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शनिवार, 14 मई 2016

अभियानों से बेखबर गाँव और सूखती नदी

सूखती नदी पर पसरी हरियाली
14 मई 2016
इब्राहिमपुर, रायबरेली
‪#‎साइकिल_से_सैर‬
आज साइकिल लेकर सीधे स्टेडियम पहुँचा जहाँ का तरणताल हाल ही में तैराकी के शौक़ीन शहरियों के लिए फिर से खोल दिया गया है। साइक्लिंग के साथ-साथ स्विमिंग का आनंद लेते हुए मुझे तीन दिन ही हुए थे, लेकिन आज चौथे दिन बाधा आ गयी। बंद चैनेल गेट पर सूचना चस्पा थी कि पानी बदलने और सफाई के लिए पूल दो दिन बंद रहेगा।
उल्टे पाँव वापस लौटने के बजाय मैंने सोचा कि आज फिर से कानपुर रोड से दरीबा तिराहा मोड़ होते हुए उस गाँव तक हो आऊँ जहाँ वह छोटा सा कटहल से लदा हुआ पेड़ मिला था। मैंने उधर साइकिल मोड़ भी ली थी लेकिन पुलिस लाइन्स मोड़ आते ही विचार बदल गया। एक तो भारी भरकम ट्रकों की आवाजाही का विकर्षण और दूसरे किसी नयी राह को जानने का आकर्षण - मेरी साइकिल ने पश्चिम के बजाय दक्षिण की राह पकड़ ली। मुझे बस यह पता था कि पुलिस का परेड ग्राउंड इसी ओर है।
सूचना पट्ट से सूचना नदारद
पुलिस परिसर से पहले ही एक सड़क बायीं और निकलती दिखी जिसके किनारे की दुकानों के बोर्ड बता रहे थे की यह मटिहा रोड है। मैं दक्षिणाभिमुख होकर इसी रोड पर चल पड़ा। मन में एक अनुमान था कि शहर के पश्चिम से बहती हुई सई नदी दक्षिण की ओर होकर ही पूरब चली जाती है तो आगे यह सड़क सई से जरूर मिलती होगी। मुझे देखना यह था कि यह मिलाप कितनी दूरी पर था और कैसा था।
पुलिस लाइन्स परिसर की चारदीवारी से सटी हुई यह सड़क जल्दी ही शहर से बाहर आ गयी। बाहर आते ही सबसे पहले दिखा कि इसके दोनो ओर के खेतों को छोटे छोटे टुकड़ों में घेरकर आवासीय प्लॉट बना दिये गए हैं। कुछ बिक चुके प्लॉटों में बाउंड्री बनाकर गेट में ताले भी लगे दिखे। मतलब यह कि शहर अपने पाँव इस ओर भी पसार रहा है।
आगे बढ़ा तो ग्राम पंचायत अकबरपुर कछवाह की 'सार्वजनिक वितरण प्रणाली उचित मूल्य की दुकान' का सूचना पट दिखायी दिया जिसपर सभी जरुरी सूचनाएँ नदारद थीं। इससे आगे बढ़ा तो एक खूब रंगा-पुता सरकारी पूर्व माध्यमिक विद्यालय 'गोंड़ियन के पुरवा' में मिला जो अभी खुला नहीं था क्यों कि साढ़े छः ही बज रहे थे। शहर से सटा लबे-सड़क होने के कारण इस स्कूल की व्यवस्था जरूर चाक-चौबंद होगी यह सोचता हुआ मैं आगे बढ़ गया। सड़क आगे ही बढ़ती जा रही थी और सई नदी का कोई सुराग नहीं था।
अब भी खरे हैं तालाब
जिलाधिकारी के अभियान से लबालब भरा तालाब
मैंने अगले गाँव में प्रवेश किया तो नुक्कड़ पर एक छोटा सा तालाब मिला जिसके किनारे आम के पेड़ पर टिकोरे चमक रहे थे। तालाब का पानी हाल ही में भरा गया था जो जिलाधिकारी के हालिया अभियान की कहानी कह रहा था। डीएम साहब ने जिले के प्रायः सभी अधिकारियों को देहात में दौड़ा रखा है जिन्हें यह सुनिश्चित करने को कहा गया है कि गर्मी के आतप से बचाव के लिए जिले के सभी जलाशय पानी से भरे रहें। मुझे आगे भी एक तालाब दिखा जो