हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

रविवार, 16 दिसंबर 2012

कहाँ फँस गये तलाश में…?

तलाश की रिलीज से पहले प्राइमटाइम शो ‘न्यूज ऑवर’ में जब अर्नब गोस्वामी ने आमिर खान को उनकी नायिकाओं के साथ इंटरव्यू किया तो आमिर, करीना और रानी ने फिल्म की कहानी के बारे में कुछ भी नहीं बताया। फिल्म की प्रोमोशन स्ट्रेट्जी के खिलाफ़ था यह। निराश होकर ऐंकर ने आमिर से दूसरी बातें शुरू कर दी जो टीवी शो सत्यमेव जयते के बारे में थीं। फिल्मी हीरो आमिर खान के बजाय समाजसेवी आमिर से बातें होने लगीं और दोनो हिरोइनें नेपथ्य में चली गयीं।

सस्पेन्स थ्रिलर के नाम पर आमिर ने गोपनीयता का ऐसा माहौल बनाया कि हमने भी इस फिल्म को देखने का मन बना लिया। फिल्म रिलीज हुई तो तत्काल नहीं देख सके। फर्स्ट डे- फर्स्ट शो का रिस्की काम कभी नहीं करता। न्यूज चैनेल्स ने इसका रिव्यू भी आमिर की छवि को देखते हुए बुरा नहीं किया। इस सप्ताहान्त हमने ऑनलाइन टिकट बुक कराया। जब सीट चुनने के लिए कंप्यूटर स्क्रीन पर हाल की कुर्सियों का ले-आउट देखा तो केवल बीच की एक पंक्ति खाली दिखायी जा रही थी। बाकी booked/ unavailable थीं। मैं दंग रह गय। अब खिड़की से टिकट खरीदने वाले कैसे फिल्म देख पाएंगे?

चार बजे के शो पर INOX सिटी माल पहुँचे तो खिड़की पर सन्नाटा देखकर लगा कि फिल्म शुरू हो गयी है और हम लेट हो चुके हैं। जल्दी-जल्दी मोबाइल का एस.एम.एस. दिखाकर इन्ट्री पास लिया और भागते हुए लिफ़्ट में घुस लिए। भरी हुई लिफ़्ट पहले नीचे बेसमेन्ट में गयी। बड़ी-बड़ी ट्रॉलियों में भरे सामानों के साथ मोटे-मोटे खरीदारों को उनकी कार पार्किंग के फ्लोर पर छोड़ा फिर हल्का होकर ऊपर की ओर चली। ग्राउंड फ्लोर से पाँच छः लोग और घुसे जो दूसरे-तीसरे फ़्लोर पर शॉपिंग या खाने-पीने के लिए निकल गये। केवल हम दो जने बच गये। ऑडी-2 चौथे माले पर था। लिफ़्ट से बाहर निकले तो सिक्योरिटी वाले हमारा इन्ट्री-पास चेक करने और सुरक्षा जाँच करने के लिए आगे आये। हमने लगभग दौड़ते हुए जाँच पूरी करायी और ऑडी-2 में घुस लिए।

लेकिन यह क्या? यहाँ तो बिल्कुल सन्नाटा पसरा था। मुझे शक हुआ कि मैं गलत हाल में तो नहीं आ गया। अंधेरे हाल में नारंगी रंग की चमकती वर्दी में खड़े लाइटमैन से मैंने पूछा - हमें ‘तलाश’ देखनी थी, किस हाल में है? बोला- हाल यही है। अभी पाँच मिनट बाकी है। उसने टिकट देखा और सीट की लोकेशन बताने लगा जो मुझे पहले से पता थी। मैंने सीटों पर नजर दौड़ाई तो दर्शक नदारद थे। फर्श पर क्रमवार चमकते अक्षर सीटो और पंक्तियों का संकेत दे रहे थे। यह सोचता हुआ कि बाकी दर्शक शायद अँधेरे में नहीं दिख रहे हैं मैं कंप्यूटर में प्रदर्शित ले-ऑउट का स्मरण करते हुए अपनी सीट तक पहुँच गया। अपनी सीट के पीछे से आती बातचीत की आवाज से मुझे अनुमान हुआ कि उधर दस-बारह लोग और बैठे हुए फिल्म शुरू होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं और छुट्टी का दिन बरबाद हो जाने के लिए अपने इस निर्णय को कोस रहे हैं।

पाँच मिनट बाद स्क्रीन पर हरकत हुई। सिगरेट, तम्बाकू इत्यादि की वैधानिक चेतावनी आयी। एक-दो कॉमर्शियल्स आये। कुछ ट्रेलर दिखाये गये। आखिरी ट्रेलर ‘बिजली की मटरू का मन डोला’ नामक फिल्म का था जिसे श्रीमती जी ने ‘तलाश’ का प्रारंभ समझ लिया और उसका तड़का-मसाला देखकर खुश हो गयीं। तभी स्क्रीन पर फिल्म प्रमाणन बोर्ड का प्रमाणपत्र नमूदार हुआ और ‘तलाश’ शुरू हो गयी। इस बीच तीन और दर्शक (लड़कियाँ) हमारे आगे वाली लाइन में आ गये।

Talaash Poster

फिल्म की कहानी तो आप जानते ही होंगे। एक एक्सीडेन्ट टाइप सीन हुआ। तेज गति से आती एक कार अचानक दाहिनी ओर मुड़ी और सभी ऊँची-नीची बाधाएँ पार करती हुई पहले आसमान में पच्चीस-तीस मीटर ऊपर उठी और फिर समुद्र में जा समायी। इस कार को एक फिल्म स्टार चला रहे थे। उनकी मौत की गुत्थी सुलझाने और इसके रहस्य को तलाशने में पुलिस इन्स्पेक्टर सुरजन ने पूरी ढाई घंटे की फिल्म का कबाड़ा कर दिया। यह फिल्म एक्शन और थ्रिल दिखाते-दिखाते ऐसी दिशा में मुड़ गयी जो बच्चों के कॉमिक्स में होता है। भटकती आत्मा के करतब, उसे सच में देखने वाला पुलिस इन्स्पेक्टर, माँ से बात करता उसका मर चुका बेटा, पानी के भीतर डूबते हुए हीरो को बाहर निकालती भटकती आत्मा और रेड-लाईट की दुनिया में विचरण करती और हीरो से इश्क की बातें भी करती हुई आत्मा पूरी फिल्म को ऐसा बना देती है कि अंत में दर्शक अपने को ठगा हुआ महसूस करता है। पूरी फिल्म में हम तलाश करते रहे कि यह एक्सीडेन्ट था या हत्या थी। लेकिन आमिर ने जो उत्तर दिया वह निराश करने वाला था।

हाल से बाहर निकलते हुए श्रीमती जी ने मुझे जी भरकर कोसा। बच्चों से छिपाकर फिल्म देखो और वह भी बकवास। उन्हें इस सदमें से उबरने के लिए मुझे कोई अच्छी फिल्म जल्दी ही दिखानी पड़ेगी। यह वादा लेकर ही वे घर वापस लौटी हैं। अब आप बताइए, उन्हें कौन सी फिल्म दिखाऊँ।

 -सत्यार्थमित्र (१६.१२.१२)

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

वालमार्ट जी आइए… स्वागत गीत


वालमार्ट जी आइए

वालमार्ट जी आइए, वालमार्ट जी आइए
देश हमारा व्याकुल बैठा, पूँजी से सहलाइए

घपलों और घोटालों की तस्वीर यहाँ की झूठी है
बिना विदेशी पूँजी के तकदीर देश की रूठी है
रंक बने राजा ऐसी मनमोहन नीति अनूठी है
बिछी लाल कालीन आइए दो का बीस बनाइए
वालमार्ट जी आइए

तथाकथित विद्वान देश के आपके आगे बौने हैं
बड़े-बड़े मन्त्री भी देखो कैसे भले खिलौने हैं
संसद की लॉबी में भी सब बिकते औने-पौने हैं
यहाँ निलामी सस्ती है अब खुलकर दाँव लगाइए
वालमार्ट जी आइए

बहुत हुई आजादी की सूखी बातें अब ऊब रहे
आम आदमी के सपने केजरीवाल संग डूब रहे
अर्थनीति पर राजनीति के कन्फ़्यूजन भी खूब रहे
भटक रहे सन्‌ सैतालिस से पटरी पर लौटाइए
वालमार्ट जी आइए

-सत्यार्थमित्र (12.12.12)

शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

सुधार की जरूरत है क्या?

हमारा समाज बेईमानी, भ्रष्टाचार व अकर्मण्यता के प्रति उदासीन क्यों है?

चार साल पहले लिखी एक पोस्ट में मैंने पूछा था कि यह सरकारी ‘असरकारी’ क्यों नहीं है? तब मैंने जिलों में अपनी तैनाती के अनुभव के आधार पर यह प्रश्न रखा था। पिछले चार साल में इस निराशाजनक स्थिति से उबरने का कोई रास्ता तो मुझे नहीं दिखायी दिया लेकिन सरकारी तंत्र में मुख्यालय स्तर पर कार्य करने के बाद मुझे यह विश्वास हो गया है कि मेरी वह चिन्ता ही बेकार थी। यहाँ तो सरकारी तंत्र को असरकारी बनाने की कोई खास आवश्यकता ही नहीं महसूस की जा रही है। फिर तो कोई गंभीर कोशिश किये जाने का प्रश्न ही बेमानी है। इस स्थिति में कोई सकारात्मक सुधार होने की सम्भावना तो मृग मरीचिका सी हो गयी है।

