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रविवार, 30 जून 2024

सहारनपुर के बाग के आम और महकता धान का खेत

#साइकिल_से_सैर

आज दुबारा पुंवारका से बरौली रोड पर 8 किलोमीटर तक बिना रुके साइकिल से गया। मील के पत्थर पर रुका, कुछ सेल्फी ली और वापस मुड़कर पैडल पर पांव रखते हुए यह सोचने लगा कि जब दूरी की इकाई किलोमीटर में लिखी है तो इसे 'माइल-स्टोन' क्यों कहते हैं। अंग्रेजी विरासत यहां भी उपस्थित है।

वापसी के दौरान बरबस मुझे दो - तीन बार रुकना पड़ा।

सबसे पहले एक आम के बाग ने आकर्षित किया। मैने रुककर पूछा कि पककर तैयार आम मिलेंगे क्या? वहां खड़े एक आदमी ने टोकरी दिखाई जिसमें डाल से टपके हुए फल रखे थे। मैने चुनचुनकर 10-12 ताजे आम निकाले, डिजिटल तराजू पर तौल कराई, पैसे दिए और साइकिल के कैरियर पर थैली को बांधकर चल दिया। इसमें मालदा, दशहरी, और एक अन्य कलमी प्रजाति भी थी जो मुझे याद नहीं। देसी प्रजाति वाले बिज्जू आम दो चार दिन बाद मिलेंगे।

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रास्ते में जो सबसे बड़ा वाला तालाब है उसके ऊपर दो तीन बगुले मंडरा रहे थे। वे पानी की सतह पर खुली हवा में सांस लेने के लिए ऊपर आने वाली मछलियों के शिकार का प्रयास कर रहे थे। मन हुआ कि इसका वीडियो बनाऊँ लेकिन संकोच कर गया। कार्डियो वर्कआउट में विराम जो लग जाता।

आगे बढ़ा तो एक हरे-भरे खेत के बगल से गुजरते हुए मेरे नथुने एक विशेष सुगंध से भर उठे। ऐसी सुगंध तो रसोई में तब फैलती है जब बासमती या कालानमक चावल उबल रहा होता है। मैं वहां बरबस ही रुक गया। किसी सुगंधित प्रजाति का धान था जिसकी बालियां इस खेत में फूटने वाली थीं। देखने से स्पष्ट था कि यह किसी बड़े और शौकीन किसान का खेत है। खेत की तस्वीर में इससे उठती मादक सुगंध तो कैद नहीं हो सकती थी लेकिन इसके सौंदर्य का आनंद तो लिया ही जा सकता है।

आगे बढ़ा तो एक गड़ेरिए का बाड़ा मिला जहां भेड़ों का समूह शांति से बैठकर आराम कर रहा था। मेरी नजर एक किनारे पर गई तो देखा कि एक भेड़ सिर को जमीन पर चिपकाए हुए आपादमस्तक पसरी हुई है और लगभग उसके ऊपर ही बैठा हुआ एक आदमी उसके बाल काट रहा है। कौतूहल वश साइकिल खड़ी करके मैं उसके पास चला गया। भेड़ के बाल काटने की कैची कुछ विशिष्ट आकार-प्रकार की थी। इसे चलाने के लिए दोनो हाथों की जरूरत पड़ती है। गड़ेरिया प्रमोद ने बताया कि साल में तीन बार बाल काटे जाते हैं। उनके पास कुल 130 भेंड़ और 7-8 बकरियां हैं। रोज उन्हें जंगल में चराने ले जाते हैं। इनके भटक जाने या चोरी हो जाने का डर बना रहता है। इसलिए बहुत निगरानी रखनी पड़ती है। भेंड़ के बाल की तौल की इकाई 'धड़ी' होती है जो लगभग 5 किलो के बराबर होती है।

यह सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त करने और केश-कर्तन का वीडियो बनाकर मैं आगे बढ़ा और घर लौट आया। आम का थैला खोलकर उसमें से एक आम निकाला जो डाल से अपने आप टपका हुआ था। बाग वाले ने इसे मालदा बताया था। स्वाद में मुझे यह पूर्वी उत्तर प्रदेश के कपुरी जैसा लगा।

सच में प्रकृति के समीप जाने का अवसर मिले तो आनंद ही आनंद मिलता है। आधुनिक मशीनी सभ्यता में जीवनयापन करते हुए भी इसका अवसर खोजते रहना चाहिए।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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रविवार, 16 जून 2024

सहारनपुर की हरियाली का आनंद

सहारनपुर शहर से लगभग 14 किलोमीटर दूर जनता रोड पर ग्राम पुंवारका के पास नवनिर्मित विश्वविद्यालय परिसर में सबसे पहले डेरा जमाने का रिकॉर्ड अपने नाम करने और शिफ्टिंग की जद्दोजहद को प्रायः पूरा कर लेने के बाद आज मैंने अपनी साइकिल से सैर के नए रास्ते तलाशने का मन बनाया।

शहर से पुंवारका आने वाली जनता रोड आगे बरौली तक जाती है। यहां से बरौली 12 किलोमीटर है। साफ सुथरी, चौड़ीकृत और गढ्ढामुक्त इस सड़क पर भारी वाहनों का आवागमन प्रातःकाल में प्रायः नगण्य है। सड़क के दोनो ओर हरे-भरे खेत, पॉपलर के सघन पेड़ और दूर दूर तक फैले आम के बगीचों में लटकते हरे चमकते फल देखकर मन प्रफुल्लित हुआ। यहां का ग्रामीण क्षेत्र उन्नत कृषि और बाग-बगीचों की हरियाली से अत्यंत समृद्ध और लुभावना लगता है। लेकिन नगरीय विकास की आंच भी गांवों तक पहुंच रही है।

