हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2022

हरियाली और ऑक्सीजन का खजाना

आज #साइकिल_से_सैर करते हुए मैं एक बार फिर चंद्रशेखर आजाद पार्क की ओर चला गया था। लेकिन हर बार यहाँ वही टटकापन महसूस होता है। जो लोग रात में देर तक जागते हैं और सबेरे देर तक सोते हैं वे बहुत कुछ मिस करते हैं। प्रकृति द्वारा सुबह सुबह मुफ्त की अमृत-वर्षा की जाती है। इसमें जागरूक लोग नहाते हैं। भोर का धुंधलका छटते ही सभी पेड़-पौधे उजाले की ऊर्जा लेकर भरपूर ऑक्सीजन का उत्पादन शुरू कर देते हैं। पक्षियों की चहचहाहट इसी बात की घोषणा तो करती है।   

सूरज निकला चिड़ियाँ बोलीं, कलियों ने भी आँखें खोलीं।

आसमान में छाई लाली, हवा बही सुख देने वाली।

न्हीं-नन्हीं किरणें आईं, फूल हँसे कलियाँ मुस्काईं।।

 278569653_10226910368095282_1670074207435678447_nअल्फ्रेड पार्क के गेट पर पहुंचते ही महसूस होता है कि भीतर हरियाली और ताजगी का खजाना है जिसे लूटने के लिए तमाम स्त्री, पुरुष, बच्चे व बुजुर्ग जमा हो गए हैं। प्रकृति की व्यवस्था ऐसी है कि इन सबको शुद्ध हवा और विटामिन-डी के लिए कोई धक्का मुक्की नहीं करनी पड़ती। बस हाजिर होते ही प्रचुर मात्रा में यह सबको सुलभ हो जाता है।     

लेकिन यहाँ सड़क पर लगे ठेले-खोमचे पर अंकुरित अनाज का दोना, खीरा-ककड़ी- फल सलाद, बेल शरबत, बन-मक्खन, चाय या नारियल पानी के लिए जरूर नंबर लगाना पड़ता है। मुझे इसका प्रत्यक्ष अनुभव हुआ जब मैं एक ठेले पर जमा भीड़ के पास पहुँचा। यहाँ अंकुरित चने में मूली, टमाटर, चुकंदर, पुदीना, गाजर, आदि की कतरन तथा अनेक चटपटे मसाले व नमक मिलाकर बरगद के पत्ते पर परोसा जा रहा था। चम्मच के बजाय पत्ते का एक टुकड़ा ही इसका काम भी कर रहा था। उस दोने में नीबू के रस का उदारतापूर्वक प्रयोग विशेष आकर्षण का केंद्र था।

स्टील के दो बर्तनों में सामग्री तैयार करके उसे दोने में भरने के लिए दो लड़के लगातार हाथ चला रहे थे लेकिन ग्राहकों को कुछ प्रतीक्षा करनी ही पड़ रही थी। नोट पकड़े हाथ आगे बढ़े हुए परस्पर प्रतिस्पर्धा कर रहे थे। कुछ लोग मोबाइल से क्यूआर कोड स्कैन करके डिजिटल भुगतान करने के बाद मोबाइल की स्क्रीन ही दिखा रहे थे। कई लोग अपने घर वालों के लिए तीन-तीन, चार-चार दोने पैक भी करा रहे थे। इसमें मेरे जैसे एकल दोने के ग्राहकों को लंबे धैर्य का परिचय देना पड़ रहा था।

मैंने इस प्रतीक्षा काल में आसपास की कुछ तस्वीरें उतार लीं। बहुत मोहक वातावरण दिखा मुझे। जब गेट के बाहर इतना अच्छा माहौल था तो भीतर की हरियाली से भरी पगडंडियों और रंग-बिरंगी क्यारियों से सजे टहल-पथ के क्या कहने। अपनी साइकिल लेकर मैं अंदर जा नहीं सकता था इसलिए अंदर जाते लोगों को ही देखकर संतोष करना पड़ा। आप भी इनका दर्शन लाभ लीजिए। इसका भौतिक लाभ तो तभी मिलेगा जब सुबह-सबेरे बिस्तर का मोह त्याग कर स्वयं सदेह पधारेंगे।