मैंने फील्ड स्तर पर देखा था कि गाँव-गाँव में खोले गये प्राथमिक स्तर के सरकारी स्कूलों की तुलना गली-गली में उग आये प्राईवेट नर्सरी स्कूलों या तथाकथित साधारण ‘कान्वेन्ट स्कूलों’ से भी करने पर भारी अंतर मिलता है। महानगरों में संचालित उत्कृष्ट पब्लिक स्कूलों की तो बात ही अलग है। एक सरकारी प्राथमिक स्कूल के अध्यापक को जो वेतन और भत्ते (२० से ४० हजार) सरकार दे रही है उसमें किसी साधारण निजी नर्सरी स्कूल के आठ-दस अध्यापक रखे जा सकते हैं। लेकिन एक सरकारी प्राथमिक शिक्षक एक माह में कुल जितने घंटे वास्तविक शिक्षण का कार्य करता है, प्राईवेट शिक्षक को उससे आठ से दस गुना अधिक समय पढ़ाना होता है। विडम्बना यह है कि सरकारी स्कूलों में उन्ही की नियुक्ति होती है जो निर्धारित मानक के अनुसार शैक्षिक और प्रशिक्षण की उचित योग्यता रखते हैं; कहने को मेरिट के आधार पर चयन होता है; लेकिन उनका ‘आउटपुट’ प्राइवेट स्कूलों के अपेक्षाकृत कम योग्यताधारी शिक्षकों से कम होता है। ऐसा क्यों?
उच्च प्राथमिक और माध्यमिक स्तर के जिन निजी विद्यालयों के वेतन बिल का भुगतान सरकारी अनुदान से होने लगता है, वहाँ शैक्षणिक गतिविधियों में गिरावट दर्ज होने लगती है। स्कूल के निजी श्रोतों से वेतन पाने वाले और निजी प्रबन्धन के अधीन कार्य करने वाले जो शिक्षक पूरे अनुशासन (या मजबूरी) के साथ अपनी ड्यूटी किया करते थे, सुबह से शाम तक स्कूल में छात्र-संख्या बढ़ाने के लिए जी-तोड़ मेहनत किया करते थे; वे ही सहसा बदल जाते हैं। सरकार द्वारा अनुदान स्वीकृत हो जाने के बाद सरकारी तनख्वाह मिलते ही उनकी मौज आ जाती है। पठन-पाठन गौण हो जाता है। उसके बाद संघ बनाकर अपनी सुविधाओं को बढ़ाने और बात-बात में हड़ताल और आन्दोलन करने की कवायद शुरू हो जाती है। मुझे हैरत होती है कि एक ही व्यक्ति प्राइवेट के बाद ‘सरकारी’ होते ही इतना बदल कैसे जाता है। उसकी दक्षता कहाँ चली जाती है?
इनकी तुलना में, या कहें इनके कारण ही निजी क्षेत्र के संस्थान जबर्दस्त प्रगति कर रहे हैं। यह प्रगति शैक्षणिक गुणवत्ता की दृष्टि से चाहे जैसी हो लेकिन मोटी फीस और दूसरे चन्दों की वसूली से मुनाफ़ा का ग्राफ ऊपर ही चढ़ता रहता है। बढ़ती जनसंख्या और शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ने के साथ-साथ प्राइवेट स्कूल-कॉलेज का धन्धा बहुत चोखा तो हो ही गया है; लेकिन सरकारी तन्त्र में जगह बना चुके चन्द ‘भाग्यशाली’ (?!) लोगों की अकर्मण्यता और मक्कारी ने इस समानान्तर व्यवस्था को एक अलग रंग और उज्ज्वल भविष्य दे दिया है।
आई.आई.टी., आई.आई.एम. और कुछ अन्य प्रतिष्ठित केन्द्रीय संस्थानों को छोड़ दिया जाय तो सरकारी रोटी तोड़ रहे अधिकांश शिक्षक और कर्मचारी-अधिकारी अपनी कर्तव्यनिष्ठा, परिश्रम, और ईमानदारी को ताख पर रखकर मात्र सुविधाभोगी जीवन जी रहे हैं। इनके भ्रष्टाचार और कर्तव्य से पलायन के नित नये कीर्तिमान सामने आ रहे हैं। जो नयी पीढ़ी जुगाड़ और सिफारिश के बल पर यहाँ नियुक्ति पाकर दाखिल हो रही है, वह इसे किस रसातल में ले जाएगी उसकी सहज कल्पना की जा सकती है।
corruption in vote
(India Against Corruption से साभार)
इस माहौल को नजदीक से देखते हुए भी मैं यह समझ नहीं पाता कि वह कौन सा तत्व है जो एक ही व्यक्ति की मानसिकता को दो अलग-अलग प्रास्थितियों (status) में बिलकुल उलट देता है। अभावग्रस्त आदमी जिस रोजी-रोटी की तलाश में कोई भी कार्य करने को तैयार रहता है, उसी को वेतन की गारण्टी मिल जाने के बाद वह क्यों कार्य के प्रति दृष्टिकोण में यू-टर्न ले लेता है?
प्रशासनिक तंत्र के उच्च सोपानों पर स्थिति और भी दहलाने वाली है। जनता का वोट और विश्वास पाकर सत्ता में केबिनेट मंत्री बनने के बाद अथवा लोक सेवा आयोग की कठिन परीक्षा में उत्कृष्ट प्रदर्शन से चयनित होने के बाद ब्यूरोक्रेसी के तमाम बड़े ओहदेदार अपने अधिकार को धन कमाने के अवसर के रूप में प्रयोग करते देखे जा रहे हैं। जनसेवा को प्रेरित करने वाली संवेदना और पिछड़े तबके का विकास करने की इच्छाशक्ति जैसी बातें अब खोखली और हास्यास्पद सी लगने लगी हैं। राष्ट्रीय सामाचारों में ऐसे लोग लगातार अपनी जगह बना रहे हैं जो उच्च पदो पर रहते हुए सीधे जेल चले जा रहे हैं। केबिनेट मंत्री के स्टेटस से सीधे फरार अपराधी के स्टेटस में परिवर्तन फेसबुक स्टेटस से भी तेज होने लगा है। राज्य अल्पसंख्यक आयोग का अध्यक्ष रहते हुए हत्या की वारदात में धरा जाना कितना शर्मनाक है? राष्ट्रीय समाचार चैनेल के संपादकों का एक उद्योगपति से  कथित डील करने के चक्कर में जेल चले जाना क्या बताता है? यह हमारी पॉलिटी के बारे में बहुत ही खतरनाक संकेत देता है।
सी.ए.जी. जैसी संस्थाओं द्वारा गलती पकड़े जाने पर गलती का सुधार करने के बजाय सी.ए.जी. को घेरने की ही कोशिश की जाती है। खतरे का संदेश समझने और सही राह चुनने के बजाय संदेशवाहक को ही चुप करा देने की कुटिल चाल (shooting the messenger) पूरे राजनीतिक तंत्र की शैली हो गयी है। अरविन्द केजरीवाल जैसे उत्साही नायक कुछ करना भी चाहते हैं तो पूरा तंत्र अपनी पार्टी लाइन छोड़कर एकजुट हमलावर हो जाता है। अन्ना हजारे समस्याएँ तो गिनाते हैं लेकिन समाधान की राह पर चलने में संकोच करते हैं और भ्रष्टाचार की लड़ाई बीच में ही अटक कर रह जाती है।
राज्य सरकारों की नीतियों पर पोन्टी चढ्ढा जैसे कुटिल कारोबारियों का प्रभाव तो आम जनश्रुति हो गयी है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर जो नीतियाँ बनायी जा रही हैं उनका छिछलापन भी सहज ही उजागर हो जाता है। गरीबों को नगद सब्सिडी देने की योजना के पीछे जो तर्क दिये जा रहे हैं उनका व्यावहारिक धरातल पर कोई दर्शन नहीं होने वाला। लोगों का मानना है कि तमाम गरीबोन्मुखी सरकारी योजनाओं की तरह हमारा भ्रष्ट तंत्र इसपर भी डाका डालने से बाज नहीं आएगा। आखिर ऐसा क्यों है?
क्या हम मान चुके हैं कि हम जैसे हैं वैसे ही रहेंगे? हमें सुधरने की कोई जरूरत नहीं है। यह प्रकृति-प्रदत्त तो नहीं है। फिर क्या हम अभिशप्त हैं, एंवेई…?
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