आश्चर्य जनक रूप से लबालब भरा हुआ था। एक लड़का उनींदी आँखों से घर के बाहर निकल कर हाथ में लोटा लटकाये सड़क पर आता दिखायी दिया। पूछने पर उसने बताया कि तीन दिन पहले किसी ट्यूबवैल का पानी इसमें डाला गया था। आगे एक बड़ा सा स्कूल परिसर दिखा जिसमें प्राथमिक शिक्षा विभाग के कई भवन बने हुए थे। एक ही परिसर में प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालय तथा इसके अनेक अतिरिक्त कक्षा-कक्ष रहे होंगे। परिसर में आम और नीम के विशाल पेड़ बता रहे थे कि विद्यालय बहुत पुराना है। यहाँ भी अभी सन्नाटा पसरा हुआ था।
पठन-पाठन की प्रतीक्षा में खड़ा स्कूल परिसर
इधर सड़क किनारे एक बड़ा सा कब्रिस्तान भी दिखा। इसका अगला गाँव था कोलवा और उसके आगे मिला इब्राहिमपुर। दोनों पुरवे लगभग सटे हुए हैं। बबूल का जंगल इन्हें घेरे हुए है जिनसे निकली हुई पगडंडियाँ गाँव वालों को सड़क की दूसरी ओर खेतों में ले जाती हैं। गेहूं की फसल कट जाने के बाद ये खेत प्रायः खाली थे। इन्हीं खेतों में बकरियों का एक झुंड दिखा जिसके पीछे आठ दस-साल की एक लड़की थी और उससे छोटा एक लड़का था। दोनों 'स्कूल चलो' की पुकार से बेखबर चरवाही कर रहे थे। इन्हें सर्व शिक्षा अभियान ने बरी कर रखा है शायद।
भेड़-बकरी के संग जीवन
स्कूल से कोसों दूर
गेंहू से खाली खेतों के बीच-बीच में बाड़ लगे हुए सब्जी के खेत मिले और इक्का-दुक्का झुरमुट भी जिनकी आड़ में गाँव वाले प्रातःकाल के नित्य कर्म से निपटने का काम लेते होंगे। हाथ में पानी की बोतल, कोई डिब्बा या लोटा लिए मर्दों के अलावा मुझे गाँव से निकलती लड़कियाँ और औरतें भी दिखीं जो बता रही थीं कि ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम का सन्देश रायबरेली शहर से तीन-चार किलोमीटर दूर पक्की सड़क पर बसे इस गाँव तक अभी नहीं पहुँच सका है। लौटते समय एक लड़का बगल से गुजरा तो मैंने पूछ लिया। उसने बताया कि सरकारी पैसे से एक-दो घरों में शौचालय बने हैं लेकिन ज्यादा लोग अभी बाहर खुले में ही जाते हैं।
इब्राहिमपुर के बगल से गुजरती हुई सड़क क्रमशः ऊँची होती गयी तो मैं समझ गया कि आगे सई नदी है जिसपर पुल भी है। पुल पर पहुँचने के लिए मुझे अतिरिक्त दम लगाना पड़ा क्यों कि चढ़ाई कुछ ज्यादा तीव्र हो गयी थी। लोहे की रेलिंग वाला पुल सड़क की तुलना में खासा चौड़ा है। इसपर एक बाइक खड़ी थी और एक साइकिल वाला रेलिंग से सिर लटकाकर नीचे के पानी को गौर से देख रहा था।
सूखते पानी में तड़पती मछलियाँ
मैंने भी अपनी गाड़ी खड़ी की और उसके बगल में जाकर नीचे झांकने लगा। यहाँ पानी में कोई बहाव नहीं था, बल्कि जमे हुए पानी से एक पोखर की आकृति बन गयी थी जिसके चारो ओर शैवाल, जलकुम्भी और दूसरी वनस्पतियों का जाल बिछा हुआ था। नदी के दोनो किनारों की ढाल पर किसी ने नेनुआ, तरोई, लौकी आदि की लताएँ उगा रखी थीं जिनकी रखवाली के लिए वहीं एक मड़ई भी डाल ली थी। पुल के नीचे जमा पानी में कुछ मछलियों को उछलते देखकर मैंने उस आदमी के कौतूहल का रहस्य समझा। उसने