
रविवार की सुबह जल्दी उठकर मैं तैयार हुआ और धूप का चश्मा खोल सहित कैरियर में दबाकर निकल पड़ा इन्दिरानगर के उत्तरी छोर की थाह लगाने। सेक्टर 17 की पुरानी सब्जी मण्डी के पास से गुजरते हुए मानस सिटी की ओर जाने वाली सड़क पर बढ़ा तो 'गहरी सीवर की खुदाई का काम प्रगति पर' होने के कारण 'कष्ट के लिए खेद' प्रकट करने वाले बोर्ड ने रास्ता रोक लिया। लेकिन ऐसे छोटे अवरोध से न मैं डिगने वाला था न मेरी साइकिल रुकने वाली थी। बगल की एक पतली गली पर टेढ़े-मेढ़े चलते हुए एक कच्चे रास्ते से होकर मैं चांदन होते हुए सुगामऊ जाने वाली पक्की सड़क पर पहुँच गया।
यह इलाका मेरे लिए बिल्कुल अनजान था। मैं तो बस दिशाओं को पहचान कर शहर से बाहर की ओर जाने वाली सड़क पर आगे बढ़ते जाना चाहता था ताकि शहरी प्रदूषण से दूर गाँव की साफ-सुथरी हवा में साइकिल चला सकूँ।
चाँदन में एक बड़ी सी सुन्दर मस्जिद मिली और एक बड़ा सा मैरेज हॉउस भी। सड़क पर साफ-सफाई की कोई व्यवस्था नहीं दिखी। यहाँ न तो नगर निगम के स्वीपर आते होंगे और न ही ग्राम पंचायत के सफाई कर्मी। यहीं पर मुझे एक विचित्र नजारा देखने को मिला।
मुझे एक के बाद एक बीस-पच्चीस लड़के मिले जिनकी उम्र सोलह से बाइस वर्ष के बीच रही होगी। वे सभी एक हाथ में गाइड बुक और नोट्स की कॉपी, जीन्स की जेब में कलम और मोबाइल तथा दूसरे हाथ में जमीन पर बैठने के लिए प्लास्टिक वाली सीमेंट की बोरियाँ तह करके पकड़े हुए चले जा रहे थे। आगे एक आवासीय दड़बानुमा मकान मिला जिसमें ये परीक्षार्थी प्रवेश कर रहे थे। मैं रुके बिना आगे बढ़ा तो दूसरी और से भी वैसे ही विद्यार्थी आते मिले। जरूर यहाँ कोई सस्ती डिग्री बनवाने का कारखाना लगा होगा। मन तो हुआ कि मोबाइल कैमरे से इस गतिविधि का स्टिंग ऑपरेशन कर लूँ लेकिन सुरक्षा की कोई गारंटी न होने के कारण इस विचार को फ़ौरन मटिया कर आगे बढ़ गया।
इसके आगे बायीं ओर एक बड़ा सा खाली मैदान था जिसके पीछे मानस ग्रीन सिटी बस रही थी। खाली मैदान असमतल था, कूड़े-कचरे का आश्रय था और इसमें आवारा झाड़ियों के झुरमुट भी थे। आसपास जिनके घरों में शौचालय नहीं उनके लिए भी यहाँ सुबह का सुभीता था। कुछ लोग हाथ में पानी की बोतल लटकाये उस ओर तेजी से जाते और आराम से वापस आते दिखाई दिये। यह सब अपनी आँखों से लाइव देखता हुआ मैं चलता रहा।