अपनी फ़िक्र पहले…

एक कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना में सरकारी तंत्र की प्रमुख जिम्मेदारी आम जनता की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखना और गरीब व वंचित वर्ग को सहारा देना होता है। ऐसे कार्यों में व्यावसायिक लाभ कमाने का उद्देश्य बहुत पीछे छूट जाता है। जनहित के कार्यों का निष्पादन करने वाले अधिकारी व कर्मचारी यदि इसे अपना पुनीत कर्तव्य मानकर पूरे मनोयोग व निष्ठा से कार्य करें और उन्हें ऐसा वास्तव में करने दिया जाय, तो हमारे समाज के प्रायः सभी दोष थोड़े समय में ही मिट जाँय; लेकिन दुर्भाग्य से वास्तविकता इसके विपरीत है।
मुझे ऐसा महसूस होता है कि सरकारी तंत्र को चलाने के लिए जो नियामक सिद्धान्त लागू किये गये हैं और इसको नियन्त्रित करने की शक्तियों को लोकतंत्र या सामाजिक रीति के नाम पर जिस प्रकार विनियमित किया गया है उससे उनके भीतर ही ऐसे तत्व उत्पन्न हो गये हैं जो एक संवेदनशील व दक्ष प्रशासन की संभावनाओं को हतोत्साहित करते है। इसे हाल ही में सुर्खिया बटोरने वाली एक घटना के माध्यम से समझा जा सकता है।
एक राज्य सरकार ने यह निर्णय लिया कि शहर से लेकर गाँवों तक फैले सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की कमी दूर करने के लिए अभियान चलाकर जल्द से जल्द चिकित्सा उपाधि धारण करने वाले अभ्यर्थियों को सीधी संविदा के आधार पर नियुक्त कर दिया जाय। लोक सेवा आयोग के माध्यम से पर्याप्त चिकित्सकों की भर्ती न हो पाने, सीमित अवधि के प्रोजेक्ट/ मिशन के  अंतर्गत सृजित अस्थायी पदों को भरने की आवश्यकता होने, स्थायी पदों पर नियमित चिकित्सकों की भर्ती में कठिनाई आने या ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य करने में उनकी अरुचि को देखते हुए शायद यह विकल्प चुना गया होगा। इस व्यवस्था में ग्रामीण क्षेत्र के अस्पतालों में कार्य करने के लिए ही  डाक्टरों से अनुबन्ध किया जाता और कदाचित्‌  बेरोजगारी काट रहे अभ्यर्थी संविदा से बँधकर उन दूर-दराज़ के अस्पतालों पर रुककर मरीजों की चिकित्सा के लिए उपलब्ध हो जाते। इन्हें भर्ती करने का दायित्व जनपद के मुख्य चिकित्सा अधिकारी को दिया गया। जनपद के प्रशासनिक अधिकारी इस भर्ती प्रक्रिया में सहयोगी की भूमिका निभाने वाले थे। लेकिन जो हुआ वह इस तंत्र के भीतर झाँकने के लिए एक खिड़की खोलने वाला था।
(www.parkhill.org.uk से साभार)
स्थानीय विधायक और मन्त्री ने चयनित डाक्टरों की सूची देखी तो आग बबूला हो गये। बताते हैं कि अपने ‘कैन्डीडेटों’ का नाम नदारद देखकर उन्हें इतना गुस्सा आया कि सीएमओ साहब के पीछे गुंडे भिजवा दिये। अभी तो यह जाँच में स्पष्ट होगा कि सीएमओ साहब के साथ मारपीट हुई कि नहीं लेकिन कुछ तो ऐसी बात थी कि उन्हें अपना ऑफिस और सरकारी आवास छोड़कर भूमिगत होना पड़ा। मीडिया ने मामले को उछाल दिया तो कहानी में मोड़ आ गया। मुख्य मंत्री जी को मन्त्री जी से इस्तीफा लेना पड़ा। मन्त्रीजी उसके बाद भी मीडिया से पूछ रहे थे कि सीएमओ को मुझसे इतना ही डर था तो उन्होंने मेरे क्षेत्र में पोस्टिंग ही क्यों करायी। फिलहाल अंतिम सूचना यह है कि डॉक्टरों की भर्ती प्रक्रिया स्थगित कर दी गयी है और वहाँ के सभी महत्वपूर्ण अधिकारी, डीएम, एसएसपी, सीडीओ, सीएमओ आदि हटा दिये गये हैं।
सरकार जो नियम बनाती है उसका पालन करना कार्यपालिका यानि प्रशासनिक विभाग का काम है लेकिन नियमों का उल्लंघन होता रहता है। ब्यूरोक्रेसी के भीतर राजनीतिक फाँट देखी जा सकती है। माननीय मन्त्रीगण और उनके अनुयायियों द्वारा सरकारी तंत्र का उपयोग जनहित के बजाय निजी हित में किये जाने की चर्चा आम हो गयी है। अपने लोगों को सरकारी ठेके या अन्य लाभ के पद दिलाने के लिए अधिकारियों को डराना धमकाना अब सामान्य बात है। अधिकारीगण माननीयों को प्रसन्न रखने में हलकान हुए जा रहे हैं। जो चतुर हैं वे इसी राजनीतिक आड़ में अपना उल्लू सीधा करने में प्रवीण हो चुके हैं।
किसी संस्था का अंग होकर कार्य करने के लिए हमें संस्था द्वारा वेतन भत्तों के अलावा अनेक सुविधाएँ दी जाती हैं। इसके बदले संस्था हमसे यह अपेक्षा करती है कि हम संस्था के उद्देश्यों व लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए ईमानदारी से प्रयास करें। प्रबंधन या अधिकारी वर्ग से ऐसे निर्णयों की अपेक्षा की जाती है जो इन लक्ष्यों और उद्देश्यों की प्राप्ति की राह आसान बनायें, कार्मिकों की कार्यक्षमता का सही उपयोग हो सके, न्यूनतम आर्थिक लागत पर अधिकतम उत्पादन या सेवा प्राप्त हो सके और दक्षता में वृद्धि हो। सरकारी प्रतिष्ठानों में मितव्ययिता के साथ-साथ जनहित के उद्देश्य को भी बहुत महत्व दिया जाता है; भले ही इसपर व्यय कुछ अधिक हो जाय।
निजी संस्थाओं के बारे में तो मुझे ज्यादा नहीं पता लेकिन सरकारी विभागों में जो स्थिति है वह प्रो-एक्टिव होकर कार्य करने लायक नहीं रह गयी है। साथी अधिकारियों या सीनियर्स द्वारा कई बार  सकारात्मक सक्रियता को पागलपन या बेवकूफ़ी का नाम देकर ऐसा करने वाले अधिकारी को अपनी फिक्र करने की सलाह दी जाती है। बताया जाता है कि होम करने में हाथ जला बैठोगे। जो भी करो अपने को बचाकर करो। ऐसा कुछ भी मत करो जिसकी जिम्मेदारी तुम्हारे सिर पर डाली जा सके। अच्छा काम हो या बुरा काम इससे फ़र्क नहीं पड़ता। यदि एक बार इसकी जिम्मेदारी आपके सिर पर डाल दी गयी तो आगे चलकर आपको जाँच प्रक्रिया से गुजरना ही पड़ेगा और आप लाख सफाई देते रहोगे कुछ न कुछ छींटे आपके दामन पर पड़ ही जाएंगे। सरकारी कामकाज के बारे में आम छवि इतनी दूषित हो चुकी है कि कोई मुद्दा उठने पर सहज ही यह मान लिया जाता है कि गड़बड़ और धाँधली तो जरूर हुई होगी। 
काजल की कोठरी में कैसोहू सयानो जाय एक लीक काजल की लागिहें पै लागिहैं 
अब यह सयानापन दिखाने की प्रवृत्ति इस कदर बलवती हो गयी है कि जिन अधिकारियों को अपना दामन साफ रखने की चिन्ता है वे यथासंभव अपने को किसी भी निर्णय से दूर रखने की कोशिश करते हैं। प्रकरण की महत्ता, अनिवार्यता और और उसमें निहित जनहित के तत्व से ज्यादा वे इस बात पर ध्यान लगाते हैं कि कैसे इसपर कोई भी निर्णय लेने से बचा जा सकता है। भले ही यह निर्णय लेना उनकी ड्यूटी का अविभाज्य अंग हो; लेकिन यदि इससे बचने की कोई सूरत मौजूद है तो उसे जरूर अपनाएंगे। 
कभी कभी तो ऐसी हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि कोई बड़ा निर्णय लेने के लिए फाइल मेज पर आते ही साहब की तबियत बिगड़ जाती है और वे छुट्टी पर चले जाते हैं। यह स्थिति तब शर्मनाक हद पार कर जाती है जब यह छुट्टी तबतक बढ़ायी जाती है जबतक कोई जूनियर इन्चार्ज अधिकारी उसपर दस्तखत करके फाइल निस्तारित न कर दे। कभी-कभी ऐसी फाइलें महीनों धूल खाती रहती है। भले ही सरकार का या किसी और का लाखों का नुकसान हो जाय, लेकिन अपनी बचत पुख़्ता रखने के लिए जरूरी निर्णय भी नहीं लेने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।
सरकारी नौकरियों के लिए चयन की प्रक्रिया तो इतनी जोखिम वाली हो गयी है कि कोई साफ-सुथरा अधिकारी इस प्रक्रिया से कत्तई जुड़ना नहीं चाहता है। इस काम में इतना दबाव झेलना पड़ता है कि सामान्य ढंग से जीना मुश्किल हो जाता है। मोबाइल बन्द रखना पड़ता है, भूमिगत होना पड़ता है, सुरक्षा बढ़ानी पड़ती है। यदि यह सब करते हुए चयन का परिणाम घोषित करने में सफल हो गये तो असंख्य लोगों की नाराजगी झेलनी पड़ती है। नेता, मंत्री, उच्चाधिकारी, नातेदार, रिश्तेदार, सहयोगी, मित्र आदि में से कौन आपकी बखिया उधेड़ने को तैयार हो जाय यह कहा नहीं जा सकता। इस सारी मशक्कत से बचने का आसान उपाय यह है कि यह जिम्मेदारी अपने सिर पर लो ही मत। टालते जाओ, टालते जाओ और किसी मजबूर के सिर पर दे मारो जो इससे भाग न सके; या कोई ऐसा जबरदस्त फन्ने खाँ मिल जाय जो पूरी दबंगई से काम निपटाने, सारी चुनौतियों का सामना करने व उनका परिणाम भुगतने को तैयार हो। सच्चाई यह है कि ऐसा कलेजा बहुत कम लोगों के भीतर पाया जाता है। 
अलबत्ता कुछ बहादुर अधिकारी ऐसा बड़ा जिगरा लेकर अभी भी काम कर रहे हैं जो आये दिन अखबारों की सुर्खियाँ बनते हैं। कभी मार-पीट, कभी गुंडागर्दी, कभी ट्रैपिंग, कभी ट्रान्सफर, कभी एफ़.आई.आर. तो कभी विजिलेन्स जाँच के केन्द्र  में होकर भी वे बिन्दास आगे बढ़ रहे हैं। मुझे तो कभी-कभी उनके हौसले को सलाम करने का मन करता है।
(सत्यार्थमित्र)

रविवार, 30 सितंबर 2012

भ्रष्टाचार की संजीवनी तो जरूरी है

Corruptionलखनऊ से इलाहाबाद के लिए गंगा-गोमती एक्सप्रेस की यात्रा इस बार बहुत रोचक रही। लम्बी प्रतीक्षा के बाद पदोन्नति मिली तो उत्साह वश अपनी सेवा पुस्तिका पूरी कराकर मुख्यालय से संबंधित उस दफ़्तर तक इसे स्वयं पहुँचाने चल पड़ा था जहाँ से मेरी सेवा के क्लास-वन ऑफीसर्स की वेतन पर्ची जारी होती है। इसी बहाने इलाहाबाद के अपने कुछ मित्रों व सहकर्मियों से मिलने-जुलने की इच्छा भी पूरी हो जाती।

संयोग से अगले दिन इलाहाबाद में प्रदेश के सरकारी डिग्री कालेजों में प्रवक्ता पद की कोई परीक्षा होनी थी इसलिए पूरी गाड़ी के साथ-साथ उस ए.सी. चेयरकार में बहुत से परीक्षार्थी भी बैठे हुए थे। इनमें अधिकांश पी-एच.डी. कर चुके होंगे या कर रहे होंगे। यू.जी.सी. की नेट परीक्षा (National Eligibility Test)  तो सबने पास की ही होगी। ये बड़ी उम्र के लड़के-लड़कियाँ उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अपना कैरियर बनाने का सपना लिये एक स्क्रीनिंग टेस्ट देने जा रहे थे। अधिकांश के हाथ में नोटबुक या कोई गाइडबुक थी जिसे वे अंतिम समय तक पढ़ने वाले थे। कुछ शादी-शुदा लड़कियाँ अपने पति, भाई या पिता के साथ जा रहीं थीं। इस टेस्ट में जो पास हो जाएंगे उनका साक्षात्कार होगा। साक्षात्कार में सफलता का जो मंत्र इन लोगों की चर्चा में सुनने को आया वह एक ऐसे तंत्र के बारे में था जो अभ्यर्थी की मेरिट और विषय में योग्यता के बजाय दूसरी क्षमताओं को चयन का आधार बनाता था। पैसा और पहुँच के बिना सफलता की आशा करने वाले न के बराबर थे। मुझे झटका लगा। चकित भाव से मैंने उन्हें अपने अनुभव के बारे में बताया कि कैसे एक साधारण परिवार से आकर बगैर किसी उत्कोच या सिफारिश के लोक सेवा आयोग द्वारा मैं एक राजपत्रित सेवा के लिए चयनित कर लिया गया था। इसपर उन्होंने यह माना कि आयोग में पी.सी.एस. की मुख्य परीक्षा तो लिखित होती है और साक्षात्कार पर सबकुछ निर्भर नहीं होता। इसलिए वहाँ अभी गनीमत है, लेकिन जहाँ सबकुछ इण्टरव्यू पर निर्भर है वहाँ हालत बहुत खराब है।

मैंने अशासकीय विद्यालयों के शिक्षकों के चयन के लिए माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड और  उच्च शिक्षा सेवा आयोग में धाँधली की बातें सुन रखी थीं लेकिन लोक सेवा आयोग में भी इस बीमारी ने पैर पसार रखे हैं यह सुनकर चिन्ता हुई। मैं सोचने लगा कि क्या इस संवैधानिक संस्था से भी अब मेहनतकश होनहार अभ्यर्थियों को निराशा ही हाथ लगेगी। आयोग के माननीय सदस्य क्या हमारे पतनोन्मुख समाज की प्रतिच्छाया बनते जा रहे हैं?

एक तरफ कुछ सरकारी महकमें के लोग बैठे थे जो सरकारी अफसरों की अलग-अलग श्रेणियों का बखान कर रहे थे। वे इन परीक्षार्थियों को यह समझा रहे थे कि केजरीवाल जैसे लोगों के बहकावे में मत आयें। सरकारी नौकरी करनी है तो प्रैक्टिकल एप्रोच अपनाएँ। नौकरी पाने के लिए आपको जो रास्ता अपनाना पड़ रहा है वही आगे भी काम आएगा। अन्तर यह है कि अभी आप बेरोजगार हो और मजबूर हो। नौकरी पाने के बाद आप प्रिविलेज्ड क्लास में शामिल हो जाओगे। …अन्ना जी आन्दोलन तो कर सकते हैं, भ्रष्टाचार के खिलाफ जनभावना भी  उभार सकते हैं लेकिन जब इसको मिटाने के लिए सही आदमी तलाशने जाओगे तो कोई नहीं मिलेगा।  …सरकारी सिस्टम में रहते हुए जो ईमानदारी की कोशिश करता है उसको इतनी अधिक समस्याएँ झेलनी पड़ती हैं कि वह अन्ततः टूटकर सरेन्डर कर देता है या समाज में उपेक्षित होकर डिप्रेसन का शिकार हो जाता है। कुछ नौजवान इस बात पर अविश्वास में सिर हिला रहे थे।

इसपर मुझे पिछले दिनों लखनऊ की एक घटना याद आ गयी जिसमें एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने अचानक अपने ऑफिस में मीडिया को बुलाकर कैमरे के सामने अपनी दर्द भरी दास्ताँ सुना दी थी कि कैसे उनके ऊपर उच्चाधिकारियों द्वारा गलत काम करने का दबाव बनाया जा रहा है और इन्कार करने पर भयंकर उत्पीड़न किया जा रहा है। मीडिया ने जब उस उच्चाधिकारी से दरियाफ़्त की तो पता चला कि उन्होंने इन्हें मानसिक अवसाद का शिकार बता दिया और उनको अस्पताल भेजने की सलाह दे डाली।