278573294_10226910366695247_4695524287917765355_n

278713761_10226910365215210_5496359113341910606_n
278650037_10226910360975104_7883343325339824359_n (1)
279016859_10226910365575219_9030717001684580744_n
279291694_10226910360735098_656391776284090234_n
278835295_10226910366455241_3035952357131469126_n 278622297_10226910367295262_6084846768540046244_n

278578433_10226910366055231_6533768414175576802_n

278585158_10226910366295237_2622677650498040629_n

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

www.satyarthmitra.com

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2022

गार्ड का डिब्बा

IMG_20220413_192410अगले दो दिन की छुट्टी और फिर सप्ताहांत अवकाश के कारण सरकारी कर्मचारियों को इस बार लंबी अवधि का आराम मिलना था। मैंने भी इस मौके का लाभ उठाने के लिए बच्चों के पास जाने का कार्यक्रम बनाया। बस की यात्रा में सात-आठ घंटे लग जाते इसलिए इंटरसिटी एक्सप्रेस से जाने का विचार बना। मैंने ए.सी.चेयरकार का वेटिंग टिकट तत्काल कोटे में बुक कराया जो दुर्भाग्य से कन्फर्म नहीं हो सका। आगे की छुट्टियों की वजह से इस दिन इस गाड़ी पर यात्रियों का लोड बहुत ज्यादा था। मुझे रेलयात्राओं में यथावश्यक सहयोग देते रहने वाले मेरे एक शुभेच्छु रेल अधिकारी ने इस ट्रेन में चलने वाले टीटीई से बात की तो उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। उन्होंने फिर भी इसी ट्रेन से मुझे गंतव्य तक पहुँचवाने का भरोसा दिलाया और स्टेशन पहुँचने को कहा।

एक साधारण श्रेणी का टिकट खरीदने के लिए मैंने स्टेशन की टिकट खिड़की का रुख किया तो वहाँ पर लगी लंबी लाइन देख कर मेरे हाथ-पाँव फूल गए। दोपहर की गर्मी में पसीना चुआते टिकटार्थियों की बेचैनी भरी जद्दोजहद देखकर मुझे भी पसीना आ गया। इस बार गर्मी का आगमन कुछ जल्दी ही हो गया है। गाड़ी छूटने में केवल पाँच मिनट बचे थे और लाइन खत्म होने वाली नहीं थी। इसके फलस्वरूप टिकट के लिए मुझे विद्यार्थी जीवन की एक तकनीक अपनानी पड़ी। वहाँ महिलाओं की लाइन में सिर्फ दो बच्चियां खड़ी थीं। उनमें से एक ने मेरी समस्या पर सहानुभूति दिखाई और एक अतिरिक्त टिकट लेकर सहर्ष मुझे दे दिया।

टिकट पाकर प्रसन्न हुआ मैं जब प्लेटफार्म पर पहुँचा तो यात्रियों की भारी भीड़ देखकर ठिठक गया। अधिकांश तो विद्यार्थी ही थे जो तीन-चार दिन का ब्रेक लेने अपने गाँव-घर को जा रहे थे। गाड़ी के आने की उद्घोषणा हो गयी थी जो बस आने ही वाली थी। सभी अपना सामान उठाकर सीट कब्जाने की होड़ के लिए तैयार थे। इन बच्चों की तरह पिठ्ठू बैग के बजाय मेरे पास एक छोटा सा स्लिंग बैग ही था। मुझे भी लगा कि अब पच्चीस साल पहले वाली फुर्ती आजमाने का समय आ गया है। ए.सी. की आरक्षित सीट पर यात्रा करने की आदत पड़ जाए तो सामान्य श्रेणी की यात्रा कठिन लगने लगती है। मैंने सोचा की यह अच्छा ही है कि बीच-बीच में साधारण श्रेणी का स्वाद भी मिलता रहे ताकि इन बहुसंख्यक सहयात्रियों के अनुभव से दो-चार हुआ जा सके और अपनी काया भी प्राकृतिक हवा, धूप और गर्मी से जुड़ाव महसूस कर सके और तादात्म्य स्थापित कर सके।

