हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

बुधवार, 1 दिसंबर 2021

पुस्तक के बहाने योग के प्रयोग पर चर्चा

आगरा में जब मेरी तैनाती हुई और मैं अपने कार्यालय के निकट जयपुर हाउस की टीचर्स कॉलोनी में अस्थायी आवास में रहने गया तो सबसे पहले इस नई जगह पर मैंने अपनी नियमित योग कक्षा को मिस करना शुरू किया। सेहत की रक्षा के लिए साइकिल से सैर पर्याप्त नहीं थी इसलिए मैं योगासन करने के लिए एक उपयुक्त स्थान की तलाश करने निकल लिया। पास के ही जयपुर हाउस पार्क में मेरी तलाश पूरी हो गयी जहाँ के हरे-भरे वातावरण में करीब दर्जन भर स्त्री-पुरुष आसन बिछाकर योग साधना करते दिखाई दिए। उन्हें योग की बारीकियों को समझाते और साथ ही स्वयं करके दिखाते हुए जो सज्जन योग-गुरू की भूमिका में थे उन्हें मैंने अपना परिचय दिया और समूह में सम्मिलित होने की इच्छा जतायी।      

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yog ke prayog 2इस नए परिचय की मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि रही आदरणीय आर.के.एस.राठौर जी से भेंट जिनके सान्निध्य और मार्गदर्शन में मुझे योगासन करने और सीखने का अवसर मिला। अपने कार्य के प्रति अप्रतिम समर्पण, योगासन-प्राणायाम-ध्यान से मेल खाते आदर्श अनुशासन व एक दक्ष प्रशिक्षक के धैर्य व औदार्य से भरे व निरंतर अपने विशाल ज्ञान-भंडार में अभिवृद्धि करते रहने के लिए चिरंतन जिज्ञासा से ओत-प्रोत डॉक्टर राठौर जैसा कोई दूसरा नहीं है। सरलता और सज्जनता की प्रतिमूर्ति डॉक्टर साहब ने योग-साधना को व्यावहारिक जीवन में ऐसी सहजता से उतार रखा है कि यह बहुत ही आसान और सुलभ विद्या लगने लगती है।

कोविड-19 महामारी के फलस्वरूप लागू लॉक-डाउन की अवधि में देश भर के पार्क जब आम जनता के लिए बंद कर दिए गए तब यह योग-कक्षा ऑनलाइन चलने लगी। सभी सदस्य अपने-अपने घरों में आसन बिछाकर कंप्यूटर या मोबाईल स्क्रीन से डॉक्टर साहब के निर्देशों को सुनकर व देखकर अभ्यास करने लगे। यह सिलसिला बिना किसी ब्रेक के लगातार चलता जा रहा है। नए लोग आते हैं कुछ पुराने लोग छूट जाते हैं लेकिन ‘आरोग्यम ध्यान केंद्र’ की कक्षा कभी बंद नहीं होती। बताते हैं कि पिछले पंद्रह वर्ष से निरंतर डॉक्टर साहब यह श्लाघनीय कार्य कर रहे हैं जब वे आगरा के प्रतिष्ठित आर.बी.एस. कॉलेज के विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुए थे। मैं स्वयं उनको लगभग दो वर्ष से बिना नागा प्रतिदिन निश्चित समय से योग-कक्षा का निर्देशन करते देखा रहा हूँ। समूह के योग-साधकों को चरणबद्ध आसानों को करने का तरीका बोलकर बताते हुए साथ ही साथ बिना किसी त्रुटि के स्वयं करते जाना और सामने वालों की त्रुटियों पर पैनी नजर रखते हुए उन्हें ठीक कराते जाना डॉक्टर साहब की एक विलक्षण क्षमता है।

yog ke prayog 5कोविड महामारी की दो-दो लहरों के गुजर जाने और तीसरी लहर के आसन्न संकट को देखते हुए अब योगासन-प्राणायाम-ध्यान की महत्ता किसी से छिपी नहीं है। अब यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपरिहार्य हो गया है कि अपने शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए और रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए इसे अपनी दिनचर्या में सम्मिलित करे।