“भाई साहब यह प्रैक्टिकल एप्रोच क्या होता है?” पीछे से एक उम्रदराज दढ़ियल अभ्यर्थी ने अपनी कॉपी में से सिर उठाकर पूछा। महौल में ठहाके की आवाजें भर गयीं।

रिटायरमेन्ट के करीब लग रहे एक बुजुर्गवार ने अपने अनुभव की टोपी उतारते हुए मुड़कर देखा और बताने लगे- देखो भाई जब सरकारी नौकरी करोगे तो इसकी हर रोज जरूरत पड़ेगी। इसके बिना नौकरी कर ही नहीं पाओगे। प्रैक्टिकल एप्रोच नहीं रखोगे तो चारो ओर से परेशान रहोगे।

प्रश्नकर्ता अपनी सीट से उठकर इनके पास आ गया। इन्होंने आगे समझाया- एक सरकारी कर्मचारी को लोकसेवक कहा जाता है और उसके आचरण की एक नियमावली बनायी गयी है। इस नियमावली का पालन नहीं करने पर आपको चेतावनी से लेकर निन्दा प्रविष्टि तक दी जा सकती है और डिमोशन से लेकर बर्खास्तगी तक की जा सकती है। इससे बचने के लिए आपको आदर्श आचरण का पालन करना होता है; लेकिन केवल कागज में, क्योंकि असल व्यवहार में तो यह संभव ही नहीं है। जो असल में कोशिश करता है वह असल में ‘सस्पेन्ड’ हो जाता है। कारण यह है कि नियम से काम करने पर और अपने पद की सारी जिम्मेदारी पूरा करने पर आप बाकी सबलोगों के लिए परेशानी खड़ी कर देते हैं। दूसरों की लूट-खसोट पर ब्रेक लगाकर आप ज्यादा समय तक टिक नहीं सकते। इनका तगड़ा गिरोह आपको हिला देगा…।

इस प्रवचन के श्रोताओं की संख्या बढ़ती जा रही थी।

…आप बहुत अच्छा काम करेंगे तो बाकी नक्कारों की कलई खुलने लगेगी और वे आप के ऊपर नाराज हो जाएंगे। आपके ईमानदार होने से सिस्टम में थोड़ी बहुत हलचल तो हो सकती है लेकिन कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हो पाएगा। …यह समाज भ्रष्टाचार का इतना आदती हो चुका है कि आपको ‘एलियन’ समझकर किनारे कर देगा। …आप जिनका खेल बिगाड़ेंगे वे आपको यूँही नहीं छोड़ देंगे। आपकी कुर्बानी ले ली जाएगी। …आपके बीबी-बच्चे आपको नकारा समझेंगे। आप उनके लिए महंगे खिलौने, कीमती कपड़े और भारी गहने नहीं खरीद पाएंगे तो आपको वे आदर्श पिता या पति नहीं समझेंगे। दूसरे रिश्तेदार भी आपको किसी काम लायक नहीं देखेंगे तो मुँह मोड़ लेंगे। …मैं यह नहीं कह रहा कि आप आकंठ भ्रष्टाचार में डूब जाएँ। लेकिन इससे बचकर रहना बहुत मुश्किल है। इसलिए आप भले ही किसी का गला न काटें, गबन और घोटाला न करें, गरीबों का हक न छीनें लेकिन सिस्टम के खिलाफ उल्टी धारा बहाने की कोशिश भी न करें। आपको चोरी नहीं करनी है तो न करें लेकिन दूसरों की राह का रोड़ा भी न बनें।

लेकिन प्रैक्टिकल एप्रोच क्या है श्रीमन्‍, यह तो क्लीयर कीजिए…! एक किशोर ने चुहल की।

आप अभी भी नहीं समझे? तो साफ-साफ जान लीजिए कि प्रैक्टिकल एप्रोच इस बात में विश्वास करना है कि बिना भ्रष्टाचार के यह वास्तविक दुनिया चलने वाली नहीं है। व्यावहारिक रूप से किसी न किसी रूप में भ्रष्टाचार को स्वीकारना पड़ेगा। इसके बिना जीवन चलाना असम्भव है। यह एक ऐसी संजीवनी है जो आदमी को जीने की राह दिखाती है, निराश व्यक्ति को सफलता के सूत्र पकड़ाती है, बेमौत मरने वाले को नया जीवन देती है और साधारण को असाधारण बना देती है। आप देखिए न एक साधारण सी कुरूप दलित स्त्री को महल की महारानी बनाकर तमाम ऐश्वर्य और सुख साधन की स्वामिनी बना दिया इस शक्ति ने।

वहाँ की चर्चा रोचक होती जा रही थी। एक विशेषज्ञ ने तो यहाँ तक कह दिया कि जो अधिकारी सुविधा शुल्क लेकर समय से सही काम कर दे वह उस कथित ईमानदार से बेहतर है जो पैसा तो नहीं लेता है लेकिन काम का निपटारा करने में भी कोई रुचि नहीं लेता है। इसपर लगभग एक राय बनती दिखी। इसपर एक गणित के विद्यार्थी ने अधिकारियों की ग्रेडिंग के लिए एक चार्ट बनाना शुरू कर दिया। पैसा लेने वाले, पैसा न लेने वाले, सही काम करने वाले या न करने वाले तथा गलत काम करने वाले या न करने वाले अधिकारियों के क्रमचय-संचय (permutation-combination) के द्वारा निम्न श्रेणियाँ निकलकर आयीं :

क्र.

पैसा लेना

सही काम करना

गलत काम करना

श्रेणी

1

N

Y

N

उत्कृष्ट

2

Y

Y

N

उत्तम

3

Y

Y

Y

भ्रष्ट/लोभी

4

Y

N

N

धुर्त/लतखोर

5

Y

N

Y

महाभ्रष्ट

6

N

Y

Y

मूर्ख

7

N

N

Y

महामूर्ख

8

N

N

N

निकृष्ट

इस प्रकार श्रेणियों की चर्चा में प्रत्येक श्रेणी के अधिकारियों के उदाहरण पेश किये जाने लगे। मैं सहमा सा चुपचाप सुनता रहा; और अपने आसपास के अधिकारियों में भी ऐसे उदाहरण खोजता रहा। मेरे पन्द्रह साल के सरकारी अनुभव में लगभग सभी प्रकार के अधिकारी और कर्मचारी देखने-सुनने को मिले हैं। इसी विचार मंथन में डूबा था कि अचानक प्रयाग स्टेशन पर गाड़ी रुकी और मैंने हड़बड़ाकर अपना बैग उठा लिया और बोगी से बाहर आ गया…।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

प्रति-उपकार की कभी मत सोचें

कृतज्ञता

क्या आपको अपने जीवन में कभी दूसरों की मदद पाने की जरूरत पड़ी?
क्या आप को किसी ने ऐसे समय में आर्थिक सहायता की जब आपके पास जरूरी पैसे नहीं थे और कठिनाई में फँसे हुए थे?
क्या कभी आप बीमार पड़े और आपके किसी मित्र ने आपकी सेवा-सुश्रुषा की, डॉक्टर के पास ले गया?
क्या आपकी पत्नी या बच्चे के सड़क-दुर्घटना का शिकार हो जाने पर एक अपरिचित राहगीर ने उनकी सहायता की, मलहम-पट्टी करायी?
क्या आपका भाई झगड़े के पुलिस केस में फँसा तो किसी प्रभावशाली दोस्त ने अपने रसूख का प्रयोग करके उसे बचाया था?
क्या किसी तनाव के कारण जब आप मानसिक अवसाद के शिकार होते जा रहे थे तब आपके सहकर्मी ने अपना हाथ बढ़ाकर आपको सम्बल दिया था ?

यदि इन प्रश्नों का उत्तर ‘हाँ’ है तो ऐसे मददगारों के प्रति आपके मन में कृतज्ञता का भाव जरूर पैदा होता होगा। आप उनके उपकार के भार से दबा हुआ महसूस करते होंगे। आभारी होंगे उनके। यह आभार उनसे प्रदर्शित भी करते होंगे। थैंक्यू बोलकर मन कुछ हल्का हो जाता होगा। कृतज्ञता का यह भाव रखना कदाचित्‍ अच्छा माना जाता है।

लेकिन क्या आप ऐसे उपकार का बदला चुकाने के बारे में भी सोचते हैं?  क्या मन में ऐसी ख्वाहिश पालते हैं कि काश आपको भी ऐसा अवसर मिलता कि जिस व्यक्ति ने आपकी मदद की उसकी मदद आप भी कर सकें? आपके ऊपर जो एहसान किया गया है उसे याद रखते हुए क्या आप प्रति-उपकार के अवसर की तलाश में रहते हैं? क्या आप यह कामना करते हैं कि ईश्वर आपको इस लायक बनाये कि आप भी इनकी मदद कर सकें? और सबसे बढ़कर, क्या आप अपनी इस भावना से दूसरों को अवगत भी कराते हैं जिन्होंने आपकी मदद की है?

यदि इन प्रश्नों का आपका उत्तर ‘हाँ’ है तो सावधान हो जाइए। आप सही नहीं हैं। आप अन्जाने में अपने दोस्तों, मददगारों व हितैषियों का अहित कर रहे हैं। आपकी प्रति-उपकार की भावना उन्हें संकट में डाल सकती है। आप यदि ईश्वर से अपने लिए ऐसे अवसर की कामना कर रहे हैं जिसमें आप अपने ऊपर किये गये एहसान का बदला चुका सकें तो इस कामना में यह भी शामिल है कि भगवान उनके लिए कोई ऐसी परिस्थिति बनाये जिसमें उन्हें किसी की मदद की जरूरत पड़ जाय। यानि जाने-अनजाने आप उनके लिए बुरे दिनों की कामना कर रहे हैं। उन्हें आर्थिक बदहाली, बीमारी या दुर्घटना का सामना करने की नौबत आ जाय तभी आपकी वह इच्छा पूरी होगी जिसे आप उपकार का बदला चुकाना समझ रहे हैं।

इसलिए आप एहसान चुकाने की बात मत सोचें। कहीं आपकी इच्छा का मान रखने के लिए प्रकृति ऐसे उपाय न कर दे कि अगले को कठिनाई पैदा हो जाय। इसलिए बेलौस होकर अपने ऊपर किये गये एहसान का एकाउंट बनाना भूल जाइए। यह याद मत रखिए कि अमुक व्यक्ति ने आपके गाढ़े वक्त में मदद की थी। और मुझे भी उसके गाढ़े वक्त में….। ना बाबा ना…। कत्तई नहीं। छोड़ दीजिए उसे उसके हाल पर। ईश्वर उसे अच्छे कार्य का पुरस्कार देगा।

इसका एक दूसरा पहलू भी है जो आम तौर पर एक अन्य कारण से समझाया जाता है। वह यह कि आप किसी की कोई मदद करते हैं तो काम हो जाने के बाद उसे अवश्य भुला दीजिए। नेकी कर दरिया में डाल। यह भुला देना सबसे ज्यादा आपके लिए लाभदायक है। यदि आप बदले में कुछ अपेक्षा करते हैं तो नुकसान ही नुकसान है। अव्वल तो आपकी उम्मीद पूरी नहीं होने पर आप निराशा के शिकार हो जाएंगे और मानसिक त्रासदी झेलेंगे। लेकिन दूसरी महत्वपूर्ण बात यह होगी कि आप अन्जाने में  स्वयं अपने लिए बुरे वक्त को न्यौता देते रहेंगे। आप यदि चाह रहे हैं कि आपको भी अमुक व्यक्ति वैसी ही सहायता करे जैसी आपने की थी तो आप सबसे पहले अपने लिए वैसी विपरीत परिस्थिति की परिकल्पना कर रहे हैं।

