हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

मेरी उलझन सुलझाइए… प्लीज़

 

justice आज मुझे बहुत बड़े कन्फ़्यूजन ने घेर रखा है। दोपहर बाद खबर आयी कि सर्वोच्च न्यायालय ने रमेश चन्द्र त्रिपाठी की याचिका खारिज कर दी है। अर्थात्‌ उन्होंने अयोध्या विवाद के फ़ैसले को स्थगित करने के जो-जो कारण गिनाए थे उनपर सभी पक्षों की राय जानने के बाद अदालत इस नतीजे पर पहुँची कि अब फैसला हो ही जाना चाहिए।

मैं ऑफिस से यह चिंता करता हुआ लौटा कि अब कांग्रेस पार्टी क्या बयान देगी। दर‍असल जिस दिन (२३ सितम्बर को) सर्वोच्च न्यायालय ने श्री त्रिपाठी की याचिका सुनवायी के लिए स्वीकार करते हुए सभी पक्षों को नोटिस जारी करने का आदेश दिया था और उच्च न्यायालय को तबतक फैसला स्थगित रखने का आदेश दिया था उस दिन कांग्रेस प्रवक्ता ने इसका जोरदार स्वागत किया था। यानि कांग्रेस खुश थी कि फैसला टल रहा है। अब आज याचिका खारिज होने के बाद क्या विकट स्थिति उत्पन्न हो गयी होगी। क्या आज बीजेपी वाले स्वागत करेंगे फैसले का?

घर पहुँचते ही मैने टीवी खोल दिया। सभी चैनेल अपने-अपने पैनेल के साथ चर्चा में लगे हुए थे। मुझे थोड़ा भी इंतज़ार नहीं करना पड़ा। कांग्रेस के प्रतिनिधि प्रायः सभी चैनेल्स पर मौजूद थे और आज के फैसले का भी ‘स्वागत’ कर रहे थे। बीजेपी तो स्वागत की मुद्रा में थी ही। पहली बार में तो मुझे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ। लेकिन बार-बार सुनने पर मानना ही पड़ा कि वे इस निर्णय का स्वागत ही कर रहे हैं। अब मैं सकते में हूँ।

मेरे भोलेपन पर आप हँस सकते हैं। मैं इन नेताओं के बारे में इतना भी नहीं जानता। लानत है। कौन वाला स्वागत असली था और कौन वाला नकली? समझ नहीं पा रहा हूँ। आप मेरी उलझन सुलझाएंगे क्या?

शायद न्यायालय के फैसले का सम्मान करने की बात आज भी स्वागत योग्य है।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

बुधवार, 15 सितंबर 2010

तेरा बिछड़ना फिर मिलना…

 

हे तात,

आज तुम वापस घर लौट आये। मन को जो राहत मिली है उसका बयान नहीं कर पा रहा हूँ। तुम्हारा साथ वापस पाकर मुझे उस टाइप की खुशी मिल रही है जैसी सीमा पार गुमशुदा मान लिए गये सैनिक की देशवापसी पर उसके घर वालों को होती है। कोई उम्मीद नहीं कर रहा था कि तुम सकुशल अपने घर वापस आ जाओगे। वह भी जिस बुरी हालत में तुमने घर छोड़ा था और जिस तरह से तुम्हारा परिचय पत्र भी खो चुका था, मुझे कत्तई उम्मीद नहीं थी कि इतनी बड़ी दुनिया में कोई तुम्हें पहचानने को तैयार होगा, तुम्हारी सेवा-सुश्रुषा करेगा, तुम्हारी बीमारी की मुकम्मल दवा करेगा और फिर पूरी तरह स्वस्थ हो जाने पर हवाई टिकट कटाकर तुम्हें मेरे घर तक पहुँचवा देगा।

मैने सोचा कि तुम्हें वापस भेजने वाले को धन्यवाद दूँ, लेकिन इस पूरी कहानी में इतने अधिक लोग सहयोगी रहे हैं और उनमें अधिकांश को मैं जान-पहचान भी नहीं पा रहा हूँ इसलिए इस सार्वजनिक मंच से एक बार ही उन सबको सामूहिक धन्यवाद ज्ञापित कर देता हूँ।