आगे सुगामऊ का उपनगरीय बाजार मिला जो शहर और देहात के बीच की कड़ी बना हुआ है। इसकी दुकानों पर लगे बोर्ड बता रहे थे कि यहाँ के लोग भी अपने को इंदिरानगर का ही बताते है। इसे पार करने पर पक्के मकानों की सृंखला टूटने लगी और सड़क किनारे की जमीन चारदीवारी वाले खाली प्लॉट्स में बंटती हुई मिलने लगी। बीच-बीच में इक्का-दुक्का परचून की दुकानें थीं जहाँ मोबाइल रिचार्ज की सुविधा भी उपलब्ध थी। बिल्डिंग मटेरियल वाली बिना छत की अनेक दुकानें भी थीं जो गाँव की ओर पाँव पसारते शहर की जरुरी खुराक मुहैया कराती हैं। ट्रेक्टर-ट्रॉली या छोटे ट्रकों पर ढोयी जाती ईंट और बालू तथा बड़े ट्रकों पर बाहर से आती गिट्टी, मोरंग और सरिया की खेप इन लगातार खड़े होते मकानों और बनते हुए मुहल्लों में खप रही है और खप रहे हैं आम के असंख्य बाग भी जिनके कारण कभी यहाँ एक गाँव का नाम पड़ा था अमराई।


उस छोटू ने अब मुझे ध्यान से स्कैन करते हुए देखा और समझ गया कि मैं उसका रेगुलर ग्राहक नहीं बल्कि शहर से भटका हुआ नया आदमी हूँ। मैंने बात-बात में उसका अता-पता जानने की कोशिश की। नाम था रामशंकर यादव जो एक साल पहले फतेहपुर के अपने घर से भागकर लखनऊ कमाने आया था। छठी क्लास में फेल हो जाने के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी क्योंकि स्कूल में पढ़ाई नहीं होती थी, केवल खिचड़ी खिलाते थे, वह भी बहुत ख़राब। उसने यह तंज भी कसा कि जब इम्तहान में कोई फेल ही नहीं हो सकता तो पढ़ाई क्या घंटा होगी...?
उसने बताया कि इस दुकान का मालिक ही यहाँ का मेन कारीगर था जो अभी आया नहीं था। आठ बजे आता है। तबतक वह आलू उबालकर छील लेगा। सब्जी की तैयारी कर लेगा। छोला के लिए चना भी उबाल देगा और चावल भी बना देगा।
इस ढाबे के मुख्य ग्राहक आसपास काम करने वाले प्रवासी मजदूर थे। एक थाली खाना 30 रूपये में मिलता था। चार रोटियाँ, सब्जी, दाल और क्वाटर चावल। मैंने पूछा- इतने में मजदूर का पेट भर जाता है क्या? लड़का चुप रहा लेकिन इस प्रश्न का उत्तर दिया भीतर बेंच पर बैठे एक मजदूर ने जो हमारी बात ध्यान से सुन रहा था। बोला- कभी नहीं साहब। पचास रूपये से कम नहीं लगता है। चार रोटी इस्टरा लो तब कुछ बुझाता है। कुछ भी इस्टरा लेने पर पैसा लेता है। बहुत चालू है यह लौंडा।
चालू कहे जाने पर रामशंकर की बाछें खिल गयीं। मैंने पूछा- घर की याद आती है?
बोला- अभी तो गये थे। आठ की मार्कशीट भी बनवा लाये हैं।
-पढ़ने का मन करता है क्या?
-क्या पढ़ें, पैसा भी कमाना जरूरी है।
-कितना कमा लेते हो?
-अभी तक तो काम सीख रहा था। अब सब सीख गया हूँ तो मालिक तनख्वाह बढ़ाएंगे।
-फिर भी ढाई-तीन हजार तो मिलता ही होगा?
बोला- अभी तो गये थे। आठ की मार्कशीट भी बनवा लाये हैं।
-पढ़ने का मन करता है क्या?
-क्या पढ़ें, पैसा भी कमाना जरूरी है।
-कितना कमा लेते हो?
-अभी तक तो काम सीख रहा था। अब सब सीख गया हूँ तो मालिक तनख्वाह बढ़ाएंगे।
-फिर भी ढाई-तीन हजार तो मिलता ही होगा?
