हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

बुधवार, 31 दिसंबर 2008

वर्ष २००९ शुभ हो.... जय हिन्द !!!

 
 
 
आदरणीय चिठ्ठाकार मित्रों
व सभी
स्नेही स्वजनों को
वर्ष २००९
की हार्दिक शुभ कामनाएं
सादर!
 
(सिद्धार्थ)

सोमवार, 29 दिसंबर 2008

गाली के बहाने दोगलापन...।

आम बोलचाल की भाषा में गालियों के प्रयोग के बहाने एक चर्चा चोखेर बाली पर छिड़ी। दीप्ति ने लूज शंटिंग नामक ब्लॉग पर दिल्ली के माहौल में तैरती गालियों को लक्ष्य करके एक पोस्ट लिखी थी। इसपर किसी की मौज लेती प्रतिक्रिया पर सुजाता जी ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि,

“ जब आप भाषा के इस भदेसपने पर गर्व करते हैं तो यह गर्व स्त्री के हिस्से भी आना चाहिए। और सभ्यता की नदी के उस किनारे रेत मे लिपटी दुर्गन्ध उठाती भदेस को अपने लिए चुनते हुए आप तैयार रहें कि आपकी पत्नी और आपकी बेटी भी अपनी अभिव्यक्तियों के लिए उसी रेत मे लिथड़ी हिन्दी का प्रयोग करे और आप उसे जेंडर ,तमीज़ , समाज आदि बहाने से सभ्य भाषा और व्यवहार का पाठ न पढाएँ। आफ्टर ऑल क्या भाषा और व्यवहार की सारी तमीज़ का ठेका स्त्रियों ,बेटियों ने लिया हुआ है?”

इस प्रतिक्रियात्मक पोस्ट में जो भाषा प्रयुक्त हुई उससे यह लगा कि जैसे पुरुषों ने किसी कीमती चीज पर एकाधिपत्य करके महिलाओं के साथ बेईमानी कर ली हो। जैसे इन्होंने गाली के प्रयोग का विशेषाधिकार लेकर लड़कियों और महिलाओं को किसी बड़े सुख से वंचित कर दिया हो। …यह भी कि अब आधुनिक नारियाँ अपने इस लुटे हुए अधिकार के लिए ताल ठोंककर खड़ी होने वाली हैं।

उम्मीद के मुताबिक जो प्रतिक्रियाएं आयीं उनमें लड़कियों को यह अवगुण अपनाने से मना करने के स्वर ही बहुतायत थे। प्रायः सबने यही कहा कि यह बुराई जहाँ है वहाँ से खत्म करने की बात होनी चाहिए न कि समाज का जो हिस्सा इससे बचा हुआ है उसे भी इसमें रस लेना प्रारम्भ कर देना चाहिए।

लेकिन सुजाता जी ने अपनी यह टेक कायम रखी कि यदि मात्र स्त्री होने के कारण हमें उन कार्यों से वर्जित रखा जाता है जिन्हें पुरुषों को करने की छूट प्राप्त है तो यह सोच का दोगलापन है। इसी दोगलेपन को दूर भगाने के लिए गाली का प्रयोग स्त्री-पुरुष दोनों के लिए समान रूप से स्वीकार्य या अस्वीकार्य होना चाहिए। यानि जबतक पुरुष इसका प्रयोग बन्द नहीं करते तबतक स्त्रियों को भी इसका प्रयोग सहज रूप से करने का हक बनता है।

इसे जब मैने एक मित्र को बताया तो वह तपाक से बोला कि मैं तो जाड़े की धूप में नंगे बदन सरसो का तेल लगाकर बाहर लान में बैठता हूँ, और कभीकभार शहर की अमुक बदनाम गलियों में होने वाले इशारों को देखकर मुस्कराता हुआ उस बाजार का साइकिल से चक्कर लगा आता हूँ। तो क्या ये लड़कियाँ भी यह छूट लेना चाहेंगी।

सुजाता जी के इस दृष्टिकोण में वास्तविक समाधान के बजाय मात्र नकारात्मक उग्र प्रतिक्रिया की प्रधानता से असहमत होते हुए तथा घुघूती बासूती जी की अर्थपूर्ण टिप्पणी से सहमत होते हुए इस ब्लॉग पोस्ट पर मैने यह टिप्पणी कर दी -

@वैसे बेहतर तो यह होगा कि हम पुरुषों के रंग में रंगने की बजाए पुरुषों को अपने रंग मे रंग दें। बात अति आशावादी तो है परन्तु असम्भव भी नहीं।
घुघूती बासूती
इस चर्चा की सबसे सार्थक बात यही है।
सुजाता जी,
आपसे यह विनती है कि सभ्यता और संस्कृति के मामले में यदि महिलाओं को पुरुषों से आगे दिखाने वाली कुछ बातें स्वाभाविक रूप से सबके मन में बैठी हुई हैं तो उन्हें ‘दोगलापन’ कहकर गाली की वस्तु न बनाइये।
वस्तुतः यह सच्चाई है कि अश्लील शब्द पुरुष की अपेक्षा महिला के मुँह से निकलने पर अधिक खटकते हैं। केवल हम पुरुषों को नहीं बल्कि असंख्य नारियों को भी। लेकिन मैं इसे दोगलापन कहने के बजाय महिलाओं की ‘श्रेष्ठता’ या पतन की राह में न जाने का सूचक कहूंगा।
स्त्री सशक्तीकरण के जोश में पुरुषों से गन्दी आदतों की होड़ लगाना कहीं से भी नारी समाज को महिमा मण्डित नहीं करेगा। गाली तो त्याज्य वस्तु है। इसमें कैसी प्रतिद्वन्द्विता?

गाली देनी ही है तो गाली को ही गाली दीजिए। :)

लेकिन इसकी प्रतिक्रिया में सुजाता जी ने मेरी सोच को ही दोगला बता दिया क्योंकि उन्हें यह बात मानने के लिए वैज्ञानिक तर्क की दरकार है कि अश्लील शब्द पुरुष की अपेक्षा महिला के मुँह से निकलने पर अधिक खटकते हैं।

मैने यह तो कहा नहीं था कि पुरुष के मुँह से निकलकर गालियाँ अमृतवर्षा करती हैं और केवल लड़कियों और महिलाओं के मुँह से निकलकर ही आपत्तिजनक होती हैं। मात्र अपेक्षया अधिक खटकने की बात कहा था मैने जिसके लिए मुझे दोगलेपन के अलंकार से विभूषित होना पड़ा।

मैं ठहरा एक सामान्य बुद्धि का विद्यार्थी। हिन्दी शब्दों और वाक्यों का वही अर्थ समझता हूँ जो स्कूल कॉलेज की किताबों में पढ़ पाया हूँ। लेकिन निम्न सूचनाएं मुझे अपनी अल्पज्ञता का स्मरण दिला रही हैं।

बकौल सुजाता जी-

...“भाषिक व्यंजना को समझने मे आपसे भूल हो रही है ।”...

...“आप अपनी बेटी को जो चाहे वह शिक्षा दें , जब वह बाहर निकलेगी तो बहुत सी बातें स्वयम सीख लेगी, जीना तो उसी ने है दुनिया में”...

...“आप पोस्ट का तात्पर्य सिरे से ही गलत समझ रहे हैं और मै आपसे किसी तरह सहमत नही हो पा रही हूँ ।”...

...“हमारी दिक्कत यह है कि जब तक आप चोखेर बाली को देखने समझने के लिए एक वैकल्पिक सौन्दर्य दृष्टि या आलोचना दृष्टि नही लायेंगे तब तक आप यही सोचते रहेंगे कि सुजाता या अनुराधा या वन्दना या कोई भी चोखेर बाली समाज को तोड़ने और स्त्री के निरंकुश ,बदतमीज़,असभ्य हो जाने की पक्षधर हैं।”...

चलिए गनीमत है कि आधुनिक समाज में नारी सशक्तिकरण, लैंगिक समानता, और महिला अधिकारों का झण्डा उठाए रखने का दायित्व मुझ नासमझ के अनाड़ी हाथों में नहीं है। बल्कि तेज तर्रार और विदुषी चोखेर बालियों के आत्मनिर्भर और सक्षम हाथों में है जिनके पास एक वैकल्पिक सौन्दर्य दृष्टि और आलोचना दृष्टि है।

लेकिन सुजाता जी की यह बात मुझे भ्रम में डाल देती है-

“यह वाकई दयनीय है कि मैने यहाँ जो कुछ भी कहा उसके केन्द्रीय भाव तक काफी कम लोग पहुँच पाए।”

“मान लीजिए आपके सामने लड़कियाँ फटना-फाड़ना जैसे प्रयोग सहज हो कर कर रही हैं तो आप क्या केवल दुखी होकर ,क्या ज़माना आ गया है कहते हुए निकल जायेंगे ? या कान मूंद लेंगे? ...मै चाह रही हूँ आप न कान बन्द करें , न दुखी हों , न दिल पर हाथ रखे ज़माने को कोसें ...आप इसके कारणों को समझने का प्रयास करें और उन्हें दूर करने का प्रयास करें ।”

अरे भाई (क्षमा… बहन!) जब यही कहना था तो इतना लाल-पीला होने की क्या जरूरत थी? यह तो सभी पंचों की राय है:)

(सिद्धार्थ)

गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

फूलों की खातिर...?

  फूलों की खातिर

माली को गुलाब के पौधों की छटाई करते देखा। कल तक जिन डालियों में गुलाब के फूल खिले हुए थे आज उन्ही को काट कर हटाया जा रहा था।

जड़ द्वारा मिट्टी से खुराक लेकर उन डालियों में पत्तियाँ विकसित हुई थीं। उन हरी पत्तियों ने सूर्य के प्रकाश से भोजन बनाया था। प्रदूषण घटाया था। इन्हीं पत्तियों के बीच डालियों से गुलाब की कलियाँ निकली। कलियों को खिलकर फूल बनने के लिए जो पानी और पोषण चाहिए था वह इन डालियों की धमनियों से होकर ही आया होगा। हवा के साथ झूमकर इन डालियों ने फूल को झूला झुलाया था। हवा के झोकों के झटके को जज्ब करके फूलों को यथासम्भव टूटने और गिरने से बचाया था।

फिर समय बदला, मौसम बदला। डालियाँ पुरानी पड़ गयीं। पत्तियाँ पुरानी पड़ गयीं। अब इन टहनियों से नये फूल निकलने की सम्भावना जाती रही। इनमें जो हरियाली का जीवन बचा था वह किसी काम का नहीं था। इसलिए इन्हें काट कर अलग किया जा रहा था ताकि इनकी जगह नयी टहनियाँ निकल सकें और नये फूल खिल सकें।

गाँव में बूढ़ी गायों और भैसों को कसाई के हाथों बिकते देखा है। दूध और बछड़ा देने की सम्भावना मिटने के बाद उनका जीवन भी यूँ समाप्त कर दिया जाता है। पहले इनकी मृत्यु होने पर जमीन में गाड़ दिया जाता था। लेकिन अब इनके मांस हड्डी और चमड़े की नगद कीमत वसूल कर ली जाती है।

पश्चिम की ओर से आती ‘विकास की हवाएं’ बता रही हैं कि अब वहाँ बुजुर्गों को घर से अलग वृद्धाश्रम में रखने का चलन बढ़ गया है। ये हवाएं हमारे देश में भी बहने लगी हैं। 

मनुष्य का अब अगला कदम क्या होगा?
(सिद्धार्थ)

मंगलवार, 23 दिसंबर 2008

रामदुलारे जी नहीं रहे…!