       डॉक्टर आर.के.एस.राठौर ने योग साधना के इच्छुक व्यक्तियों के उपयोग के लिए उनकी कक्षा में दैनिक रूप से सिखाई जा रही योग की बारीकियों को सुव्यवस्थित रूप से लिपिबद्ध करते हुए एक उपयोगी पुस्तक का प्रकाशन हाल ही में किया है। अब उनकी कक्षा का लाभ लेने के लिए भौगोलिक दूरी और आनलाइन जुड़ने में आने वाली यत्किंचित कठिनाइयों से छुटकारा मिल सकता है। उस कक्षा में सप्ताह के सात दिनों में बांटकर जिस प्रकार योग-आसन कराए जाते हैं, जो बातें बताई जाती हैं और प्रारंभ व अंत में जो प्रार्थना दुहराई जाती है उसे इस पुस्तक में हू-बहू प्रस्तुत किया गया है। आसनों का सही तरीका समझाने के लिए चित्रों का सहारा भी लिया गया है जो स्वयं डॉक्टर साहब द्वारा प्रदर्शित विविध आसनों व मुद्राओं की तस्वीरें हैं।

आगरा से प्रयागराज स्थानांतरण हो जाने के बाद भी मुझे डॉक्टर साहब के सान्निध्य में योगासन का अभ्यास करने का लाभ ऑनलाइन मिलता रहता है। अब इस पुस्तक के आ जाने से इसका लाभ ऑफ लाइन रहने पर भी मिलता रहेगा। हाल ही में जब मुझे एक-दो दिन के लिए आगरा जाना हुआ तो यह पुस्तक डॉक्टर साहब ने मुझे भेंट की। उनकी बातों से मुझे लगा कि यह कार्य भी उन्होंने “स्वांतः सुखाय परिजन हिताय” ही किया है। इस अत्यंत उपयोगी व सहज-सरल पुस्तक को व्यावसायिक उद्देश्य से प्रकाशित व प्रसारित किया जाना चाहिए था किन्तु इस संत ने “नेकी कर दरिया में डाल” की उक्ति ही चरितार्थ कर रखी है।       yog ke prayog 3

इस पुस्तक के प्रकाशक ने डॉक्टर साहब का परिचय इस प्रकार दिया है -

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पुस्तक की पूरी सामग्री ही बहुत उपयोगी है।  इसमें से यहाँ मैं वह अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसमें अपने व्यवहार का नियमन करने वाले ग्यारह ऐसे नियमों का पाठ करने की सलाह दी गयी है जिनका पालन करने पर हम एक बेहतर मनुष्य तो बनेंगे ही; साथ ही ये हमारे व्यक्तित्व को तराश कर समाज और देश के लिए और बेहतर बनाने व जीवन को सार्थक बनाने में बहुत सहायक हैं।

मानव सेवा संघ के 11 नियमों का पाठ:

1.आत्मनिरीक्षण, अर्थात प्राप्त विवेक के प्रकाश में अपने दोषों को देखना।

2. की हुई भूल को पुनः न दोहराने का व्रत लेकर सरल विश्वास पूर्वक प्रार्थना करना।

3. विचार का प्रयोग अपने पर और विश्वास का दूसरों पर अर्थात न्याय अपने पर और प्रेम तथा क्षमा अन्य पर।

4. जितेंद्रियता, सेवा, भगवत चिंतन, और सत्य की खोज द्वारा अपना निर्माण।

5. दूसरों के कर्तव्य को अपना अधिकार, दूसरों की उदारता को अपना गुण और दूसरों की निर्बलता को अपना बल ना मानना।

6. पारिवारिक तथा जातीय संबंध ना होते हुए भी, पारिवारिक भावना के अनुरूप ही, पारस्परिक संबोधन तथा सद्भाव अर्थात कर्म की भिन्नता होने पर भी, स्नेह की एकता।

7. निकटवर्ती जन समाज की यथाशक्ति क्रियात्मक रूप से सेवा करना।

8. शारीरिक हित की दृष्टि से, आहार-विहार में संयम तथा दैनिक कार्यों में स्वावलंबन।

9. शरीर श्रमी, मन संयमी, बुद्धि विवेकवती, हृदय अनुरागी तथा अहं को अभिमान शून्य करके अपने को सुंदर बनाना।

10. सिक्के से वस्तु, वस्तु से व्यक्ति, व्यक्ति से विवेक तथा विवेक से सत्य को अधिक महत्व देना।

11. व्यर्थ-चिंतन-त्याग तथा वर्तमान के सदुपयोग द्वारा, भविष्य को उज्जवल बनाना।

आशा है आप इस पुस्तक को प्राप्त करने का प्रयास करेंगे और और अपनी दिनचर्या में योगासन प्राणायाम व ध्यान को सम्मिलित कर अपने शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने की राह पर चल पड़ेंगे।

