शहरीकरण की प्रक्रिया तेज होने का मुख्य
कारण विकसित शहरों में उपलब्ध वे अवसर और सुविधाएं हैं जो जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने और
उन्हें बनाये रखने के लिए आवश्यक हैं। जीविकोपार्जन के लिए जरूरी
रोजगार
मिलने के अतिरिक्त बच्चों के लिए अच्छे
शिक्षण व प्रशिक्षण संस्थान, बड़े-बुजुर्गों की देखभाल के लिए बेहतर अस्पताल व स्वास्थ्य
सुविधाएं, घर-परिवार के उपभोग की वस्तुओं के लिए बड़े बाजार, मॉल, रेस्टोरेंट व मनोरंजन
के लिए क्लब, मल्टीप्लेक्स व थीम-पार्क इत्यादि
भी शहरों में ही हैं। सबका साथ सबका विकास के नारे के बावजूद ये सुविधाएं ग्रामीण क्षेत्रों
में नहीं के बराबर मिलती हैं। यहाँ तक कि ग्रामीण क्षेत्र में पैदा होने वाली हरी सब्जी,
फल व दूध इत्यादि भी अच्छी कीमत की तलाश में शहरों की ओर ही चले आते हैं।
इस शहरी जीवन
की मांग को पूरा करने के लिए सरकार की ओर से आवास विकास परिषद व बड़े शहरों में विकास
प्राधिकरण लगातार नयी कालोनियां बसा रहे हैं और इन कालोनियों में अनेक अवस्थापना सुविधाएं
भी बढ़ा रहे हैं। निजी क्षेत्र में भी 'रियल एस्टेट' का धंधा खूब फल-फूल रहा है।
लखनऊ में इंदिरानगर आवासीय कॉलोनी बहुत
पहले बसायी गयी थी। इसमें प्रायः सभी आय वर्ग के लोगों के लिए अलग-अलग स्तर के आवासीय
प्लॉट हैं, उपभोक्ता बाजार हैं, मंदिर-मस्जिद हैं, स्कूल-कॉलेज़ हैं, गोल चौराहे हैं,
फल और सब्जी की मंडियाँ हैं और छोटे-बड़े अनेक पार्क हैं जिसमें खूब हरियाली है। मुंशी
पुलिया चौराहा पहले लखनऊ शहर के बाहर से जाने वाले फैज़ाबाद-सीतापुर बाईपास (रिंग रोड)
पर स्थित था लेकिन कालांतर में इस कॉलोनी के वृहद विस्तार के बाद यह इंदिरानगर के लगभग
बीचोबीच में आ गया है जिसके चारों ओर घनी बसावट है। यह कॉलोनी इतनी पुरानी तो हो ही
गयी है कि इसमें प्लॉट लेकर घर बनाने वाले अधिकांश लोग सेवानिवृत्त हो चुके हैं और
उनकी अगली पीढ़ी जवान होकर गृहस्थी की कमान सम्हाल
रही है।
जो नये लोग इंदिरानगर में
बसने आ रहे हैं वे या तो किसी अपार्टमेंट
में आ रहे हैं या कॉलोनी के सीमावर्ती क्षेत्रों में निजी क्षेत्र द्वारा विकसित आवासीय
कॉलोनियों में आ रहे हैं। मैंने मुंशी पुलिया से सात-आठ किलोमीटर पूरब व उत्तर दिशा
में विकसित होने वाली नयी कॉलोनियों के साइन बोर्ड पर उनका पता मुंशीपुलिया इंदिरानगर
के नाम पर लिखा हुआ देखा है। लखनऊ मेट्रो की
रेलपटरी
का
पूर्वी सिरा मुंशीपुलिया चौराहे के पास बन रहे स्टेशन पर समाप्त होगा। मेट्रो स्टेशन
के नाम पर यहाँ से आठ-दस किलोमीटर दूर तक की जमीनें महंगी हो गयी हैं। लेकिन शहरीकरण
की आकर्षक सुविधाओं की कीमत चुकाने को लोग तैयार हो रहे हैं।
आवास विकास परिषद द्वारा मुंशीपुलिया