वैधानिक चेतावनी: यह शोक श्रद्धाञ्जलि नहीं है।

गाँव से जब यह खबर आयी तो हम चक्कर खा गये। विचित्र भाव मन में उठने लगे। रामदुलारे जी के जाने के बाद अब गाँव का माहौल कैसा हो जाएगा…? बिलकुल सूना, रसहीन, और बेसुरा। लोग-बाग कुछ दिन तक तो इनकी मौत की चर्चा करेंगे लेकिन जो आदमी नित नयी चर्चा का मसाला दिया करता था, उसकी साँसें थम जाने के बाद वह बात नहीं रह जाएगी।

तीन भाइयों, चार बेटों, चार बेटियों, और दर्जनों नाती-पोतों वाले रामदुलार जी जब ‘हार्टफेल’ होने से करीब ८० वर्ष की उम्र में भी अहर्निश सक्रियता को अचानक विराम देकर चलते बने तो उनकी मृत देह को कन्धा देने के लिए गाँव के वही लोग काम आये जिन्हें जेल भेजने का सपना देखते इनका जीवन बीता था। घर पर इनकी दूसरी ब्याहता पत्नी के अलावा और कोई नहीं था। सभी बेटे-बेटियाँ इनसे किनारा करके बाहर बस चुके थे। गाँव वालों ने २५ साल पहले घर छोड़ चुके बड़े बेटे तक सूचना पहुँचायी तो वह मुखाग्नि देने के लिए जरूर हाजिर हो गया। अपने भाइयों को तो इन्होंने कबका अलग कर दिया था।

बहुत हटके जीवन बिताया रामदुलार जी ने…।

गाँव में पहला पक्का मकान, उसमें लगा बुलन्द दरवाजा और पशुओं के लिए पक्के सीमेण्ट की चरन (नाद) सर्वप्रथम इन्हीं के पिताजी ने बनवायी थी। दरवाजे पर दो जोड़ी बैल, अनेक गायें और भैंसें, और अनाज रखने की ‘बखारें’ देखने से लगता था कि सरेह में खेती भी काफी अच्छी होगी। अंग्रेजी सरकार के कृपा पात्र होने से उन्होंने काफी धन-सम्पत्ति अर्जित कर ली थी। पैसा ‘कमाने’ का ही अच्छा तजुर्बा था उन्हें, लेकिन पिता की आँखों के तारे रामदुलारे जी ने जब होश सम्हाला तबसे पैसा ‘खर्च करने’ के तमाम करतब देखने को मिले।

कौड़ी और ताश के पत्तों से जुआ खेलने के शौक ने रामदुलारे जी की ख्याति कम उम्र में ही दिग-दिगन्त में फैला दी थी। दीपावली और होली के अवसर पर तो दिल खोलकर लुटाते थे। खान-पान के भी शौकीन थे। इनकी इस फितरत ने इनके आस-पास अनेक दोस्त जमा कर लिए और अपने सगे भाइयों को जल्दी ही बँटवारा कराकर अलग हो जाने की राह दिखा दी।

इन्हें मुकदमा लड़ने और लड़ाने का तो ऐसा नशा था कि जीवन पर्यन्त इनका एक पैर कचहरी में ही रहता था। पिता की मृत्यु और भाइयों के अलग हो जाने के बाद इन्होंने अपना सारा ध्यान यही दो शौक पूरा करने पर लगाया।

ये अपनी धुन के इतने पक्के थे कि कभी जीविका ‘कमाने’ के बारे में सोचने का मौका ही नहीं निकाल पाये। पहले पिता की छोड़ी गयी नगदी और जेवर और उसके बाद विरासत में मिली कभी गाँव में सबसे अधिक रही खेती की जमीन काम आयी। जब दोनों की स्थिति पूर्णिमा के चाँद से अमावस्या तक पहुँच गयी तब बेटियाँ भी सयानी हो गयीं थीं।

इनके सभी लड़के इतने ‘प्रखर’ थे कि एक-दो साल स्कूल आने-जाने के बाद ही उसकी ‘निस्सारता’ समझ गये। गाँव की बेरोजगारी व घर पर पिता की गालियों और प्रताड़ना की सहनसीमा पार करते हुए बारी-बारी से बाहर निकलते गये। सभी दोस्त इनकी जमीन और पैसे से लाभान्वित होने के बाद आगे की सम्भावना क्षीण देखकर अपनी राह चलते गये।

लेकिन ऐसी मामूली बातों से इनके उत्साह में कोई कमी नहीं आने वाली थी। बेटियों ने गाँव के दूसरे घरों में चौका-बरतन, झाड़ू-पोछा, और छोटे बच्चों को बहलाने का काम करना शुरू कर दिया। ब्राह्मण कन्याओं के प्रति दयाभाव से गाँव वालों और रिश्तेदारों ने मिलकर उनका हाथ भी पीला करा दिया। कुछ दूसरे लोगों ने सस्ते में ही ‘कन्यादान’ का पुण्य भी कमा लिया। …लेकिन इनकी कन्याओं की वर्तमान हालत बताने लायक नहीं है…।

सभी बेटिया जैसे-तैसे अपने-अपने ससुराल चली गयीं और सभी बेटे दिल्ली-पंजाब-लुधियाना जाकर कमाने लगे तो ये घर पर बिल्कुल निर्द्वन्द्व होकर अपना शौक पूरा करने लगे। एक जमीन बेचते और एक पड़ोसी पर मुकदमा ठोक देते। हमने उन्हीं को देखकर जाना कि बिना मेहनत के मिलने वाली धनराशि को खर्च करने का मजा ही कुछ और होता है।

धीरे-धीरे बाग-बगीचों और खेती वाली एक-एक इन्च जमीन से ‘भारमुक्त’ हो लेने के बाद बारी आयी पैतृक मकान वाली जमीन की। गाँव के भीतर की इस जमीन को इनके कुछ पड़ोसियों ने मुँहमांगी कीमत देकर बैनामा कराया। इन्होंने अपने हाथ से नापकर कब्जा दिया। लेकिन कुछ ही दिनों बाद ये अपनी सीमा से सटे सभी पड़ोसियों को एक-एक करके अदालत खींच ले गये। इलजाम एक ही कि सबने इनकी जमीन पर कब्जा कर रखा है।

कायदा-कानून की दृष्टि से कमजोर इन दीवानी मुकदमों को यथासम्भव लम्बा खींचने का जुगाड़ लगाते रहे। लेकिन अन्ततः इनका भी कोई स्थायी मजा न आता देख इन्होंने फौजदारी के मुकदमें लिखाना शुरू किया। सहसा इन्हें अपने सभी पड़ोसियों से ‘जान-माल’ का खतरा रहने लगा। इस दौर में इनके पास जो ‘माल’ था वह केवल कचहरी के पुराने रिकार्ड्स में ही दर्ज था। घर तो कबका साफ हो चुका था।

लेकिन ‘जान’ को लेकर ये जरूर चिन्तित थे। हृदय रोग ने जब इनके शरीर में स्थायी घर बना लिया तो सभी पड़ोसी इनसे भयभीत रहने लगे। प्रत्येक सप्ताह थाने से कोई न कोई सिपाही इनकी शिकायत की तफ़्तीश करने गाँव में आने लगा। इन्हें छूना भी खतरे से खाली नहीं था। क्योंकि इनके बीमारी से मरने पर भी फँसना तय था। मौत का डर सिर्फ इन्हें ही नहीं था।

एक बार मैं छुट्टियों में गाँव गया हुआ था तो उनकी एक शिकायत पर होने वाले मुआयने का प्रत्यक्षदर्शी बना। इन्होंने अपने भतीजों पर यह संगीन आरोप लगाया था कि उन्होंने रातोरात इनके दरवाजे पर लगे पन्द्रह-सोलह आम के हरे पेड़ काट डाले और जड़ भी खोद ले गये ताकि कोई सबूत न रहे। थाने का सिपाही मौका-ए-वारदात पर पहुँचकर पेड़ों की जगह पूछने लगा तो सभी लोग हैरान हो गये। क्योंकि बाक़लमखुद के शौक ने इन्हें पेड़ों से बहुत पहले निजात दिला दी थी।

जब रामदुलारे जी पेड़ों की जगह दिखाकर सबूत नष्ट कर दिये जाने का आरोप लगाने लगे तो भीड़ में एकाएक ठहाके गूँज पड़े। हुआ ये था कि इनके एक भाई की जमीन पर जहाँ कूड़ा फेंकने की जगह थी उसपर इन्होंने कोर्ट में अपना दावा ठोंक रखा था। उसी जगह पर कुछ आम की गुठलियाँ फेंकी गयीं थी जिनसे कूड़े की खाद और नमीं के कारण पौधे (अमोला) निकल आये थे। भतीजे ने दरवाजे का कूड़ा साफ करते समय इन बित्ते भर के पौधों को भी साफ कर दिया था और अनजाने में एक और मुकदमे को न्यौता दे दिया था…।

गाँव के भूमिहीन मजदूरों को छोड़ दें तो वहाँ शायद ही कोई गृहस्थ ऐसा होगा जो अपना राशन एक दिन की जरूरत के हिसाब से रोज खरीदता हो। लेकिन ये महाशय प्रतिदिन दुकान से चावल/आटा खरीदकर ‘ताजा’ ही बनाते थे।

भगवान की ऐसी कृपा थी कि सारी जमीन चुक जाने के बाद भी इनके पास कैश की कभी कमी नहीं होने पाती थी। जमीन जायदाद जाने के बाद भी जब हाथ खाली होने की नौबत आती तो ये दिल्ली अपने बेटों के पास जाकर बैठ जाते और प्रतिदिन इतनी गालियाँ सुनाते कि वे आजिज आकर इन्हें ‘ससम्मान’ विदा कराने पर मजबूर हो जाते। इसके अलावा खण्डहर हो चुके पैतृक मकान से मिलने वाली इमारती लकड़ियों और ईंटों को बेचकर भी इनका दिन बड़े अमन-चैन से गुजरा। एक बार दिल्लीवासी बेटे ने नये कमरे बनवाने के लिए कुछ ईंटें मंगाकर रख दी। जब निर्माण कार्य में देरी होने लगी तो इन्होंने ईंटों को भी अपने शौक के लिए किसी जरूरतमन्द के हाथों बेचकर पैसा बना लिया।

रामदुलारे जी ने गाँव में छूत-अछूत का खेल भी खूब खेला। कुछ ब्राह्मण परिवारों को समाज से बहिष्कृत कराने का अभियान चलाया। लेकिन जब इनके बेटों ने बाहर जाकर अन्तर्जातीय विवाह रचा लिए और विजातीय बहुओं ने गाँव आकर इनके घर पर कब्जा जमाने का प्रयास किया तो इन्होंने फौरन उल्टी दिशा पकड़ ली। समतामूलक, प्रगतिशील और उदार दृष्टिकोण के ध्वजवाहक बन गये। उन्हें आशीर्वाद दिया और दिल्ली में जाकर उनके ‘दान’ को ग्रहण भी किया।

अस्सी कि उम्र में भी ये फौजदारी के लिए अपने पड़ोसियों को जिस तरह ललकारते थे उसे देखकर गाँव वाले मुँह दबाकर किनारा कर लेते थे। लगभग सभी भाई-पट्टीदार इनसे किसी न किसी बहाने भिड़ चुके थे।

इन विषेषताओं के अतिरिक्त उनमें फाग (होली गीत) गाने की विलक्षण प्रतिभा थी। जवानी के दिनों में तो पूरे फाल्गुन महीने भर इनकी टेर चलती रहती थी। लेकिन पिछली होली में अस्सी की अवस्था में भी इन्होंने ढोलक की थाप और झाल की झंकार पर जमकर फाग गाया।

अब उनके चले जाने के बाद गाँव में अजीब सा खालीपन आ जाएगा। उनके द्वारा थाने में की गयी शिकायतों की पोटली भी गठियाँ कर टांग दी जाएगी। गाँव में सिपाही भी नहीं आएंगे। मुकदमें का ‘सम्मन’ भी नहीं आएगा। पड़ोसी लम्बी तान कर बेखटक सोने लगेंगे। इनका साहचर्य खो देने के बाद इनकी पत्नी भी तत्काल बूढ़ी हो जाएंगी, शायद कोई बेटा अपने साथ ले जाना चाहे। फिर इनके सूने घर की खाली जमीन पर कब्जा करने वालों को कौन रोकेगा?