इसलिए यदि अपना भला चाहते हैं तो अपनी उपलब्धियों के लिए केवल ईश्वर को धन्यवाद दीजिए और उससे प्रार्थना कीजिए कि वह आपको कभी भी एहसान का बदला चुकाने का मौका न दे; और न ही किसी दूसरे के मन में ऐसी भावना पैदा होने दे कि वे आपकी मदद करने की कामना पालें। एक बार इस दृष्टि से सोचकर देखिए आपके मन का बहुत सा असंतोष और भार पल भर में मिट जाएगा और आप बहुत हल्का महसूस करेंगे। करना ही है तो उनकी मदद कीजिए जिनसे आपको कोई रिटर्न लेने की गुन्जाइश नहीं है। फिर मस्त रहेंगे।

मैंने तो जबसे यह सूत्र पाया है बहुत मजे में हूँ। Smile
आप भी आजमाइए…। क्या ख्याल है?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी - सत्यार्थमित्र)

रविवार, 29 जुलाई 2012

भ्रष्टाचार का भविष्य अच्छा है…।

अन्ना हजारे जी एक बार फिर अनशन पर बैठ रहे हैं। टीम अन्ना के प्रयास अबतक बेअसर साबित हुए हैं। बाबा रामदेव जी अपने योग साधना के शिष्यों को भ्रष्टाचार विरोधी भीड़ का हिस्सा बनाने की कोशिश करते रहे हैं जो क्रमशः कम होती जा रही है। पिछले साल यह आन्दोलन जिस ऊँचे स्तर को छू गया था वह इस बार दुहराये जाने की संभावना बहुत कम लग रही है। सरकार के मंत्री और प्रधान मंत्री अन्ना टीम के आरोप पत्रों से बिल्कुल भी विचलित नहीं हैं। लोकपाल का वह स्वरूप जो अन्ना टीम चाहती है वह आने से रहा। भ्रष्टतंत्र अपनी जड़ें बहुत गहरे जमा चुका है। यथास्थिति बनाये रखने में जिनके हित निहित हैं उनकी ताकत सुधारवादियों से अधिक साबित हो रही है।

लोग अब यह बात कर रहे हैं कि अन्ना टीम के सदस्य भी दूध के धुले नहीं हैं तो क्यों मंच लगाकर भाषण करने चल दिये। अर्थात्‌ अब भ्रष्टाचार के विरुद्ध बोलने से पहले अपना दामन साफ होने का प्रमाणपत्र लाइए। वह प्रमाणपत्र कहाँ मिलता है भाई? उसी सत्ता प्रतिष्ठान में न जिसके विरुद्ध आन्दोलन खड़ा किया जाना है…! फिर यह प्रमाणपत्र तो मिलने से रहा।

एक आशा प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से की जाती रही है लेकिन अब इस भ्रष्ट व्यवस्था में उसकी हिस्सेदारी और भागीदारी लगभग स्थापित हो चुकी है। नेट आधारित वैकल्पिक मीडिया का हश्र भड़ास4मीडिया के यशवन्त के उदाहरण से स्पष्ट हो चुका है। फेसबुक और ट्वीटर पर जितनी चिल्ल-पों मचा लीजिए, कोई खास परिणाम नहीं निकलने वाला।

देश की आदालतों के बारे में कुछ न कहा जाय वही बेहतर है। अवमानना का हथियार धरे ये माननीय जिस तरह के फैसले सुना रहे हैं उनसे दाँत खट्टे हो रहे हैं। लेकिन किनके दाँत खट्टे हो रहे हैं  इसका अनुमान आप खुद ही लगा सकते हैं।

ऐसे में इस भ्रष्टाचार का आप क्या कर लोगे?

मैं देख रहा हूँ कि इस समाज के प्रभु वर्ग को भ्रष्टाचार से कुछ खास दिक्कत नहीं है। वे शायद इसी व्यवस्था में अधिक सुविधाजनक स्थिति में हैं। जिन्हें दिक्कत है उनकी आवाज सुनने वाला कोई नहीं है। अन्ना हजारे के आन्दोलन तक को लगभग कुचल दिया गया है अथवा वह अपनी स्वाभाविक इतिश्री की ओर बढ़ रहा है।  इसलिए मुझे लगता है कि फिलहाल इसके कम होने या समाप्त होने की फिलहाल कोई संभावना दूर-दूर तक नहीं है।

तो क्या अब कोशिश की जाय कि इस लूटतंत्र में अपने लिए एक छोटा हिस्सा कैसे जुगाड़ लिया जाय, या इसे पापकर्म मानकर केवल अपने को इससे दूर रखने का संतोष पाला जाय?

आपका क्या खयाल है?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

सोमवार, 9 जुलाई 2012

मत तोल! बस बोल बच्चन…

Bol Bachchan A&A

सोचने का नहीं, बस देखने काSmile

झमाझम बारिश के बीच दो दिन की सप्ताहान्त छुट्टी घर में कैद होकर कैसे मनाते? नेट पर देखा तो घर के सबसे नजदीक के वेव-मॉल में बोल बच्चन की कुछ टिकटें अभी भी बची हुई थीं। मैंने झटपट बुक-माई-शो के सहारे से सीट की लोकेशन चुनकर दो बजे का शो ऑनलाइन बुक किया और मोबाइल पर आए टिकट कन्फर्मेशन की मेसेज लेकर ठीक दो बजे खिड़की पर पहुँच गया। इन्टरनेट बुकिंग वालों की एक अलग खिड़की थी। शीशे के उस पार बैठी सुदर्शना ने मुस्कराकर मेसेज दे्खा और कार्ड से मिलान करने के बाद पहले से मेरे नाम का तैयार टिकट सरकाते हुए साथ में थैंक्यू की मुहर भी लगा दी। बगल की खिड़कियों पर इस शो के लिए हाउसफुल का डिस्‍प्‍ले लग चुका था और आगे की बुकिंग जारी थी।

फिल्म देखने का कार्यक्रम अब पहले से काफी लुभावना हो गया है। मैं तो फिल्म से ज्यादा फिल्म दे्खने वालों को दे्खकर खुश हो जाता हूँ। यहाँ आकर लगता है कि हमारे आसपास कोई सामाजिक या आर्थिक समस्या है ही नहीं। सबलोग बहुत खुशहाल, खाते-पीते घरों के दिखते हैं। मनोरम दृश्य होता है। बाहर की ऊमस और चिपचिपी गर्मी भी अन्दर घुसने नहीं पाती। अन्दर जाने की अनुमति केवल हँसते-मुस्कराते चेहरों और मोटे पर्स से फूली हुई जेबों को है। प्रवेश द्वार पर तैनात सुरक्षा कर्मी आपकी कमर में हाथ डालकर यह इत्मीनान कर लेते हैं कि आप अन्दर के मनोरंजन बाजार में जाने लायक तैयारी से आये हैं तभी अन्दर जाने देते हैं। बेचारों को बैग की तलाशी भी लेनी पड़ती है।

मेरी पत्नी को जब महिलाओं वाले तलाशी घेरे से बाहर आने में देर होने लगी तो मैंने बाहर से दरियाफ़्त की। पता चला कि उनके हैंडबैग से आपत्तिजनक सामग्री प्राप्त हुई है जिसे बाहर छोड़ने का निर्देश दिया जा रहा था। मुझे हैरत हुई। पता चला कि उन्होंने घर से चलते समय एक चिप्स का पैकेट और कुछ चाकलेट रख लिये थे। बाहर से लायी हुई कोई भी खाद्य सामग्री अन्दर ‘एलाउड’ नहीं थी। अन्ततः थोड़ी बहस के बाद महिला गार्ड को चिप्स का पैकेट सौंपकर, चॉकलेट का रैपर खोलकर उसे वहीं खाने का उपक्रम करती और गार्ड व प्रबन्धन को कोसती हुई श्रीमती जी निकल आयी। अन्दर आते ही मामला साफ हो गया जहाँ तीनगुने दाम पर बिकने वाले कोल्ड ड्रिंक्स, पॉपकार्न और अन्य फास्ट फूड के स्टॉल लगे हुए थे। वहाँ लम्बी कतारें भी लगी हुई थीं। बेतहाशा ऊँचा दाम चुकाकर बड़ी-बड़ी ट्रे में सामान उठाकर ले जाते लोगों को देखकर हमें कोई हीनताबोध हो इससे पहले ही हम बिना किसी से पूछे सीधे अपनी सीट तक पहुँच गये। यूँ कि हम पूरे हाल का नक्शा और अपनी सीट कम्प्यूटर स्क्रीन पर पहले ही देख चुके थे।

Bol-Bachchanफिल्म शुरू हुई। संगीत का शोर बहुत ऊँचा था। इतना कि बगल वाले से बात करना मुश्किल। अमिताभ बच्चन जी को धन्यवाद ज्ञापित करने वाले लिखित इन्ट्रो के बाद शीर्षक गीत शुरू हो गया। धूम-धड़ाके से भरपूर गीत में अमिताभ बच्चन के साथ अभिषेक और अजय देवगन जोर-जोर से नाच रहे थे। सदी के महानायक के इर्द-गिर्द कमनीय काया लिए लड़कियों और लड़कों की कतारें झूमती रही। सभी लगभग विक्षिप्त होकर बच्चन के बोल में डूब-उतरा रहे थे। हिमेश रेशमिया के कान-फाड़ू संगीत में लिपटा आइटम गीत समाप्त हो्ते ही बड़े बच्चन ने बता दिया कि वे इस फिल्म में हैं नहीं, केवल उनका नाम भर है।

इसके बाद कहानी दिल्ली के रंगीन माहौल से निकलकर सरपट भागती हुई राजस्थान के रणकपुर के संगीन माहौल में दाखिल हो गयी। राजा पृथ्वीराज सिंह अपने गाँव के बहुत खूँखार किन्तु अच्छे मालिक थे। पहलवानी करना और भयंकर अंग्रेजी बोलना उसका शौक था। झूठ से सख्त नफ़रत थी उन्हें। इतनी की केवल निन्यानबे रूपये का हिसाब गड़बड़ करने वाले अपने सुपरवाइजर को उन्होंने खदेड़-खदेड़कर मारा और लहूलुहान कर दिया। उसके बाद उनके दयालु हृदय ने उसे अस्पताल में भर्ती कराया और ‘फाइवस्टार’ स्तर की चिकित्सीय सुविधा दिलवायी। ऐसे सत्यव्रती को पूरी फिल्म मे एक नाटक मंडली ने एक के बाद एक जबरदस्त झूठ बोलकर बेवकूफ़ बनाये रखा और राजा पृथ्वीराज अपनी ग्राम्य-रियासत का भार ढोते हुए झूठ के किले पर अपनी सच्चाई और दयालुता का झंडा फहराते रहे। जिसने पुरानी गोलमाल देख रखी है उसे फिल्म में आगे आने वाले सभी दृश्य पहले से ही पता लग जाते हैं क्योंकि निर्देशक ने पूरा सिक्‍वेन्स एकमुश्त कट-पेस्ट कर दिया है। वहाँ राम प्रसाद और लक्षमण प्रसाद थे तो यहाँ अभिषेक बच्चन और अब्बास अली हैं जिन्हें देखने पर केवल मूँछों का अन्तर है। यहाँ भी माता जी को एक बार घर में भीतर आने के लिए बाथरूम की खिड़की लांघनी पड़ी है। अलबत्ता एक माँ का जुगाड़ करने के चक्कर में पूरी नाटक मंडली लग जाती है और अन्ततः तीन-तीन माताएँ एक साथ नमूदार हो जाती हैं। इसके बावजूद राजा पृथ्वीराज बेवकूफ़ बन जाते हैं क्योंकि ऐसा मान लिया गया है कि उनके पास प्रयोग करने के लिए अक्‍ल है ही नहीं।

