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शनिवार, 9 जुलाई 2016

परसदेपुर रोड पर पुलिसवाले की ट्रकपन्थी

मैं परसदेपुर जाने वाली सड़क पर साइकिल लेकर चलता ही जा रहा था। पीएसी से आगे जाने पर एक बड़ा नाला है जिसपर बना पुल पुराना हो चुका है। इसी पुल पर रुककर पूर्वी क्षितिज़ से उगते सूरज को देखने की कोशिश करने लगा जिसे बादलों के अनेक टुकड़ों ने अलग-अलग परतों में ढंकने की कोशिश कर रखी थी। वैसे ही जैसे तमाम न्यूज़ चैनलों की वज़ह से किसी घटना की सच्चाई साफ-साफ नज़र नहीं आने पाती। पुल की पटरी पर कुछ महिलाएं बैठी हुई थीं जो शायद टहलने के बाद थकान मिटा रही थीं।
हवा चल नहीं रही थी, बारिश हो नहीं रही थी और सूरज चमक नहीं रहा था। लेकिन अगले कुछ समय में इन तीनो की संभावना बराबर दिख रही थी। जैसे आजकल बहुजन समाज पार्टी से निकलने वाले नेताओं के राजनीतिक भविष्य की अलग-अलग संभावनाएं बराबर की बतायी जा रही हैं।
मैंने मोबाइल जेब के हवाले किया और आगे चल पड़ा। बड़ी नहर के ऊँचे पुल को पार किया और भुएमऊ की ओर जाने लगा। सड़क के किनारे पेड़ों की हरियाली के बीच नीचे खेत में एक छोटा सा पक्का मकान बना हुआ था जिसकी छत सड़क की ऊँचाई के बराबर थी और सड़क से सटी हुई भी थी। इसी छत पर तीन लोग योगासन और प्राणायाम कर रहे थे। बिल्कुल जंगल में मंगल वाला दृश्य था। फोटो खींचने को मन ललच गया लेकिन उनकी योगसाधना में खलल पड़ जाती। इसलिए मैंने मन को डांट दिया और सड़क की ढलान पर बिना पैडल मारे सरपट भागती साइकिल का आनंद लेता हुआ उस टूटी पुलिया तक पहुँच गया जो कई महीनों से निर्माणाधीन है। यहाँ सड़क से नीचे उतरकर कामचलाऊ बनाये गये ईंट के ऊबड़खाबड़ निकास से जाना पड़ता है। इस निकास में बरसात का पानी जमा था। मैं उधर मुड़ ही रहा था कि नजर पड़ी पुलिया के आरसीसी स्लैब की ढलाई पर जो पक चुकी थी और उधर लगाये गये अवरोध दोपहिया वाहनों के लिए शायद आज सुबह ही हटा दिये गये थे। इसप्रकार पुलिया का अनौपचारिक उद्घाटन अपनी साइकिल से करते हुए हम आगे बढ़ लिये। फोटो लेने का विचार भी मटिया दिये ताकि किसी नेता जी को कोई रंज न हो।
भुएमऊ गाँव और इसके एक सिरे पर बने सोनिया जी के गेस्ट-हाउस को पीछे छोड़कर मैं उस चाय की दुकान पर जाकर रुका जो रायबरेली से सात-आठ किलोमीटर दूर है। यहाँ आसपास दूसरे मकान या दुकानें नहीं थी। सड़क की दोनों तरफ हरे-भरे खेत और पेड़ पौधे ही थे। दुकान के सामने खड़ी एक बाइक की सीट पर एक वर्दीधारी सिपाही सड़क की ओर मुँह करके पैर पर पैर चढ़ाकर आराम से बैठा हुआ था और अपने एंड्रॉइड फोन में व्यस्त था। फेसबुक, व्हाट्सएप्प, ट्विटर, इंस्टाग्राम, मेसेंजर चैट जैसे कोई भाव उसके चेहरे पर दिख नहीं रहे थे जबकि वह यही कुछ कर रहा था। मैंने अपनी गाड़ी उसके बगल में ही खड़ी की लेकिन उसने सिर तक नहीं घुमाया। वह किसी बगुले की तरह मोबाइल स्क्रीन पर ध्यानमग्न था।
मैंने चाय वाले से अपनी स्पेशल चाय पिलाने को कहा और बेंच पर बैठ गया। मेज के दूसरी ओर वाली बेंच पर एक और सिपाही बैठा था। उसकी बड़ी सी बंदूक मेरे बगल में ही मेज पर लेटी हुई थी। वह भी दुकान की ओर पीठ करके सड़क की ओर ही मुखातिब था। दुकान के भीतर बैठे दो-तीन लोग चिलम भरकर सुट्टा लगाने की तैयारी कर रहे थे। लेकिन बातचीत लगभग नहीं के बराबर हो रही थी। शायद पुलिसवालों की मौजूदगी से इतना सन्नाटा छाया हुआ था।