कुछ लोग डरने लगे हैं कि कहीं उनका प्रेत न आ जाय…।

(सिद्धार्थ)

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

एक गुमनाम चित्रकार की सत्यकथा...।

वैसे तो दुनिया में एक से बढ़कर एक प्रतिभाएं मौजूद हैं, लेकिन यदि किसी दुर्लभ प्रतिभा का धनी व्यक्ति बिल्कुल साधारण ढंग से आपके घर में बैठकर आँखों के सामने सजीव बात कर रहा हो और जो आपके गाँव-घर का हो तो एक अद्‍भुत गर्व व रोमांच का अनुभव होता है।

श्री जय कुमार पाठक से अपने आवास पर पहली बार मिलकर मुझे ऐसा ही लगा। उन्हें देखकर एक बारगी यह कल्पना करना कठिन था कि इनके हाथ में ईश्वर ने सचमुच एक जादुई तूलिका थमा रखी है। वे मेरे एक मामा जी के साथ आये थे। सामान्य कु्शल-क्षेम पूछने के बाद जब मैने इलाहाबाद आने का प्रयोजन पूछा तो वे अत्यन्त संकोच और लज्जा के साथ इतना कह सके कि पडरौना के एक साधारण मुहल्ले में बीत रही गुमनामी की जिन्दगी से बाहर निकलकर अपनी कला के लिए कोई रास्ता ढूँढना चाहते हैं।

स्थानीय स्तर पर ‘पुजारी जी’ के नाम से जाने जाते ४३ वर्षीय श्री पाठक आठ भाई-बहनों में सबसे बड़े हैं। घर की गरीबी से तंग आकर इन्होंने सातवीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी और १५ साल की उम्र में अयोध्या चले गये। वहाँ वासुदेवाचार्य जी के वैष्णव सम्प्रदाय में सम्मिलित होकर ‘जयनारायण दास’ बन गये थे। वहीं आश्रम में इनकी भेंट झाँसी से पधारे प्रेम-चित्रकार से हो गयी।

अच्छा गुरू मिलते ही इन्हें रेखांकन और चित्रों के रंग संयोजन की बारीकियाँ समझते देर नहीं लगी और शीघ्र ही इन्होंने प्राकृतिक सौन्दर्य, पोर्ट्रेट और धार्मिक पात्रों से सम्बन्धित चित्रों को कैनवस पर सजीव उतार लेने में महारत हासिल कर ली।
आगे की कहानी जानने से पहले आइए देखते हैं इनके हाथ से जीवन्त हो चुके कुछ अनमोल चित्र:

[ये सभी चित्र मैने इनके पास उपलब्ध पोस्ट्कार्ड साइज के उस एलबम से लिए हैं जो इनकी चित्रकृतियों के साधारण फोटोकैमरे से दसियों साल पहले लिए गये छायाचित्रों को सहेजकर बनाया गया है।]













धार्मिक पात्रों के अतिरिक्त पुजारी जी अन्य प्राकृतिक दृश्यों और मानव आकृतियों को पूरी सच्चाई के साथ उतारने में पारंगत हैं। सिर ढंकी हुई राजस्थानी युवती की यह तस्वीर अखबार में छपे इसकी संगमरमर की मूर्ति के छायाचित्र को देखकर बनायी गयी है। इसके नीचे उर्वशी का यह रूप पुजारी जी की अपनी कल्पना है।



भगवान बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित चित्रों से ही पुजारी जी को कुछ आर्थिक लाभ मिल पाता है। इनके महापरिनिर्वाण स्थल कुशीनगर में आने वाले विदेशी पर्यटकों के हाथों बिककर इनके चित्र थाईलैण्ड,जापान,कोरिया,आदि देशों तक तो चले गये, सम्भव है उनकी अनुकृतियाँ बेचकर किसी ने पैसा भी कमाया हो, लेकिन यह सब पुजारी जी की आर्थिक दुरवस्था को किसी प्रकार से दूर करने में कारगर नहीं हो सके।






वृन्दावन में राधाजी को झूला झुलाते हुए श्रीकृष्ण की यह तस्वीर पुजारी जी के गुरू प्रेम-चित्रकार द्वारा बनायी गयी है। इसमें पुजारी जी ने राधा और कृष्ण को आभू्षण पहनाने का काम किया है। लेकिन वे गुरू की निशानी इस तस्वीर को सदैव अपने पास रखते हैं।




कुशीनगर जिले के पडरौना कस्बे (जिला मुख्यालय) के पास पटखौली ग्राम के मूल निवासी पुजारी जी को उनके वृद्ध होते पिता के मोह ने १५ साल बाद अयोध्या से घर वापस बुला लिया। पितृमोह और परिवार की फिक्र से ये वापस तो आ गये लेकिन जीविकोपार्जन की कोई मुकम्मल व्यवस्था न होने के कारण जीवन कठिन हो चला है। विवाह का विचार तो पहले ही त्याग चुके हैं। अब भाइयों बहनों के साथ घर-परिवार में रहकर पडरौना के नौका टोला मुहल्ले में ‘पुजारी आर्ट’ के नाम से एक सेवा केन्द्र चलाते हैं। कुछ लोग शौकिया तौर पर चित्र और पोर्ट्रेट बनवा कर ले जाते हैं लेकिन इनकी मेहनत, लगन और प्रतिभा के अनुरूप आर्थिक आय हासिल नहीं हो पाती है।

वस्तुतः यदि इनके हाथों को सही काम मिले और पारखी प्रायोजकों का समर्थन मिले तो शायद हम राजा रवि वर्मा को मूर्त रूप में पुनः देख सकें। फिलहाल तो ये गुमनामी के बियाबान में भटकने को अभिशप्त कलाकार का जीवन जी रहे हैं।

(सिद्धार्थ)

मंगलवार, 16 दिसंबर 2008

एक सच्ची बात माननीय की…

कलकत्ते वाले रतीराम जी के एक रिश्तेदार हैं मतीरामजी। इनकी भी यहाँ इलाहाबाद के कटरा में चाय की दुकान है। यूनिवर्सिटी से लगा होने के कारण यहाँ विद्यार्थियों का जमावड़ा लगा रहता है। यह बात-चीत इसी दुकान पर दो प्रतियोगी छात्रों के बीच सुनने को मिली जो हाल ही में शहर आये हुए लगते थे -

-मुम्बई हमलों के बाद संसद में जो बहस हुई उसे सुनकर मन प्रसन्न हो गया।

-क्यों भला?

-सभी सांसदों ने पार्टी लाइन से ऊपर उठकर एकता का परिचय दिया और आतंकवाद को करारा जवाब देने के लिए सबने सामूहिक प्रयास का संकल्प लिया।

-तो क्या अब आतंकवाद के दिन पूरे होने वाले हैं?

-देश की दोनो प्रमुख पार्टियाँ मिलकर इससे लड़ने जा रही हैं। विश्वास कीजिए अब वह दिन दूर नहीं।

-अच्छा! यानि बीजेपी ने कांग्रेस से फिर हाथ मिला लिया?

-हाँ भाई! इस मुद्दे पर तो मिला ही लिया, लेकिन क्या पहले भी कभी कमल ने ‘हाथ’ से हाथ मिलाया है?

-हाँ-हाँ, अभी तो हाल ही में अविश्वास प्रस्ताव के समय मिलाया था।

-नहीं भाई, तब तो भाजपा ने अविश्वास प्रस्ताव के विरोध में वोट डालने के लिए अपना चाबुक (whip) फटकारा था।

-यहीं तो धोखा खा गये आप…।

-धोखा? …वो कैसे? …यह तो हम सभी जानते हैं। सारे अखबार और मीडिया में भरा पड़ा था।

-यह राजनीति की बातें तो केवल पब्लिक के मनोरंजन के लिए थी। देशहित में सभी एक हो जाते हैं।

-तो क्या भाजपा सांसदों को कुछ और समझाया गया था?

-जी हाँ।

-वो क्या?

-मुझे पूरी बात तो नहीं मालूम लेकिन सरकार को इन भाजपा सांसदों ने ही बचाया था।

-इससे क्या? वह तो दो-चार सांसदों की करोड़ों की लालच का नतीजा था।

-आप यह कैसे कह सकते हैं? कोई सबूत…

-सबूत मेरे पास नहीं है। लेकिन आप जो कह रहे हैं उसके क्या सबूत है?

-हैं ना!

-अच्छा! तो क्या आपके पास इस बात का सबूत है कि भाजपा इस सरकार को बचाना चाहती थी?

-जी हाँ! सोमा भाई पटेल को नहीं सुना क्या?

-ये कौन महाशय हैं?

-ये गुजरात के वृन्दनगर से तीसरी बार चुने गये भाजपा के माननीय सांसद हैं। इनकी मदद से सरकार बची थी।

-क्या इन्होंने पार्टी व्हिप का उल्लंघन किया था?

-नहीं, पार्टी ने इनसे सरकार के पक्ष में वोट डालने को कहा था।

-झूठ बोल रहे होंगे ये।

-नहीं भाई, सच में। ये आज पत्रकारों को बता रहे थे कि मुझे पार्टी से ऐसा कोई संदेश नहीं मिला कि मुझे सरकार के विरुद्ध वोट डालना है।

-क्या जो व्हिप जारी हुई थी वो फर्जी थी?

-वो एस.एम.एस. तो अंग्रेजी में था। बता रहे थे कि अंग्रेजी इन्हें नहीं आती।

-हिन्दी रूपान्तर भी तो रहा होगा?

-कह रहे थे कि हिन्दी भी केवल बोलना सीख पाये हैं। हिन्दी लिखना पढ़ना नहीं आता। केवल मैट्रिक पास हैं।

-पार्टी मीटिंग में किसी ने नहीं बताया?

-नहीं जी, इसका कोई सबूत नहीं है।

-मीडिया से तो पता चला होगा?

-मीडिया की बात का क्या भरोसा? बहुत सी अफवाहें फैलाती रहती है। वैसे भी यहाँ केवल हिन्दी-अंग्रेजी का ही बोल-बाला है जो भाषा इन्हें नहीं आती।

-आप इनकी बातों पर यकीन कर गये?

-मैने ही नहीं भाई साहब, घूसकाण्ड की जाँच कर रही संसदीय समिति ने यकीन करके इनको ‘क्लीन चिट’ दे दी है।

-वाह! क्या यह संसदीय समिति बहुत ऊँची चीज है?

-जी हाँ, इसका बड़ा सम्मान होता है। सोमा भाई पटेल भी विदेश मामलों की एक समिति के सम्मानित सदस्य हैं…

(सिद्धार्थ)

रविवार, 14 दिसंबर 2008

घर-बाहर की दुनिया कुछ तस्वीरों में...

