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बुधवार, 28 जून 2023

पेड़ लगाने का आनंद

राजकीय मेडिकल कॉलेज परिसर में आवास मिलने के बाद इसे हरा-भरा बनाने की कोशिश कर रहा हूँ। साग-सब्जी और फूल-पत्ती उगाने के उपक्रम प्रारम्भ हो चुके हैं जो निराई-गुड़ाई की निरंतरता मांगते हैं। मेरे सहयोगी मोहनलाल इसे बखूबी कर रहे हैं।

इसके साथ ही अहाते में कुछ स्थायी करने की इच्छा व्यक्त करने पर मेरे सहकर्मी सोहन बाबू आज मुझे अम्बाला रोड पर स्थित 'बगिया नर्सरी' नामक पौधशाला में लेकर गये। हमने परिसर में उपलब्ध स्थान को देखते हुए दो आम्रपाली, दो आंवले, एक नीबू और एक अमरूद का पेड़ खरीदा। घर लाकर उसे तत्काल गढ्ढा खोदकर रोप दिया। इस कार्य मे सहयोग स्वरूप बॉबी माली व वाहन चालक जावेद ने भी श्रमदान किया।

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अब से चार-पाँच साल बाद जो इनका फल चखेगा वो जरूर हमें याद रखेगा। पौधे लगाकर उनका पालन-पोषण करना बहुत सुकून देता है। विश्वास न हो तो आजमा कर देखिए।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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सोमवार, 12 जून 2023

पौधों की संवेदना

पैरामाउंट ट्यूलिप कॉलोनी में किराये के घर में रहना हुआ तो मुझे अपने 25-30 गमलों की देखभाल के लिए जगह कम पड़ गयी थी। फ्लैट नुमा घर की बालकनी में मैंने उनको मुश्किल से सटा-सटाकर रखा तो भी बात नहीं बनी। तुलसी जी सहित एक दो पौधों को पूजाघर में शिफ्ट कर दिया। कुछ को सीढ़ियों पर तो कुछ और को खिड़की के ताख पर एडजस्ट करना पड़ा। इसपर मेरी मकान मालकिन ने कहा कि बालकनी में ज्यादा गमलों से गंदगी जमा होगी। मैंने कोई दूसरा विकल्प नहीं होने की मजबूरी बता उनकी बात को अनसुना कर दिया था। इसपर उन्होंने मौका ताड़कर जब मैं दो-तीन दिनों के लिए छुट्टी पर बच्चों के पास गया था, मेरे सात-आठ बड़े वाले गमले छत पर चढ़वा दिए। जब मैंने लौटकर देखा तो दुःखी हो गया। उनसे आशंका जतायी कि वे पौधे जब नजर के सामने नहीं रहेंगे तो उनकी देखभाल में चूक हो जाएगीऔर वे बिगड़ जाएंगे। इसपर उन्होंने आश्वस्त किया कि वे खुद ही उनकी देखभाल अर्थात पानी डालने का काम करती रहेंगी। इसका भला मैं क्या जवाब देता! चुप हो गया। लेकिन कुछ ही दिनों में मेरी आशंका सही साबित हुई। उपेक्षा के शिकार हो गए उन पौधों को जैसे सदमा लग गया हो। एक-एक कर सब सूखते चले गए। जबकि वो महिला कथित रूप से नियमित देखभाल कर रही थी। मैं भी यदाकदा ऊपर जाकर खर-पतवार साफ कर देता था। लेकिन अपने सुविधाप्राप्त साथियों से बिछोह का आघात उन्हें असमय ही काल कवलित कर गया।

मैंने हमेशा महसूस किया है कि वनस्पतियां भी संवेदनशील होती हैं जो आपसी मेल-जोल व सामाजिक संबंध की भावना रखती हैं और उनके स्वास्थ्य पर इसका असर पड़ता है कि हमारा मनोभाव उनके प्रति कैसा है। सनातन सांस्कृतिक परंपरा में पेड़-पौधों की पूजा इसीलिए तो की जाती है कि उनमें देवी-देवता का वास होता है। मुझे तो वे साक्षात् दिव्य जीवधारी ही लगते हैं।

अब इस टमाटर के पौधे को ही ले लीजिए। यह मेरे एक गमले में अपने आप उग आया था। शायद टमाटर-युक्त सलाद की कटोरी का अवशिष्ट गमले की मिट्टी में कभी पोषण के लिए डाल दिया गया हो। खर-पतवार निकालते समय जब मुझे इस अनाहूत पादप में टमाटर की पत्तियाँ दिखीं तो उसे यूँ ही बढ़ने के लिए छोड़ दिया। इतनी इज्जत पाते ही ये जनाब गमले के मुख्य पौधे से स्पर्धा करते हुए तेजी से बढ़ने लगे और देखते-देखते इसमें पहले फूल और फिर दो-तीन फल भी लटक आये। अब तो ये विशेष खातिरदारी के हकदार हो गए थे।