चौराहे के पूरब अरविंदो पार्क व पश्चिम तरफ स्वर्णजयंती पार्क विकसित किये गये हैं
जो खूब हरे-भरे व सुसज्जित हैं। सुबह-शाम टहलने वाले बुजुर्गों और उम्रदराज औरतों व
आदमियों की अच्छी संख्या दिखती है तो दिन में किशोर व नयी उम्र के लड़के-लड़कियाँ व प्रेमी
युगल यहाँ की शोभा बढ़ाते हैं। अरविंदो पार्क में भारतीय योग संस्थान के बैनर तले निःशुल्क
योग शिविर का आयोजन होता है। सुबह पांच बजे ही योग के आचार्य और निष्ठावान साधक अपना
आसन जमा लेते हैं। हरी मुलायम घास पर सबसे नीचे प्लास्टिक शीट, उसके ऊपर हल्की दरी
और उसके ऊपर सफेद चादर डालकर आसन बनता है। इस आसन पर बैठकर, खड़े होकर और लेटकर साधक
स्त्री-पुरुष योगासन, प्राणायाम और ध्यान का अभ्यास कुशल व प्रशिक्षित आचार्यों के
दिशानिर्देशन में करते हैं।
मैं जब भी लखनऊ में सुबह आँखें खोलता हूँ तो इस योग कार्यक्रम
में सम्मिलित होने का प्रयास करता हूँ। बाकी दिनों में जहाँ भी रहता हूँ अपने कमरे
में 'शिक्षक संहिता' नामक पुस्तिका की सहायता से यहाँ सीखे हुए
सारे
अभ्यास करने की कोशिश करता हूँ। लेकिन सामूहिक रूप से किये जाने वाले योगासन-प्राणायाम-ध्यान
का आनंद ही कुछ और है।
इस सप्ताहांत सुबह पाँच बजे तैयार होकर
ऍपार्टमेन्ट से बाहर निकला तो हल्की बूंदा-बांदी हो
रही थी। मैंने आसन की सामग्री वाला बैग साइकिल के कैरियर पर इस प्रकार दबाया कि प्लास्टिक
शीट वाला हिस्सा सबसे ऊपर रहे और मोबाइल, पर्स और पुस्तक वाला सबसे नीचे ताकि बारिश
की बूंदों से कोई नुकसान न हो। आज मेरे मन में
यह जानने की उत्सुकता थी कि इस खराब मौसम में ये साधक अपने कार्यक्रम कैसे करते होंगे।
घर से चलकर मैं पार्क
के प्रवेश द्वार पर आया। जब मैं साइकिल खड़ी
कर रहा था तो हल्की बूँदें मेरे प्रयास पर प्रश्नचिह्न लगाती जा रही
थीं।
वहाँ
टिकट काउंटर में सिर छिपाये बैठा संतरी बाहर निकल आया। उसने मुझे ऐसे देखा जैसे पूछ
रहा हो - अजीब अहमक आदमी हो, इस बारिश में कैसे आ गये इधर? मैंने उसके इस भाव को थोड़ी और हवा देते हुए पूछ लिया - वो
योगासन वाले कोई आये हैं क्या? उसने घड़ी देखा जिसमें सवा पांच बजे रहे होंगे, फिर एक
तरह की मौज लेते हुए बोला- अंदर जाकर देख लीजिए।
मैंने साइकिल में ताला लगाकर बैग कंधे
से लटकाया और अंदर जाकर टहलने के लिए बनी लाल पत्थरों वाली पगडंडी पर तेज कदमों से
चलने लगा। भीतर कुछ जिद्दी टाइप बुजुर्ग टहलबाज छाता लगाकर टहलते मिले। लेकिन उस स्थान
पर कोई नहीं मिला जहाँ योग की कक्षा चलती है। वहाँ
आसनों के नीचे दबी रहने वाली हरी दूब की पत्तियाँ आज तन कर खड़ी हो गयी थीं। बारिश की जो गोल-गोल
बूँदें उनके ऊपर की छोर पर पड़ती तो वे एक ओर झुक जाती।
फिर
