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गुरुवार, 31 जुलाई 2014

वाह जुलाई के क्या कहने…!

भाग-एक


स्कूलों की घंटी बोली, बच्‍चों की लो निकली टोली
भारी बस्ते चढ़े पीठ पर, फिर भी करते हँसी ठिठोली
नौनिहाल को हैं सब सहने, वाह जुलाई के क्या कहने ॥१॥

अब तिहवारी मौसम आया, सबने ईद उल फित्र मनाया
आयी तीज लिए हरियाली, मंगल व्रत करती घरवाली 
राखी चुनने निकली बहनें, वाह जुलाई के क्या कहने ॥२॥

सूखे की आहट से टूटे, यह किसान की दुनिया लूटे
मानसून ने कर दी देर, लिया विकट चिन्ता ने घेर
तभी लगी पुरवाई बहने, वाह जुलाई के क्या कहने॥३॥

आम दशहरी, चौसा- लगड़ा, अल्फान्सो का रुतबा तगड़ा
हफ़्तेभर तक जामुन आया मधुरोगी ने छककर खाया
हरित वसन धरती ने पहने, वाह जुलाई के क्या कहने ॥४॥

शिव शंकर का सावन आया, भक्तजनों का मन हर्षाया
सांई पर उखड़े आचार्य भूले संत सरीखे कार्य
ऐसे कैसे धर्म निबहने? वाह जुलाई के क्या कहने ॥५॥

भाग-दो

बजट बिगाड़ा महंगाई ने, रेट बढ़ा डाला बाई ने 
दूर पकौड़ी, प्याज रुलाये, हरी मिर्च भी आंख दिखाये
घर में नहीं टमाटर रहने, वाह जुलाई के क्या कहने ॥६॥

सबसे पहले रेल किराया, बोले बरसों बाद बढ़ाया
पेश बजट तो ऊँचा शोर, संसद बहस करे घनघोर
किले हवाई लगते ढहने, वाह जुलाई के क्या कहने॥७॥

लॉर्ड्स जीतकर मारा तुक्का, अगले टेस्ट में खाया धक्का
कॉमनवेल्थ पदक की होड़, भारत की कुश्ती बेजोड़
जीत लिए सोने के गहने, वाह जुलाई के क्या कहने ॥८॥

नटवर करे प्रहार करारा, त्याग नहीं नाटक था सारा
सहजादे ने रोकी राह, भीतर ही दब गयी कराह
चाटुकार अब लगे बहकने, वाह जुलाई के क्या कहने ॥९॥

कैसा अंगरेजी आयोग, अजब गजब का करे प्रयोग
प्रतियोगी हैं जन्तर-मन्तर, अंग्रेजी भारी है सबपर
निकल पड़े कुछ फिरसे जलने वाह जुलाई के क्या कहने ॥१०॥

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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मंगलवार, 22 जुलाई 2014

पीछे की अक्ल में आगे बुद्धिजीवी

नौ साल पहले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा किये गये भ्रष्टाचार के पोषण के बारे में जस्टिस मारकंडेय काटजू ने जो खुलासा किया वह बहुत आश्चर्यजनक नहीं है; लेकिन इसपर जो बहस चल रही है वह बहुत ही रोचक होती जा रही है। एक राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा एक जिला जज को उसके द्वारा पूर्व में किये गये उपकार (जमानत) के बदले हाईकोर्ट में एडिशनल जज बनवा दिया गया; फिर उसका कार्यकाल बढ़वाने का सफल प्रयास किया गया; हाई-कोर्ट में उस जज ने कुछ और उपकार कर दिये होंगे जिससे खुश होकर उसका कार्यकाल और बढ़वाने फिर स्थायी जज बनवाने का इन्तजाम भी नेता जी द्वारा कर दिया गया। इस इन्तजाम के तहत ही केन्द्र सरकार को दिये जा रहे समर्थन के बदले प्रधानमंत्री की सिफारिश से भारत के चीफ जस्टिस की कृपा भी प्राप्त कर ली गयी। चीफ जस्टिस ने प्रधानमंत्री जी की खुशी के लिए उस जज के खिलाफ़ खुफिया रिपोर्ट को थोड़ा अनदेखा कर दिया। बस इत्ती सी तो बात है।

सामान्य दुनियादारी की समझ रखने वाले एक साधारण बुद्धि के मनुष्य के लिए इसमें कुछ भी अजूबा नहीं है। लेकिन देश के भारी भरकम बुद्धिजीवी और पत्रकार इस बात को लेकर हलकान हुए जा रहे हैं। लगता है कि इन लोगों को न्यायपालिका में इसके पहले भ्रष्टाचार के कोई चिह्न ही नहीं दिखे थे। जबकि आम आदमी निचले स्तर पर यह सब रोज ही झेल रहा है। चैनेल वाले तो ऐसे बदहवास हैं मानो मनमोहन सिंह के बारे में कोई बहुत गूढ़ और अनसुनी बात खुलकर सामने आ गयी हो। जबकि देश की जनता ने मौनी बाबा की हकीकत समझकर उन्हें कबका किनारे लगा दिया है।