नवम्बर का अन्त कुछ ऐसे हुआ कि महीने भर सहेज कर रखे गये बुजुर्ग पेन्शनर्स के कुछ दुर्लभ और रोचक चित्र यहाँ पोस्ट करने का मौका ही नहीं मिला। दिसम्बर का प्रारम्भ भी नवम्बर के आखिरी सप्ताह के काले अन्त की छाया से दुष्प्रभावित रहा। मैने इस विपरीत काल के संकट को इतना व्यापक मान लिया कि सामान्य होते-होते अपने परिवार के एक सुखद क्षण का आनन्द भी नहीं ले सका। आज कुछ देर से ही सही, मैं इन दो आयामों का कण्ट्रास्ट तस्वीरों के माध्यम से प्रस्तुत करता हूँ-



सत्यार्थ अपने जन्मदिन पर पोज देते हुए




दोनो भाई बहन स्टुडियो पहुँचे। घरेलू कैमरा और मोबाइल का क्या काम?




घरमें बच्चों की मासूम शरारत तो ऑफिस में बुजुर्ग पेंशनर्स की अलग-अलग तस्वीरें। कोई बहुत खुश तो कोई थोड़ा कम। किसी-किसी को उठाकर लाना पड़ा तो कोई पच्चानबे साल पर भी खुद ही खटखटाता हाजिर। इन्हें देखकर मैने जो ग़ज़ल की आजमाइश ‘सत्यार्थमित्र’ पर की थी उसे ‘अमर उजाला’ ने न्यूज आइटम बना दिया। फिर तो मुझे उसकी ढेरों प्रतिलिपियाँ बाँटनी पड़ी।



बड़ा और स्पष्ट देखने के लिए चित्रों पर चटका लागाइए...।






नीचे की तस्वीर में दोनो पेंशनर हैं, और पिता-पुत्र हैं। सरकारी अभिलेखों में इनके बीच केवल १३ साल का अन्तर है। कारण पूछने पर मुस्करा कर टाल जाते हैं। अंग्रेजी राज की बात थी। कभी किसी ने टोका नहीं।



चलते चलते एक नजारा आदमी के साथ प्रकृति के खेल पर। शेषन साहब कहा करते थे कि भगवान ने कुछ सिरों को देखने लायक बहुत सुन्दर और सुडौल बनाया है। बाकी को बालों से ढक दिया...। यहाँ दोनो छटाएं माघ-मेला की तैयारी बैठक में मेरे मोबाइल कैमरे ने कैद की। बस आपके लिए...





(सिद्धार्थ)

बुधवार, 10 दिसंबर 2008

खामोशी में ऐसे मनाया छः दिसम्बर… ॥


मेरी पिछली पोस्ट पर टिप्पणी देते हुए कार्तिकेय ने सत्यार्थ को जन्मदिन की शुभकामना दी है। जी हाँ, पिछले छः दिसम्बर को सत्यार्थ (मेरा बेटा) दो साल का हो गया। इस बार पारिवारिक रीति से सादगी पूर्वक जन्मदिन याद किया गया। हाँलाकि दिनभर ‘हैप्पी बर्डे’ और ‘थेंकू’ की रटंत होती रही, लेकिन नये कपड़े, खिलौने और चाकलेट की खुशी छोड़ दें तो उस मासूम को इस दिन में नया कुछ भी नहीं लगा होगा। रोज ही कुछ नये शब्द सीख रहा है। उसी कड़ी में ये शब्द भी उसके शब्दकोश में जुड़ गये होंगे।

अलबत्ता उसकी बड़ी बहन वागीशा अधिक उत्साहित थी। साढ़े आठ साल की उम्र में उसे यह बताना कि यह वक्त पार्टी लायक नहीं है, मुझे गैर-जरूरी लगा। उसकी अपेक्षा के अनुरुप घर में ही कुछ पारिवारिक मित्रों व उनके बच्चों को बुला लिया गया, और पार्टी भी हो ली। सत्यार्थ को टीका लगाने की औपचारिकता और भगवान की पूजा भी घर के मन्दिर में ही की गयी। कहीं बाहर जाकर घूमने का मन नहीं हुआ।

सत्यार्थमित्र पर भी इसकी तत्समय चर्चा करने का मन नहीं हुआ। उस दिन मुम्बई के आतंकी हमलों के बाद बने राष्ट्रीय परिदृश्य में बाबरी मस्जिद की बरसी पर सारा देश सहमा हुआ सा किसी बुरी घटना की आहट पर कान लगाए बैठा था। मेरे मन में भी यही कुछ चल रहा था। मेरी धर्मपत्नी ने भी इसे भाँपकर चुप्पी लगा ली थी।

मेरे गुरुदेव ज्ञान जी भी एक मालगाड़ी के पटरी से उतर जाने पर अचानक व्यस्त हो गये और नहीं आ सके।

मेरे मन में भारतवर्ष की बेचारगी टीस रही थी। कुछ विक्षिप्त नौजवानों द्वारा धर्म की अफीम खाकर मानवता को जार-जार करते हुए कथित तौर पर चन्द रूपयों से अपने परिवार की दरिद्रता मिटाने के लिए जो आपराधिक कुकृत्य किया गया था, उसका असर दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र और एक सम्प्रभु राष्ट्र की अस्मिता पर प्रश्नचिह्न लगाने वाला हो चुका था। साठ साल पहले जो हमें छोड़कर धर्म के आधार पर अलग हो गये वही आज फिर से हमारी छाती चीरने के लिए गोलबन्द होकर हमले कर रहे हैं, और हम कातर होकर दुनिया के चौकीदारों से गुहार कर रहे हैं।

इसी मनःस्थिति में मैने पिछली पोस्ट में यह बात रखी कि “हम अक्षम हैं… इसलिए बेचैन हैं…।” इसपर प्राप्त टिप्पणियों से यह बात और पुष्ट होती गयी। आदरणीय ज्ञानजी, समीर जी, अभिषेक जी, और राजभाटिया जी भी इसी मत के मिले। श्रद्धेय डॉ. अमर कुमार ने एक एतराज दर्ज तो किया लेकिन वह भी केवल सही शब्द के चयन को लेकर था। वस्तुतः वह भी अक्षमता को स्वीकार करते हैं।

मेरे प्रिय कार्तिकेय भारतीय संविधान में अपनी श्रद्धा को अभी भी अक्षुण्ण रखने के पक्षधर लगे। उन्हें इसमें कोई कमी नजर नहीं आती। वे लिखते हैं कि-

…इस निष्क्रियता के लिए संविधान को जिम्मेदार ठहराना अनुचित होगा.गलती संविधान की धाराओं में नही, बल्कि उनके स्वयंसिद्ध इंटरप्रेटशंस की है. ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार हमारी धर्मान्धता और कट्टरता के लिए उदारवादी वेदों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता.

मेरे विचार से आवश्यकता संविधान में परिवर्तन की नहीं, अपितु उसको क्लेअर -कट परिभाषित करने की है….


यानि कि सुस्पष्ट परिभाषा की आवश्यकता अभी बनी हुई है। मेरा मानना है कि जिस चुनावी प्रणाली से जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, लिंग और अगड़े - पिछड़े की संकुचित राजनीति करने वाले, भ्रष्ट, माफिया और लम्पट किस्म के जनप्रतिनिधि चुनकर सत्ता के गलियारों को दूषित करने पहुँच जा रहे हैं; और फिर भी इस प्रणाली को संविधान सम्मत मानना हमारी मजबूरी है, तो कुछ तो सुधार करना ही पड़ेगा।

चुनावों में मोटे तौर पर १०० मतदाताओं में से १०-१२ का वोट पाने वाला प्रत्याशी सत्ता की कुर्सी पर काबिज हो जाता है। क्योंकि ५०-५५ लोग तो वोट डालने जाते ही नहीं और ३०-३५ लोगों के वोट दर्जनों अन्य प्रत्याशी आपस में बाँट कर हार जाते हैं। इसी कारण से नेता जी लोग एक खास सीमित वर्ग के वोट जुटाने लायक नीतियों की खुलेआम अभ्यर्थना उन्हें खुश करने के लिए करते हैं, और साथ ही अन्य वर्गों के बीच आपसी कटुता और वैमनस्य के बीज बोते जाते हैं। आज के एक अत्यन्त लोकप्रिय और सफल केन्द्रीय मन्त्री जो पहले मुख्यमन्त्री रह चुके हैं, उन्होंने तो अपने वोटरों को निरन्तर पिछड़ेपन और अशिक्षा के दलदल में फँसाये रखने की नीति की लगभग घोषणा ही कर रखी थी। उन्हें बिजली, सड़क, पानी, शिक्षा और अखबार की पहुँच से सायास दूर रखने की मानो नीति ही लागू थी।

दुनिया में ऐसी चुनाव प्रणालियाँ भी हैं जहाँ जीतने के लिए कम से कम ५० प्रतिशत वोट पाना आवश्यक है। सभी मतदाताओं के लिए अपना मत डालना अनिवार्य है, न डालने पर जुर्माना है। कदाचित्‌ मतपत्र में एक विकल्प सभी प्रत्याशियों को नकारने का भी है। क्या भारत में ऐसा हो जाने के बाद भी राजनेता अपनी छवि संकुचित दायरे में बना कर सफल हो पाएंगे? आज विडम्बना यह है कि देश में एक सच्चे जननायक और सर्वप्रिय नेता का अकाल पड़ा हुआ है। बहुत से माननीय सांसदों और विधायकों की प्रोफाइल देखकर सिर शर्म से झुक जाता है।

एक बार जैसे-तैसे चुन लिए जाने के बाद बड़े से बड़ा अपकृत्य करने का और बच निकलने का लाइसेन्स इनके हाथ लग जाता है। संविधान में जो दायित्व दिये गये हैं उनके प्रति इनमें कोई जवाबदेही नहीं दिखायी देती। यह देश के भाग्य भरोसे है कि माननीय इसे किस रसातल तक ले जाकर छोड़ने को तैयार हैं। इश्कबाजी में उपमुख्यमन्त्री बरखास्त होते हैं। नौबत ये है कि संसद भवन से तिहाड़ आने-जाने का ट्रैफिक बढ़ता जा रहा है। कुछेक जो पढ़े-लिखे और जिम्मेदार वहाँ पहुँच भी जा रहे हैं उनके हाथ किसी अयोग्य मालिक के आगे जुड़े ही रहते हैं, और बँधे भी।

स्कन्द शुक्ला अपनी अंग्रेजी टिप्पणी में सवाल करते है कि यदि यह हमला किसी निम्नवर्गीय स्थल पर हुआ होता तो भी क्या ऐसी ही प्रतिक्रिया देखने को मिलती। रेलवे स्टेशन और कामा हॉस्पिटल पर भी हमले हुए लेकिन जितने टीवी कैमरे पंचसितारा होटलों पर फोकस किए गये उतने बाकी जगहों पर नहीं थे। इस बार शायद मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग को आतंकी खतरे का अनुभव कुछ ज्यादा ही हो गया है। आशा की जानी चाहिए कि उनके इस गुस्से का प्रस्फुटन चुनावों के समय अधिक मतदान के रूप में सामने आयेगा। उनका प्रश्न यह भी है कि हम अपनी ही चुनी हुई सरकार की आलोचना क्यों कर रहे हैं। इन्हें हमलों के बाद हुए मतदान के आँकड़े कुछ आशा बँधाते हैं कि शायद मध्यम वर्ग अपनी दोपहर की मीठी नींद से जाग रहा है।