आपदा में अवसर खोज निकालने की इस सोच पर आत्ममुग्ध हुआ मैं एक अलग तरह की चुनौती से भिड़ने के लिए खुद को तैयार करने लगा था तभी उन शुभेच्छु अधिकारी का फोन आ गया। उन्होंने बताया कि ट्रेन के गार्ड से बात हो गयी है। आप उनके कूपे में बैठकर जा सकते हैं। वहाँ ए.सी. तो नहीं है लेकिन भीड़भाड़ से अलग सुकून से बैठकर यात्रा हो सकती है। टॉयलेट की सुविधा भी अलग से है ही। मेरा मन पुनः प्रसन्न हो गया और मैं ट्रेन के आते ही उसके पिछले हिस्से की ओर लपक लिया। सफेद पैन्ट-शर्ट की यूनिफ़ॉर्म में गार्ड साहब मेरी प्रतीक्षा कर ही रहे थे। उन्होंने गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया। मैंने भी कूपे में चढ़कर राहत की सांस ली और गाड़ी चल पड़ी।

आप सोच रहे होंगे कि अबतक जो हुआ उसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं था, फिर मैं यहसब क्यों बता रहा हूँ। दरअसल जो बताना चाहता हूँ वह इसके बाद हुआ। यह मेरे लिए एक नया अनुभव था।

IMG_20220413_191419मैंने इसके पहले कभी रेलगाड़ी के गार्ड का डिब्बा अंदर से नहीं देखा था। मेरे मन में रेलगाड़ी के गार्ड की छवि एक बेहद जिम्मेदार, सतर्क, जागरूक और लिखित मानक (एस.ओ.पी.) के अनुसार कार्य करने वाले अधिकारी की रही है। इसी छवि के अनुरूप इनकी सुविधाएं और पारिश्रमिक भी रेल विभाग देता होगा ऐसा मेरा मानना है। आज की इस छोटी सी मुलाकात में मुझे इस छवि को नजदीक से देखने का अवसर मिला। कार्य तो उनका वैसा ही है जैसा मेरा आकलन था। मैंने इन्हें बिल्कुल सजग, सतर्क, जिम्मेदार, उत्तरदायी और लिखित मानक के अनुसार निरंतर काम में व्यस्त रहते हुए ही देखा। अलबत्ता इस अधिकारी को प्राप्त सुविधाओं के बारे में मुझे अपनी धारणा को थोड़ा परिमार्जित करना पड़ा है। जब कूपे की आंतरिक सज्जा को मैंने देखा तो मन मसोस उठा।

इस कूपे में दोपहर की प्रचंड गर्मी से उत्पन्न लू को रोकने का कोई प्रबंध नहीं था। ए.सी. या कूलर की कौन कहे कूपे की छत के बीचोबीच लगे पंखे की हसटाकर अंदर की ओर रुख करके फिट की गयी थीं। हर गुजरते स्टेशन पर गार्ड साहब को दरवाजे या खिड़की से हाथ बाहर निकालकर वा जहाँ लग रही थी वहाँ बैठने के लिए कोई सीट ही नहीं थी। मात्र दो साधारण सीटें जो लगी थीं वे दोनों तरफ के दरवाजों से झंडी दिखानी होती है। इसलिए वे आवश्यकतानुसार इस या उस दरवाजे पर काम कर रहे होते हैं। इन्हें दरवाजे व खिड़कियां प्रायः खुली रखनी होती हैं और मौसमी बयार का अवगाहन करना ही होता है। जाहिर है कि कूपे में आजकल की गर्म लू के साथ धूल- मिट्टी का झोंका भी यदाकदा आता ही रहता है।