पुस्तक परिचय  : योग के प्रयोग  मूल्य रु.100/-, लेखक - डॉ रामकिशोर सिंह राठौर , संपादक- अतुल चौहान, प्रकाशक व मुद्रक -राष्ट्र भाषा ऑफसेट प्रेस, 26/470 राजा की मण्डी (निकट पुराना डाकघर) आगरा 0562-2215016, 3556960 

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

www.satyarthmitra.com

बुधवार, 10 नवंबर 2021

लखनऊ के जनेश्वर मिश्र पार्क में साइकिल से सैर

लखनऊ में हैं तो जनेश्वर मिश्र पार्क में जरूर जाइए।

#साइकिल_से_सैर

बहुत दिनों हुए मुझसे साइकिल छूटी हुई थी। नए शहर में नौकरी प्रारम्भ हो गयी लेकिन घर का सामान अभी पुराने शहर में पड़ा है। मेरी साइकिल भी वहीं कमरे में बंद मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी। इधर मौसम इतना गुलाबी हो गया है कि मन बरबस प्रकृति की गोद में अठखेलियां करने का हो जाता है। दीपावली के स्वागत के लिए उसदिन हम लखनऊ में थे। मेरे बेटे ने छुट्टी का लाभ उठाने के लिए गोमतीनगर विस्तार स्थित जनेश्वर मिश्र पार्क में अपने फुटबाल-मित्रों के साथ अभ्यास करने का मन बनाया और मुझे सुबह छः बजे गेट नंबर-चार पर छोड़ देने को कहा। मैंने अपनी गूगल मीट पर चलने वाली ऑनलाइन योगासन, प्राणायाम व ध्यान की कक्षा को नमस्कार किया और बेटे को छोड़ने यहाँ आ गया।

मेरे बेटे की इच्छा होती है कि वह अपने अन्य साथियों की तरह स्कूटी से स्वयं यहाँ आया- जाया करे लेकिन 14-15 साल की उम्र में अभी इसकी इजाज़त देना कत्तई संभव नहीं है। वह दूसरे बच्चों के माता-पिता की 'उदारता' से मेरी 'भीरुता' की तुलना करता है और मैं उनके 'दुस्साहस' की आलोचना करते हुए 'कानून के अनुपालन' की बात करता हूँ। इस बहस का अंत इस सहमति पर होता है कि मैं उसे गेट के पास छोड़कर तुरंत वापस चला जाऊं ताकि उसके साथियों को दिखाई न दूँ। असल में मुझे उसकी निगरानी करते देखकर उसके साथी उसे 'छोटा बच्चा' समझते होंगे; ऐसा सोचकर उसे मन ही मन झेंप सी होती है। हो भी क्यों न; इस उम्र में ही उसकी लंबाई मुझसे तीन-चार इंच बड़ी और उन सब दोस्तों की औसत लंबाई से ज्यादा जो हो गयी है।

आज मेरा मन भी हरे-भरे विस्तृत पार्क की शुद्ध और खुली हवा में सांस लेने का हुआ तो मैंने अपने समझौते की काट ढूंढ ली। उसे छोड़कर मैं उसके सामने वापस तो हो गया लेकिन एक किलोमीटर चलकर यू-टर्न लेते हुए वापस आ गया और गाड़ी पार्क करने के बाद गेट नम्बर चार से ही अंदर आ गया। यहाँ साइकिल से सैर के शौकीन लोगों के लिए किराए पर साइकिलें उपलब्ध हैं। एक घंटे के लिए मात्र 20 रुपया चुकाकर पार्क के भीतर बने लगभग चार किलोमीटर के ट्रैक पर साइकिल चलाते हुए तथा हरे-भरे वातावरण में अपने फेफड़ों को प्रचुर ऑक्सीजन की खुराक देते हुए यहाँ के मनोरम दृश्य के बीच समय बिताने का आनंद अनुपम है।