तुम्हारे साथ मैंने जो किया वह कत्तई अच्छा व्यवहार नहीं कहा जा सकता। अपने सुख के लिए मैंने तुम्हारे साथ बहुत नाइंसाफी की। जब भी कभी हम साथ चले मैं अपना सारा बोझ तुम्हारे कंधे पर डाल देता और खुद मस्ती से इतराता चला करता। तुम इतने निष्ठावान और सेवाधर्मी निकले कि कभी उफ़्‌ तक नहीं की, कोई शिकायत नहीं की। शायद तुमने अपना माथा ठोंक लिया कि जब मैंने तुम्हें तुम्हारे जन्मदाता से रूपयों के बदले खरीदा है तो आखिरी साँस तक मेरी सेवा करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, तुम्हारी नियति है। बिल्कुल गूंगा गुलाम बनकर रहे तुम मेरे साथ। जरूरत पड़ने पर तुमने मेरे भाइयों की सेवा भी उसी तत्परता से की। कोई भेद नहीं रखा।

एक बार तो तुम मेरे एक मित्र को लोक सेवा आयोग तक इंटरव्यू दिलाने चले गये। उसने पता नहीं तुममें क्या खूबी देखी कि एक दिन के लिए तुम्हें मुझसे मांगकर अपने साथ ले गया। मैने समझाया भी कि यह तो अभी बिल्कुल नया-नया आया है, मै भी इसके व्यवहार से भली भाँति परिचित नहीं हूँ। तुम्हें पता नहीं रास आये या न आये। वह बोला- “यह नया है तभी तो ले जा रहा हूँ। मुझे अनुभवी और पुराने साथियों के साथ ही तो परेशानी होती है। जब तक साथ रहेंगे, रास्ते भर पता नहीं क्या-क्या चर्र-पर्र करते रहेंगे। बार-बार मूड डिस्टर्ब होने की आशंका रहेगी। कॉन्फिडेन्स गड़बड़ाने का डर बना रहेगा। इंटरव्यू तो अपने दिमाग से देना है, फिर रास्ते भर इनकी सिखाइश और बक-बक की ओर ध्यान क्यों बँटाना? यह नया है तो मुझमें कोई खामी तो नहीं दिखाएगा। इसके चेहरे पर जो चमक है वह आत्म विश्वास बढ़ाने वाली है। यह खुशी से शांतिपूर्वक साथ चलेगा और सुकून से बिना कोई खटपट किए वापस आएगा। मुझे कुछ आराम ही रहेगा।” मैंने बिना कुछ कहे तुम्हें उसके साथ भेज दिया। तुम्हें तो घूमने का बहाना चाहिए। और क्या?

तुमने मुझसे कभी कुछ मुँह खोलकर नहीं मांगा। तुम दरवाजे के बाहर बैठे रहते या घर के कोने में चुपचाप दुबके रहते। टकटकी लगाये रहते कि मैं कब तुम्हें अपने साथ ले चलने वाला हूँ। तुमने खुद अपना खयाल कभी नहीं रखा। मुझे ही जब तुम्हारी दीन-हीन शक्ल-सूरत पर तरस आती तो थोड़ी बहुत साफ़-सफाई के लिए किसीसे कह देता या खुद ही हाथ लगा देता। वैसे मुझे यह तरस भी अपने स्वार्थ में ही आती। तुम्हें मेरे साथ चलना होता था, इसलिए तुम्हें मैली-कुचैली हालत में रखता तो अपनी ही नाक कटती न! जब किसी अच्छी शादी-व्याह, जन्मदिन पार्टी, सालगिरह इत्यादि का निमन्त्रण हो या खास सरकारी मीटिंग में बड़े अधिकारियों से मिलने जाना हो तो मैं तुम्हे कुछ ज्यादा ही महत्व देता। तुम्हारी सादगी और गरिमापूर्ण उपस्थिति से मुझमें आत्मविश्वास बढ़ जाता। तुम बोल नहीं पाते वर्ना मैं पूछता कि जिस दिन मेरी ही तरह तुम्हारी विशेष साज-सज्जा होती उस दिन तुम जरूर गेस कर लेते होगे कि किसी खास मौके पर बाहर निकलना है।

