थे।
मैंने जब उनका नाम पूछा तो थोड़े असहज हो गये। फिर बोले- मेरा नाम कोई नहीं जानता, लेकिन मुझे जानते सब हैं। यहाँ यह काम और कोई तो करता नहीं है। बस यह जान लीजिए कि हम पंडित हैं। इसी गाँव (भुएमऊ) के। इतवार-मंगल को यहीं मिलते हैं।
मैंने कहा- फिर भी कोई नाम तो होगा आपका। मान लीजिए बाहर किसी को बताना हो तो कैसे बताया जाएगा? आप इतनी भलाई का काम कर रहे हैं। लोगों को पता कैसे चलेगा?
वहाँ उपस्थित ग्रामीणों ने मेरे समर्थन में सिर हिलाया। एक लड़के ने कहा-इसे ले जाकर व्हाट्सअप पे डाल दीजिए। (उसे शायद फेसबुक की कल्पना नहीं थी।) अब बाबा जी पसीजकर बोले- नाम तो मेरा शिवदास है। 
मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और उन सबको अपने पीछे दिखाते हुए सेल्फी ली और चल पड़ा।

मेरे दिमाग में अभी यह चल ही रहा था कि क्या यहाँ वाकई कोई अदृश्य, अलौकिक शक्ति है जो इस बाबा के हाथों की धूल के माध्यम से इन नवजात शिशुओं की बीमारी ठीक कर देती है। क्या वास्तव में इन बच्चों पर किसी भूत-प्रेत की छाया है जिसे बाबा शिवदास नियंत्रित कर रहे हैं? तभी मैंने देखा कि मेरी साइकिल की चेन उतर गयी है। अच्छी-भली खड़ी करके गया था। फिर यह उतर कैसे गयी और अंदर की ओर स्पॉकिट में बुरी तरह फँस कैसे गयी? मन मे उठी भूत की क्षणिक आशंका को मैंने सिर झटक कर नकारा और चेन चढ़ाने में पसीना बहाने लगा। बड़ी मुश्किल से बात बनी। मेरे दोनो हाथ ग्रीस की कालिख से काले हो गये। अब हैंडल कैसे पकड़ूँ? मैंने जमीन से सूखी मिट्टी उठाकर दोनो हाथों में रगड़ा तो कालिख का गीलापन खत्म हो गया। इसके बाद वहीं झाड़ी से कुछ हरी पत्तियां तोड़कर उन्हें हाथ मे मसलने लगा।
हाथ की कालिख कुछ कम हुई तो मैं चलने को उद्यत हुआ। तभी पैर उछालकर साइकिल की सीट पर बैठते हुए 'चर्र...' की आवाज हुई। धत तेरे की...। बिल्कुल नयी पैंट थी। 'कलर-प्लस' के स्पेशल डिस्काउंट ऑफर में पिछले हफ्ते ही लिया था। अब इसकी मजबूत सिलाई करानी पड़ेगी। यह सोचते हुए मैं सीट पर आसीन हो चुका था। अब घर पहुंचने से पहले कहीं रुकने की कोई गुंजाइश नहीं थी। बाबाजी से पिटी हुई कोई आत्मा मुझे तंग तो नहीं कर रही थी?











(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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शनिवार, 3 जून 2017