उसदिन मैंने यह आनंद भरपूर उठाया और रास्ते में मिले अन्य टहलने वाले, जॉगिंग करने वाले, दौड़ने वाले, साइकिल चलाने वाले, कसरत करने वाले, क्रिकेट- फुटबाल- बैडमिंटन- आदि खेलने वाले या बेंचो पर बैठकर मोबाइल में डूबे रहने वाले या समूह में कहकहे लगाने वाले लड़के, लड़कियों, स्त्री, पुरुष व वरिष्ठ उम्र के स्वस्थ लोगों को देखकर उनके भाग्य को सराहता रहा जिन्हें प्रतिदिन इस बहुविध स्वास्थ्यवर्धक आनंद का उपभोग करने का अवसर प्राप्त है।मुझे यह आनंद कभी-कभी ही मिलता है इसलिए यहाँ के मनोरम दृश्य को समेट लेने के लिए मेरी जेब में रखा इलेक्ट्रॉनिक साथी भी कुलबुलाने लगा था। अस्तु मेरी साइकिल अनेक स्थानों पर बरबस ही रुकती रही। काफी तस्वीरें लेने के बावजूद न मोबाइल कैमरे का मन भरा, न मेरा।

  कुछ तस्वीरें आप भी देखिए और संभव हो तो इस बेहतरीन मौसम में जनेश्वर मिश्र पार्क की सैर का कार्यक्रम जरूर बनाइए।

  (सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

बुधवार, 31 मार्च 2021

साइकिल से सैर के क्षेपक

#साइकिल_से_सैर का मेरा शौक आगरा में आने के बाद लगातार क्षेपकों का शिकार होता रहा है। पिछले साल जनवरी में नई हरक्यूलिस खरीदने के बाद जब मैं सैर को निकला तो साइकिल के कल-पुर्जों ने चूँ-चाँ करके यह बता दिया कि इसे जल्दी ही उसकी दुकान पर सर्विसिंग के लिए ले जाना पड़ेगा।

आगरा में एम.जी. रोड के हरिपर्वत चौराहे के एक कोने पर जमी 'पॉपुलर सायकल स्टोर' नामक ऊंची दुकान किसी नए व्यक्ति को सहज ही आकर्षित कर लेती हैं। अस्तु, मैं भी साइकिल लेने वहीं चला गया था। लेकिन उस साइकिल के साथ एक वर्ष के अनुभव ने मुझे उस उक्ति के साक्षात उदाहरण के दर्शन करा दिए जिसे हम 'ऊंची दुकान- फीका पकवान' के रूप में रटते आए हैं।