IMG_20220413_191858

गार्ड के बक्से और पोर्टर की साइकिल

रेल विभाग में प्रत्येक गार्ड का एक बक्सा होता है जिसमें वे अपना निजी सामान व ड्यूटी में प्रयोग हेतु जरूरी कागजात व उपकरण आदि रखते हैं। यह बक्सा लकड़ी या लोहे का बना होता है। वह ड्यूटी में उनके साथ चलता है जिसे लाकर लादने व उतारकर ले जाने के लिए एक कुली या पोर्टर की ड्यूटी होती है। आपने प्लेटफार्म पर पड़े ऐसे बक्से देखे होंगे। मैंने देखा कूपे के बीच छत में लगे एकमात्र पंखे के ठीक नीचे यही बक्सा रखा गया था| इसपर बैठकर ही ऊपर से बरसती हवा रूपी किरपा का लाभ लिया जा सकता था। गार्ड साहब ने इस बक्से पर रखे सामान समेटकर एक तरफ रख दिए और एक गमछा बिछाकर बड़े सम्मान से मुझे बैठने के लिए प्रस्तुत कर दिया। सुना है अब रेल विभाग इस बक्से के स्थान पर एक ट्रॉली बैग देने वाला है जिसे गार्ड साहब खुद ही लाएंगे और ले जाएंगे। उस स्थिति में पंखे के नीचे बैठने का यह सस्ता साधन भी चला जाएगा।

इस बक्सासन पर लम्बवत बैठकर मुझे आत्म गौरव का भाव घेरते ही जा रहा था कि कुछ देर में कमर ने कहीं टेक लेने की गुहार लगा दी। मैंने उसे कुछ देर तो अनसुना किया लेकिन कुछ देर बाद मेरी पीठ भी उसके सुर में सुर मिलाने लगी। फिर गर्दन की बारी आयी और उसके साथ सिर भी कोई आश्रय खोजने लगा। अंततः मैं खड़ा हो गया। इसपर रजिस्टर भरने में व्यस्त गार्ड साहब ने सिर उठाकर मेरी ओर प्रश्नवाचक निगाह से देखा। मैंने कहा - टॉयलेट यूज़ कर लूँ क्या? उन्होंने प्रसाधन कक्ष की ओर इशारा किया। मैंने हैंडल घुमाकर दरवाजा खोला और अंदर झांक कर देखा।

अत्यंत छोटे से कोटरनुमा प्रसाधन कक्ष के एक कोने में वाश-बेसिन था जिसमें पानी की टोटी लगी थी। दूसरे कोने में वेस्टर्न कमोड लगा था जो बिल्कुल सूखा हुआ था। अर्थात् पिछली सफाई किए जाने के बाद यह प्रयोग नहीं किया गया था। बल्कि अंदर जमी धूल बता रही थी कि इसका प्रयोग लंबे समय से नहीं किया गया था। मैंने एक कदम भीतर बढ़ाकर उसके नीचे की व्यवस्था का मुआयना किया। आशा के विपरीत वहाँ कोई टोटी, चेन वाला डिब्बा या जेटस्प्रे की व्यवस्था नहीं दिखी। यानि यदि यहाँ किसी को ‘दीर्घशंका’ मिटानी पड़ जाय तो उसके बाद प्रक्षालन की क्रिया के लिए वाश-बेसिन की टोटी से ही पानी भरना पड़ेगा। उसके लिए किसी पात्र की व्यवस्था भी अपने व्यक्तिगत स्रोत से करनी होगी तथा हैंडवाश लिक्विड की बोतल भी साथ रखनी होगी। मैंने किसी प्रकार की शंका के निवारण का विचार तत्काल स्थगित कर दिया और दरवाजा भिड़ाकर वापस आ गया।

