आदरणीय चिठ्ठाकार मित्रों व सभी स्नेही स्वजनों को वर्ष २००९ की हार्दिक शुभ कामनाएं सादर! (सिद्धार्थ) |
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सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी का ब्लॉग
आदरणीय चिठ्ठाकार मित्रों व सभी स्नेही स्वजनों को वर्ष २००९ की हार्दिक शुभ कामनाएं सादर! (सिद्धार्थ) |
आम बोलचाल की भाषा में गालियों के प्रयोग के बहाने एक चर्चा चोखेर बाली पर छिड़ी। दीप्ति ने लूज शंटिंग नामक ब्लॉग पर दिल्ली के माहौल में तैरती गालियों को लक्ष्य करके एक पोस्ट लिखी थी। इसपर किसी की मौज लेती प्रतिक्रिया पर सुजाता जी ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि,
“ जब आप भाषा के इस भदेसपने पर गर्व करते हैं तो यह गर्व स्त्री के हिस्से भी आना चाहिए। और सभ्यता की नदी के उस किनारे रेत मे लिपटी दुर्गन्ध उठाती भदेस को अपने लिए चुनते हुए आप तैयार रहें कि आपकी पत्नी और आपकी बेटी भी अपनी अभिव्यक्तियों के लिए उसी रेत मे लिथड़ी हिन्दी का प्रयोग करे और आप उसे जेंडर ,तमीज़ , समाज आदि बहाने से सभ्य भाषा और व्यवहार का पाठ न पढाएँ। आफ्टर ऑल क्या भाषा और व्यवहार की सारी तमीज़ का ठेका स्त्रियों ,बेटियों ने लिया हुआ है?”
इस प्रतिक्रियात्मक पोस्ट में जो भाषा प्रयुक्त हुई उससे यह लगा कि जैसे पुरुषों ने किसी कीमती चीज पर एकाधिपत्य करके महिलाओं के साथ बेईमानी कर ली हो। जैसे इन्होंने गाली के प्रयोग का विशेषाधिकार लेकर लड़कियों और महिलाओं को किसी बड़े सुख से वंचित कर दिया हो। …यह भी कि अब आधुनिक नारियाँ अपने इस लुटे हुए अधिकार के लिए ताल ठोंककर खड़ी होने वाली हैं।
उम्मीद के मुताबिक जो प्रतिक्रियाएं आयीं उनमें लड़कियों को यह अवगुण अपनाने से मना करने के स्वर ही बहुतायत थे। प्रायः सबने यही कहा कि यह बुराई जहाँ है वहाँ से खत्म करने की बात होनी चाहिए न कि समाज का जो हिस्सा इससे बचा हुआ है उसे भी इसमें रस लेना प्रारम्भ कर देना चाहिए।
लेकिन सुजाता जी ने अपनी यह टेक कायम रखी कि यदि मात्र स्त्री होने के कारण हमें उन कार्यों से वर्जित रखा जाता है जिन्हें पुरुषों को करने की छूट प्राप्त है तो यह सोच का दोगलापन है। इसी दोगलेपन को दूर भगाने के लिए गाली का प्रयोग स्त्री-पुरुष दोनों के लिए समान रूप से स्वीकार्य या अस्वीकार्य होना चाहिए। यानि जबतक पुरुष इसका प्रयोग बन्द नहीं करते तबतक स्त्रियों को भी इसका प्रयोग सहज रूप से करने का हक बनता है।
इसे जब मैने एक मित्र को बताया तो वह तपाक से बोला कि मैं तो जाड़े की धूप में नंगे बदन सरसो का तेल लगाकर बाहर लान में बैठता हूँ, और कभीकभार शहर की अमुक बदनाम गलियों में होने वाले इशारों को देखकर मुस्कराता हुआ उस बाजार का साइकिल से चक्कर लगा आता हूँ। तो क्या ये लड़कियाँ भी यह छूट लेना चाहेंगी।