बूंदें धीरे-धीरे नीचे की ओर सरकती जाती और पत्तियां शनैः शनैः पूर्वावस्था में खड़ी हो जातीं। इस प्रकार लगभग अर्द्ध
चंद्रासन की मुद्रा बनाती और फिर सीधी हो जाती पत्तियों पर योग-कक्षा
का पूरा प्रभाव दिख रहा था।
पार्क के टहल-पथ पर एक चक्कर लगाने के बाद मैं बाहर आ गया। बौछारें अब तेज़ हो
गयी थीं। घर लौटते-लौटते मैं भीग ही जाता। इसलिए बारिश में दिल खोलकर भींग लेने का
विचार उछल पड़ा। मैंने बैग को फिर से उल्टा करके कैरियर में दबा दिया। सबसे नीचे वाली
जेब में मोबाइल व बटुआ, उसके ऊपर पुस्तिका, उसके ऊपर तह की हुई चादर, फिर दरी और सबसे
ऊपर प्लास्टिक शीट की पच्चीस परतें। मैं आश्वस्त था कि बैग में जरूरी सामान सुरक्षित
रहेगा। मैंने साइकिल को घर के रास्ते से उल्टी दिशा
में बढ़ा दिया। सेक्टर-11 की ओर जाने वाली चौड़ी सड़क बिल्कुल खाली थी। बिजली के खंभों
पर पीले प्रकाश वाले हेलोजन बल्ब जल रहे थे जिनकी रोशनी गीली सड़क से परावर्तित हो रही
थी। सड़क पर गिरती बूंदों से उठते छींटे इस पीले प्रकाश के साथ मिलकर अद्भुत छटा बिखेर
रहे थे। जैसे केसर की घाटी में मोती उछल रहे हों।
तभी सामने
से एक औरत पुराने पड़ चुके एक छेदहे छाते में अपना सिर ढके चली आ रही थी। उसके पीछे
एक मरियल कुत्ता भी टांगों में पूंछ घुसाये हुए, सिर ऊपर-नीचे करता चला आ रहा था। निश्चित
ही उधर कोई गरीब बस्ती होगी जहाँ से निकलकर यह कामवाली अमीरों के घर झाड़ू-पोछा-बर्तन
या कपड़े धोने का काम करने जा रही होगी। रात भर का
भूखा कुत्ता भी इन घरों से निकलने वाले सुबह के कूड़े से अपना पेट भरने की फिराक़ में
ही निकला होगा, वर्ना मुँह-अंधेरे बारिश
के मौसम में कौन अपनी नींद में खलल डालना चाहेगा।
दोनो तरफ सीधी लाइन में खड़े पक्के मकानों के भीतर की मद्धिम रोशनी
और सड़क पर पसरे सन्नाटे से तो यही पता चल रहा था कि अधिकांश लोग या तो सो रहे हैं या
जागकर भी बिस्तर पर लेटे हुए बारिश की बूंदों की टप-टप और रिमझिम
का
संगीत सुन रहे हैं। मैं तो अपनी नयी-नवेली बिल्कुल शांत साइकिल पर चलता हुआ न सिर्फ
बारिश का संगीत सुन रहा था बल्कि आसमान से
गिरती बूंदों
का नृत्य भी देख रहा था। मेरे चेहरे को गुदगुदाती-सहलाती
बूंदें, पेड़ों की कोमल पत्तियों से चिपककर आलिंगन करती बूंदें, बिजली के पोल से सरककर नीचे आती बूँदें, पक्की सड़क के तारकोल को चमकाती बूंदें,
संगमरमर लगी मुंडेर पर गिरकर दूर तक छिटकती बूंदे और टिन की छत पर गिरकर समूह में इकठ्ठा हो नीचे गिरती धाराप्रवाह
बूंदें। इन सबका नृत्य अलग-अलग था। कुछ बूंदे मिट्टी, गोबर या कींचड़ में गिरकर तिरोहित
हो जाती तो कुछ सौभाग्यशाली ऐसी भी थीं जो फूलों के बीचोबीच जाकर उनकी सुगन्ध के बीच
धन्य हो जाती। मेरा मन कुछ तस्वीरें लेने को ललच रहा था लेकिन बारिश इतनी तेज थी कि