लेकिन मुझे फिलहाल कोई आशा नहीं नजर आती। क्योंकि इस प्रकार के संकट से निपटने में हमारी कमजोरी सिर्फ एक मोर्चे पर नहीं है। इसका प्रसार चारो ओर है। कार्यपालिका की मानसिक दृढ़ता में कमजोरी, न्यायपालिका की जायज-नाजायज सीमाएं, विधायिका की अयोग्यता, भू-राजनैतिक परिस्थितियाँ, भौगोलिक स्थिति, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, राजनैतिक शासन प्रणाली, धार्मिक विश्वास और परम्परा, सामाजिक संघटन (composition of society ), निकम्मा राष्ट्रीय नेतृत्व, क्षीण इच्छा शक्ति, सर्वव्यापी भ्रष्टाचार, चारण-संस्कृति… दुष्ट, लापरवाह और पतनशील पड़ोसी। कहाँ तक गिनाऊँ… सूची अनन्त है।

फिर तो हमें बड़े परिवर्तन के लिए कमर कसना होगा। चलते-चलते ये पंक्तियाँ मन में मचल रही हैं, सो लिख ही देता हूँ।

सबने मिल-बैठकर ये जान लिया,
मर्ज़ क्या है इसे पहचान लिया।
अब तो बस खोजनी दवाई है;
वो भी मिल जाएगी जो ठान लिया॥

(सिद्धार्थ)

पुनश्च :
कुछ टिप्पणियों के स्नेह और आशीष से प्रेरित होकर वागीशा और सत्यार्थ की एक तस्वीर लगा रहा हूँ। आप सबके स्नेह का शुक्रिया।

सोमवार, 8 दिसंबर 2008

हम अक्षम हैं इसलिए बेचैन हैं…!

मुम्बई में हुए आतंकी हमले के बाद एक आम भारतवासी के मन में गुस्से का तूफान उमड़ पड़ा है। सरकार की कमजोरी, खुफिया संगठनों की नाकामी, नेताओं की सत्ता लोलुपता, कांग्रेस में व्याप्त चारण-संस्कृति, राष्ट्रीय मुद्दों पर आम सहमति के बजाय जाति, धर्म, क्षेत्र और दल आधारित राजनीति की खींचतान, शासन और प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार और इससे उपजी दोयम दर्जे की कार्यकुशलता, विभिन्न सरकारी संगठनों में तालमेल का अभाव आदि अनगिनत कारणों की चर्चा से मीडिया और अखबार भरे पड़े हैं। जैसे इन बुराइयों की पहचान अब हो पायी है, और पहले सबकुछ ठीक-ठाक था। जैसे यह सब पहले से पता होता तो शायद हम सुधार कर लिए होते।


पहले के आतंकी हमलों की तुलना में इस बार का विलाप कुछ ज्यादा समय तक खिंच रहा है। आमतौर पर संयत भाषा का प्रयोग करने वाले लोग भी इसबार उग्र हो चुके हैं। पाकिस्तान पर हमले से लेकर आतंकी ठिकानों पर हवाई बमबारी करने, कांग्रेसी सरकार के प्रति विद्रोह करने, लोकतान्त्रिक व्यवस्था समाप्त कर देश की कमान सेना के हाथों में सौंप देने, जनता द्वारा सीधी कार्यवाही करने जैसी बड़ी बातों के अलावा टैक्स नहीं जमा करने, गली कूचों में पाकिस्तानी झण्डा फहराने वालों को सबक सिखाने, उर्दू बोलने वालों और जालीदार सफेद टोपी पहनने वालों की देशभक्ति पर सवाल खड़ा करने और यहाँ तक कि लिपिस्टिक-पाउडर तक की ओछी बातें भी आज राष्ट्रीय बहस का विषय बन गयी हैं।


दूसरों की खबर देते-देते भारतीय मीडिया भी खुद ही खबर बन गयी है। आतंकवादियों को कमाण्डो ऑपरेशन का सीधा प्रसारण ताज के भीतर टीवी पर दिखाकर इनके क्राइम रिपोर्टरों ने अपनी अच्छी फजीहत करा ली। एन.एस.जी. कमाण्डो की कार्यवाही देखकर इनकी प्रशंसा और आलोचना के स्वर बराबर मात्रा में उठ रहे हैं। हम तो मुग्ध होकर इनकी बहादुरी पर वाह-वाह कर रहे थे तभी अपने देश में आतंकवाद के विरुद्ध निरन्तर मोर्चा सम्हाल रहे इस्राइली विशेषज्ञों ने इनकी कमजोर तैयारी और असुरक्षित मोर्चाबन्दी की पोलपट्टी उजागर कर दी। तो क्या मन्त्रियों और नेताओं के चारो ओर शोभा की वस्तु बने ये चुस्त-दुरुस्त जवान उतने कुशल नहीं निकले जितना होना चाहिए? भारी कनफ्यूजन है, मन में खलबली है। सारी दुनिया हम पर हँस रही है और हम बड़े-बड़े बयान देते जा रहे हैं।


‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ के सम्पादक वीर संघवी ने अपने रविवासरीय लेख में इस जबानी जमा-खर्च और पागल हाथी जैसे व्यवहार का कारण बताते हुए लिखा है कि दरअसल हम कुछ भी कर पाने में अक्षम हैं इसीलिए दिशाहीन होकर लफ़्फ़ाजी कर रहे हैं।


यह बात कितनी सही है इसपर विचार करना चाहिए। करीब सवा करोड़ की जनसंख्या वाले देश में आजादी के साठ साल बाद भी यह हालत है कि हमारे पास एक निर्विवाद, निष्कलुष और देशभक्त नेता नहीं है जो सभी प्रकार से भारत का नेतृत्व करने में सक्षम हो। पाश्चात्य और ईसाई संस्कारों में पली-बढ़ी एक विदेशी महिला के हाथ में सर्वोच्च सत्ता की चाभी है जिसके इशारे पर सारे सत्ताधारी नेता उठक-बैठक करने को तैयार हैं। त्रासदी यह है कि यह विडम्बनापूर्ण स्थिति किसी चुनावी धाँधली या सैनिक विद्रोह से नहीं पैदा हुई है, बल्कि इस देश के संविधान के अनुसार विधिवत् सम्पन्न कराये गये स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के फलस्वरूप बनी है। यानि हमारे देश की जनता अपने को इसी नेतृत्व के लायक समझती है।


सोनिया गान्धी के बारे में कोई भी विरोधी बात आपको भारतीय संस्कृति और सभ्यता के विरुद्ध खड़ा कर सकती है, पोलिटिकली इनकरेक्ट बना सकती है; और कांग्रेस के भीतर रहकर ऐसा करना तो आपके अस्तित्व के लिए संकट खड़ा कर सकता है। इस सम्बन्ध में भारतीय हाई-कमान के विरुद्ध एक रोचक आरोप-पत्र यहाँ पढने को मिला। यह एक फ्रान्सीसी पत्रकार फ्रांस्वाँ गातिये द्वारा भारत की आन्तरिक राजनीति और सामाजिक सोच की विकलांगता पर तीखा व्यग्य है।


हम सभी जानते हैं कि पाकिस्तान जैसे दुष्ट पड़ोसी के कारण ही हमें ऐसे दिन देखने पड़ रहे हैं। हम यह भी जानते हैं कि मुस्लिम वोटबैंक की लालच हमारे देश के नेताओं को इनके भीतर पनप रही राष्ट्रविरोधी भावना पर लगाम लगाने में रोड़ा डाल रही है। लेकिन हम इन दोनो बुराइयों पर लगाम लगाने में असमर्थ हैं। हम ब्लैकमेल होने के लिए सदैव प्रस्तुत हैं। एक अपहृत हवाई जहाज में सफर कर रहे कुछ भारतीयों की जान बचाने के लिए अपनी जेलों में बन्द बर्बर आतंकवादियों को बाइज्जत रिहा करके हम अपनी कमजोरी पहले ही जतला चुके हैं। भले ही उन विषधरों ने उसके बाद कई गुना भारतीयों की हत्या कर दी हो। उस गलती को सुधारने के बजाय कांग्रेसी उसी का नाम लेकर अपने निकम्मेपन को जायज ठहराते रहते हैं। अफ़जल गुरू को फाँसी नहीं देने के सवाल पर कहते हैं कि जब भाजपा अफजल गुरू के गुरु मौलाना मसूद अजहर को फिरौती में कन्धहार छोड़ कर आ सकती है तो हम फाँसी क्यों दें? यानि भारतीय राजनीति में निर्लज्जता की कोई सीमा नहीं हो सकती।


देश की वर्तमान हालत यही बताती है कि यदि हमारे संविधान में कोई आमूल-चूल परिवर्तन करके एक सच्चे राष्ट्रभक्त जननायक को सत्ता के शिखर पर पहुँचाने का मार्ग प्रशस्त नहीं किया गया, राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रविरोधी मानसिकता का पोषण और प्रसार करने वालों की पहचान कर उनका संहार नहीं किया गया, पकड़े गये आतंकवादियों के विरुद्ध कठोर सजा सुनिश्चित नहीं की गयी और देश की बहुसंख्यक आबादी की सभ्यता और संस्कृति का सम्मान अक्षुण्ण नहीं रखा गया तो वह दिन दूर नहीं जब हम एक बार फिर से गुलाम देश होने को अभिशप्त हो जाँय।

गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

पी.एम. को पाती… आप भी कुछ जोड़ें!

पिछला पूरा सप्ताह मुझसे शब्द रूठे रहे। शायद कुपित होकर कोप भवन चले गये थे। दिमाग सुन्न हो गया था, और हाथ जड़वत्। सूनी आँखों और भरे हृदय से सब कुछ देखता रहा। लगभग पूरा देश एक ही मनःस्थिति का शिकार है। इसी बीच ‘मेलबॉक्स’ में अग्रसारित सन्देश के रूप में प्रकाश बी. बजाज जी की एक चिठ्ठी मिली। अंग्रेजी में लिखी गयी इस चिठ्ठी में अपने प्रधानमन्त्री जी के लिए कुछ सन्देश है। मुझे इसका मजमून पसन्द आया और उद्देश्य भी…। मैने सोचा क्यों न इसमें हम सभी अपनी ओर से कुछ जोड़ें ताकि यह एक व्यक्ति के बजाय एक बड़े समूह का स्वर बन जाय।

बुधवार की शाम ‘गेटवे आव इण्डिया’ पर लाखों लोगों ने इकठ्ठा होकर ऐसा ही सन्देश दिया है। हमें अब इन नेताओं के बगैर भी सामूहिक आवाज उठानी होगी। इस पत्र को अविकल हिन्दी अनुवाद के रूप में यहाँ इस आशय से प्रस्तुत कर रहा हूँ कि आप अपनी टिप्पणियों के माध्यम से देश के मुखिया(?) के नाम लिखी गयी इस खुली पाती में अपना सन्देश जोड़ें।

[नोट: यह चिठ्ठी एक-दो दिन पुरानी है, उसके बाद देशमुख भी इस्तीफा दे चुके हैं]

आदरणीय प्रधानमंत्री जी,

मैं मुम्बई में रहने वाला खास किस्म का अदना सा प्राणी हूँ। चाहें तो चूहा समझ लीजिए। मुम्बई ‘लोकल’ के डिब्बे में 500 दूसरे चूहों के साथ सफ़र करता हूँ। भले ही ये डिब्बे 100 आदमियों के लिये बने हो। अलबत्ता हम असली चूहों की तरह चिचिया नहीं सकते। खैर….

