(29.06.2017)
आज परसदेपुर मार्ग पर इंदिरानहर के पुल की चढ़ाई शुरू करने वाला था तभी दाहिनी ओर एक नयी-नवेली ग्रामीण सड़क दिखायी दे गयी। देखने से लग रहा था कि इसकी 'पेंटिंग' अभी एक-दो सप्ताह के भीतर ही हुई होगी। शायद योगी सरकार के गढ्ढा-मुक्ति अभियान के अंतर्गत। मैंने पीछे देखकर किसी सवारी के न आने की तसल्ली करते हुए साइकिल दाहिनी ओर इस नयी सड़क पर मोड़ दी। सड़क के दोनों ओर खूब हरियाली थी। मन प्रसन्न हो गया। एक तो चढ़ाई चढ़ने से बच गया था और दूसरे सुनसान सड़क पर हरियाली और स्वच्छता के बीच इस नयी राह पर कुछ नया देखने का लाभ मिल रहा था।
इधर सड़क के किनारे कुछ एकल मकान दिख रहे थे जो गाँव की घनी बस्ती से बाहर आकर बनाये गये लग रहे थे। समकोण पर बनी चारदीवारी और गेट के भीतर बने पक्के मकान। जानवर इत्यादि पालने का पूरा प्रबंध एक सलीके से। निश्चित ही गाँव के भीतर घनी बस्ती में निवास की कठिनाई से अब खेती की जमीन पर नये मकानों का कब्ज़ा होने लगा है। साथ ही बाग-बगीचे काटकर खेती के लिए जमीन बढ़ायी जा रही है। धरती पर जनसंख्या के दबाव की एक भौतिक तस्वीर मेरे सामने थी। मेरे मन में इस गाँव का नाम जानने की जिज्ञासा पैदा हो रही थी तभी एक बोर्ड पर "रामनगर (ग्रामसभा जगदीशपुर) रामप्रताप यादव की याद में" लिखा हुआ मिला। मैं मुस्कराकर आगे बढ़ गया।
थोड़ी दूर बाद ही सड़क पर से तारकोल व बारीक बजरी की नयी परत समाप्त हो गयी और उसका पुराना रूप सामने आ गया। लेकिन सड़क में गढ्ढे फिर भी नहीं थे। आगे सड़क बायीं ओर मुड़ी तो थोड़ी दूरी पर एक विशाल बरगद का पेड़ दिखा जो एक सिकुड़ते हुए तालाब के किनारे जाने कितने सालों से खड़ा था। इसकी मोटी-मोटी डालें खुद ही किसी पेड़ के तने जैसी थीं। इनसे अनेक जटाएँ लटक रहीं थी। तालाब में जो थोड़ा पानी बचा हुआ था उसपर हरे रंग की काई जमी हुई थी। पेड़ के नीचे कुछ औरतें खड़ी थीं और एक भैंस बंधी हुई थी। आगे बढ़ा तो रंगा-पुता प्राथमिक विद्यालय बेहटा-खुर्द मिला जो बन्द था। जुलाई में खुलेगा। इस गाँव में समृद्धि के चिह्न दिखायी दे रहे थे। केनरा बैंक की एक शाखा थी। लगभग सभी मकान पक्के थे। चाय-पान और परचून की दुकानें थीं और अधिकांश घरों में दुधारू पशु भी थे। सड़क किनारे एक-दो खटालें भी दिखी जो दूध के व्यावसायिक उत्पादन होने का संकेत दे रही थीं। संयोग से मुझे कोई व्यक्ति खुले में शौच के लिए भी आता-जाता नहीं दिखा। सड़क पर दिखी तो एक महिला जो कमर पर एक खाली टोकरा टिकाये चली आ रही थी। शायद कूड़ा या गोबर फेंक कर आ रही हो। इस काम के दौरान भी उसका घूँघट में चेहरा छिपाकर रखना रोचक था।
जब यह सड़क गाँव के भीतर घुसकर कई शाखाओं में बंटकर विलीन होने लगी तो मैं वापस मुड़ आया। एक जगह गोबर की खाद से एक ट्रॉली भरी जा रही थी जिसमें ट्रैक्टर जुता हुआ था। भरे हुए गढ्ढे से खाद उठाकर ट्रॉली में भरने का काम औरतें, बच्चे और मर्द मिलकर कर रहे थे। यह जरूर कोई खाता-पीता, सम्पन्न व परिश्रमी गृहस्थ परिवार रहा होगा। वापस लौटते हुए मैंने ध्यान दिया कि गेंहूँ की कटाई से खाली हुए खेतों में गोबर की खाद की ढेरियां लगी हुई हैं। इन्हें कुदाल से फैलाकर जोत दिया जाएगा और बारिश का पानी पाकर मिट्टी अधिक उर्वर हो जाएगी। यह जैविक खाद फसल के लिए कृत्रिम रासायनिक उर्वरकों से बेहतर तो होती ही है, यह पर्यावरण के संरक्षण में भी सहायक है।
एक खेत के किनारे एक झोपड़ी का भग्नावशेष देखकर मैं रुक गया। खेत खाली था जिसमें गोबर की खाद गिरायी गयी थी। इसमें मक्का या ऐसी ही कोई अन्य फसल रही होगी जिसकी रखवाली के लिए यह झोपड़ी डाली गयी होगी। रखवाली का काम हो जाने के बाद इसे इसके हाल पर छोड़ दिया गया था तो यह यूँ क्षत-विक्षत हो गयी थी जैसे बॉर्डर के किसी पाकिस्तानी चौकी पर बीएसएफ ने हमला करके ध्वस्त कर दिया हो।
मैंने आज ज्यादा तस्वीरें नहीं ली। मनोरम प्रकृति के बीच आनंदित होकर और स्वच्छ ऑक्सीजन में भरपूर सांस लेकर वापस आ गया। फिर भी एक-दो दृश्यों ने बरबस ही मेरे मोबाइल कैमरे को जेब से बाहर खींच ही लिया। आप भी देखिए।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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