महुए पर काबिज माफिया बन्दर

आज साइकिल का मूड शहर की ओर जाने का हुआ तो मैं घर से निकल कर इलाहाबाद जाने वाले हाईवे को 'मामा चौराहे' पर पार करते हुए रेलवे क्रॉसिंग के उस पार जेलरोड पर चला गया। आजकल यहाँ ओवर-ब्रिज का निर्माण तेजी से हो रहा है। रास्ता बंद कर दिया गया है। लेकिन साइकिल और मोटरसाइकिल वालों को कोई भी अवरोध आगे बढ़ने से भला कैसे रोक सकता है? आड़े-तिरछे घुसाकर निकाल ही लेते हैं।
जेलरोड पर टहलने वालों की आवाजाही सुबह अंधेरा छँटते ही शुरू हो जाती है। बुजुर्ग और महिलाएँ पहले निकलती हैं। ये सई नदी के किनारे बने शहीद स्मारक की ओर रुख करते हैं। लड़के-लड़कियां और नौजवान थोड़ी देर से निकलकर स्टेडियम की ओर जाते हैं। वैसे कुछ अपवाद भी हैं।
जेल रोड के किनारे गाय-भैंस पालने वाले घोषियों की खटाल है और छोटे-बड़े कई अस्पताल हैं। सड़क पर दूध का डिब्बा लेकर टहलने वाले भी दिखते हैं और अस्पतालों के आस-पास चाय-बिस्कुट की दुकानों पर पतले पॉलीथीन की थैली में गर्म चाय भरवाते मरीजों के तीमारदार भी। एक बीमारी ठीक कराते और दूसरी को दावत देते लोग।
आज भी साई (Sports Authorityof India) प्रांगण में बने मंदिर के चबूतरे पर बैठी बुजुर्गों की टोली बाबा रामदेव की बतायी योगक्रिया को साध रही थी और उसके आगे राज्य सरकार के मोतीलाल नेहरू स्टेडियम के गेट पर खड़ी असंख्य साइकिलें और बाइक्स बता रही थीं कि अंदर बड़ी संख्या में लोग स्वस्थ बने रहने की जद्दोजहद में लगे हैं। इसका बड़ा गेट बन्द था जिसके पेट में एक छोटा सा द्वार खुला था। इस द्वार में पैदल घुसने वालों की कतार बन गयी थी। मैंने यहाँ साइकिल नहीं रोकी और कानपुर हाईवे की ओर चलता रहा।
आगे राजघाट पड़ता है जहाँ सूखने के कगार पर पहुंची हुई सई नदी पर एक जर्जर पुल भारी-भरकम ट्रकों व अन्य वाहनों को रास्ता दे रहा है। इसके बगल में वर्षों से निर्माणाधीन नया पुल अभी चालू नहीं हो सका है। हालांकि इस बीच काम बहुत तेजी से हुआ है। पिछली बार मैंने इसके खंभे बनते देखे थे। इसबार पुल पूरा बन चुका है लेकिन इसे मुख्य सड़क से जोड़ने का काम अभी बाकी है। मैं इस उम्मीद के साथ आगे बढ़ गया कि अगली बार इधर से आऊंगा तो नये पुल का मजा लूंगा। करीब दो सौ मीटर आगे दरीबा तिराहे तक जाने में मुझे आगे-पीछे पों-पों करते ट्रकों और बसों की गति से सावधान होना पड़ा। इस रंगी-पुती पक्की और पर्याप्त चौड़ी सड़क पर मेरा निबाह नहीं था। मारे डर के मैं किनारे की कच्ची पगडंडी पर ही चलता रहा।
दरीबा तिराहे से मुड़कर कटघर की ओर जाने वाली सड़क खूब हरे-भरे पेडों से आच्छादित है। यहाँ सुबह की ठंडी और स्वच्छ हवा ऑक्सीजन से भरपूर मिलती है। पूरा शहर पार करके भी यहाँ तक आना सुखदायी है।
आगे बढ़ा तो सड़क किनारे एक रोचक दृश्य मिला। एक बड़े से महुए के पेड़ के नीचे दर्जन भर काले बंदर बैठे हुए जमीन से कुछ बीन-बीनकर मुँह में भर रहे थे। उनसे थोड़ी दूरी बनाकर तीन-चार कुत्ते भौंक रहे थे लेकिन उनमें पेड़ के नीचे जाने की हिम्मत नहीं थी। एक अधेड़ आदमी वहीं पर खाट डाले बैठा हुआ था जो शायद महुए की रखवाली में था। मैंने भी साइकिल रोकी। इस अद्भुत नज़ारे की तस्वीर लेना चाह रहा था लेकिन उन दबंग गुंडे टाइप बंदरों का डर मुझे भी था। कैमरा जूम करके जल्दी में एक बार क्लिक किया और चलता बना।
यदि उस महुए के पेड़ को सरकारी-संपत्ति माना जाय, उस अधेड़ को सिक्योरिटी-गार्ड और उस श्वान दल को पुलिस फोर्स तो बंदरो की गतिविधि उस माफिया जैसी दिख रही थी जो बेधड़क लूट-और कब्जे का काम करते रहते हैं और कोई उनको रोक नहीं पाता है। थोड़ी देर बाद जब मैं वापस लौटा तो सारे बंदर पेड़ पर चढ़ चुके थे और डालियों से फल-फूल इत्यादि तोड़ रहे थे। कुत्ते पेड़ के नीचे आकर ऊपर की ओर मुंह उठाये हांफे जा रहे थे। भौंकना भी प्रायः बन्द हो गया था। मुझे भी रुककर फोटो खींचने में खतरा जान पड़ा।
आगे सड़क की हरियाली बहुत मनमोहक थी। साइकिल व बाइक पर कुछ लोग आते-जाते मिले। नख-शिख ढंकी हुई एक लड़की साइकिल से शहर की ओर जा रही थी। एक युवक साइकिल पर जानवरों के लिए हरे चारे का गठ्ठर दबाये जा रहा था। एक सज्जन तीन बच्चों और एक पत्नी को तीन-चार झोलों समेत लादे हुए धुंआ छोड़ती मोटरसाइकिल से शायद किसी रिश्तेदारी से लौटते दिखे। वो इतनी तेजी में थे कि फोटो न ले सका। लेकिन एक दूसरे सज्जन बहुत इत्मीनान में दिखे। सड़क से थोड़ी ही दूर गेंहू की कटाई के बाद खाली हो चुके खेत में एक बिजली के पोल की 'आड़' लेकर उकड़ू बैठे हुए थे। मोबाइल पर व्यस्त थे। शायद फेसबुक या व्हाट्सएप्प के संदेशों को निपटा रहे होंगे। बगल में रखा पानी का डब्बा संकेत दे रहा था कि वहाँ बैठकर वे कुछ और भी निपटा रहे थे। लगता है उन्होंने इस सरकारी संदेश को अपने पर लागू होता नहीं माना है जिसमें कहा गया है - "बहू-बेटियाँ दूर न जायें, घर में शौचालय बनवायें।" सरकार को सर्व-समावेशी नारे गढ़ने चाहिए।
मैं उस आम के बाग में भी गया जहाँ से पिछले साल पेड़ की पकी दशहरी लेकर आया था। इस बार केवल दो पेड़ों में आम लटकते दिखे। बाकी पेड़ों में नयी पत्तियां हरियाली फैला रही थीं। रखवाला पहचान गया। बता रहा था कि थोड़े से आमों के चक्कर में यहाँ फँसे पड़े हैं। मालिक नखलौ (लखनऊ) चले गये हैं। लौटकर आएंगे तब आम तोड़े जाएंगे। मैं खाली हाथ वापस आ गया। सड़क किनारे एक आदमी चारा-मशीन पर हरे बाजरे की कटाई कर रहा था। अकेले ही डोंगे में चारा घुसेड़ता और फिर चक्का घुमाता। अकेले चारा-मशीन चलाना बहुत श्रमसाध्य काम है जो दो व्यक्तियों के लिए बहुत आसान हो जाता है। लेकिन मेहनतकश किसी सहायक की बाट नहीं जोहते।
आप इस साइकिल यात्रा से जुड़ी कुछ रोचक तस्वीरें देखिए और मुझे दूसरे मित्रों के संदेश निपटाने की इजाज़त दीजिए। नमस्कार।