निर्देशक ने दर्शकों के बारे में भी यही धारणा बना रखी है कि दर्शक आएंगे और जो आँख के सामने आएगा उसे सच मानेंगे और जो कान से सुनायी देगा उसपर तालियाँ पीटेंगे और खुलकर हसेंगे। इसलिए इस फिल्म को देखते समय यदि किसी ने तार्किक दृष्टि से सोचने की गलती की और दृश्यों के रसास्वादन में अपनी बुद्धि का हस्तक्षेप होने दिया तो उसे सिर पीट लेना पड़ेगा। बेहतर है कि चिप्स और चाकलेट की तरह अपनी तर्कणा को भी घर छोड़कर जाइए और वहाँ सजी हुई रंगीनी और लाफ्टर शो के कलाकारों की पंचलाइनों का त्वरित और तत्क्षण आस्वादन कीजिए। द्विअर्थी संवादों पर बगलें मत झांकिए बल्कि उस फूहड़ हास्य पर किलकारी मारती जनता के टेस्ट का समादर करते हुए उसमें शामिल हो जाइए और खुद भी हँसी खनकाइए। अर्चना पूरन सिंह की भद्दी और कामुक अदा पर यदि आपको जुगुप्सा हो रही है तो उसपर सिसकारी मारती अगली पंक्ति से सीख लीजिए कि कैसे टिकट का पैसा वसूल किया जाता है।

इस पूरे माहौल में प्राची देसाई की मासूम और शान्त छवि एक अलग प्रभाव छोड़ने में सफल हुई। बात-बात पर ठकाका लगाने वाले दर्शक इस सफलतम टीवी कलाकार की सिल्वर स्क्रीन पर अभिनीत सादगी और गरिमापूर्ण व्यक्तित्व के कन्ट्रास्ट को इस फिल्म की थीम के मद्देनजर कैसे स्वीकार करेंगे यह देखना होगा। पृथ्वीराज की अंग्रेजों से भी अच्छी अंग्रेजी का आनंद लेने के लिए आपको थोड़ा उदार होना पड़ेगा। वाकई होकर देखिए, बहुत मजा आएगा। पेट में बल पड़ जाएंगे।

कुल मिलाकर यह फिल्म सोचने के लिए कुछ नहीं छोड़ती इसलिए ऐसा कु्छ करने की जहमत उठाना ठीक नहीं। अपनी गृहस्थी की चिन्ताओं को कुछ समय के लिए विराम देकर दो घंटे का विशुद्ध मनोरंजन कीजिए और इंटरवल में अपनी रुचि के अनुसार बाहर सजे स्टॉल पर लाइन लगाकर या बिना लगाये खुशहाल भारतीय समाज का दर्शन कीजिए। हमने भी खूब मस्ती की। बाहर आने पर रिमझिम बारिश का आनन्द दोगुना हो गया था।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

शनिवार, 30 जून 2012

भ्रष्टाचारी का आत्मविश्वास तगड़ा है

क्या हमारा समाज सादा जीवन उच्‍च विचार का मंत्र भूलता जा रहा है?

ashok-chavan-adarsh-panel-295महाराष्ट्र के एक पूर्व मुख्यमंत्री एक बड़े और चर्चित घोटाले की जांच के लिए राज्य सरकार द्वारा गठित आयोग के समक्ष शनिवार को पेश हुए। आज शाम यह समाचार सभी चैनेलों पर वीडियो क्‍लिप के साथ आ रहा है। गाड़ी से उतरकर नेता जी बत्तीसो दाँत मुस्करा रहे हैं और अपने समर्थकों और “प्रशंसकों” से हाथ मिलाते हुए ऐसे आगे बढ़ रहे हैं जैसे दिल्‍ली में खाली हुए वित्तमंत्री के पद की शपथ लेने जा रहे हों। चेहरे पर ऐसा आत्मविश्वास सी.डब्ल्यू.जी. और थ्रीजी घोटाले के सरगनाओं  के चेहरे पर भी चस्पा रहता था जब चैनेल वाले उनके जेल से अदालत आने जाने की तस्वीरें दिखाते थे। ऐसा आत्मविश्वास देखकर मुझे पहले तो आश्चर्य होता था लेकिन अब अपनी सोच बदलने की जरूरत महसूस होने लगी है।

मैंने अपने समान विचारों वाले एक मित्र से चर्चा की तो उसने तपाक से कहा- मुझे तो इन सबको देखकर अपने भीतर हीनता का भाव पैदा होने लगा है। वह आगे बोलता गया और मैं समर्थन में सिर हिलाता हुआ हूँ-हूँ करता रहा - थोड़ी ईर्ष्या सी होती है इस मजबूती को देखकर। इधर तो इस आशंका में ही घुले जाते हैं कि सरकारी कुर्सी पर बैठने के कारण ही लोग जाने क्या-क्या सोचते होंगे। गलती से भी कोई गलत काम हो गया और बॉस ने स्पष्टीकरण मांग लिया तो क्या इज्‍जत रह जाएगी। समाज को क्या मुँह दिखाएंगे? बीबी बच्चों को कैसे समझाएंगे कि मैने कोई ऐसा-वैसा काम नहीं किया है, बस थोड़ी ग़लतफहमी पैदा हो गयी है जो जल्दी ही ठीक हो जाएगी। प्रत्तिष्ठा बचाने के चक्‍कर में बहुत नुकसान उठाना पड़ा। कई बार सुनहले मौके हाथ से चला जाने दिया। सहकर्मियों की लानत-मलानत झेलनी पड़ी। कितने बड़े लोगों से दोस्ती बनाने का अवसर चूक गया। बड़ी-बड़ी पार्टियाँ हमसे किनारा करती गयीं। सत्ता के गलियारों में पूछने वाला कोई नहीं रहा। कोई गॉडफादर नहीं मिला हमें। शायद मैं किसी काम नहीं आने वाला था। किसी ने हमपर दाँव नहीं लगाया। बार-बार ट्रान्सफर होता रहा।

मैं ऐसे तमाम लोगों को देखता रहता हूँ जिन्होंने मेरे साथ ही नौकरी शुरू की और देखते-देखते कहाँ से कहाँ पहुँच गये। बड़ी-बड़ी कोठियाँ खरीद लीं, कितने प्‍लॉट अपने घर-परिवार के नाम कर लिये, आलीशान कारें और विलासिता के तमाम साधन जुटा लिए। इनके आगे-पीछे प्रशंसकों और तीमारदारों की भीड़ लगी रहती है। तमाम लोग सेवा के लिए तत्पर रहते हैं। नौकरी में एक ही जगह लम्बे समय तक जमे रहे। किसी ने हटाने के लिए शिकायती चिठ्ठी नहीं लिखी। इनसे वे सभी लोग संतुष्ट और प्रसन्न रहे जो सत्ता के गलियारों में जाकर इनकी शिकायत कर सकते थे और नुकसान करा सकते थे। मुझमें यह कुशलता नहीं रही। मुझसे ऐसे लोग प्रायः नाराज ही रहे। सरकारी नियमों से डरा-सहमा सा मैं उनकी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाने में चूक गया। बदले में मिली झूठी शिकायतें और सत्ता प्रतिष्ठान की उपेक्षा।

अबतक अपने मन को, अपने परिवार को और अपनी पत्‍नी को भी सफलता पूर्वक समझाता आया हूँ कि ग़लत तरीके से कमाया हुआ पैसा तमाम ग़लत रास्तों पर ले जाता है। ऐसे लोगों को अच्छी नींद नहीं आती। जीवन में वास्तविक सुख और आनन्द नहीं मिलता। भौतिक साधनों में अधिकतम की कोई सीमा नहीं होती। इसे और बढ़ाते जाने की लालसा लगातार बढ़ती ही जाती है। इसलिए हमें अपनी जरूरतों का न्यूनतम स्तर तय करना चाहिए और उनकी पूर्ति कर लेने भर से प्रसन्न रहना चाहिए। संतोष-धन को ही सबसे बड़ा धन मानना चाहिए।

लेकिन यह सारी समझाइश कभी-कभी मुझे ही डाउट में डाल देती है।

देखता हूँ उनकी पूजा होते हुए जो माल कमाने और खर्च करने में प्रवीण हैं। उनकी हाई-सोसायटी में तगड़ी पकड़ है। सत्ता के ऊँचे गलियारों में गहरी पैठ है। देखता हूँ उनके घर-परिवार वाले उनसे बहुत खुश हैं, रिश्तेदार उन्हें घेरे रहते हैं। वे शादी-ब्याह और अन्य पार्टियों में अलग से बुलाये जाते हैं। बच्‍चे उन्हें कुछ ज्यादा ही मिस करते हैं। वे उनकी सभी फरमाइशें पूरी कर सकते हैं इसलिए बहुत अच्छे पापा और लविंग-हस्बैंड हैं। वे उन्हें देश-दुनिया की सैर कराने ले जाते हैं, मॉल, पिकनिक, सिनेमा, शॉपिंग आदि पर खूब खर्च कर सकते हैं। शायद वे अपने लिए ज्यादा खुशियाँ भी खरीद पा रहे हैं। समाज में उनकी इज्‍जत कुछ ज्यादा ही है।

हमारे समाज का नजरिया क्या कुछ बदल नहीं गया है? एक बार मैंने अपने एक अधिकारी मित्र से अपने किसी दूर के परिचित की सिफारिश कर दी। परिचित का काम बिल्कुल सही था लेकिन उक्त अधिकारी ने बिना उचित और पर्याप्त सुविधा शुल्क के काम करने से मना कर दिया था। मैने सिफारिश करने से पहले उक्त अधिकारी से ही यह कन्फर्म भी कर लिया कि काम सोलहो आने सही है, इसमें कोई कानूनी बाधा नहीं है। लेकिन जब मैंने काम कर देने के लिए सिफारिश कर दी तो उन्होंने बड़ी विनम्रता से काम करने से मना कर दिया। बोले- भले ही यह काम सही है लेकिन यदि मैंने आपके कहने पर यह काम बिना पैसा लिए कर दिया तो मेरा नुकसान तो होगा ही; आपको भी बहुत दिक्‍कत पेश आएगी।

उनकी आखिरी बात से मैं उलझन में पड़ गया। मेरे चेहरे पर तैरती जिज्ञासा को भाँपकर उन्होंने स्थिति स्पष्ट कर दी - बात सिर्फ़ इस केस की नहीं है, डर इस बात का है कि यदि फील्ड में यह बात फैल गयी कि मैंने आपके कहने पर बिना पैसा लिए काम कर दिया तो लोग आगे भी आपको एप्रोच करने लगेंगे। मैं यह कत्तई नहीं चाहता कि यह मेसेज जाय कि मै बिना पैसा लिए भी काम कर सकता हूँ।

उनकी बात का लब्बो-लुआब यह था कि उन्होंने बड़ी मेहनत से यह ख्याति अर्जित की थी कि बिना पैसा लिए वे अपने बाप की भी नहीं सुनते। इस ख्याति के साथ कुर्सी पर जमे रहने के लिए उन्हें “ऊपर” काफी मैनेज भी करना पड़ता था इसलिए मेरी सिफारिश ठुकरा देना उनकी भयानक मजबूरी थी जिसका उन्हें खेद था।

अब ऐसे अधिकारियों की संख्या बढ़ती जा रही है जो अपना प्रोमोशन जानबूझकर रुकवा देते हैं क्योंकि प्रोमोशन वाले पद की अपेक्षा वर्तमान पद ज्यादा मालदार है। ऐसा करने के लिए वे बाकायदा अपनी एसीआर खराब करवा लेते हैं, जानबूझकर सस्पेंड हो लेते हैं, या प्रोमोशन प्रक्रिया में खामी ढूंढकर अदालत से स्टे करा लेते हैं। यह सब करते हुए इन्हें कभी कोई शर्म नहीं आती। यह सब बड़े ही आत्मविश्वास से किया जाता है। शायद अदालते इस खेल को समझ नहीं पाती हैं या कैंसर वहाँ भी फैल चुका है... पता नहीं।

धन की लूट में यदि यदा-कदा ट्रैप कर लिये जाँय, एफ़.आई.आर. हो जाय, जेल जाना पड़ जाय तो भी जमानत कराकर लौटने के बाद चेहरे पर कोई मायूसी या झेंप का भाव नहीं रहता। बड़े आराम से दिनचर्या वापस उसी पटरी पर लौट आती है। वही हनक दुबारा फैल जाती है और वही आत्मविश्वास फिर से लौट आता है।

राष्ट्रीय पटल पर बड़े-बड़े घोटाले और उनमें शामिल हाई-प्रोफाइल घोटालेबाजों को मुस्कराते देखते हुए हमारे समाज में अब इन्हें ऐसी स्वीकृति मिल चुकी है कि निचले स्तर पर कदम-कदम पर भ्रष्टाचार से सामना होने पर हम कतई विचलित नहीं होते। फिर इनका आत्मविश्वास तगड़ा क्यों न हो भाई...!