तुमने जब भी मेरे साथ कोई यात्रा की मुझे सुख देने का पूरा प्रयास किया। मेरी सुविधाओं का ख़याल रखते रहे। मेरा बोझ ढोते रहे। ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर तुम आगे-आगे चलकर मेरे लिए उसकी तकलीफ़ कम करने का जतन करते रहे। तुमने इतना तक खयाल रखा कि मेरे पाँव में काँटे न चुभने पाये। मुझसे पहले तुम जमीन पर पाँव रखते ताकि काँटे हों भी तो तुम्हे पता चल जाय और मुझे कोई धोखा न हो। सड़क जल रही हो तो मुझे उसपर नंगे पाँव नहीं चलने देते। तुमने अपने लिए कीचड़ भरा रास्ता चुन लिया होगा लेकिन मेरे पाँव कभी गीले नहीं होने दिया। आज पीछे मुड़कर देखता हूँ कि मैं निरा स्वार्थी और अहंकारी बनकर तुम्हारा खरीदार होने के दंभ में तुम्हारी चमड़ी से एक-एक पैसा वसूल कर लेने की फिराक़ में लगा रहा जबकि तुमने बिना कोई शिकायत किए मेरी सेवा को अपना धर्म समझा। मैने तुम्हे जैसे चाहा वैसे इस्तेमाल किया। तुम्हारी राय या सहमति लेने की जरुरत भी नहीं समझी। लेकिन हद तो हद होती है। मैने एक बार हद पार की और तुमसे हाथ धोने की नौबत आ गयी।

हुआ यों कि एक बार मैं एक पहाड़ी इलाके में यात्रा पर गया। किसी ठंडी पहाड़ी का इलाका नहीं था बल्कि वहाँ कुछ पथरीले शुष्क टीले थे जिनके ऊपर एक वैश्विक शिक्षण संस्था आकार ले रही थी। उसी संस्था के मुखिया ने मुझे बुला भेंजा था। सुबह-सुबह हम टीले पर बने पथरीले रास्ते से ऊपर की ओर टहलते हुए जा रहे थे। तभी मुझे दूर चोटी पर कुछ परिचित लोग दिखायी दिए। वे लोग भी आगे की ओर बढ़ रहे थे। दूरी इतनी थी कि उन्हें आवाज देकर रोका नहीं जा सकता था। वे लोग आपस में बात करते हुए तेज कदमों से बढ़े जा रहे थे। मैने आव देखा न ताव, उन्हें पाने के लिए दौड़ लगाने लगा। मुझे तुम्हारा भरोसा कुछ ज्यादा ही था। लेकिन शायद तुम दौड़ने के लिए बने ही नहीं थे। संकोच में तुम कुछ बोल न सके। मेरे साथ दौड़ लगाते रहे। हमने उन लोगों को करीब एक किलोमीटर की दौड़ लगाकर पकड़ तो लिया लेकिन जल्द ही मुझे तुम्हारी तकलीफ़ का पता चल गया। मेरी ऊँखड़ी हुई साँस तो कुछ देर में स्थिर हो गयी लेकिन तुम्हारा हुलिया जो बिगड़ा तो सुधरने का नाम नहीं ले रहा था। लगभग कराहने की आवाज करने लगे तुम। मैंने तुम्हें सम्हालते हुए चलने में मदद की और गेस्ट हाउस में आने के बाद लिटाकर छोड़ दिया। फिर बाकी समय तुम मेरा साथ नहीं दे सके। तुम्हारे तलवे में फ्रैक्चर सा कुछ हो गया था। मुझे वापसी यात्रा में तुम्हें टांग कर चलना पड़ा।