दर असल कॅरोना के लॉक डाउन में जो थोड़ी सी ढील मिलती थी तो हम चुपके से साइकिल लेकर निकल लेते थे। लेकिन इस सवारी ने मानो मेरी सैर में खलल डालने का प्रण कर रखा था। मेरा निजी अनुभव यह था कि एक अच्छी साइकिल को समतल और पक्की सड़क पर चलते समय बिल्कुल शांत रहना चाहिए। केवल टायर के रबर द्वारा सड़क की सतह छूते हुए नाचने पर एक हल्की और मधुर गरगराहट की आवाज होती है जो कर्णप्रिय लगती है। लेकिन मेरे हाथ में 'पॉपुलर' वालों ने जो साइकिल थमाई थी उसके अगले हिस्से से जैसे कराहने की आवाज आती थी। चलती हुई साइकिल में अगले पहिए की धुरी, रिम, टायर, मडगार्ड, ब्रेक व चिमटा ये सभी मिलकर ऐसी आवाज निकालते कि मैं बार-बार हैरान होकर आगे झुकता और उस विचित्र ध्वनि के स्रोत का पता लगाने की कोशिश करता। दुकान वाले को भी चार-पाँच बार दिखाया लेकिन उसके मिस्त्री ने हर बार पहिया हवा में उठाकर घुमाया और दिखा दिया कि सेटिंग बिल्कुल ठीक है और कोई आवाज नहीं आ रही है। एक दिन मैंने एक अन्य मिस्त्री को दिखाया तो उसने आगे के सभी छर्रे बदल डाले। उसका बिल चुकाकर जब मैं आगे बढ़ा तो वह कराहने की आवाज चीत्कार में बदल गयी थी। मैंने पलटकर मिस्त्री से शिकायत की तो उसने पूछा - आपने इसे पॉपुलर से खरीदा था क्या? मैंने हाँ में सिर हिलाया तो उसने मुस्कराते हुए कहा कि तब ये ठीक नहीं कर पाऊंगा। एक रहस्यानुभूति के साथ मैं निराश होकर घर वापस आ गया।
अगले दिन मैंने यह बात अपने सरकारी ड्राइवर व अर्दली से बतायी। वे दोनों मेरी चिंता में सम्मिलित हो गए और समस्या का समाधान तलाशने में जुट गए। दो-तीन दिन के बाद मयंक ने कहा कि साहब आप इजाजत दें तो इसे सिकंदरा के पास एक सरदार जी की दुकान पर ले जाकर दिखा दूँ। उन्होंने दावा किया है कि इसके रोग का निदान और उपचार गारंटी के साथ कर देंगे। उनके पास बहुत होशियार मिस्त्री हैं। मैंने उसे इजाजत ही नहीं दी बल्कि साइकिल को सरकारी गाड़ी पर लादकर सरदार जी को दिखाने स्वयं भी पहुँच गया।
सरदार जी ने बड़ी देर तक साइकिल के एक-एक कलपुर्जे को नचा-घुमाकर देखा, माथा खुजलाया, पूरी रामकहानी सुनी और लंबी सांस लेकर बोले - इसमें छोटी-छोटी ढेर सारी कमियां हैं। ठीक करवा देंगे लेकिन इसे छोड़ना पड़ेगा। चूंकि मुझे दो-तीन दिन मुख्यालय से बाहर ही रहना था इसलिए मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया और एक साल की उम्र में ही प्रायः अनचली साइकिल की 'ओवर-हॉलिंग' का कार्यादेश देकर चला आया।
तीन दिन बाद जब मैं पूरे उत्साह से बनी-संवरी साइकिल के दर्शन और प्राप्ति की आशा लिए सरदार जी की दुकान पर गया तो वे मौके से नदारद थे। दो-तीन मिस्त्री अपना-अपना काम कर रहे थे और मेरी हरक्यूलिस एक किनारे खड़ी थी। उसका अगला टायर नया लगा था। लेकिन और कोई परिवर्तन दृष्टिगोचर नहीं था। वहाँ का सबसे वरिष्ठ मिस्त्री जो एक पैर से विकलांग था, उसने मेरी उत्कंठा भाँप ली।
उसने हमें इशारे से बुलाया और बोला- मालिक तो अभी आ जाएंगे लेकिन आपकी साइकिल पूरी तरह बन नहीं पायी है। इसका आगे का चिमटा, झूला और पीछे का हब बदलना पड़ेगा जो आपसे पूछे बगैर नहीं बदल सकते। मैंने विस्फारित नेत्रों से सवाल किया - ऐसा कैसे?
मिस्त्री ने बताया कि इसमें चिमटा छोटी साइज का लगा है। यह छब्बीस के बजाय 24 नम्बर का लगा है इसीलिए पहिया ठीक से सेट नहीं हो रहा। झूला (ब्रेक सिस्टम) भी छोटा लगा हुआ है जो इस साइकिल का ओरिजिनल नहीं है। मिस्त्री ने दुकान से सही साइज का एक चिमटा निकलवाकर साइकिल में लगे छोटे चिमटे के साथ एक तुलनात्मक प्रस्तुति भी कर दी।
इस बीच सरदार जी आ गए। उन्होंने आगे जोड़ा कि साइकिल के पिछले पहिए में भी हब और रिम बेमेल है। अर्थात इसके हब में तीलियाँ फंसाने के लिए जितने छेद बने हैं उतनी तीलियों वाला रिम लगा ही नहीं है। अगले टायर में गांठें थीं इसलिए नया टायर-ट्यूब डलवा दिया। सारी बाल-बेअरिंग नयी डलवा दी। बाकी सब नट-बोल्ट कसवाकर टनाटन करवा दिया, लेकिन ये तीन आइटम बड़े और महंगे हैं। कायदे से इन्हें पॉपुलर स्टोर द्वारा रिप्लेस किया जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने नई साइकिल में गलत नम्बर का पार्ट लगा दिया है।
अब मुझे समझ में आ गया कि पिछले एक साल से मैं एक ठग किस्म के दुकानदार के चक्कर में परेशान था। गलत साइज के पुर्जे लगाकर उसने साइकिल की वह दशा कर दी थी जो उस व्यक्ति की हो जाती होगी जिसने अपने से दो नम्बर छोटी साइज का अंडरवियर और दो नम्बर बड़ी साइज की हवाई चप्पल पहन रखी हो। उसे सिर्फ खड़ा रहना हो तबतक तो ठीक है, लेकिन इस पहनावे के साथ दौड़ लगानी पड़े तो जो गत होगी वही मेरी साइकिल के साथ हो रही थी। अब मैंने महसूस किया कि छोटा सा चिमटा अपने से बड़ी साइज की रिम, ब्रेक सिस्टम और सवार के बोझ तले दबकर किकियाता रहता था और इस रहस्य से बेखबर मैं अपनी सैर के मजे को किरकिरा होता देखता और खीझता रहता था।
मैंने सरदार जी का सात-आठ सौ का बिल भरा और उस फीके पकवान को लादकर एकबार फिर उसी ऊंची दुकान पर पहुंच गया। दुकान का मालिक अपनी धूर्तता और बेईमानी के ऊंचे सिंहासन से उतरने को कतई तैयार न हुआ। सबकुछ सुनने के बाद उसने पूछा - आप दूसरी दुकान पर गए ही क्यों? उस सड़कछाप दुकान वाले सरदार की हैसियत नहीं है कि मेरे जैसे बड़े डीलर के सामान में कमी निकाल दे। आपकी साइकिल मैं ठीक करा देता लेकिन आप आए नहीं तो क्या करूँ। मैंने बताया कि मैं स्वयं और मेरा अनुचर मिलाकर 5-6 बार यहाँ आ चुके हैं लेकिन आपके किसी मिस्त्री ने यह गलत नम्बर का चिमटा नहीं देखा। देखा भी होगा तो बताया नहीं क्योंकि आपने ही उन्हें भी प्रशिक्षण दे रखा है। अपनी झेंप को छिपाने के लिए उसने विनम्रता के बजाय आक्रामकता का सहारा लिया और बोला कि यह गलती कम्पनी की है। हम क्या करें? लेकिन सरदार जी ने मेरे ज्ञान-चक्षु खोल दिए थे। यह कि साइकिल की किट खोलकर जब साइकिल कसी जाती है तो कभी-कभार बेमेल पुर्जे निकल आते हैं जिन्हें दुकानदार कम्पनी में भेजकर बदलवा लेते हैं। ग्राहक को सही मेल के पुर्जे लगाकर देने की जिम्मेदारी तो दुकानदार और साइकिल कसने वाले मिस्त्री की है। जब मैंने यह ज्ञान उस बेईमान के कान में उड़ेला तो उसने फोन उठाकर कम्पनी में बात की। फिर उसने टका सा जवाब दिया कि अब यह मॉडल बन्द हो गया है। यदि पुराने स्टॉक से चिमटा मिल पाया तो वे भेजेंगे। मैंने खिन्न होकर साइकिल वहीं छोड़ दी और बाहर निकलकर घर आ गया।
तीन-चार दिन बाद मेरे अर्दली ने घर में आकर बताया कि वह दुकान पर गया था। उसने पाया कि साइकिल का चिमटा बदल दिया गया है और अब साइकिल बढ़िया चल रही है। मैंने खुश होकर उसे शाबासी दी और साइकिल देखने के लिए बाहर निकला। मेरी खुशी अल्पकालिक ही रह गयी। उस धूर्त ने जो चिमटा लगाया था वह सही नम्बर का जरूर होगा लेकिन उसके लोहे में जंग लगी हुई थी और उसका रंग भी अलग था। किसी भिन्न मॉडल और अलग रंग की पुरानी साइकिल से निकाला हुआ वह पैबंद जैसा चिमटा मुझे त्रिशूल की तरह बेध गया।
अब इस पीड़ा की एक ही दवा थी - नई साइकिल।