(Satyarthmitra सत्यार्थमित्र)  

गुरुवार, 31 मई 2012

पारा चढ़ता जाये रे…

आज मई माह का आखिरी दिन है। यह सबसे गर्म रहने वाला महीना है। ज्येष्ठ मास का आखिरी मंगल जिसे यहाँ लखनऊ में ‘बड़ा मंगल’ के रूप में मनाया जाता है वह भी बीत चुका है। बजरंग बली को खुश करने लिए भक्तजन इस महीने के सभी मंगलवारों को पूरे शहर में नुक्कड़ों और चौराहों पर भंडारा लगाते हैं। खान-पान के आधुनिक पदार्थों का मुफ़्त वितरण प्रसाद के रूप में होता है। कम से कम मंगलवार के दिन शहर में कोई भी व्यक्ति भूखा-प्यासा नहीं रहने पाता। गरीब से गरीब परिवार के सदस्य भी छक कर प्रसाद ग्रहण करते हैं। लेकिन गर्मी का मौसम जब उफ़ान पर हो तो एक दिन की राहत से क्या हो सकता है। पारा तो चढ़ता ही जा रहा है। देखिए इस ताजे गीत में :

ग्रीष्म-गीत

  पारा चढ़ता जाये रे, आतप बढ़ता जाये रे...
बैठ बावरा मन सिर थामे गीत बनाये रे...Confused smile

हवा आग से भरी हुई नाजुक तन को झुलसाये
छुई-मुई कोमल काया अब कैसे बाहर जाये
रिक्शे तांगे बाट जोहते काश सवारी आये
निठुर पेट की आग बड़ी जो देह थपेड़े खाये
भीतर बाहर धधकी ज्वाला कौन बुझाए रे...
                      पारा चढ़ता जाये रे, आतप बढ़ता जाये रे...Sick smile

भारत की सरकार चल रही देखो राम भरोसे
प्रतिपक्षी की बात कहें क्या सहयोगी भी कोसे
सत्यनिष्ठ बेदाग छवि हुई बे-पेंदी का लोटा
खरे स्वर्ण का धोखा था जो अब जाहिर है खोटा
विविध स्वार्थ के रंग पगड़िया रंगती जाये रे... 
                       पारा चढ़ता जाये रे, आतप बढ़ता जाये रे...Ninja

भ्रष्टाचारी मायावी इक राज हटा तो क्या है
है पतवार नये हाथों में माझी नया-नया है
चाचा-ताऊ वही पुराने अपनी टेक जमाये
पासा पलटा नागनाथ का साँपनाथ जी आये
रंगदारी का बढ़ा हौसला धूम मचाये रे... 
                       पारा चढ़ता जाये रे, आतप बढ़ता जाये रे...Hot smile

अन्ना जी की लुटिया डूबी फूट रहे सहयोगी
कुनबे में ही मची रार अब कौन लड़ाई होगी
लोकपाल नेपथ्य में गया भ्रष्टाचारी आगे
काले धन का झंडा लेकर रामदेव जी भागे
बियावान में आम आदमी खड़ा ठगाये रे... 
                       पारा चढ़ता जाये रे, आतप बढ़ता जाये रे...Steaming mad

गया चुनावी मौसम तो फिर कूद पड़ी महँगाई
कपटनीति खुल गयी तेल ने भारी चोट लगाई
आई.पी.एल. का बुखार लो जा बैठा कलकत्ते
ममता दीदी मेहरबान हो फेंक रही हैं पत्ते
भारत बन्द कराये नेता बहुत सताये रे ...
                        पारा चढ़ता जाये रे, आतप बढ़ता जाये रे...Flirt female

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

       इस गीत को लिखने की प्रेरणा एक खूबसूरत किताब देखकर मिली जिसमें ढेर सारे गीत हैं। आदरणीय सतीश सक्सेना जी ने अपने गीतों का संकलन मुझे भेंट किया। इस पुस्तक की भूमिका ने भावुक कर दिया। इसमें सतीश जी ने अपने हृदय के भाव उड़ेल कर रख दिये हैं। वाह…!

mere geet 002 mere geet 001

मेरे गीत - सतीश सक्सेना

ज्योतिपर्व प्रकाशन

99, ज्ञान खंड-3, इन्दिरापुरम

गाजियाबाद : 201012

सत्यार्थमित्र

बुधवार, 4 अप्रैल 2012

बच्चों के लिए खुद को बदलना होगा…

पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी और उसके बाद या उसके बिना भी शादी तक का सफर पूरा कर लेने पर हमें लगता है कि अब इस जिन्दगी में हमें जैसा होना था वह हो लिए। जो मिलना था वह मिल गया। व्यक्तित्व के विकास का क्रम लगभग पूरा हो गया, अब इसमें किसी क्रान्तिकारी परिवर्तन की गुंजाइश नहीं बचती। नौकरी में कुछ पदोन्नति या बिजनेस में कुछ उन्नति पाकर हम अपनी आर्थिक या सामाजिक हैसियत भले ही बढ़ा लें लेकिन एक बार कैरियर और जीवन साथी मिल जाने के बाद  हमारे व्यक्तिगत आचरण का जो स्वरूप निर्धारित हो जाता है वह कमोबेश जीवन भर बना रहता है। मुझे अभी हाल तक ऐसा ही महसुस होता रहा है। लेकिन इस बीच कुछ ऐसे अनुभव हुए कि मुझे अपनी धारणा को बदलने और आप सबके बीच चर्चा करने का मन हुआ।

एक विद्यार्थी, एक प्रतियोगी परीक्षार्थी, सफल/असफल अभ्यर्थी और फिर  सामर्थ्य व भाग्य के मेल से मिलने वाला कैरियर बनाकर हम चल पड़ते हैं अपने जीवन की नैया को पार लगाने। जीवन संगिनी के साथ जो परिवार बसता है उसकी जिम्मेदारी उठाने में हमारी कार्यकुशलता का स्तर बहुत कुछ हमारे आर्थिक स्तर  पर टिका हुआ है, यह भी एक सामान्य धारणा मेरे मन में रहा करती थी। लेकिन अब मैं सोच रहा हूँ कि एक गृहस्थ के रूप में या बच्चों के अभिभावक के रूप में हमारी भूमिका केवल हमारी आर्थिक स्थिति से नहीं तय होती। हमे तमाम ऐसे काम करने हैं जिनका धन से कोई सरोकार नहीं है लेकिन वे बहुत ही महत्वपुर्ण हैं। इनमें से एक महत्वपुर्ण कार्य है अपने छोटे-छोटे बच्चों को समुचित शिक्षा देना। ऐसी शिक्षा जो उन्हें एक योग्य, कर्तव्यपरायण, ईमानदार और मूल्यपरक जीवन जीने वाला खुशहाल नागरिक बना सके। बड़ी से बड़ी फीस चुकाकर भी हम किसी स्कूल से  इन बातों की गारंटी नहीं ले सकते। ऐसे सद्‍गुण विकसित होने की जो उम्र है वह ज्यादा बड़ी नहीं है। बच्चा जब अपने दो पैरों पर खड़ा  होकर दौड़ने लगता है स्फुट शब्दों का प्रयोग करके अपनी बात माँ तक पहुँचाने लगता है अपनी उम्र के बच्चों के साथ खेलने लगता है तभी उसके सीखने और व्यक्तित्व का स्वरूप निर्धारित होने की प्रक्रिया भी शुरू हो जाती है। कहते तो हैं कि बहुत से गुण-अवगुण आनुवांशिक भी होते हैं लेकिन जिसपर हमारा कोई वश नहीं उसकी क्या बात की जाय। हम तो उस वातावरण की ही बात करेंगे जिसे हम एक सीमा तक  बदल पाने का प्रयास कर सकते हैं।

एक अभिभावक के रूप में बच्चे की परवरिश करते समय हमें किन बातों का ध्यान रखना चाहिए इसपर एक छोटी सी पुस्तिका मेरे हाथ लगी है। सिटी मॉन्टेसरी स्कूल के संस्थापक डॉ.जगदीश गाँधी और उनकी विदुषी पत्नी डॉ. (श्रीमती) भारती गाँधी द्वारा तैयार की गयी इस पुस्तिका में बहुत सी सीखने लायक बातें लिखी गयी हैं। यहाँ सबकुछ तो नहीं दिया जा सकता लेकिन जिन वाक्यों ने मुझे यह सब लिखने को प्रेरित किया उन्हें संक्षेप में उद्धरित कर रहा हूँ :