आज मैंने आपका भाषण सुना। इसमें आपने कहा- “किसी को बख्शा नहीं जाएगा”। मुझे आपको याद दिलाने का मन हो रहा है कि इसी मुम्बई में सीरियल बम धमाकों की घटना घटे चौदह साल हो गए। दाऊद मुख्य षड़यंत्रकारी था। उसे आज के दिन तक पकड़ा नहीं जा सका है। हमारे तमाम फ़िल्मी-सितारे, बिल्डर और गुटखा किंग उससे मिलते रहते हैं; लेकिन आपकी सरकार उसे नही पा सकती। इसका कारण बहुत स्पष्ट है- आपके सारे मंत्री गुप-चुप उसके साथ हैं। यदि उसको सही में पकड़ लिया जाएगा तो बहुतों की कलई खुल जाएगी। भारत के अभागे लोगों के लिए आपका यह वक्तव्य कि “किसी को बख्शा नहीं जाएगा” बड़ा ही क्रूर मजाक है।

अब तो हद की भी हद हो गई है। जिस प्रकार करीब एक दर्जन लड़कों ने इस आतंकी हमले को अंजाम दिया है, उससे मुझे लगता है कि अगर ऐसे ही चलता रहा तो वह दिन दूर नही जब आतंकी हवाई हमले करेंगे और हमारे परमाणु ठिकानों पर बम-वर्षा करके एक और ‘हिरोशिमा’ दुहरा देंगे।

हम भारत के लोगों की अब एक ही नियति रह गयी है- “पैदा होने के बाद बम से मारे जाना और दफन हो जाना” (womb to bomb to tomb) आपने तो मुम्बई वालों को ‘शंघाई’ का वादा किया था, लेकिन दे दिया ‘जलियावाला बाग’।

आज ही आपके गृहमंत्री ने इस्तीफ़ा दिया। बताइए न, आपको इस जोकर को लात मार कर बाहर निकालने में इतनी देर क्यों लगी ? इसका एक ही कारण था कि वह गांधी राजपरिवार के प्रति वफ़ादार था। इसका मतलब यही है न कि गांधी परिवार की वफ़ादारी मासूम लोगों के खून से ज्यादा महत्वपूर्ण है।

मैं 58 साल पहले मुम्बई में पैदा हुआ और तबसे यहीं पला-बढा हूँ। आप मेरा यकीन करिए कि महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार बिहार से भी खराब है। यहाँ के सभी नेताओं को देख लीजिए- शरद पवार, छगन भुजबल, नारायण राणे, बाल ठाकरे, गोपीनाथ मुण्डे, राज ठाकरे, विलासराव देशमुख, सब के सब धन में लोट रहे हैं।

अबतक मैने जितने मुख्यमन्त्री देखे हैं उनमें विलासराव देशमुख सबसे घटिया मुख्यमन्त्रियों में से एक है। उसका एक मात्र धन्धा प्रत्येक दूसरे दिन FSI(?) बढ़ाना है, उसमें पैसा बनाना है, और उसमें से दिल्ली भेजना है ताकि कांग्रेस अगला चुनाव लड़ सके।इस मसखरे को एक नया रास्ता मिल गया है। अब यह मछुआरों के लिए FSI बढ़ा देगा जिससे वे समुद्री किनारे पर पक्का मकान बना सकें। अगली बार आतंकवादी आराम से उन घरों में रह सकेंगे, समुद्र की सुन्दरता का मजा ले सकेंगे और मनचाहे तरीके से मुम्बई पर हमला कर सकेंगे।

हाल ही में मुझे मुम्बई में घर खरीदना हुआ। मैं करीब दो दर्जन बिल्डरों से मिला। सभी मुझसे ३०प्रतिशत कीमत कालेधन में चाहते थे। मेरे जैसा आम आदमी जब इस बात को जानता है, तब भी आप और आपके वित्त मन्त्री जी तथा आपकी सी.बी.आई. और तमाम खुफिया एजेन्सियाँ इससे अनभिज्ञ हैं। यह सब का सब कालाधन कहाँ जाता है? इसी अण्डरवर्ड में ही न? हमारे राजनेता इन्हीं गुण्डों की मदद से लोगों की जमीन खाली कराते हैं। मैं खुद इसका भुक्तभोगी हूँ। अगर आपके पास समय है तो मेरे पास आइए। मैं आपको सबकुछ बताउंगा।

अगर यह देश केवल मूर्खॊं और पगलेटों का होता, तो मैं यह पत्र आपको लिखने के बारे में सोचता ही नहीं। यह विडम्बना देखिए कि एक तरफ लोग कितने प्रतिभाशाली हैं कि हम चाँद पर जा रहे हैं, तो दूसरी तरफ आप नेताओं ने ‘अमृत’ को जानलेवा ‘जहर’ बना दिया।

मैं कुछ भी हो सकता हूँ- हिन्दू, मुसलमान, अनुसूजित, पिछड़ा, अनुसूचित ईसाई, क्रीमी लेयर आदि-आदि। बस मैं एक वर्ग में अपनी पहचान नहीं बता सकता- ‘भारतीय’। आप नेताओं ने `बाँटो और राज करो’ की नीति से भारतमाता के हर हिस्से के साथ दुराचार किया है। कुछ तत्व मुम्बई को उत्तर-दक्षिण के बीच बाँटने मेंलगे हुए थे। ये पिछले हफ्ते से कहीं छिपकर आराम फरमा रहे हैं। जैसे चूहा बिल में घुस जाता है। एक महीना पहले उनकी करतूतें भी किसी आतंकवादी से कम नहीं थीं। बस गोलियों का अन्तर था

हमारे पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे.कलाम जी का उदाहरण देखिए। क्या प्रतिभाशाली व्यक्तित्व रहा है उनका, और कितने उम्दा इन्सान हैं वे….! लेकिन आप नेताओं ने उनको भी नहीं बख्शा। आपकी पार्टी ने विपक्षी पार्टियों से हाथ मिलाकर उन्हें चलता कर दिया। क्योंकि राजनेता ये महसूस करते हैं कि वे ही सर्वोच्च हैं और किसी भले आदमी के लिए यहाँ कोई जगह नहीं है।

तो, प्यारे पी.एम. जी, आप स्वयं भी अत्यन्त बुद्धिमान और सबसे अधिक पढ़े-लिखे लोगों में गिने जाते हैं। बस, अब जाग जाइए, एक सच्चा सरदार बन जाइए। सबसे पहले तमाम स्वार्थी नेताओं को नंगा कर दीजिए, स्विस बैंक से सभी भारतीय खाताधारकों का नाम मांग लीजिए। सी.बी.आई. की बागडोर किसी स्वतन्त्र एजेन्सी को सौंप दीजिए। उसे हमारे बीच छिपे हुए भेड़ियों का पता लगाने दीजिए। कुछ राजनीतिक उठापटक जरूर होगी। लेकिन हम यहाँ जो मौत का नंगा नाच देख रहे हैं, उससे तो यह बेहतर ही होगा।

आप हमें एक ऐसा माहौल दीजिए जहाँ हम बिना किसी डर के ईमानदारी से अपना काम कर सकें। कानून का राज तो कायम करिए। बाकी बातें अपने आप ठीक हो जाएंगी।

अब चुनाव आप को करना है। आप एक व्यक्ति के पीछे-पीछे चलना चाहते हैं कि १०० करोड़ व्यक्तियों के आगे चलकर उनका नेतृत्व करना चाहते हैं।

प्रकाश बी. बजाज
चन्द्रलोक ‘ए’ विंग
फ्लैट संख्या- १०४
९७,नेपियन सागर मार्ग
मुम्बई-४०००३६ दूरभाष: ०९८२१०-७११९४

शुक्रवार, 28 नवंबर 2008

उफ़्‌... ये क्या हो रहा है?


ॐ शान्तिः।

कोई शब्द नहीं हैं...।
बस...।
अब बहुत हो चुका...।

मंगलवार, 25 नवंबर 2008

यह सरकारी ‘असरकारी’ क्यों नहीं है?

आलोक पुराणिक जी ने इस रविवार को अगड़म-बगड़म में भारत की शिक्षा व्यवस्था की तृस्तरीय दशा को अमेरिका, मलेशिया और बांग्ला देश के समतुल्य समानान्तर क्रियाशील बताते हुए एक अच्छा विश्लेषण प्रस्तुत किया है। एक ही देश में अनेक तरह की समानान्तर व्यवस्थाओं का चित्रण इस विडम्बना पर सोचने को मजबूर कर देता है। शिक्षा प्रणाली में व्याप्त एक और विडम्बना की ओर मेरा ध्यान बरबस जाता रहता है जिसे मैं आप सब के समक्ष रखना चाहता हूँ।

यह प्रश्न मेरे मन में अपने व्यक्तिगत अनुभव और अपनी आँखों-देखी सच्चाई से उद्भूत हुआ है। शायद आपने भी ऐसा देखा हो। यदि आपकी नजर में वस्तुस्थिति इससे अलग हो तो उसे यहाँ अवश्य बाँटें।

मुझे अपनी पढ़ाई के दिनों में पूर्वी उत्तर प्रदेश के सरकारी प्राइमरी स्कूल (प्राथमिक पाठशाला), निजी प्रबन्ध तंत्र द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मन्दिर, राजकीय अनुदान प्राप्त अशासकीय (निजी प्रबन्ध) विद्यालय, पूर्णतः राजकीय इण्टर कॉलेज और (स्वायत्तशासी) इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्ययन करने का अवसर मिला है। नौकरी में आने के बाद बारी-बारी से प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा की सरकारी मशीनरी के भीतर काम करने का मौका भी मिला है। इस दौरान अपने आस-पास के निजी क्षेत्र की शिक्षण संस्थाओं में भी जाना हुआ है।

यह सब बताने का कारण सिर्फ़ ये है कि अपने निजी अनुभव के आधार पर मेरी यह धारणा पुष्ट होती गयी है कि “शिक्षा के क्षेत्र में जो ‘सरकारी’ है वह ‘असरकारी नहीं’ है।” आप अपने आस-पास नजर दौड़ाइए तो सहज ही इसकी सच्चाई सामने आ जाएगी। मेरी बात ‘अमेरिका टाइप’ संस्थानों के बजाय मलेशिया, बांग्लादेश और ‘सोमालिया टाइप’ संस्थानों तक सीमित रहेगी, जिनकी इस देश में बहुतायत है।

आप गाँव-गाँव में खोले गये प्राथमिक स्तर के सरकारी स्कूलों की तुलना गली-गली में उग आये प्राईवेट नर्सरी स्कूलों या तथाकथित साधारण ‘कान्वेन्ट स्कूलों’ से करके देखिए। एक सरकारी अध्यापक को जो वेतन और भत्ते (१० से २० हजार) सरकार दे रही है उसमें किसी साधारण निजी नर्सरी स्कूल के आठ-दस अध्यापक रखे जा सकते हैं। लेकिन शिक्षण कार्य के घण्टों की गणना की जाय तो स्थिति उल्टी हो जाएगी। एक सरकारी प्राथमिक शिक्षक एक माह में कुल जितने घंटे वास्तविक शिक्षण का कार्य करता है, प्राईवेट शिक्षक को उससे आठ से दस गुना अधिक समय पढ़ाने के लिए आबन्टित है।