सुजाता जी के इस दृष्टिकोण में वास्तविक समाधान के बजाय मात्र नकारात्मक उग्र प्रतिक्रिया की प्रधानता से असहमत होते हुए तथा घुघूती बासूती जी की अर्थपूर्ण टिप्पणी से सहमत होते हुए इस ब्लॉग पोस्ट पर मैने यह टिप्पणी कर दी -
@वैसे बेहतर तो यह होगा कि हम पुरुषों के रंग में रंगने की बजाए पुरुषों को अपने रंग मे रंग दें। बात अति आशावादी तो है परन्तु असम्भव भी नहीं।
घुघूती बासूती
इस चर्चा की सबसे सार्थक बात यही है।
सुजाता जी,
आपसे यह विनती है कि सभ्यता और संस्कृति के मामले में यदि महिलाओं को पुरुषों से आगे दिखाने वाली कुछ बातें स्वाभाविक रूप से सबके मन में बैठी हुई हैं तो उन्हें ‘दोगलापन’ कहकर गाली की वस्तु न बनाइये।
वस्तुतः यह सच्चाई है कि अश्लील शब्द पुरुष की अपेक्षा महिला के मुँह से निकलने पर अधिक खटकते हैं। केवल हम पुरुषों को नहीं बल्कि असंख्य नारियों को भी। लेकिन मैं इसे दोगलापन कहने के बजाय महिलाओं की ‘श्रेष्ठता’ या पतन की राह में न जाने का सूचक कहूंगा।
स्त्री सशक्तीकरण के जोश में पुरुषों से गन्दी आदतों की होड़ लगाना कहीं से भी नारी समाज को महिमा मण्डित नहीं करेगा। गाली तो त्याज्य वस्तु है। इसमें कैसी प्रतिद्वन्द्विता?गाली देनी ही है तो गाली को ही गाली दीजिए। :)
लेकिन इसकी प्रतिक्रिया में सुजाता जी ने मेरी सोच को ही दोगला बता दिया क्योंकि उन्हें यह बात मानने के लिए वैज्ञानिक तर्क की दरकार है कि अश्लील शब्द पुरुष की अपेक्षा महिला के मुँह से निकलने पर अधिक खटकते हैं।
मैने यह तो कहा नहीं था कि पुरुष के मुँह से निकलकर गालियाँ अमृतवर्षा करती हैं और केवल लड़कियों और महिलाओं के मुँह से निकलकर ही आपत्तिजनक होती हैं। मात्र अपेक्षया अधिक खटकने की बात कहा था मैने जिसके लिए मुझे दोगलेपन के अलंकार से विभूषित होना पड़ा।
मैं ठहरा एक सामान्य बुद्धि का विद्यार्थी। हिन्दी शब्दों और वाक्यों का वही अर्थ समझता हूँ जो स्कूल कॉलेज की किताबों में पढ़ पाया हूँ। लेकिन निम्न सूचनाएं मुझे अपनी अल्पज्ञता का स्मरण दिला रही हैं।
बकौल सुजाता जी-
...“भाषिक व्यंजना को समझने मे आपसे भूल हो रही है ।”...
...“आप अपनी बेटी को जो चाहे वह शिक्षा दें , जब वह बाहर निकलेगी तो बहुत सी बातें स्वयम सीख लेगी, जीना तो उसी ने है दुनिया में”...
...“आप पोस्ट का तात्पर्य सिरे से ही गलत समझ रहे हैं और मै आपसे किसी तरह सहमत नही हो पा रही हूँ ।”...
...“हमारी दिक्कत यह है कि जब तक आप चोखेर बाली को देखने समझने के लिए एक वैकल्पिक सौन्दर्य दृष्टि या आलोचना दृष्टि नही लायेंगे तब तक आप यही सोचते रहेंगे कि सुजाता या अनुराधा या वन्दना या कोई भी चोखेर बाली समाज को तोड़ने और स्त्री के निरंकुश ,बदतमीज़,असभ्य हो जाने की पक्षधर हैं।”...
