आम के बाग में साइकिल से सैर (भाग –2)
आज आज साइकिल_से_सैर के लिए निकला तो मेडिकल कॉलेज गेट से निकलकर बायीं तरफ़ यानि शहर की ओर मुड़ गया। थोड़ी देर बाद एक नहर मिली जिसकी पटरी पर पक्की सड़क थी। उस सड़क पर स्कूली विद्यार्थियों की टोली आ-जा रही थी। मैंने साइकिल को नहर की पटरी पर मोड़ लिया और दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर चल पड़ा। पीठ पर सूर्य देवता की ताजा किरणों की बौछार हो रही थी।
मेरी दाहिनी ओर नहर पर क्रम से दो-तीन पुलिया ऐसी बनी हुई मिलीं जिनके उस पार कोई सड़क नहीं दिख रही थी। बल्कि खेत और उनके बीच की पगडंडियां ही नमूदार थीं। शायद नक्शे में वहां चकरोड रहा हो जो कालांतर में अगल-बगल के खेतों में समा गया हो।
पटरी पर आगे बढ़ा तो एक पुलिया ऐसी मिली जिसकी दूसरी ओर पक्की सड़क जा रही थी। मैंने साइकिल को पुलिया पार करके गांव की ओर जाती उस सड़क पर दौड़ा लिया। पुलिया पार करते ही सड़क के दोनों ओर बिल्कुल सीधी रेखा में किए गए वृक्षारोपण की सुंदर पंक्तियां दिखाई दीं। मैंने एक क्षण को साइकिल रोक ली और एक-दो तस्वीरें ली। इसमें गांव की ओर से आता हुआ एक लड़का भी दिखा जो एक कुत्ते की डोर थामें उसे टहला रहा था।
सुबह सुबह कुत्ता टहलाने का यह नजारा गांव में देख कर मुझे महसूस हुआ कि शहरी सभ्यता अब गाँव में भी पैर पसार रही है। विकास के बढ़ते कदमों की आहट आगे भी सुनाई दे रही थी जब मैं सड़क के घुमाव को फॉलो करते हुए गांव के भीतर पहुँच गया। वहाँ सुबह-सुबह घरों से बाहर बैठे चाय-पानी करते लोग और जानवरों की सेवा-टहल करते लोग तो मिले ही, गांव के भीतर की सीमेंटेड सड़क के किनारे खुली दुकानों पर पान मसाले के पाउच की लड़ियाँ भी लटकती मिलीं, कुरकुरे और अंकल चिप्स के पैकेट भी थे और ब्रेड मक्खन भी था। मोबाइल सिम और एक्सेसरी के साथ रिचार्ज की दुकान भी थी।
गाँव के भीतर की मोटी-पतली गलियां पकड़ कर आगे बढ़ता हुआ मैं इस विश्वास से चला जा रहा था कि गांव के उस पार पहुंचकर मुझे मुख्य सड़क तो मिल ही जाएगी। मुझे इस बीच एक पतली गली मिली तो वह किसी के घर के अहाते में जाकर समाप्त हो गई। वापस मुड़कर दूसरी तरफ गया तो वहां भी डेड-एंड मिला। मजबूर होकर मुझे करीब 50 मीटर वापस मुड़ना पड़ा। गलियों के तिराहे पर लौटकर जब मैं दूसरी ओर बढ़ा तो गाँव के मुहाने पर बने सामुदायिक शौचालय को देखकर पता चला कि यह वही इस्माइलपुर गांव है जिसकी दूसरी ओर से मैंने पिछले दिनों इसी रास्ते पर प्रवेश किया था। फिर तो मैंने वह राह उल्टी ओर से पकड़ ली जिस पर मुझे पिछली बार खड़ंजा लगाने के लिए ईटों का ढेर, ट्यूबवेल का पानी, बेल का पेड़ और अमराइयाँ मिली थीं।
खड़ंजे का कार्य आगे बढ़ चुका था। ईंटों के कुछ नए ढेर रास्ते में जमा थे। दुपहिया वाहन वालों ने सड़क से उतरकर खेतों में बाईपास बना लिया था। मैंने भी इस ऊबड़-खाबड़ बाईपास में साइकिल लहराते हुए बाधा पर की और उस ट्यूब वेल पर रुका। पिछली बार की दमित इच्छा की पूर्ति इस बार कर ही दिया। जमीन के भीतर से निकलते शीतल जल को चेहरे पर छपकारने का लोभ संवरण करने की जरूरत नहीं महसूस हुई।
आगे बढ़कर मुझे आम के टिकोरों से लदे अनेक पेड़ मिले। खेतों में सीमेंट की मजबूत बाड़ लगाने की तैयारी में खड़े खंबो की पंक्ति मिली और खुले मैदान में एकाकी खड़ा एक ऐसा वृक्ष भी मिला जिसने मुझे बरबस रोक लिया। आम के फल से लदे इस गोल-मटोल पेड़ के साथ मेरी साइकिल ने भी फोटो खिंचाया। आसपास कोई प्रहरी नहीं दिखा। फिर भी हमने उसकी शान में कोई गुस्ताख़ी नहीं की।
हमने पूरे सम्मान से इस सजीले पेड़ को विदा की नमस्ते कही, मन ही मन 'फिर मिलेंगे' का वादा किया और कच्ची पगडंडी पर चलकर पहले एक खड़ंजे पर पहुँचे फिर पक्की सड़क पर निकलते ही मेडिकल कॉलेज का गेट सामने आ गया।
आज की मोहक तस्वीरें दरपेश हैं।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)