सरकार की ओर से नौकरी की सुरक्षा की गारण्टी मिल जाने के बाद सरकारी शिक्षक अपने मौलिक कार्य (शिक्षण) से विरत हो जाते हैं। इसमें एक कारण तो तमाम ऐसी सरकारी योजनाओं को जिमका शिक्षक से कोई संबन्ध नहीं होना चाहिए उन्हें जमीनी स्तर पर लागू करने की कवायद में उन्हें शामिल कर लेने की नीति है, लेकिन जिन्हें कोई अन्य जिम्मेदारी नहीं दी गयी होती है वो भी इसी बहाने कामचोरी करते रहते हैं।

उच्च प्राथमिक और माध्यमिक स्तर के जिन निजी विद्यालयों के वेतन बिल का भुगतान सरकारी अनुदान से होने लगता है, वहाँ शैक्षणिक गतिविधियों में हालिया सेंसेक्स की तरह गिरावट दर्ज होने लगती है। स्कूल के निजी श्रोतों से वेतन पाने वाले और निजी प्रबन्धन के अधीन कार्य करने वाले जो शिक्षक पूरे अनुशासन (या मजबूरी) के साथ अपनी ड्यूटी किया करते थे, सुबह से शाम तक स्कूल में छात्र-संख्या बढ़ाने के लिए जी-तोड़ मेहनत किया करते थे; वे ही सहसा बदल जाते हैं।

सरकार द्वारा अनुदान स्वीकृत हो जाने के बाद सरकारी तनख्वाह मिलते ही उनकी मौज आ जाती है। पठन-पाठन गौण हो जाता है। उसके बाद संघ बनाकर अपनी सुविधाओं को बढ़ाने और बात-बात में हड़ताल और आन्दोलन करने की कवायद शुरू हो जाती है। मुझे हैरत होती है कि एक ही व्यक्ति प्राइवेट के बाद ‘सरकारी’ होते ही इतना बदल कैसे जाता है। उसकी दक्षता कहाँ चली जाती है?
विडम्बना यह है कि सरकारी स्कूलों में उन्ही की नियुक्ति होती है जो निर्धारित मानक के अनुसार शैक्षिक और प्रशिक्षण की उचित योग्यता रखते हैं; कहने को मेरिट के आधार पर चयन होता है; लेकिन उनका ‘आउटपुट’ प्राइवेट स्कूलों के अपेक्षाकृत कम योग्यताधारी शिक्षकों से कम होता है। ऐसा क्यों?

उच्च शिक्षा का हाल भी कुछ इसी प्रकार का है। मैने कुछ ऐसे महाविद्यालय (degree college) देखे हैं जहाँ सरकार से मोटी तनख्वाह पाने वाले प्राध्यापक महीनों कक्षा में नहीं जाते, छात्रों को परीक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण दस-पाँच प्रश्न नोट करा देते हैं और बाजार में मिलने वाली कुंजी से उनका बेड़ा पार होता है। एक बार नौकरी मिल जाने के बाद इनका अध्ययन पूरी तरह छूट जाता है, और अध्यापन की जरूरत महसूस ही नहीं कर पाते। मैने तो ३०००० वेतन पाने वाले ऐसे ‘रीडर’ देखें हैं जो किसी भी विषय पर ०५ मिनट बोल पाने में अक्षम हैं। वह भी किसी विद्वत-सभा में नहीं बल्कि अपने ही छात्रों के बीच साधारण गोष्ठी के अवसर पर।

उच्च शिक्षा के सरकारी संस्थानों में प्रवेश और शिक्षण-प्रशिक्षण से लेकर परीक्षा की प्रणाली तक सबकुछ घोर भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ता जा रहा है। अब तो विश्वविद्यालयों के माननीय कुलपतिगण भी भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोपों की जाँच का सामना कर रहे हैं और दोषी पाये जाने पर बाक़ायदा बरखास्त किये जा रहे हैं।

इनकी तुलना में, या कहें इनके कारण ही निजी क्षेत्र के संस्थान जबर्दस्त प्रगति कर रहे हैं। यह प्रगति शैक्षणिक गुणवत्ता की दृष्टि से चाहे जैसी हो लेकिन मोटी फीस और दूसरे चन्दों की वसूली से मुनाफ़ा का ग्राफ ऊपर ही चढ़ता रहता है। बढ़ती जनसंख्या और शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ने के साथ-साथ प्राइवेट स्कूल-कॉलेज का धन्धा बहुत चोखा तो हो ही गया है; लेकिन सरकारी तन्त्र में जगह बना चुके चन्द ‘भाग्यशाली’ (?!) लोगों की अकर्मण्यता और मक्कारी ने इस समानान्तर व्यवस्था को एक अलग रंग और उज्ज्वल भविष्य दे दिया है।

आई.आई.टी., आई.आई.एम. और कुछ अन्य प्रतिष्ठित केन्द्रीय संस्थानों को छोड़ दिया जाय तो सरकारी रोटी तोड़ रहे अधिकांश शिक्षक और कर्मचारी-अधिकारी अपनी कर्तव्यनिष्ठा, परीश्रम, और ईमानदारी को ताख पर रखकर मात्र सुविधाभोगी जीवन जी रहे हैं। इनके भ्रष्टाचार और कर्तव्य से पलायन के नित नये कीर्तिमान सामने आ रहे हैं। जो नयी पीढ़ी जुगाड़ और सिफारिश के बल पर यहाँ नियुक्ति पाकर दाखिल हो रही है, वह इसे किस रसातल में ले जाएगी उसकी सहज कल्पना की जा सकती है।

इस माहौल को नजदीक से देखते हुए भी मैं यह समझ नहीं पाता कि वह कौन सा तत्व है जो एक ही व्यक्ति की मानसिकता को दो अलग-अलग प्रास्थितियों (status) में बिलकुल उलट देता है। अभावग्रस्त आदमी जिस रोजी-रोटी की तलाश में कोई भी कार्य करने को तैयार रहता है, उसी को वेतन की गारण्टी मिल जाने के बाद वह क्यों कार्य के प्रति दृष्टिकोण में यू-टर्न ले लेता है?

मैने देखा है कि प्राथमिक विद्यालय में १५००० वेतन पाने वाला अध्यापक चौराहे पर बैठकर गप करने और नेतागीरी में समय काटता है, और ३००० संविदा वेतन पाने वाला अस्थायी शिक्षामित्र एक साथ ३-४ कक्षाओं को सम्हालने की जी-तोड़ कोशिश कर रहा होता है। इंटरमीडिएट कॉलेज का प्रवक्ता प्रतिमाह २०००० लेकर प्रतिदिन दो घण्टे से अधिक नहीं पढ़ाना चाहता, और उन्हीं कक्षाओं को पढ़ाने के लिए ५००० के मानदेय पर नियुक्त अस्थायी ‘विषय-विशेषज्ञ’ लगातार छः घण्टे पढ़ाने को मजबूर है।

मैं आलोक पुराणिक जी समेत तमाम बुद्धिजीवियों और मनीषियों से यह जानना चाहूंगा कि हमारि आर्थिक प्रास्थिति हमारी सोच को इतने जघन्य तरीके से प्रभावित क्यों कर देती है?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

शनिवार, 22 नवंबर 2008

“नहीं, ये सरासर झूठ है…”

“अजी सुनती हो।”

“हाँ जी, बोलिए!”

“लगता है, आज भी कुछ पोस्ट नहीं कर पाउंगा।”

“तो …!?”

“तो…, ये कि मेरी गिनती एक आलसी, और अनियमित ब्लॉगर में होनी तय है…।”

“क्यों? आप क्या खाली बैठे रहते हैं?”

“नहीं ये बात नहीं है… लेकिन ब्लॉग मण्डली को इससे क्या? उसे तो हमारी हाजिरी चाहिए नऽ…”

“इतना टाइम तो देते हैं, ...अभी भी कम पड़ रहा है क्या? ...अब यही बचा है कि हमसब कहीं और चले जाँय और आप नौकरी छोड़कर ब्लॉगरी थाम लीजिए। ...बस्स”

“नहीं यार, वो बात नहीं है। …मेरा मतलब है कि दूसरे ब्लॉगर भी तो हैं जो रेगुलर लिखते भी हैं, नौकरी भी करते हैं और परिवार भी देख रहे हैं…।”

“हुँह…”

“ये सोच रहा हूँ कि ...मेरी क्षमता उन लोगो जैसी नहीं हो पाएगी। यह मन में खटकता रहता है।”

“मैं ऐसा नहीं मानती”

“तुम मेरी पत्नी हो इसलिए ऐसा कह रही हो …वर्ना सच्चाई तो यही है”


“नहीं-नहीं… सच्चाई कुछ और भी है।”

“वो क्या?”

“वो ये कि जो लोग रोज एक पोस्ट ठेल रहे हैं, या सैकड़ो ब्लॉग पढ़कर कमेण्ट कर रहे हैं, उनमें लगभग सभी या तो कुँवारे हैं, निपट अकेले हैं; या बुढ्ढे हैं।”

“नहीं जी, ऐसी बात नहीं हो सकती…”

“हाँ जी, ऐसी ही बात है… जो शादी-शुदा और जवान होते हुए भी रेगुलर ब्लॉगर हैं, उन्हें मनोचिकित्सा के डॉक्टर से मिलना चाहिए”

“नहीं ये सरासर झूठ है…”

“नहीं, यही सच्चाई है, आप शर्त लगा लो जी…।”

(इसके बाद दोनो ओर से नाम गिनाए जाने लगे, …ब्लॉगर महोदय हारने लगे, ...फिर जो तर्क-वितर्क हुआ उसका विवरण यहाँ देना उचित नहीं।थोड़ा लिखना ज्यादा समझना….) :>)

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

मंगलवार, 18 नवंबर 2008

संगम तट पर विष्णुमहायज्ञ सम्पन्न...।

तीर्थराज प्रयाग में संगम तट पर कार्तिक पूर्णिमा के दिन (पिछले वृहस्पतिवार को) एक बहुत बड़े विष्णुमहायज्ञ की पूर्णाहुति हुई। कौशलेन्द्र जी महाराज द्वारा आयोजित इस वृहत्‌ यज्ञ अनु्ष्ठान के लिए पूरे देश से बाल-ब्रह्मचारी यज्ञकर्ता पुरोहितों को आमन्त्रित किया गया था। कुल १०८ यज्ञ मण्डपों की रचना की गयी थी। यज्ञ मण्डप के चारो ओर परिक्रमा पथ पर असंख्य श्रद्धालुओं के बीच चलते हुए मैने अपने मोबाइल कैमरे से कुछ तस्वीरे लीं। आप भी देखिए:-

परिक्रमा पथ पर नर-नारी की अच्छी संख्या थी।

गंगा जी के तट पर फैली पवित्र रेत में फूस से बने पंक्तिबद्ध मण्डप अनुपम छटा बिखेरते हैं।

यज्ञ मण्डप के हवन कुण्ड से उठता धुँवा

परिक्रमापथ पर चहलकदमी

महिलाओं का उत्साह देखने लायक था।

भारी भीड़ को नियन्त्रण में रखने के लिए पुलिस की कोई आवश्यकता नहीं थी।


सभी यज्ञ मण्डप एक ही आकार के कुछ इस तरह के बनाये गये थे।

सभी यज्ञ मण्डपों में एक साथ आहुति के लिए अग्निप्रज्ज्वलित की गयी।



यज्ञ मण्डप के दूसरी ओर दो बड़े
पांडाल बने थे। एक में सैकड़ो आचार्य /पुरोहित रामचरितमानस का अखण्ड पाठ कर रहे थे। दूसरे में व्यास गद्दी से भागवत कथा चल रही थी।

अनुशासित आचार्य व पुरोहित


बताते हैं इस अवसर पर पूरी दुनिया से लाखो श्रद्धालु यहाँ पधारे । अद्‌भुत संगम था। सनातन भारत का एक छोटा रूप गंगा के किनारे उतर आया था। कदाचित्‌ यह भारतीय वैदिक ऋषि परम्परा को आगे बढ़ाने वाला था। काश इस यज्ञ के प्रभाव से गंगाजी की पवित्रता सभी प्रकार के सन्देहों से परे पुनः लौट आए।
(सिद्धार्थ)

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

कितने सन्तान पर जाओगे मान...?