(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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शुक्रवार, 2 जून 2017

बालमखीरा के दर्शन

आज सुबह साइकिल की सैर से लौट रहा था तो रायबरेली के कानपुर बाईपास रोड पर जिसे जेलरोड भी कहते हैं, सड़क किनारे एक ऐसी चीज़ सुखाई जा रही थी जो मैंने पहले कभी नहीं देखा था। उत्सुकतावश मैंने साइकिल रोक दी। गोल-गोल टिकिया नुमा इस सूखी हुई मटमैली सामग्री को दो लोग उलट-पुलट रहे थे। 
पूछने पर उन्होंने ने बताया - इसे 'बालम खीरा' कहते हैं। यह जड़ी-बूटी है। इससे दवाई बनती है। 
मैंने पूछा - क्या यह खीरा-ककड़ी की तरह लताओं में पैदा होती है? 

उन्होंने बताया - नहीं, यह पेड़ पर फलता है। इसे जंगल से तोड़कर हम लोग ले आते हैं। इनका मालिक पेड़ से तोड़ने के बदले पैसे लेता है। इसे सुखाकर तौला जाता है और पांच-छः रुपए किलो के हिसाब से इसे बेचा जाता है। 
मैंने पूछा - कौन सी दवा बनती है? जमुना प्रसाद ने बताया कि इससे पथरी गलाने की दवा बनती है। 
मैं जब इस जड़ी-बूटी वाली टिकिया की तस्वीरें लेने लगा तो जमुना प्रसाद ने कहा - रुकिए मैं आपको साबुत बालम-खीरा दिखाता हूँ। वे घर के भीतर से एक बालम खीरा लेकर निकले और बोले कि इससे 4 गुना बड़ा भी होता है, 20-25 किलो का भी होता है। अभी तो यह एक छोटा सा नमूना है।







सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
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