इसपर वह हँसने लगा जैसे इतने रुपयों की कल्पना करके ही उसे ख़ुशी मिल गयी हो। मैंने और कुरेदना ठीक नहीं समझा। इतना जरूर बता दिया कि ठीक से पढ़ लेते तो अच्छी नौकरी मिलती और सुन्दर छोकरी भी। छोकरी शब्द सुनते ही उसकी बत्तीसी फिर चमक उठी।
इस बीच चावल का पानी उबलने लगा था और वह छनौटे से चावल के दाने निकालकर उनके पक जाने का पता लगाने लगा। मैंने पूछा कि चावल में पानी ज्यादा तो नहीं है। उसने बताया कि पक जाने के बाद चावल पानी से छानकर निकाल लिया जाएगा। पानी में छोड़ देने पर तो यह गीला होकर चिपक जाएगा। कोई खाएगा ही नहीं। लेबर को 'फरहर' चावल पसंद है।
इतना ज्ञान पाते-पाते मेरी चाय खत्म हो गयी। मैंने उसे यह नहीं बताया कि छानकर बनाये गये चावल से कुछ कार्बोहाइड्रेट निकलकर पानी में चला जाता है और बर्बाद हो जाता है। उसे चाय के पाँच रूपये थमाते हुए मैंने जंगल की ओर जाने का रास्ता पूछा और इस बजरंग चौराहे से मोहम्मदपुर होकर कुर्सी रोड की ओर जाने वाली सड़क पर चल पड़ा।

इस बीच धूप चढ़ आयी थी तो मैंने काला चश्मा चढ़ा लिया। सुरम्य वातावरण के आनंद को लंबी और गहरी साँसों में महसूस करने के बाद मैं आगे बढ़ा तो जरहरा गाँव को पार करके कुकरैल के जंगल में बनायीं गयी पक्की सड़क पर आ गया जो जंगल को पार करके शहर में चली जाती है। रास्ते में एक कम उम्र का छुट्टा साँड़ आता दिखा तो मेरा कलेजा धकधक करने लगा। लेकिन मुझे देखकर साँड़ की हवा भी ख़राब हो गयी शायद। उसने सड़क छोड़कर पेड़ों के पीछे की राह ली और मैंने राहत की साँस।
वहीं दूसरी ओर एक ईंट भट्ठे की चिमनी धुँवा उगल रही थी। मैंने तेजी से साइकिल दबाते हुए घने जंगल की ओर रुख किया। करीब छः किलोमीटर जंगल के भीतर साइकिल से चलने का आनंद अद्भुत था। पहले बबूल, बाँस, नीम, चिलबिला और फिर सागौन, साखू, यूकेलिप्टस, सेमल, और दूसरे अज्ञातनाम पेड़-पौधों से लबरेज इस जंगल में शहर से लगे सिरे पर वन विभाग द्वारा एक पार्क (पिकनिक स्पॉट) विकसित किया गया है जहाँ मगरमच्छों का विशेष आकर्षण है।

अस्तु, मैंने पर्णविहीन पेड़ों के साथ अपनी तस्वीरें खींचने, सस्ती-ताज़ी-हरी सब्जी खरीदकर साइकिल के कॅरियर में दबाने के बाद फरीदीनगर से मुंशी पुलिया के बीच टेढ़ी-मेढ़ी गलियों के बीच भटकते-पूछते हुए रास्ता तय किया और दुबारा ऐसी सैर पर जाने का खुद से वादा करके घर लौट आया।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (12-06-2016) को "चुनना नहीं आता" (चर्चा अंक-2371) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "११ जून का दिन और दो महान क्रांतिकारियों की याद " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंसुंदर सैर सपाटा, हम भी घूम लिये।
जवाब देंहटाएंसैर का सचित्र वर्णन बहुत अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंसैर का सचित्र वर्णन बहुत अच्छा लगा।
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