बात उन दिनों की है जब मैं नेपाल सीमा से सटे पूर्वी उत्तरप्रदेश के जिले सिद्धार्थनगर में शिक्षा विभाग में तैनात था। कार्यालय में बैठा हुआ एक संस्कृत विद्यालय के आचार्यजी बात कर रहा था। सरकारी काम से निपटने के बाद धर्म-कर्म, संस्कार, परिवार और पुरुषार्थ पर चर्चा शुरू हो गयी। इसी में सन्तान सुख की बात करते हुए मैने अपनी एक साल की बेटी के साथ खेलने से मिलने वाले अनुपम आनन्द का जिक्र कर दिया। पण्डित जी ने अजीब भावुक सा मुँह बनाया और बोले;

“साहब, मुझे तो अपने विवाह के पन्द्रह साल बाद सन्तान के सुख की प्राप्ति हो सकी। वह भी मैने बड़ी तपस्या और जप-तप किया तब जाकर यह दिन देखने को मिले।”

मैने भी सहानुभूति में कहा- “चलिए, देर से ही सही आप बाप तो बन गये न!”

“नहीं-नहीं साहब, वो बात नहीं है…। ‘भवानी’ तो मेरी ‘पाँच’ पहले से ही थीं। मैं तो ‘सन्तान’ की बात कर रहा हूँ”

पहले तो मैं चकराया, कुछ समझ नहीं पाया; या जो कुछ सुना उसपर विश्वास नहीं हुआ; लेकिन जब उसने यह साफ किया कि ‘सन्तान’ की श्रेणी में केवल पुत्र ही आते हैं तो मेरा खून खौल गया। मैने उसे कठोरतम शब्दों में डाँटते हुए फौरन उठ जाने और कमरे से बाहर निकल जाने का आदेश दे दिया। वह तो दुम दबाकर भाग खड़ा हुआ; लेकिन ऑफिस वाले ऊँची आवाज सुनकर दरियाफ़्त करने मेरे कमरे तक आ गये थे।

आज भी हमारे समाज में ऐसी अधम सोच वाले लोग बचे हुए हैं जो अपने अधकचरे ज्ञान से भारतीय वैदिक साहित्य और ऋषि-परम्परा को बदनाम कर रहे हैं।

यह सब लिखने का तात्कालिक कारण यह है कि सतीश पंचम जी ने सफेद घर पर एक रोचक वाकया पोस्ट किया है। एक महिला अपनी बेटी की शादी में जाने के लिए पहली कक्षा में पढ़ रहे अपने बेटे को स्कूल से छुट्टी दिलाने का कारण बताने में शर्मा रही है। झेंप इस बात की है कि एक के बाद एक पाँच पुत्रियाँ पैदा करने के बाद छठी सन्तान के रूप में बेटा प्राप्त हुआ। इसमें उम्र काफी आगे निकल गयी। नतीजा ये कि बेटे को स्कूल भेंजते-भेंजते बेटी के हाथ पीले करने का वक्त आ पहुँचा।

यह जिस जगह की (मुम्बई?) घटना है वहाँ इसपर लोगों को हैरत है, और कौतूहल भी; लेकिन इधर की गंगा पट्टी (गोबर-पट्टी?) में तो ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। जो क्षेत्र जितना ही पिछड़ा हुआ है वहाँ इस प्रकार के ‘फलदार’ वृक्ष बहुतायत में मिल जाएंगे।

मैं अपने गाँव (जनपद-कुशीनगर, उत्तरप्रदेश) का ही, बल्कि बिल्कुल पड़ोस के घर का उदाहरण बताता हूँ-

इस परिवार को पैतृक सम्पत्ति के रूप में मिली जमीन-जायदाद बँटवारे के बाद बहुत अधिक तो नहीं रह गयी थी; लेकिन फिर भी इसके मालिक श्रीमान् अभी भी अच्छे खेतिहर कहलाते है।

इनकी पहली पत्नी की असामयिक मृत्यु विवाह के कुछ समय बाद ही हो गयी थी। कोई बच्चे नहीं हुए थे। दूसरी शादी हुई तो कमाल ही हो गया…। इस जोड़े की उर्वरा शक्ति आज भी एक किंवदन्ती बनी हुई है। क्यों…? आइए जानें-

विवाह के बाद इनकी धर्मपत्नी पहली सन्तान लड़की हुई तो नाम रखा गया ‘रजनी’; लेकिन सभी उसे प्यार से ‘मण्टी’ बुलाते थे। दूसरी बेटी हुई तो ‘रानी’ कहलायी। तीसरी पर मन थोड़ा चिन्तित होना शुरू हुआ। बे-मन से नाम रखा गया-‘बबली’। फिर चौथी आयी तो सबने सोचकर फैसला किया कि अब बस…! तदनुसार नाम रखा गया- ‘अन्तिमा’। लेकिन पीछे से पाँचवी भी दाखिल हो गयी तो माँ-बाप ने कलेजा मजबूत करके उसे ‘क्षमा’ कह दिया।

इनके मन में बेटे की चाहत थी तो रुकते कैसे? कोशिश जारी रखने का फैसला हुआ। अगली बार भी बेटी ही आयी तो भावुक हो गये… नाम रख दिया- ‘कविता’। उसके बाद एक और प्रयास… लेकिन नतीजा फिर भी वही। भगवान भी इनके धैर्य की परीक्षा लेने पर उतारू थे। इस सातवीं का नाम पड़ा- ‘अनन्ता’। मानो यह सन्देश था कि इनके भीतर आशा, धैर्य, और पुरुषार्थ की कोई कमी नहीं है, यह अनन्त है।

इन सात कन्याओं का पालन-पोषण पूरे स्नेह, वात्सल्य, श्रद्धा, भक्ति और सेवा के भाव से किया गया। कदाचित् इसी से प्रसन्न होकर भगवान ने आँठवें क्रम पर एक पुत्र की कामना पूरी कर दी। फिर क्या था… घर तो घर, सारे इलाके में हर्ष व्याप्त हो गया। दूर-दूर से लोग बधाइयाँ देने पहुँचे। महीनों जश्न मनाया गया। गाँव के जो लोग बाहर रहते थे उन्हें भी बुलाकर दावत दी गयी। मैं भी उनमें से एक था।

पर कहानी यहीं खतम नहीं होती है…। यह साहसी जोड़ा उमंग और उत्साह में इतना मगन हुआ कि खुशी मनाने में ही नौवें की बारी लग गयी। उसका पता चलते ही इन्होंने क्या किया? …कोई ‘ऐसा-वैसा गलत काम’ नहीं किया। …विधाता की इस मर्जी को भी बड़े शौक से इस धरा-धाम पर उतारा गया। एक बार फिर ‘कन्याधन’ में ही बढ़ोत्तरी हुई थी। इसका नाम रखा गया है – ‘सोनालिका’।

आज स्थिति यह है कि ‘मण्टी’ और ‘रानी’ की शादी हो चुकी है; लेकिन ‘सोनालिका’ अभी स्कूल नहीं जा रही है। बताता चलूँ कि यह वही परिवार है जिसकी पिछली पीढ़ी के एक विलक्षण व्यक्तित्व पर मैने ‘ठाकुर-बाबा’ नामक पोस्ट लिखी थी।




लेकिन अभी ठहरिए, इस मसले में कीर्तिमान बनाने के प्रयास में मेरे एक अन्य पड़ोसी (पट्टीदार) थोड़ा और आगे निकल गए हैं। यह बात दीगर है कि ईश्वर ने आखिरी समय तक इनपर वैसी कृपा नहीं की। ये रिश्ते में मेरे बाबा लगते हैं। इन्होंने भी पहली ब्याहता के मर जाने के बाद दूसरी शादी की थी। उससे इन्हें पहले एक पुत्र भी हुआ, लेकिन अकाल मृत्यु का शिकार हो गया। फिर एक के बाद एक पाँच बेटियाँ आ गयीं।

पाँच के बाद उम्र ढलती गयी तो कदाचित् सन्तोष कर गये। लेकिन किसी ज्योतिषी ने ‘पचपन’ की उम्र में बता दिया कि पुत्र-योग बन रहा है। उम्मीद जग गयी कि इस बार बेटा ही होगा। फिर क्या था… सबसे छोटी बेटी दस साल की हो चुकी थी, बड़ी बेटी तीन साल पहले ससुराल जा चुकी थी… लेकिन आशा इतनी बलवती हुई कि फिर सन्धान कर डाला। आधुनिक तकनीक का कोई सहारा लिए बगैर ही मान लिया कि बेटा आ रहा है। मन ही मन स्वागत की ढेरों तैयारियाँ कर डाली।

लेकिन, हाय रे दुर्भाग्य! सबकी आशाओं पर पानी फेरते हुए ‘अनन्या’ ने जन्म लिया। लगभग साठ साल की उम्र में इस छठी पुत्री को पाकर उनका मन कैसा हुआ होगा यह सहज अनुमान का विषय है।

बड़ी संख्या में फैले इन उदाहरणों को देखकर आप क्या कहेंगे? हसेंगे, मुस्कराएंगे या सिर पीट लेंगे। हमारे यहाँ तो इसे भगवान की मर्जी के नाम पर सहज स्वीकार कर लिया जाता है।

मेरे विचार से यह एक तरफ़ तो घोर पिछड़ेपन की निशानी लगती है; लेकिन बेटे की चाह के चक्कर में कोंख में आने वाली बेटियों को भी पैदा करके पालने-पोसने को तैयार ये ‘पिछड़े’ माँ-बाप उन पढ़े-लिखे, आधुनिक और ‘प्रगतिशील’ दम्पतियों से तो बेहतर ही हैं जो गर्भ में आते ही भ्रूण की जाँच कराते हैं, और परिणाम ‘सकारात्मक’ (positive result?) नहीं होने पर उसकी हत्या गर्भ में ही करा देते हैं।

इसी आधुनिक समाज में वे पेशेवर डॉक्टर और तकनीशियन भी हैं जो इस कार्य के बदले मोटी रकम कमाकर आभिजात्य धारण कर लेते हैं। समाज के प्रतिष्ठित लोगों में इनकी गणना होने लगती है।

ग्रामीण भारत के अत्यन्त गरीब, भूमिहीन और कमजोर तबके में बच्चों की पैदाइश का एक अलग समाजशास्त्र है, जो घर की अर्थव्यवस्था से जुड़ा हुआ है। इसकी चर्चा फिर कभी।

यहाँ आपके विचारों का स्वागत है।

पुछल्ला
आज बाल दिवस पर मेरे एक मित्र ने यह मजेदार sms भेजा है:
जाने लोग १४ फरवरी (वेलेन्टाइन डे) को ऐसा क्या करते हैं कि ठीक नौ महीने बाद १४ नवम्बर कोबाल दिवसमनाना पड़ता है…? :)


(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)