बताया कि पानी रोज कम हो रहा है, बहाव खत्म हो गया है इसलिए ये मछलियाँ बेचैन हैं। मैं पूछ ही रहा था कि इन्हें कोई मछुआरा पकड़कर क्यों नहीं ले जाता तबतक दो मानव आकृतियां उस जलराशि के किनारे आकर उकड़ू बैठ गयीं। मैंने लजाकर नीचे झांकना बंद कर दिया ताकि वे निर्द्वन्द्व होकर शौच-प्रक्षालन कर सकें। मैंने दूसरी तरफ की रेलिंग पर जाकर लगभग सूख चुकी नदी के साथ सेल्फ़ी लिया और गर्मी से मुरझाई प्रकृति को देखता रहा।
तटबन्ध पर सब्जी की खेती
तभी वहाँ खड़ी मोटरसाइकिल के स्वामी आ गए और उनके स्टार्ट करते ही उसके पीछे बैठने वाले सज्जन भी पहुँच गए। अब समझ में आया कि ये वही दो लोग थे जो कहीं पास के गाँव से नदी पर निपटान करने आये थे। मैंने भी अपनी साइकिल स्टार्ट कर वापसी यात्रा प्रारम्भ कर दी।
वापस लौटते हुए रास्ते में पैदल, साईकिल और ऑटो रिक्शा से स्कूल जाते बच्चे दिखे। एक खड़खड़िया साइकिल हांकते अंशू कुमार मिले जो रायबरेली पब्लिक स्कूल में सातवीं के छात्र थे। अपने मामा के गाँव कोड़र से रोज शहर के स्कूल पढ़ने आते हैं जो छः किलोमीटर दूर है। एक साइकिल सवार नौवीं के बालक से भी बात हुई जो गोपाल सरस्वती में पढ़ता है। पहले स्कूल-बस से जाता था लेकिन भाड़ा पाँच सौ से ज्यादा हो गया तो पुरानी साइकिल खरीद ली।
गोड़ियन का पुरवा स्कूल पर लौटा तो करीब दर्जन भर बच्चों द्वारा प्रार्थना के बाद राष्ट्रगान गाया जा रहा था। गेट पर कुछ विद्यार्थी रुके हुए थे जो लेट हो गए थे। ये तब अंदर गए होंगे जब राष्ट्रगान के बाद 'भारतमाता की जय' का गगनभेदी नारा पूरा हो गया होगा। मैंने दूर निकल आने के बाद भी उस जयकारे की आवाज सुनी। रास्ते में शहर की ओर से देहात की ओर जाती नख-सिख ढंककर स्कूटी चलाती या बाइक के पीछे बैठी अध्यापिकाएँ दिखीं जो प्रायः वीरान पड़े सरकारी प्राथमिक स्कूलों में हाज़िरी बनाने जा रही थीं।
स्कूल चलें हम
इधर जेल रोड पर गाय-भैंस पालकर दूध का व्यवसाय करने वाली खोली से एक तेरह-चौदह साल की लड़की सिर पर गोबर से भरा तसला लेकर निकली और सड़क पार करने लगी। लंबी छरहरी काया और गोरा-चिट्टा रंग लिए वह धूल और पसीने से सराबोर थी जो दूसरी तरफ इकठ्ठा गोबर के ढेर तक जा रही थी। यह ढेर जो धीरे-धीरे खाद में बदल जाएगा और किसी फसल को पोषित भी करेगा; वह इस लड़की के बाप को कुछ पैसे भले ही दिला दे लेकिन इसके जीवन के अंधकार में शिक्षा का उजाला फैलने से रोकता रहेगा।
इसी चिंतन में मामा चौराहे की क्रासिंग पार हो गयी और चौराहे पर सवारी की प्रतीक्षा में अभी भी बदस्तूर खड़ी शिक्षिकाओं को देखते हुए घर आ गया। ये अपने स्कूल कब पहुंचेंगी भला। सात तो कबका बज चुका है...!
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी) www.satyarthmitra.com

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (16-05-2016) को "बेखबर गाँव और सूखती नदी" (चर्चा अंक-2344) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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