जब हम घर वापस लौट गये तो तुम्हारी दुरवस्था देखकर मुझे लगा कि अब तुम मेरे किसी काम के नहीं हो। मुझे तुम्हारे ऊपर दया तो आ रही थी लेकिन उससे ज्यादा मुझे अपने हजार रूपए बेकार चले जाने का अफ़सोस होने लगा। तुम कोने में पड़े रहते मुझे आते-जाते देखते रहते। तुम्हारी देख-भाल में कमी आ गयी और तुम्हारा स्वास्थ्य और बिगड़ता गया। घर में एक बेकार का बोझ बन गये तुम। श्रीमती जी ने एक बार संकेत किया कि इसे किसी मंदिर या अनाथालय पर छोड़ आइए। किसी भिखारी के हाथ लग जाएगा तो शायद उसके काम आए। सुनकर मेरा कलेजा काँप गया। मुझे चिंता होने लगी कि मेरी अनुपस्थिति में कहीं तुम्हें ठिकाने न लगा दिया जाय। मैं तुम्हारे साथ पैदा हुई समस्या के एक सम्मानजनक निपटारे का रास्ता ढूँढने लगा।

(2)

एक दिन बाजार में घूमते हुए मुझे वही आदमी मिल गया जिससे मैने तुम्हें खरीदा था। मैं फौरन उसके पीछे लपक लिया। भीड़-भाड़ के बीच उससे बात करना मुश्किल था। उसने मुझे पहचान तो लिया लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा था कि उससे कैसे बात करूँ। उसने शायद मेरे असमंजस को भाँप लिया। वह बातचीत में गजब का चालाक था। उसी ने शुरुआत की- “ कहिए साहब, जो सामान मैने आपको दिया था वह अच्छा चल रहा है न? कोई शिकायत वाली बात तो नहीं है?” मुझे अब तरकीब सूझी। मैने चेहरे पर निराशा के भाव मुखर किए और बोला- “तुम्हारा सामान तो वैसे बड़े काम का था, लेकिन अब खराब हो गया है। घर में बेकार पड़ा रहता है। कहीं आने-जाने लायक नहीं रह गया है। अगर उसे वापस ले लेते तो ठीक रहता। जिस बुरी हालत में वह है उसको अब उसे बनाने वाले (जन्म देने वाले) ही ठीक कर सकते हैं। उसे उसकी कम्पनी को (अपनी माँ के पास) भेज दिया जाय तो शायद उसे नयी जिन्दगी मिल जाय।”

जानते हो, तुम्हें मेरे हाथों बेंचते समय उसने यह कहा था कि दो-तीन महीने में कोई शिकायत हो तो वापस लाइएगा, दूसरा ले जाइएगा। मेरे पास बहुत से हैं। मैंने उसे इस ‘वारण्टी’ की याद दिलायी। हाँलाकि उसका चेहरा यह साफ शक़ करता दीख रहा था कि यह खरीद-फ़रोख्त तीन महीने के भीतर की नहीं है। लेकिन मैने जब यह कहा कि इस सामान की रसीद तो है नहीं कि  सबूत के तौर पर पेश कर दूँ। तुम्हें अगर मेरी बात पर भरोसा हो तो उसे वापस ले लो नहीं तो मेरा घाटा तो हो ही रहा है। वह जब किसी काम का नहीं रह जाएगा तो हम कबतक उसे ढोते रहेंगे।

मेरी इस बात का जाने क्या असर हुआ कि वह तुम्हें वापस लेने पर राजी हो गया। बस एक शर्त रख दी कि तुम्हारे असली जन्मदाता जो निर्णय लेंगे उसे ही सबको मानना पड़ेगा। पैसा वापस होने की कोई उम्मीद न करें। उसने साफ़ कहा कि मैं तो दो पैसे के लिए केवल मध्यस्थ की भुमिका निभाता हूँ। माल कोई और बनाता है, इस्तेमाल कोई और करता है। मैं उन्हें केवल मिलवा देता हूँ। …उस दिन मैंने सिर्फ़ इस बात पर संतोष किया था कि घर में बेकार हो चुकी एक चीज हट गयी। तुम चूँकि अपने मूल स्थान वापस जा रहे थे इसलिए एक प्रकार के अपराधबोध से मुक्त होने का भाव तो मन में था ही, लेकिन अपने रूपये डूब जाने की आशंका से मन दुखी भी था।