इसी बीच मुझे राजकीय मेडिकल कॉलेज परिसर में सरकारी आवास मिल गया तो मैंने बिना देरी किए बोरिया-बिस्तर समेटा और शिफ्ट हो गया। यहाँ बंगले के आगे-पीछे पर्याप्त जमीन मिल गयी तो मुझे अपने पौधों के लिए बहुत खुशी हुई। छत पर सूख चुके गमलों को उतरवाकर जब मैंने गाड़ी पर लोड कराया था तो उन सबकी भेंट बालकनी वाले हरे-भरे गमलों से हुई थी। तब मुझे मन में महसूस हुआ कि जरूर इनके बीच कुछ बातचीत चल रही होगी। अब शायद इनके आँसू पोछने का समय आ गया है। जिस गमले में शरणार्थी टमाटर का पौधा दो बड़े-बड़े फलों के साथ लहलहा रहा था उसे तो स्पेशल स्टेटस का एहसास हो रहा होगा। लेकिन ढुलाई में इस नाजुक पौधे को थोड़ी चोट लगने से आंशिक क्षति हो गयी।

यहाँ आकर मैंने इस पौधे को गमले से निकलवाकर सब्जियों के लिए नई बनी क्यारी में रोपवा दिया। उर्वर जमीन की खुराक पाकर इसका उत्साह बढ़ने की उम्मीद मैं कर रहा था। ऐसा कुछ हुआ भी। इसमें चार-पाँच नए फल आ गए हैं। लेकिन इसकी पत्तियों में जो हरियाली गमले में आयी थी वह अब नहीं रह गयी है। हो सकता है यह पौधा अपनी आयु पूरी कर रहा हो; या यह भी हो सकता है कि गमलों से बिछड़कर जमीन पर आ जाना इसे कुछ अधिक रास न आया हो। आपका क्या ख्याल है?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

मंगलवार, 6 जून 2023

अनछुए पहाड़ों की सुकून भरी सैर

आजकल छुट्टियाँ मनाने का सबसे लोकप्रिय ठिकाना पहाड़ों के बीच पसंद किया जा रहा है। मैदानी इलाकों की गर्मी से राहत पाने के लिए पर्यटक भारी संख्या में उत्तराखंड व हिमांचल के पहाड़ों की ओर रुख कर रहे हैं। मैं सहारनपुर में राज्य सरकार के आदेशानुसार विश्वविद्यालय व मेडिकल कॉलेज की नौकरी बजा रहा हूँ। यहाँ से देहरादून, मसूरी, ऋषिकेश, हरिद्वार, कोटद्वार, लैन्सडाउन आदि की दूरी बस इतनी ही है कि घर से नाश्ता करके निकलें तो वहाँ घूमघाम कर शाम तक वापस लौट आयें। लेकिन मेरे प्रकृतिप्रेमी मित्र प्रोफेसर संदीप का मानना है कि दूर देश से आने वाले पर्यटकों की भीड़ से इन स्थानों की रमणीयता व वातावरण की शुद्धता पर ग्रहण लग गया है। यहाँ की सड़कों पर लंबा ट्रैफिक जाम और होटलों व रेस्तराओं में ठसाठस भरी जनसंख्या देखकर पर्यावरणीय पर्यटन का आनंद नहीं रह जाता।

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देहरादून जिले में ही चकराता क्षेत्र की पहाड़ियों पर बाहरी पर्यटकों का दबाव अपेक्षाकृत नहीं के बराबर है। पिछले 01 जनवरी को संदीप जी ने मुझे चकराता से ऊपर की ओर करीब 15 किलोमीटर चक्कर कटाते हुए एक जमी हुई झील पर उतार दिया था। यह पूरी तरह निर्जन और लगभग गोपनीय स्थल था जहाँ कोई व्यावसायिक गतिविधि नहीं थी।

ऐसे में पिछले सप्ताहांत एडवेंचर टुरिज़म के शौकीन संदीप जी ने मुझे उसी पहाड़ी क्षेत्र की सैर करायी जिसे अभी तक पर्यटन व्यवसाय की नजर नहीं लगी है। पिछले सप्ताहांत मेरी बेटी भी दिल्ली से सहारनपुर आ गयी थी। उसने जब पहाड़ की सैर की इच्छा जताई तो हम प्रोफेसर संदीप के साथ विकासनगर होते हुए चकराता की ओर निकाल पड़े। लेकिन चकराता की मुख्य सड़क से अलग अचानक मुड़कर जब उन्होंने दूसरा पतला रास्ता चढ़ना शुरू किया तो हमारा रोमांच दिल की धड़कने बढ़ाने वाले एक डर में बदलना शुरू हो गया।