IMG_20220413_191439

गार्ड का डिब्बा कभी-कभी प्लेटफॉर्म की सीमा के बाहर भी खड़ा हो जाता है।

गार्ड साहब ने इशारे से ही पूछा कि मैंने टॉयलेट यूज़ क्यों नहीं किया? मैंने कहा कि अभी कोई खास जरूरत नहीं है। वैसे भी इतनी गर्मी है कि शरीर का पानी पसीना बनकर ही उड़ा जा रहा है। फिर कुछ देर बाद मैंने थोड़े संकोच से बताया कि कमोड के आसपास पानी का कोई पॉइंट नहीं है। वे झंडी दिखाकर निवृत्त हुए तो अंदर जाकर देखने लगे फिर बताया कि कमोड वाले कोने में पीछे की ओर एक पाइप है जिसमें लगे नॉब को दबाने पर सीट में पानी फ्लश हो जाता है। मैंने जब प्रक्षालन की व्यवस्था न होने की ओर ध्यान दिलाया तो उन्होंने मुस्कराते हुए कहा कि यह छोटी दूरी की ट्रेन है। इसमें ‘उसकी’ जरूरत पड़ती ही नहीं है। मैंने हाँ में सिर हिलाया लेकिन यह जोड़ दिया – “फिर भी आपात कालीन स्थिति के लिए इसकी व्यवस्था तो होनी ही चाहिए... आपको अपनी डायरी या शिकायत पुस्तिका में इसका उल्लेख कर देना चाहिए।’’ गार्ड साहब के चेहरे से टपकती सज्जनता यह बता रही थी कि वे ऐसी कोई शिकायत दर्ज नहीं करने वाले हैं।

बहरहाल जब आधे घंटे बाद अगले स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो बड़ी संख्या में लोकल यात्री ट्रेन से उतरे। मैंने सोचा कि अब साधारण डिब्बे में निश्चित ही कुछ सीटें खाली हो गयी होंगी जिनपर गद्दी भी लगी होगी, ऊपर पंखा भी चल रहा होगा और पीठ को टेक लेने का सुभीता भी होगा। मैंने गार्ड साहब को अपनी मंशा बतायी, उनकी सदाशयता के लिए धन्यवाद दिया और अपना बैग उठाकर नीचे उतर गया। पीछे का डिब्बा अपेक्षया कम भीड़ वाला था। मुझे आसानी से खिड़की वाली एकल सीट खाली मिल गयी। सूर्य देवता भी अपनी हेकड़ी छोड़कर अस्ताचल में डूब जाने की चिंता में लग गए थे।

जब ट्रेन आगे बढ़ी तो दोनों किनारे फैली हरियाली से छनकर आती हवाओं ने शरीर से चिपके पसीने को चलता कर दिया। इतना सुकून पाकर हमने अपना मोबाइल खोल लिया और आपको यह किस्सा सुनाने के लिए नोटपैड पर लिखना शुरू कर दिया। मेरे शुभेच्छु रेल अधिकारी ने तो नहीं ही सोचा होगा कि उनकी इस सदाशयी अहेतुक सहायता ने मुझे एक अभूतपूर्व अनुभव का लाभ दे दिया। बल्कि मुझे डर है कि इसे एक असुविधा समझकर वे असहज न महसूस करें। मैं तो इस सदाशयता के लिए उन्हें हृदय से धन्यवाद ही दूंगा।

सोच रहा हूँ अंग्रेजों ने गार्ड का डिब्बा जैसा डिजायन किया होगा उसमें आजादी के बाद शायद कोई बड़ा सुधार नहीं किया गया है। इसके पीछे शायद मूल मंत्र यह रहा हो कि अधिक आरामदायक व्यवस्था पाकर गार्ड साहब को कहीं झपकी आ गयी तो गड़बड़ हो जाएगी। रेल के जानकार इसपर बेहतर प्रकाश डाल सकते हैं।

(सत्यार्थमित्र)

www.satyarthmitra.com