आज जो तुम पूरी तरह से स्वस्थ होकर वापस मेरे घर मेरी सेवा करने के लिए भेंज दिए गये हो तो मुझे अजीब से भावों ने घेर लिया है। तुम्हें देखकर यह लगता ही नहीं है कि मेरे साथ उस पथरीली दौड़ में तुम्हारे पाँव जाया हो गये थे। तुम्हारा  यह लिम्ब ट्रान्सप्लांट किसी कुशल सर्जन का किया लगता है। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं है। सोच रहा हूँ कि मेरे कारण तुम विकलांग हो गये, लेकिन तुम्हारी चिकित्सा में मुझे दमड़ी भी नहीं लगानी पड़ी। मैंने बड़ी चतुराई से उस बाजार की साख पर प्रश्नचिह्न लगा दिया जिस बाजार से मैने तुम्हें खरीदा था। इसका असर यह हुआ कि अगले ने अपनी जबान की रक्षा के लिए सबकुछ दाँव पर लगा दिया।

वह चाहता तो मुझसे टाल-मटोल कर यूँही टहला देता। वह भी तब जब मैने उस शहर से अपने ट्रान्सपर की जानकारी भी उसे दे दी थी। लेकिन वह बन्दा या तो अपनी जबान का बहुत पक्का था या मेरी लानत-मलानत का असर इतना जबर्दस्त था कि उसने मेरा नया पता नोट किया और अपना मोबाइल नम्बर दिया। एक गुप्त कोड नम्बर भी बताया जिसका उल्लेख कर देने भर से वह पूरी बात समझ जाता और संकेत में ही तुम्हारी ‘लेटेस्ट कंडीशन’ बताता रहता। कब तुम अपनी माँ के पास पहुँचे। कब तुम्हारी जाँच करायी गयी, कब ऑपरेशन हुआ। कब अस्पताल से बाहर आये। मुझे पता चला कि तुम्हारे घर वाले तुम्हें हमेशा के लिए वापस रखने को राजी नहीं हुए। यह तय हुआ कि जिसने तुम्हें एक बार खरीद लिया उसी की सेवा में तुम्हें जाना चाहिए। भले ही तुम्हें सेवा के लायक बनाने में उन्हें बड़ा खर्च उठाना पड़े। डॉक्टर ने कहा कि खराब हो चुके अंग को पूरा ही बदलना पड़ेगा। परिवार बड़ा था। जाने कैसे स्पेयर अंग का जुगाड़ हो गया। यदि यह कृत्रिम अंग प्रत्यारोपण है तो अद्‌भुत है। बिल्कुल ओरिजिनल जैसा।

मुझे क्या, मैं तो बहुत खुश हूँ। खोयी पूँजी लौट आयी है। वह भी घर बैठे ही। बस फोन कर-करके उस मध्यस्थ को ललकारता रहा। उसने भी अपनी जबान पूरी करने की कसम खा ली थी। उसने तुम्हारे परिवार को फोन कर-करके तुम्हारे ठीक हो जाने के बाद अपने पास बुला ही लिया। तुम बोल नहीं सकते इसलिए तुम्हारे गले में मेरे नये घर का पता लिखकर टाँग दिया और रवाना कर दिया। तुम्हें पहुँचाने वह खुद तो नहीं आया लेकिन वहाँ से यहाँ तक पड़ने वाले हर स्टेशन पर उसके भाड़े के आदमी मौजूद थे। मुझे पता चला कि उस आदमी ने तुम्हारी बीमार हालत में तुम्हें तुम्हारे जन्मस्थान तक हवाई जहाज से भेंजा। तुम्हारी वापसी यात्रा भी हवाई मार्ग से हुई है।