चायवाले ने मेरे हाथ में प्लास्टिक का गिलास थमाया ही था कि अचानक मेरी बगल वाला सिपाही उठा और झटके से अपना हथियार उठाकर कंधे में लटकाता हुआ सड़क के उस पार तेज कदमों से चला गया। मैं इस आकस्मिक चपलता का कारण समझने के लिए दिमाग पर जोर डालने ही वाला था कि एक हरहराता हुआ ट्रक झटके खाता हुआ रुका और वह सिपाही उसकी क्लीनर साइड वाली खिड़की की ओर लपका। ट्रक पर यूकेलिप्टस की लकड़ी लदी हुई थी। बाइक पर बैठा सिपाही भी हरकत में आ चुका था और अपने साथी पर नज़र बनाये हुआ था।
ट्रक वाले से उस सिपाही की बातचीत मुझे छोड़कर सबको समझ में आ गयी। चाय वाले ने बाइक स्टार्ट कर चुके सिपाही से कहा- तुम जाओ, वह तो लुर्र है। कुछ निकाल नहीं पायेगा। इस सिपाही ने दस कदम की दूरी अपनी बाइक से तय की, ट्रक के पीछे पहुँचा और ट्रक वाले को एक प्रचलित गाली से पुकारकर नीचे उतरने का हुक्म दिया। लकड़ी का व्यापारी ट्रक से उतरकर पीछे की ओर आया और धंधे की मन्दी का रोना रोता हुआ हाथ जोड़ लिया।
सिपाही ने रौब दिखाते हुए उसे दूसरी गाली रसीद की और बोला कि दो ट्रॉली के बराबर माल लाद कर ले जा रहे हो और पचास रुपल्ली दिखा रहे हो। चारखाने की सिकुड़ी हुई लुंगी, चीकट बनियान और कंधे पर मैला गमछा रखे व्यापारी ने हाथ में मोड़कर रखा नोट सिपाही की जेब में ठूसते हुए कहा- नंबरी है साहब, रख लीजिए। मुझे कुछ बचेगा नहीं।
सिपाही ने अपने साथी को इशारे से पीछे बैठने को कहा और बाइक का एक्सीलरेटर बढ़ाकर फर्राटा भरते हुए शहर की ओर चला गया। उसके जाने के बाद गाली देने का सुख उस व्यापारी और चाय की दुकान में बैठे आदमियों ने भी लूटा। मैंने आश्चर्य से पूछा- क्या सिर्फ सौ रुपये के लिए ये दोनो सुबह से बैठे थे? उत्तर मिला- नहीं जी, इसके पहले दो गाड़ियाँ और आयी थीं। डेढ़ सौ पहले वसूल चुके थे। अब इनका सुबह-सुबह ढाई सौ का काम हो गया।
मुझे सिपाहियों पर दया टाइप आने लगी। बेचारे कितने गरीब हैं। जीवन में कितनी जलालत है। पीठ-पीछे पब्लिक की गालियाँ खानी पड़ती हैं और सामने अफसरों की। इन्हें कैसे-कैसे लोगों के सामने हाथ पसारना पड़ता होगा और पता नहीं इन ढाई सौ रुपयों में इनका हिस्सा कितना बचता होगा?
मैंने चाय के पैसे दिये और साइकिल मोड़कर वापसी यात्रा शुरू की। भुएमऊ के अधिकांश घरों में दुधारू पशु पाले गये हैं। इसलिए घरों के आसपास गोबर, पानी और उच्छिष्ट चारे की गन्दगी भी दिखती है जिसकी सफाई में लगी औरतें और मर्द काफी व्यस्त रहते हैं। अपने लिए शुद्ध दूध की उपलब्धता और दूध बेचकर पैसा कमाने के लिए इतना श्रम तो करना ही पड़ता है।
पिछली बार इधर मुझे एक कारखाना दिखा था जिसे मैंने रेल के सीमेंटेड स्लिपर बनाने वाला समझ लिया था। आज नजदीक जाकर देखा तो पता चला कि यह सड़क बनाने वाली कंपनी का हॉट-मिक्स प्लांट है जहाँ तारकोल को पत्थर की गिट्टी में मिलाया जाता है। सीमेंट ढालकर बनाये गए ब्लॉक्स जिन्हें मैं स्लिपर समझता था वे वास्तव में पुल के एप्रोच को मजबूत बनाने में काम आते हैं।
इसी प्लांट के पास मुझे एक पुराना मंदिर दिखा जिसके बगल में एक बहुत बहुत पुराना कुआँ था। कुँए की जगत से लगा हुआ एक पीपल का पेड़ परिसर की शोभा बढ़ा रहा था। बगल में ही एक अन्य पेड़ की छाँव में मजार जैसी तीन आकृतियां बनी हुई थीं। उनका इतिहास बताने वाला कोई नहीं मिला। कुँए में झाँककर देखा तो पानी चमक रहा था लेकिन यह प्रयोग में नहीं होगा, क्योंकि पास में एक नल भी था जो चालू था। अब कुँए तो मांगलिक अवसरों पर प्रतीकात्मक प्रयोग के काम ही आते हैं। मंदिर के भीतर शिवलिंग स्थापित था जिसके ऊपर लटके घड़े से जल की बूंदें अनवरत टपक रही थीं। मैंने नहाये बग़ैर भीतर जाना उचित नहीं समझा और दूर से ही प्रणाम करके वापस आ गया।











सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
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