चलिए गनीमत है कि आधुनिक समाज में नारी सशक्तिकरण, लैंगिक समानता, और महिला अधिकारों का झण्डा उठाए रखने का दायित्व मुझ नासमझ के अनाड़ी हाथों में नहीं है। बल्कि तेज तर्रार और विदुषी चोखेर बालियों के आत्मनिर्भर और सक्षम हाथों में है जिनके पास एक वैकल्पिक सौन्दर्य दृष्टि और आलोचना दृष्टि है।
लेकिन सुजाता जी की यह बात मुझे भ्रम में डाल देती है-
“यह वाकई दयनीय है कि मैने यहाँ जो कुछ भी कहा उसके केन्द्रीय भाव तक काफी कम लोग पहुँच पाए।”
“मान लीजिए आपके सामने लड़कियाँ फटना-फाड़ना जैसे प्रयोग सहज हो कर कर रही हैं तो आप क्या केवल दुखी होकर ,क्या ज़माना आ गया है कहते हुए निकल जायेंगे ? या कान मूंद लेंगे? ...मै चाह रही हूँ आप न कान बन्द करें , न दुखी हों , न दिल पर हाथ रखे ज़माने को कोसें ...आप इसके कारणों को समझने का प्रयास करें और उन्हें दूर करने का प्रयास करें ।”
अरे भाई (क्षमा… बहन!) जब यही कहना था तो इतना लाल-पीला होने की क्या जरूरत थी? यह तो सभी पंचों की राय है:)
(सिद्धार्थ)
माली को गुलाब के पौधों की छटाई करते देखा। कल तक जिन डालियों में गुलाब के फूल खिले हुए थे आज उन्ही को काट कर हटाया जा रहा था।
जड़ द्वारा मिट्टी से खुराक लेकर उन डालियों में पत्तियाँ विकसित हुई थीं। उन हरी पत्तियों ने सूर्य के प्रकाश से भोजन बनाया था। प्रदूषण घटाया था। इन्हीं पत्तियों के बीच डालियों से गुलाब की कलियाँ निकली। कलियों को खिलकर फूल बनने के लिए जो पानी और पोषण चाहिए था वह इन डालियों की धमनियों से होकर ही आया होगा। हवा के साथ झूमकर इन डालियों ने फूल को झूला झुलाया था। हवा के झोकों के झटके को जज्ब करके फूलों को यथासम्भव टूटने और गिरने से बचाया था।
फिर समय बदला, मौसम बदला। डालियाँ पुरानी पड़ गयीं। पत्तियाँ पुरानी पड़ गयीं। अब इन टहनियों से नये फूल निकलने की सम्भावना जाती रही। इनमें जो हरियाली का जीवन बचा था वह किसी काम का नहीं था। इसलिए इन्हें काट कर अलग किया जा रहा था ताकि इनकी जगह नयी टहनियाँ निकल सकें और नये फूल खिल सकें।
गाँव में बूढ़ी गायों और भैसों को कसाई के हाथों बिकते देखा है। दूध और बछड़ा देने की सम्भावना मिटने के बाद उनका जीवन भी यूँ समाप्त कर दिया जाता है। पहले इनकी मृत्यु होने पर जमीन में गाड़ दिया जाता था। लेकिन अब इनके मांस हड्डी और चमड़े की नगद कीमत वसूल कर ली जाती है।
पश्चिम की ओर से आती ‘विकास की हवाएं’ बता रही हैं कि अब वहाँ बुजुर्गों को घर से अलग वृद्धाश्रम में रखने का चलन बढ़ गया है। ये हवाएं हमारे देश में भी बहने लगी हैं।
मनुष्य का अब अगला कदम क्या होगा?
(सिद्धार्थ)
…इस निष्क्रियता के लिए संविधान को जिम्मेदार ठहराना अनुचित होगा.गलती संविधान की धाराओं में नही, बल्कि उनके स्वयंसिद्ध इंटरप्रेटशंस की है. ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार हमारी धर्मान्धता और कट्टरता के लिए उदारवादी वेदों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता.
मेरे विचार से आवश्यकता संविधान में परिवर्तन की नहीं, अपितु उसको क्लेअर -कट परिभाषित करने की है….
