हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

भूएमऊ के प्राथमिक स्कूल और ज्ञान मन्दिर

भुएमऊ गांव में ही बात-चीत करते आठ बज गये। इसका भान मुझे तब हुआ जब सड़क किनारे की दो-तीन दुकानों को मिलाकर खोले गये सरस्वती ज्ञान मंदिर (अंग्रेजी माध्यम) नामक प्राइवेट स्कूल के बच्चे प्रार्थना के लिए खड़े मिले। उनके सर, मैडम और मिस लोग सामने खड़े होकर प्रेयर और नेशनल एंथम का पाठ करा रहे थे। सड़क और स्कूल भवन के बीच की जमीन ही बच्चों के लिए प्ले-ग्राउंड और असेंबली के लिए प्रयुक्त होती है। आवश्यक अवस्थापना सुविधाओं से वंचित इस स्कूल को पता नहीं नियमानुसार मान्यता मिली भी है या नहीं; लेकिन वहाँ बच्चों की अच्छी संख्या यह बता रही थी कि स्थानीय अभिभावकों ने इस स्कूल को सरकारी प्राथमिक पाठशाला से बेहतर मान रखा है। मैंने ज्ञान मंदिर की प्रार्थना समाप्त होने के बाद अपना मोबाइल जेब में रखा और साइकिल आगे बढ़ा दिया।
ज्ञान मंदिर से महज सौ मीटर की दूरी पर सड़क के दूसरी तरफ परिषदीय प्राथमिक और जूनियर स्कूल का बड़ा सा परिसर है। अनेक क्लास-रूम और दूसरी सुविधाओं से लैस इस प्रांगण की बाहर से तस्वीर लेने के लिए मैंने इसके जूनियर सेक्शन के गेट के सामने साइकिल रोक दी।
अंदर दो-चार बच्चे खाकी कपड़ों में इधर-उधर घूमते दिखे। गेट पर चार-पाँच लड़कियां खड़ी होकर आपस में बात कर रही थीं। मुझे मोबाइल निकालकर फोटो खींचता देखकर वे अंदर की ओर चली गयीं। मेरे इस प्रश्न को अनसुना करते हुए कि 8:10 बजे भी वे गेट पर क्या कर रही हैं। तभी अंदर से मुझे किसी ने फोटो लेते देखा और दौड़कर स्कूल की घंटी बजा दी। करीब एक दर्जन बच्चे 'प्राथना' के लिए इकठ्ठा होने लगे। इस बीच दो बच्चियां गेट से बाहर आती दिखीं जिन्हें शायद सामूहिक प्रार्थना में कोई रुचि नहीं थी।
सरकारी और निजी स्कूलों का यह कंट्रास्ट सड़क से ही देखने के बाद मैं वापस रायबरेली शहर की और चल पड़ा जो करीब छः किलोमीटर दूर था। रास्ते में शहर की ओर जाते बड़े विद्यार्थी और कामगार अपनी साइकिलों पर दिख रहे थे। लेकिन मेरी दृष्टि शहर की ओर से देहात की ओर आती सवारियों पर टिकने लगी। करीब बीस स्त्रियां और पुरुष शहर की ओर से आते हुए ऐसे मिले जिन्हें देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता था कि ये किसी सरकारी प्राथमिक पाठशाला के शिक्षक होंगे।
स्कूटी पर सवार शिक्षिकाएँ साड़ी या सूट में सलीके से नख-शिख ढकी हुई, बड़े से हैंडबैग में टिफिन और छाता सम्हाल कर रखे हुए चली जा रही थीं। कुछ अपने पति या किसी और की बाइक के पीछे बैठी थीं। सबकी वेश-भूषा से पता चलता था कि वे अच्छे वेतन का सुख ले रही हैं।
मुझे रास्ते में पुरुष शिक्षकों ने भी क्रॉस किया होगा लेकिन उनकी अलग से पहचान का कोई लक्षण मुझे नहीं सूझा। लेकिन यह प्रश्न जरूर सूझ रहा था कि आठ बजे खुलने वाले स्कूलों के ये शिक्षक साढ़े आठ बजे के आसपास अभी रास्ते में हैं तो वहाँ बच्चों की प्रार्थना कैसे होगी और भगवान उनका कल्याण कैसे करेंगे, माँ सरस्वती उन्हें ज्ञान का वरदान कैसे देंगी।





सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
www.satyarthmitra.com

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपकी टिप्पणी हमारे लिए लेखकीय ऊर्जा का स्रोत है। कृपया सार्थक संवाद कायम रखें... सादर!(सिद्धार्थ)