lost&found

मुझे दो सप्ताह से तुम्हारा इन्तजार था। इंटरनेट बता रहा था कि तुम दिल्ली से नागपुर ्के लिए २६ तारीख को उड़ चुके हो। बाद में २७ ता. को  नागपुर से वर्धा भी चले आये हो। लेकिन वर्धा स्टेशन से मेरे घर तक आने में तुम्हें पन्द्रह दिन लग गये। आज पता चला कि जिस आदमी को तुम्हें पहुँचाने की जिम्मेदारी दी गयी थी वह बीमार हो गया था। तुम्हें अपने घर पर ही रखे हुए था।  आज पूछताछ करवाने पर वह तुम्हें लेकर आया।14092010912

आज जब तुम मेरे घर वापस आये हो तो लम्बी यात्रा की थकान तुम्हारे चेहरे पर साफ झलक रही है। तुम्हारी `बेडिंग’ के भी चीथड़े हो गये हैं। जाने कितने लोगों के हत्थे चढ़ने के बाद तुम अपने असली ग्राहक के पास वापस आ गये। अब सबकुछ ठीक हो जाएगा।

अब मैं तुम्हारे साथ कोई बुरा बर्ताव नहीं कर सकता। अपने पिछले दुर्व्यवहार पर पछता रहा हूँ। अब तुम्हें उस तरह तंग करने की सोच भी नहीं सकता। कल सुबह तुम्हारी मालिस-पॉलिश अपने हाथ से करूंगा। तुम्हारी आज जो सूरत है वह मेरी उस गलती की याद दिला रही है। उसे हमेशा याद रखने के लिए तुम्हारी एक तस्वीर खींच लेता हूँ। बुरा मत मानना। अब तो मैं तुम्हें बहुत लाड़-प्यार से रखने की सोच रहा हूँ। चिंता मत करना इस बीच अपनी सेवा के लिए मैने कुछ और ‘साधन’ जुटा लिए हैं। सारा बोझ अकेले तुमपर नहीं डालूंगा। तुमको दौड़ पर साथ ले जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अब तुम अपनी जमात के वी.आई.पी. हो चुके हो। बस, अब इतना ही। तुम्हारा बोधप्राप्त हितचिंतक…

 

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

शनिवार, 11 सितंबर 2010

पोला पर्व की धूम और विदर्भ पर इन्द्रदेव का कोप

 

भारत का विदर्भ क्षेत्र खेती-बाड़ी के प्रयोजन से बहुत उर्वर और लाभकारी नहीं माना जाता। कपास, सोयाबीन इत्यादि की खेती करने वाले किसान अनेक समस्याओं से जूझते रहते हैं। मौसम की मार से फसल बर्बाद होने का सिलसिला लगातार चलता रहता है। कर्ज और बदहाली से तंग आकर उनके आत्महत्या कर लेने तक की घटनाएँ सुनायी देती रहती हैं। वर्धा विश्वविद्यालय के प्रांगण में रहते हुए मुझे दो माह से अधिक हो गये हैं। यहाँ के बरसाती मौसम में इस बार खूब जलवृष्टि हुई है। चारो ओर से बाढ़ और फसल की बर्बादी की खबरें आ रही हैं। ऐसे में जब पिछली शाम को अचानक पूर्वी आकाश में इन्द्रधनुष दिखायी दिया तो बारिश बंद होने की आशा जगी। लगातार होती बारिश ने हम जैसे अकिसान की नाक में भी दम कर रखा था।

    घर के पीछे पूर्वी क्षितिज पर उगा इंद्रधनुष    ठीक उसी समय पश्चिमी क्षितिज पर सूर्यास्त