आदरणीय प्रधानमंत्री जी,
मैं मुम्बई में रहने वाला खास किस्म का अदना सा प्राणी हूँ। चाहें तो चूहा समझ लीजिए। मुम्बई ‘लोकल’ के डिब्बे में 500 दूसरे चूहों के साथ सफ़र करता हूँ। भले ही ये डिब्बे 100 आदमियों के लिये बने हो। अलबत्ता हम असली चूहों की तरह चिचिया नहीं सकते। खैर….
आज मैंने आपका भाषण सुना। इसमें आपने कहा- “किसी को बख्शा नहीं जाएगा”। मुझे आपको याद दिलाने का मन हो रहा है कि इसी मुम्बई में सीरियल बम धमाकों की घटना घटे चौदह साल हो गए। दाऊद मुख्य षड़यंत्रकारी था। उसे आज के दिन तक पकड़ा नहीं जा सका है। हमारे तमाम फ़िल्मी-सितारे, बिल्डर और गुटखा किंग उससे मिलते रहते हैं; लेकिन आपकी सरकार उसे नही पा सकती। इसका कारण बहुत स्पष्ट है- आपके सारे मंत्री गुप-चुप उसके साथ हैं। यदि उसको सही में पकड़ लिया जाएगा तो बहुतों की कलई खुल जाएगी। भारत के अभागे लोगों के लिए आपका यह वक्तव्य कि “किसी को बख्शा नहीं जाएगा” बड़ा ही क्रूर मजाक है।
अब तो हद की भी हद हो गई है। जिस प्रकार करीब एक दर्जन लड़कों ने इस आतंकी हमले को अंजाम दिया है, उससे मुझे लगता है कि अगर ऐसे ही चलता रहा तो वह दिन दूर नही जब आतंकी हवाई हमले करेंगे और हमारे परमाणु ठिकानों पर बम-वर्षा करके एक और ‘हिरोशिमा’ दुहरा देंगे।
हम भारत के लोगों की अब एक ही नियति रह गयी है- “पैदा होने के बाद बम से मारे जाना और दफन हो जाना” (womb to bomb to tomb) आपने तो मुम्बई वालों को ‘शंघाई’ का वादा किया था, लेकिन दे दिया ‘जलियावाला बाग’।
आज ही आपके गृहमंत्री ने इस्तीफ़ा दिया। बताइए न, आपको इस जोकर को लात मार कर बाहर निकालने में इतनी देर क्यों लगी ? इसका एक ही कारण था कि वह गांधी राजपरिवार के प्रति वफ़ादार था। इसका मतलब यही है न कि गांधी परिवार की वफ़ादारी मासूम लोगों के खून से ज्यादा महत्वपूर्ण है।
मैं 58 साल पहले मुम्बई में पैदा हुआ और तबसे यहीं पला-बढा हूँ। आप मेरा यकीन करिए कि महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार बिहार से भी खराब है। यहाँ के सभी नेताओं को देख लीजिए- शरद पवार, छगन भुजबल, नारायण राणे, बाल ठाकरे, गोपीनाथ मुण्डे, राज ठाकरे, विलासराव देशमुख, सब के सब धन में लोट रहे हैं।
अबतक मैने जितने मुख्यमन्त्री देखे हैं उनमें विलासराव देशमुख सबसे घटिया मुख्यमन्त्रियों में से एक है। उसका एक मात्र धन्धा प्रत्येक दूसरे दिन FSI(?) बढ़ाना है, उसमें पैसा बनाना है, और उसमें से दिल्ली भेजना है ताकि कांग्रेस अगला चुनाव लड़ सके।इस मसखरे को एक नया रास्ता मिल गया है। अब यह मछुआरों के लिए FSI बढ़ा देगा जिससे वे समुद्री किनारे पर पक्का मकान बना सकें। अगली बार आतंकवादी आराम से उन घरों में रह सकेंगे, समुद्र की सुन्दरता का मजा ले सकेंगे और मनचाहे तरीके से मुम्बई पर हमला कर सकेंगे।