अतः मैंने अगले ही क्षण निर्णय ले लिया। अब इस निर्णय का क्रियान्वयन हो चुका है। मैं एस.आर.एस. मॉल के बेसमेंट में सजे डेकाथेलान स्टोर से 'रॉकराइडर' का बेस मॉडल लेकर आया हूँ जिसे चलाकर मन को असीम शांति मिल रही है। एक ऐसा सुकून जो पैर में चुभे काँटे के निकल जाने पर मिलता है। अब फिरसे सड़क की सतह को छूकर घूमते पहिए से मधुर गरगराहट का कर्णप्रिय संगीत सुनाई देने लगा है। अब समय मिला तो साइकिल से सैर की कहानियाँ फिरसे सुनाऊंगा।

पुछल्ला : मेरे नवागत बॉस भी साइकिल से सैर का शौक रखते हैं। एक दिन सायंकालीन बैठक को अचानक स्थगित करते हुए उन्होंने इसका कारण बताया कि उन्हें पॉपुलर साइकिल स्टोर जाना है। अपने और बच्चों के लिए तीन-चार साइकिलें लेनी हैं। मैंने लगभग घबराते हुए उनसे कहा कि उस ठग के पास कतई मत जाइएगा। उन्होंने मेरी बात फौरन मान ली और हम दोनों 'डेकाथेलान स्टोर' की ओर चल पड़े।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)