मोबाइल को बाहर निकालना सुरक्षित नहीं जान पड़ा।
चौड़ी सड़क के
अंतिम
छोर पर पहुँचकर मैं आगे की पतली
सड़क पर मुड़ कर बसावट के भीतर चला गया। आगे निम्न
व
दुर्बल
आय वर्ग वाले मकान थे। बहुत कम जमीन में बने इन घरों के दोनो किनारों
की
दीवारें पड़ोसी के घर से बिल्कुल चिपकी हुई होती हैं। बीस-पच्चीस
साल
पहले बने इन अधिकांश मकानों के आगे अब
मारुति-ऍल्टो-आईटेन या नैनो जैसे चार पहिया वाहन खड़े हो गये हैं। लेकिन इनके
लिए छत वाली पार्किंग की जगह नहीं है। निश्चित रूप
से यहाँ की दीवारों पर आर्थिक विकास की कहानी लिखी हुई दिख रही थी। एक गली से दूसरी
गली में होता हुआ मैं वापसी का रास्ता तलाशने लगा। तभी एक गली अचानक समाप्त हो गयी
जिसके आगे खाली जमीन थी। जमीन में गोबर और पानी के मिश्रण से बना कीचड़ और उसमें पगुराती
खड़ी भैसों को बारिश का आनंद लेते देखकर मैं वापस मुड़ गया। एक दूसरी गली से तीसरी गली में होता हुआ मैं आगे बढ़ता गया तो अचानक डिवाइडर वाली चौड़ी सड़क पर निकल
आया। एक बोर्ड से पता चला कि यह अमर शहीद कैप्टन मुकेश श्रीवास्तव मार्ग है।
यहाँ से मुझे घर वापस लौटने का रास्ता
पता था। सेक्टर-17 में आकर मुझे एक ऐसा स्थान मिल ही गया जहाँ खड़े होकर अपनी साइकिल
की सेल्फी ले सकता था। वहीं एक परचून की
दुकान की
टिन
की छत से बरसाती धारा गिर रही थी। आसपास कोई बच्चा
होता
तो वह इसके नीचे खड़ा होकर जरूर नहाने का मजा लेता। लेकिन
बच्चे अभी बिस्तर में
होंगे।
बहुत
सबेर थी अभी।
स्ट्रीट-लैंप की पीली
रोशनी
दिन के उजाले पर अभी भी भारी थी। अब आप तस्वीरें
देखिए और मुझे इजाजत दीजिए। मैं घर पहुँचकर अपने कपड़े बदलता हूँ। ज्यादा देर तक भींगा रह गया तो... सुना है शहर में
स्वाइन-फ्लू अपने पाँव पसार रहा है।
सेक्टर-16 इन्दिरानगर की डूबी सड़क |
बैग मे सुरक्षित योगासन सामग्री के साथ नहाती साइकिल |
हम भी अगर बच्चे होते तो पीछे टिन की छत से गिरती जलधारा का मजा लेते |
बारिश के पानी से सराबोर हमारी बालकनी से दिखती सड़क |
साइकिल जब नयी-नयी आयी थी तब मौसम बहुत अच्छा था। |
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
www.satyarthmitra.com
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (30-08-2017) को "गम है उसको भुला रहे हैं" (चर्चा अंक-2712) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बचपन वाली हरकतें तो किसी भी उम्र में की जा सकती है। आखिर मन तो हमेशा बच्चा ही रहता है।
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’खेल दिवस पर हॉकी के जादूगर की ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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