अगले दिन बुधवार की सुबह जब सोकर उठा तो  इंद्रधनुष और मेरे अनुमान को धता बताते हुए बादल फिर से छा गये थे। बारिश बेखौफ़ सबकी छाती पर मूंग दल रही थी। लेकिन जब मैं स्टेडियम जा रहा था तो रास्ते में एक नया नज़ारा मिला। तमाम लोग ऐसे मिले जो बारिश की परवाह किए बिना सड़क किनारे बंजर जमीन में उगे पलाश की झाड़ियों से टहनियाँ और पत्ते तोड़कर ले जा रहे थे। जब मैं चौराहे पर पहुँचा तो एक ठेले पर यही पलाश बिक्री के लिए लदा हुआ दिखायी पड़ा। साइकिल पर पलाश की टहनियाँ दबाकर ले जाते एक दूधवाले से मैने पूछा  कि ये पलाश क्या करोगे। वह हिंदी भाषी नहीं था। मुझे उसने उचटती निगाह से देखा और कठिनाई से इतना बता सका- “परस बोले तो …पोला वास्ते” उसने पलाश को परस कहा यह तो स्पष्ट था लेकिन पोला? मैं समझ न सका।

शाम के वक्त बारिश की रिमझिम के बीच आर्वी नाका (चौराहा जहाँ से आर्वी जाने वाली सड़क निकलती है) की ओर जा रहा था तो अनेक जोड़ी बैल पूरी सजधज के साथ एक ही दिशा से आते मिले। सींगे रंगी हुई, गले में घण्टी लगी माला और मस्तक पर कलापूर्ण श्रृंगार, पीठ पर रंगीन ओढ़नी और नयी रस्सी से बना पगहा (बागडोर)। इनकी डोर इनके मालिक के हाथ में थी। टुन-टुन की आवाज करते, अपने मालिक के साथ लगभग दौड़ते हुए ये किसी एक मेला स्थल से वापस आ रहे थे। मैं मन मसोस कर रह गया कि काश इनकी तस्वीरें ले पाता। शुक्र है इसकी कुछ क्षतिपूर्ति गूगल सर्च से और कुछ सुबह के अखबार से हो गयी।

अगले दिन सुबह अखबार खोलकर देखा तो मुखपृष्ठ पर सजे-धजे बैल की पूजा करते किसान परिवार की रंगीन तस्वीर छपी थी। लेकिन उसके बगल में यह दिल दहला देने वाली खबर भी थी कि विदर्भ क्षेत्र के पाँच किसानों ने पिछले चौबीस घण्टे में आत्महत्या कर ली जिसमें एक वर्धा के निकट ही किसी किसान ने कुँए में कूदकर जान दे दी थी। खबर के अनुसार पिछले कई दिनों से जारी घनघोर बारिश के कारण उनकी कपास की फसल घुटने तक पानी में पूरा डूब गयी थी। जब वे खेत से यह बर्बादी का नज़ारा देखकर आये तो आगे आने वाली तक़लीफ़ों की कल्पना से इतना तनावग्रस्त हो गये कि आत्महत्या का रास्ता चुन लिया। समाचार पढ़कर मुझे इस उत्सव की उमंग फीकी लगने लगी। मैंने शहर की ओर जाते समय देखा कि आर्वी नाके पर पलाश की टहनियों का ढेर जमा हो चुका था और उसमें आग लगा दी गयी थी। pola 004हाई-वे बाई-पास से शहर की ओर जाने वाली सड़क के नुक्कड़ पर सुबह-सुबह अस्थायी कसाईबाड़ा देककर मुझे हैरत हुई। बहुत से बकरे काटे जा रहे थे, और ग्राहकों की भीड़ इकठ्ठा होने लगी थी। मैंने स्टेडियम में अपने एक साथी खिलाड़ी से इस पर्व के बारे में पूछा तो उन्होंने बहुत रोचक बातें बतायी जो आपसे बाँट लेता हूँ। 