लूट, डकैती , हत्या, बलात्कार, इत्यादि की घटना घटित हो जाने और अपराधी के बच निकलने और भाग जाने के बाद जब लोग इकठ्ठा होते हैं तो एक से एक बढ़िया तरीके बताते हैं कि उस समय क्या किया जाना चाहिए था। चुटकी में पॉलिसी और स्ट्रेटजी बनाने वाले एक से एक विशेषज्ञ प्रकट हो जाते है। दरअसल असली मौके की नज़ाकत  और तात्कालिक परिस्थिति की मजबूरियों को न समझने का सुभीता इन रायचंदों के पास खूब होता है।

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टाइम्सनाऊ पर जस्टिस काटजू के सामने बहस के लिए राम जेठमलानी और सोली जे.सोराबजी आये थे। तीनो अपने क्षेत्र के धुरन्धर और ख्यातिनाम। पहली बार अर्नब गोस्वामी को कम बोलते और सीमित टोका-टाकी करते देखकर अच्छा लगा। मजेदार बात यह थी कि कानून के तीनो दिग्गज एक दूसरे से असहमत होते हुए भी सच्चाई से बोलते दिखे।

सोराब जी ने कहा कि काटजू की बात पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता लेकिन इन्होंने यह बात खोलने में बहुत देर कर दी जो एक प्रकार से अपने कर्तव्यों की उपेक्षा है। इन्हें पता था कि एक भ्रष्ट आदमी को जज बनाया जा रहा है लेकिन उन्होंने इसे रोकने के लिए जितना करना चाहिए था उतना नहीं किया। राम जेठमलानी ने भी कहा कि मैं होता तो चीफ जस्टिस द्वारा अनसुना कर दिये जाने पर चुप नहीं बैठता और आगे बढ़कर इसका खुला विरोध कर देता। जेठमलानी का मत था कि काटजू को शायद उस भ्रष्ट जज द्वारा किया जाने वाला नुकसान उतना बड़ा नहीं लगा होगा जितना उनके द्वारा अनुशासन तोड़ देने पर न्यायपालिका की छवि को होता। काटजू से यह रहस्योद्घाटन करने में इतनी देर करने की वजह जेठमलानी को बिल्कुल समझ में नहीं आ रही थी।

जब दोनो की घेरेबन्दी को अर्नब गोस्वामी ने काटजू के ऊपर और कसना शुरू किया तो काटजू ने झल्लाकर कहा- ये दोनो लोग कानून के बहुत बड़े जानकार भले ही होंगे, वकील भी बहुत बड़े होंगे लेकिन ये कभी जज नहीं रहे हैं। इसीलिए मेरी बात ये लोग नहीं समझ पा रहे हैं। न्यायमूर्ति की कुर्सी पर बैठे रहते हुए मैं पब्लिक के बीच कोई मुद्दा कैसे उठा सकता था? मैंने जीफ जस्टिस को इस बारे में पूरी बात बता दी थी। इससे ज्यादा मैं और क्या कर सकता था?

इसपर जेठमलानी बोले कि आपकी मजबूरी तभी तक थी न जबतक आप न्यायमूर्ति थे। छोड़ देते कुर्सी और आ जाते मैदान में। मैं तो इस्तीफा दे देता और इस भ्रष्टाचार की पोल खोल देता। इसपर काटजू ने पहले तो हँसकर मौज लेने की कोशिश की लेकिन बाद में गंभीर होकर बोले कि बेहतर होगा कि आप वकालत से ही इस्तीफा दे दीजिए। उनका आशय शायद यह था कि देश के सभी बड़े-बड़े अपराधी और घोटालेबाज जेठमलानी जी के मुवक्किल होते हैं। काटजू ने यह भी याद दिलाया कि उन्होंने अपनी मर्यादा में रहते हुए भी जो किया वह पहले किसी ने नहीं किया। इलाहाबाद हाईकोर्ट में ‘जज-अंकल’ की सड़ांध के बारे में उन्होंने ही खुलेआम चीफ जस्टिस को बताया था और उसपर कार्यवाही हुई थी।

उधर मनमोहन सिंह अभी साल भर पहले ही प्रधानमंत्री बने थे। उनकी कुर्सी सोनिया गांधी के आशीर्वाद के साथ साथ करुणानिधि की कृपा पर भी टिकी थी। हाईकोर्ट के एक भ्रष्ट जज को रोकने के लिए क्या वे अपनी सरकार चली जाने देते? लेकिन आज सबलोग यही कह रहे हैं कि उन्हें वह सिफारिश नहीं करनी चाहिए थी। भले ही करुणा बाबू अपना समर्थन खींच लेते। इन लोगों से कैसी महानता की आशा कर लेते हैं हम?  बहुत भोले हैं न हम सब?