बायीं ओर ऊंचे पहाड़ और उनसे लटकते पेड़ों की लड़ी और दायीं ओर बहुत गहरी खाई के बीच रेंगती हुई सर्पीली सड़क पर कोई रेलिंग नहीं बनी थी। अनेक अंधे मोड़ और जगह-जगह गिरे हुए पहाड़ी मलबे को पार करते हुए हम लगातार ऊंचाई पर चढ़ते जा रहे थे। थोड़ी ही देर में हमें विश्वास हो गया कि गाड़ी की स्टेअरिंग ह्वील बहुत ही कुशल हाथों में है और डरने की बिल्कुल जरूरत नहीं है। आसपास की हरियाली और पहाड़ों में बिखरा प्राकृतिक सौन्दर्य हमें अपने जादुई आगोश में लेने लगा था। मनुष्य जाति के व्यावसायिक अतिक्रमण से बचा हुआ यह क्षेत्र वास्तव में नैसर्गिक सुख देने वाला है।

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एक से एक सुंदर पेड़ अपनी मस्ती में डूबे हुए मिले जिन्हें देश-दुनिया की जहरीली हवा ने नहीं छुआ है। इनके बीच घूमते-चरते इक्का-दुक्का चौपाये जानवर दिखे जिनका कद सामान्य से छोटा और डील-डौल बिल्कुल देसी। अंततः हम उतपालटा व परोडी नामक स्थानों के बीच एक मोड़ पर बने एक छज्जेदार चबूतरे पर जाकर रुके जो पहाड़ की चोटी से कुछ कदम ही नीचे था।

यहाँ से बैठकर हम देर तक निहारते रहे - ऊंचे-नीचे विशाल पहाड़ों की हरियाली, उनपर स्थानीय किसानों के हाथों बने सीढ़ीदार खेतों की दृश्यावली, आसमान में तैरते दूध जैसे सफेद बादलों की अठखेली, ठंडी हवा में झूमते चीड़, देवदार व अन्य असंख्य किस्म के पेड़ों व झाड़ियों की स्वर-लहरी। वहाँ लाल-बैगनी फूलों से लबरेज झाड़ियाँ थीं तो भजकटया के कटीले पौधों की कतार भी थी।

वहाँ से निकट ही लाल बॉर्डर वाले सफेद मकानों की एक कॉलोनी दिखाई दी जो शायद सेना का कोई छोटा सा परिसर था। हम टहलते हुए उसके पास तक गए लेकिन ज्यादा दरियाफ्त करना गैरजरूरी लगा तो लौट आए। उसी चबूतरे के पास इधर आने वाले हम जैसे घुमंतू लोग रुककर फोटो खिंचवाते हैं। हमने भी तस्वीरें लीं।

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इधर के स्थानीय घुमक्कड़ लोगों के लिए सस्ती सुविधा के रूप में खुली हुई एक गाड़ी सरपट दौड़ती मिली जिसमें खड़े होकर मुक्त आकाश में पहाड़ी हवाओं का आनंद लेते लड़के, लड़कियां, बच्चे, बूढ़े, औरतें और मर्द हँसते-खिलखिलाते चले जा रहे थे।

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इतना आह्लादकारी व सुरम्य वातावरण था कि हमें वहाँ से लौटने का मन ही नहीं कर रहा था लेकिन मजबूरी थी। अंततः शाम ढलने से पहले हमें वहाँ से निकलना पड़ा। रास्ते में हम बुगयाल की एक ऐसी पहाड़ी के पास रुके जिसके ऊपर चढ़कर दोनों ओर की खाई देखी जा सकती थी। वहाँ भी अजीब आकर्षण था।

संदीप जी से जब मैंने कहा कि यहाँ एक बहुत अच्छा पर्यटन केंद्र बन सकता है तो वे असहमत होते हुए जो बोले उसका आशय यह था कि प्रकृति के कुछ हिस्सों को मानव जाति की व्यावसायिक पहुँच से दूर ही रखना चाहिए। कुछ जगहें प्राचीन ऋषि मुनियों की तरह तपस्या करने व मूल प्रकृति के प्रेमियों के विचरण के लिए अक्षुण्ण रहनी चाहिए।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

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