हाल ही में मुझे मुम्बई में घर खरीदना हुआ। मैं करीब दो दर्जन बिल्डरों से मिला। सभी मुझसे ३०प्रतिशत कीमत कालेधन में चाहते थे। मेरे जैसा आम आदमी जब इस बात को जानता है, तब भी आप और आपके वित्त मन्त्री जी तथा आपकी सी.बी.आई. और तमाम खुफिया एजेन्सियाँ इससे अनभिज्ञ हैं। यह सब का सब कालाधन कहाँ जाता है? इसी अण्डरवर्ड में ही न? हमारे राजनेता इन्हीं गुण्डों की मदद से लोगों की जमीन खाली कराते हैं। मैं खुद इसका भुक्तभोगी हूँ। अगर आपके पास समय है तो मेरे पास आइए। मैं आपको सबकुछ बताउंगा।
अगर यह देश केवल मूर्खॊं और पगलेटों का होता, तो मैं यह पत्र आपको लिखने के बारे में सोचता ही नहीं। यह विडम्बना देखिए कि एक तरफ लोग कितने प्रतिभाशाली हैं कि हम चाँद पर जा रहे हैं, तो दूसरी तरफ आप नेताओं ने ‘अमृत’ को जानलेवा ‘जहर’ बना दिया।
मैं कुछ भी हो सकता हूँ- हिन्दू, मुसलमान, अनुसूजित, पिछड़ा, अनुसूचित ईसाई, क्रीमी लेयर आदि-आदि। बस मैं एक वर्ग में अपनी पहचान नहीं बता सकता- ‘भारतीय’। आप नेताओं ने `बाँटो और राज करो’ की नीति से भारतमाता के हर हिस्से के साथ दुराचार किया है। कुछ तत्व मुम्बई को उत्तर-दक्षिण के बीच बाँटने मेंलगे हुए थे। ये पिछले हफ्ते से कहीं छिपकर आराम फरमा रहे हैं। जैसे चूहा बिल में घुस जाता है। एक महीना पहले उनकी करतूतें भी किसी आतंकवादी से कम नहीं थीं। बस गोलियों का अन्तर था
हमारे पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे.कलाम जी का उदाहरण देखिए। क्या प्रतिभाशाली व्यक्तित्व रहा है उनका, और कितने उम्दा इन्सान हैं वे….! लेकिन आप नेताओं ने उनको भी नहीं बख्शा। आपकी पार्टी ने विपक्षी पार्टियों से हाथ मिलाकर उन्हें चलता कर दिया। क्योंकि राजनेता ये महसूस करते हैं कि वे ही सर्वोच्च हैं और किसी भले आदमी के लिए यहाँ कोई जगह नहीं है।
तो, प्यारे पी.एम. जी, आप स्वयं भी अत्यन्त बुद्धिमान और सबसे अधिक पढ़े-लिखे लोगों में गिने जाते हैं। बस, अब जाग जाइए, एक सच्चा सरदार बन जाइए। सबसे पहले तमाम स्वार्थी नेताओं को नंगा कर दीजिए, स्विस बैंक से सभी भारतीय खाताधारकों का नाम मांग लीजिए। सी.बी.आई. की बागडोर किसी स्वतन्त्र एजेन्सी को सौंप दीजिए। उसे हमारे बीच छिपे हुए भेड़ियों का पता लगाने दीजिए। कुछ राजनीतिक उठापटक जरूर होगी। लेकिन हम यहाँ जो मौत का नंगा नाच देख रहे हैं, उससे तो यह बेहतर ही होगा।
आप हमें एक ऐसा माहौल दीजिए जहाँ हम बिना किसी डर के ईमानदारी से अपना काम कर सकें। कानून का राज तो कायम करिए। बाकी बातें अपने आप ठीक हो जाएंगी।
अब चुनाव आप को करना है। आप एक व्यक्ति के पीछे-पीछे चलना चाहते हैं कि १०० करोड़ व्यक्तियों के आगे चलकर उनका नेतृत्व करना चाहते हैं।
प्रकाश बी. बजाज
चन्द्रलोक ‘ए’ विंग
फ्लैट संख्या- १०४
९७,नेपियन सागर मार्ग
मुम्बई-४०००३६ दूरभाष: ०९८२१०-७११९४