भादो महीने की अमावस्या के दिन शुरू होने वाला दो दिवसीय पोला-पर्व मराठी संस्कृति का एक बहुत महत्वपूर्ण अंग है। यह कृषक वर्ग द्वारा मनाया जाने वाला खेती का उत्सव है। पारंपरिक रूप से बैल किसान का सबसे बड़ा सहयोगी रहा है। भादो महीने के मध्य जब खेतों में जुताई इत्यादि का कार्य नहीं हो रहा होता है तब गृहस्थ किसान अपने बैलों को सजा-सवाँरकर उनकी पूजा व सत्कार करता है। दरवाजे पर पलाश की डालियाँ सजायी जाती है और उनकी पूजा होती है। अच्छी फसल के लिए मंगल कामना की जाती है। वह अपने हलवाहे को नया वस्त्र देता है, उसके पूरे परिवार को अपने घर पर भोजन कराता है। हलवाहा उन सजे-धजे बैलों की जोड़ी लेकर गाँव के ऐसे घरों के दरवाजे पर भी जाता है जहाँ बैल नहीं पाले गये होते हैं। pola 003ऐसे प्रत्येक घर से बैलों की पूजा होती है, और सभी लोग हलवाहे को कुछ न कुछ दक्षिणा या बख्शीश भेंट करते हैं। शाम को गाँव के सभी बैलों की जोड़ियाँ एक नियत स्थान पर जमा होती हैं। इस स्थान को रंगीन झंडियों और पत्तों से बने तोरण द्वार से सजाया जाता है। यहाँ बैलों की सामूहिक पूजा होती है और उनकी दौड़ जैसी प्रतियोगिता होती है। इसमें विजेता बैल के मालिक को समाज के प्रतिष्ठित लोगों द्वारा ईनाम भी दिए जाते हैं।

मेले से प्रसाद के साथ लौटकर आने के बाद किसान के घर में उत्सव का माहौल छा जाता है जो रात भर चलता है। यह पर्व खाने-पीने के शौकीन लोगों को अपना शौक पूरा करने का अच्छा बहाना देता है। श्रावण मास में मांसाहार से परहेज करने वाले लोग भादो माह के इस पर्व की बेसब्री से प्रतीक्षा करते हैं। गरीब हलवाहा भी इसदिन लोगों की बख्शीश पाकर कम खुश नहीं होता। इस खुशी का इजहार प्रायः वह शराब पीकर करता है। मांस खाने और दारू पीने का यह दौर दूसरे दिन तक चलता है। रात को जिस पलाश की पूजा होती है अगले दिन सुबह उसे एकत्र कर जलाया जाता है। मान्यता है कि इसके जलने से वातावरण में कीड़े-मकोड़ों और मच्छरों की संख्या कम हो जाती है।

भाद्रपद शुक्ल पक्ष के तीसरे दिन महिलाओं का तीज व्रत आ जाता है जिसे यहाँ  ‘कजरातीज’ कहा जाता है। आज दिनभर इस व्रत-त्यौहार संबंधी सामग्री से बाजार अटा हुआ था। केले के हरे पौधे, नंदी के खिलौने, फल-मूल और सुहागिन औरतों के श्रृंगार के साजो-सामान लिए एक महिला की दुकान की तस्वीर लेने के लिए जब मैं आगे बढ़ा तो वह हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी। गरीबी की दुहाई देने लगी। उसे लगा कि मैं कोई सरकारी आदमी हूँ जो सड़क पर दुकान लगाने के खिलाफ़ कार्यवाही करने वाला हूँ। मैंने उसे आश्वस्त किया लेकिन उसका चेहरा किसी अन्जानी आशंका से ग्रस्त होता देख मैं वापस मुड़ गया। हाँ, एक फोटो खींच लेने का लोभ-संवरण मैं फिर भी नहीं कर पाया।

आप जानते ही हैं कि भाद्रपद शुक्लपक्ष चतुर्थी के दिन महाराष्ट्र में गणपति की स्थापना होती है। उसके बाद महालक्ष्मी और दुर्गा के त्यौहार आ जाते हैं। इसप्रकार यहाँ त्यौहारों का मौसम पूरे उफ़ान पर है। ऐसे में इंद्रदेव की वक्रदृष्टि के शिकार विदर्भ के अधिकांश किसान विपरीत परिस्थितियों में भी पोला का पर्व धूमधाम से मना रहे हैं। लेकिन कुछ ने हिम्मत छोड़ दी और मौत को गले लगा लिया। यह विडम्बना देखकर मन परेशान है। क्या करे?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)