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परिसर से बाहर निकलकर मैने बरौली की ओर रुख किया और 8 किलोमीटर तक जाकर वापस लौटने का लक्ष्य निर्धारित किया। वर्कआउट मॉनिटर करने की सुविधा डिजिटल घड़ी और मोबाइल फोन में आ ही चुकी है, इसलिए उसका सदुपयोग भी हुआ। रास्ते में पहले लखनौती कलां फिर लंढौरा और उसके बाद करौंदी गांव को पार करने के बाद जो मील का पत्थर आया वहां मैंने साइकिल रोक दी। आधा लक्ष्य पूरा करके मुझे वापसी यात्रा करनी थी।

इन तीनों गांवों में मैंने भरपूर पानी से भरे हुए बड़े-बड़े तालाब देखे। तालाब की सतह पर उठते बुलबुले बता रहे थे कि भीतर बड़ी संख्या में मछलियां मौज कर रही हैं। एक दो बगुले भी शिकार की तलाश में मंडराते नज़र आए। गांव में प्रायः सबके मकान पक्के हैं। करौंदी के पास एक पेट्रोल पंप भी है और गांव में ही एक अंग्रेजी शराब की दुकान भी थी। लंढौरा में एक इंटरनेशनल स्कूल भी दिखा और मंदिर मस्जिद भी। सड़क किनारे गोबर के उपले बनाती औरते दिखीं तो कूड़े के ढेर पर डस्टबिन खाली करते मर्द भी मिले। एक लड़की दरवाजे पर रखे गमलों में पानी डाल रही थी।

एक जगह इंडिया मार्क टू हैण्ड पम्प में जुड़ा टुल्लू मोटर चल रहा था जिसके प्रेशर से नल के चारो ओर फव्वारे निकल रहे थे। उसके मुंह पर बंधी प्लास्टिक की पाइप शायद किसी सब्जी के खेत की ओर सींचने जा रही थी। सड़क किनारे एक बाड़े से निकलती भेड़ों का झुंड दिखा जो गड़ेरिए के साथ बाहर चरने के लिए निकल रही थीं।

गांव से गुजरते हुए सड़क पर टहलते कुछ आवारा कुत्तों से सामना हुआ तो धड़कन बढ़ सी गई। कौन जाने किसी के मन में शरारत भरी हो या ये अपनी सहज वृत्ति वश ही दौड़ा ले। लेकिन संतोष हुआ कि सभी कुत्ते शरीफ ही निकले। बल्कि रास्ते में दो जगह इस निराश्रित जीव की क्षत विक्षत लाशें मिलीं जो किसी भारी वाहन से रौंद दिए गए लगते थे। कौवों का झुंड इकठ्ठा होकर उसमें से अपना निवाला ले रहा था जो सवारियों के आने-जाने से बार बार बिखरता और पुनः जुट जाता था। इस दृश्य को पार करते हुए मुझे अपनी सांसे रोककर रखनी पड़ी।

शेष यात्रा में जो प्रातःकाल की शुद्ध ऑक्सीजन मैं अपने फेंफड़ों में भरता हुआ फूला नहीं समा रहा था उसपर ऐसे दो-तीन ग्रहण और लगे। एक ईंट भट्ठे से गुजरा तो आग में पकती मिट्टी की ईंटों से निकलने वाली दुर्गंध ने घेर लिया। सांस रोककर तेजी से आगे बढ़ गया। आगे एक आम के बड़े से बाग में ट्रैक्टर से जुड़ा एक टैंकर दिखा। उसमें कीटनाशक भरा हुआ था जिसका छिड़काव स्प्रे मशीन से आम के फलों पर किया जा रहा था। ऊंचे ऊंचे पेड़ों के शिखर तक पहुंचती जहरीले पानी की फुहार हवा के साथ घुलकर सड़क तक आ रही थी। मेरे नथुनों ने इसकी तीखी गंध को महसूस किया तो मेरे मन ने कच्चे आम की चटनी पुदीने के साथ खाने की पसंद पर पुनर्विचार करना शुरू कर दिया। इन बागों से निकलकर आने वाली अमिया इस जहर से अछूती नहीं ही होगी।

वापस लौटते समय विश्वविद्यालय परिसर के निकट हाल में खोला गया 'रॉयल जिम' दिखा जो आज रविवार को बंद था। यहां के आसपास अनेक खेतों को आवासीय कॉलोनी में बदले जानें का उपक्रम भी दिखा। अनेक खेतों की प्लॉटिंग करके कॉलोनी का गेट बना दिया गया है। प्लॉट बुक किए जा रहे हैं। एक गेट पर टीचर्स कॉलोनी का बोर्ड लगा है। एक 'बाला जी धाम' नामक कॉलोनी के भीतर बजरंग बली की विशाल प्रतिमा खड़ी की गई है जिसके पीछे चारदीवारी के उसपार बहुत बड़ा आम का बाग है। मुझे डर है कि भविष्य में यह हरा भरा बाग भी व्यवसायिक लाभ के लिए किसी बिल्डर के हाथों एक नई कॉलोनी की भेंट न चढ़ जाय।

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी

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