  • बालक को सीखने की तीव्र प्रक्रिया होती है। उसके सामने सब कुछ सही-सही कीजिए।
  • विश्वविद्यालय की डिग्रियाँ ही शिक्षित होने का प्रमाण नही अपितु उसकी शिक्षा का पता तो उसके व्यवहार से चलता है।
  • बालक की कर्तव्य पालन की शिक्षा देने से पूर्व माता-पिता स्वंय बालक के आज्ञाकारी सेवक बनें।
  • आप अपने बच्चे को कभी छोटा न समझिये, वह आपके अच्छे-बुरे कार्यों को समझता और सीखता है।
  • एक सफल माँ वह है जो बच्चे की उस माँग को पहचानती है जिसे हम रोना कहते हैं।
  • एक सफल पति-पत्नि को बच्चों के सामने कोई ऐसा काम नहीं करना चाहिंए जो बालक को गलत सीख दे।
  • आप जैसा भी करते हैं बच्चा उसी का नकल करता है।
  • आपकी जरा सी शाबाशी से बच्चे का मन प्रसन्नता से बल्लियों उछल पड़ता है।
  • बच्चों को वही खिलौना खरीद कर दीजिए जिससे बच्चा कुछ सीख सके।
  • खेलते हुए बच्चे को कोई आदेश न दीजिए वह आपकी आज्ञा का उल्लंघन कर सकता है।
  • बच्चे जिज्ञासु होते हैं। उन्हें किसी बात के लिए मना न कीजिए अन्यथा वे वैसा ही करेंगे।
  • बालक पैदा होते ही माँ के स्कूल में दाखिला पा लेता है और फिर सोते-जागते, खेलते-खाते, उठते-बैठते हर पल उसकी कक्षाएँ लगी रहती है।
  • माता-पिता अपने बच्चों पर धन तो खर्च करते हैं पर समय नहीं खर्च करते।
  • बच्चे को खेल-तमाशा दिखाने साथ ले जाइये और उससे सम्बन्धित प्रश्नों का उत्तर दीजिए यह भी शिक्षा है।
  • आप आस्तिक हैं और पूजा करना चाहते हैं तो बालक से अच्छा कौन होगा जिसकी पूजा की जाय।
  • बच्चों को घर में प्रतिदिन काम आने वाली वस्तुओं से परिचय अवश्य करा देना चाहिए।
  • बच्चों को पालतू पशुओं और पक्षियों से भी परिचय करा देना चाहिए।
  • बच्चों को कहानियाँ सुनाकर उनमें त्याग, सेवा, आज्ञाकारिता के गुणों को सरलता से भर सकते हैं।
  • पाठशालाओं में माताओं को बराबर आते रहना चाहिए जिससे बच्चा यह महसूस करें कि पाठशाला भी घर का एक अंग है।
  • आप चाहते हैं कि बच्चा सच बोले तो स्वयं सच बोलना शुरू कर दीजिए।
  • बालक को अनुशासित रखना चाहते हो तो स्वयं अनुशासित रहो।
  • प्रायः चार वर्ष की अवस्था का बालक कहानियाँ सुनने को बड़ा उत्सुक रहता है।
  • बच्चों को कहानियाँ इतनी प्रिय होती हैं कि वे कुछ देर के लिए भूख प्यास भी भूल जाते हैं।
  • बच्चे कहानी के पात्रों पर नहीं बल्कि नायक की सफलता और असफलता पर अधिक ध्यान देते हैं।
  • बच्चों को सच्ची कहानियाँ ही सुनानी चाहिंए जिससे बड़े होने पर वे माता-पिता पर अविश्वास न करने लगे।
  • चार वर्ष का शिशु पशु पक्षियों, परियों और चाँद की कहानियाँ पसन्द करता है।
  • बच्चों को राजा रानी की बहादुरी की कहानियाँ सुनाकर माताएँ बच्चों को बहादुर बना सकती हैं।
  • संसार के अनेक महापुरूषों को कहानियाँ द्वारा ही बचपन में संस्कार और प्रेरणा मिली है।
  • माँ ही अपने बच्चे की एक सफल अध्यापिका हो सकती है।
  • बालक माता-पिता या अभिभावकों के कटु व्यवहार, घर की असंतोषजनक स्थिति के कारण ही घर से भगता है।
  • अपने बच्चे को जासूसी और सस्ते किस्म की पुस्तकों से बचाइये।
  • बच्चों को सुधारने से पूर्व माता-पिता या अभिभावकों को अपने बुनियादी बुराइयाँ दूर करनी चाहिंए।
  • जो माता-पिता या अभिभावक स्वभाव से क्रोधी और चिड़-चिड़े हैं वे मेहरबानी करके बच्चों पर तरस खायें उन्हें इन दुर्गणों से दूर रखें।
  • बच्चा अपनी वाणी में ही नहीं वरन् वह आपके हृदय एवं आँखों में भी स्नेह खोजता है।
  • कौन जानता है कि आँगन में खेलने वाला कौन शिशु कल का कवि, डाक्टर, इंजीनियर, दार्शनिक, जनसेवक या कुशल प्रशासक होगा।
  • यह नन्हीं बालिकाएं ही तो कल की सरोजनी नायडू, लक्ष्मीबाई, अहिल्याबाई आदि नारी रत्ना है।
  • देश का भविष्य इन नन्हें मुन्नों के निर्माण में है, इस उत्तरदायित्व से भागने वाले राष्ट्रदोही हैं।
  • बच्चों को निर्दयता से पीटना एक जघन्य पाप एवं अपराध है।
  • प्रसन्नता और मनोरंजन ही आपके बच्चे का जीवन है।
  • बालक को कभी झिड़किये नही अन्यथा वह निरूत्साही एवं भीरू बन जायेगा।
  • बालक को बात-बात पर शाबाशी दीजिए उसका साहस दुगुना हो जायेगा।
  • बालक को ईश्वर का स्वरूप मानकर उसके समक्ष मेहरबानी करके कोई गलत काम न कीजिए।
  • बच्चा जन्मजात अहिंसक होता है।
  • यह मत भूलिये कि 2 वर्ष का शिशु आपकी सारी आदतें सीख रहा है।
  • मेरी मानिये तो मैं कहूँगी कि 2 वर्ष से 5 वर्ष के बच्चों को शिशु विहारों में पुस्तक पढ़ने के लिए नहीं, बल्कि केवल खेलने के लिए भेजिए।
  • बच्चो को कभी ऐसे पड़ोसियों, मित्रों एवं सम्बन्धियों से न मिलने दें जो असंयम का व्यवहार करते हों।
  • आप पर कितनी ही, परेशानियॅा या आपत्ति क्यों न हों, आप बच्चों के सामने मुस्कराते रहें।
  • बच्चों को श्रेष्ठात्मायें समझ कर उनके प्रति उत्तरदायित्व को पूर्णता से निभाना चाहिए।
  • बच्चों में सहयोग एवं मिलजुल कर कार्य करने की भावना को जाग्रत कीजिए।
  • बच्चों को अपना खाना मिल बाँटकर खाना चाहिंए।
  • माता-पिता या अभिभावक जब समय-समय पर बच्चे की पढ़ाई, उसके विद्यालय के सांस्कृतिक कार्यक्रमों, उन्नति, अवनति आदि के प्रति रूचि दिखाते हैं तो बालक में आत्मविश्वास की भावना पैदा होती है।
  • वे माता-पिता धन्य हैं जो बालक के प्रत्येक कार्य में रूचि लेते हैं और सदैव बालक को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करते रहते हैं।
  • आज के विद्यार्थी के गुमराह होने का एकमात्र कारण है-माता पिता या अभिभावक द्वारा उसकी उपेक्षा।
  • कभी-कभी माता-पिता प्रायः मोह के वशीभूत होकर उसकी प्रगति में बाधक बन बैठते हैं।
  • चतुर माता पिता ज्वर ग्रस्त शिशु के लाख रोने पर भी उसे लड्डू नहीं खिलायेंगें।
  • माता पिता बालक पर अपनी रूचि न थोपे बल्कि बालक की ही रूचि के अनुसार उसका मार्गदर्शन करते रहें।
  • बच्चे को सदैव अपने से अधिक बुद्धिमान मानते हुए उसकी प्रत्येक बात का सम्मान करना चाहिंए।
  • यह कोरी भूल और अपराध है कि बालक का सुधार डंडे से किया जाय।
  • आप बच्चे की बुराई नहीं स्वयं अपने दोषों का बखान कर रहे हैं, जिसकी छाप बच्चे पर पड़ी है।
  • बच्चे को सदैव क्रियाशील खेलों में लगाइयें।
  • शिशुओं के लिए चिडि़याखाने व अजायबघर जैसे स्थान जिज्ञासा बढ़ाने के लिए बड़े उपयुक्त होते हैं, अवश्य साथ ले जाइये।
  • जो माँ बालक की मूक भाषा नहीं समझ पाती वह अनपढ़ है भले ही उसने कितनी ही डिग्रियाँ प्राप्त कर ली हों।
  • आप लट्टू नहीं नचा सकते तो बालक को नचाने से न रोकिए। उसका मन प्रसन्नता से नाचने लगेगा।
  • बालक एक सफल चितेरा होता है उसकी फेरी हुई प्रत्येक टेढ़ी-मेढ़ी रेखा में कला का पुट होता है।
  • यदि आप बच्चों से विनोद नहीं कर सकते, उसे हॅंसा नही सकते, तो आप उसे पढ़ा भी नहीं सकते।
  • बच्चे की कोई वस्तु गिर जाय तो तुरन्त आप पर आदर के साथ उठाकर बालक को दे दीजिए।
  • बालक के स्कूल जाते समय उसे दरवाजे तक अवश्य छोड़ने जाइये।
  • बच्चों की देखभाल कीजिए कि वे बाजार की खुली चीजें न खायें।
  • बच्चों को पहाड़ों और नदियों की खूब सैर कराईये इससे हृदय की विशालता और करूणा की भावना उत्पन्न होती है।
  • रात में छत या आँगन से बच्चे को चन्दा मामा दिखाइये, उसे प्रसन्नता होगी।

मैने जब इन बातों की कसौटी पर खुद को परखा तो अनेक मुद्दों पर सुधार की आवश्यकता दिखी। आशा है मेरी ही तरह इनमें से कुछ बातें आपका ध्यान जरूर खींचेगी जिनमें आप गलती कर रहे थे।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

गुरुवार, 22 मार्च 2012

पाकिस्तान में ऑनर किलिंग की रिपोर्ट क्या कहती है?

पाकिस्तान के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कहा है कि वहाँ पिछले साल कम से कम 945 औरतों व लड़कियों की हत्या इसलिए कर दी गयी कि उन्होंने परिवार की इज्जत लुटा देने का दुस्साहस किया। वृहस्पतिवार को जो आँकड़े प्रस्तुत किये गये हैं उनसे पता चलता है कि रूढ़िवादी पाकिस्तानी समाज में औरतों के ऊपर हिंसा के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। यहाँ  औरतों के साथ दोयम दर्जे के नागरिकों की तरह व्यवहार किया जा रहा है। सबसे बड़ी चिन्ता की बात यह है कि इस देश में घरेलू हिंसा को रोकने के लिए कोई कानून ही नहीं है।

पाकिस्तान के प्रतिष्ठित राष्ट्रीय अखबार डान में छपी रिपोर्ट में कहा गया है कि मानवाधिकार समूहों के अनुसार महिलाओं के अधिकारों की रक्षा की स्थिति पहले से बेहतर होने के बावजूद सरकार द्वारा अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। अभी हालत यह है कि पुलिस द्वारा अधिकांश घटनाओं को निजी पारिवारिक मामला बताकर रफ़ा-दफ़ा कर दिया जाता है।

my feudal lord

इस रिपोर्ट को देखकर तहमीना दुर्रानी की चर्चित पुस्तक माई फ़्यूडल लॉर्ड की याद आ गयी। अभी भी यहाँ के समाज में सामन्ती मानसिकता की पैठ बहुत गहराई तक बनी हुई है।

अपनी वार्षिक रिपोर्ट में आयोग ने लिखा है कि कम से कम 943 महिलाओं की हत्या इज्जत की रखवाली के नाम पर की गयी। इनमें से 93 अल्पवयस्क बच्चियाँ थीं। इस हत्या की शिकार महिलाओं में सात ईसाई और दो हिंदू संप्रदाय से संबंधित थीं।

आयोग द्वारा वर्ष 2010 में इज्जत के नाम पर की गयी हत्याओं की संख्या 791 बतायी गयी थी। वर्ष 2011 में जिन महिलाओं की हत्या हुई उनमें 595 के ऊपर अवैध संबंध रखने का आरोप था और 219 पर बिना अनुमति के विवाह कर लेने का दोष लगाया गया था। आयोग की रिपोर्ट के अनुसार कुछ पीड़िताओं की हत्या करने से पहले उनके साथ बलात्कार अथवा सामूहिक दुष्कर्म भी किया गया। अधिकांश महिलाओं की हत्या उनके भाइयों अथवा पति द्वारा की गयी थी।

आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि जिन 943 महिलाओं की हत्या हुई उनमें से मात्र 43 को मृत्यु से पहले चिकित्सा सहायता से बचाने की कोशिश की गयी थी। इसका मतलब यह है कि जिनसे जान बचाने की उम्मीद की जा सकती थी उन्होंने ही जान से मार देने का काम किया था।

अखबार कहता है कि इज्जत के नाम पर हत्या के (ज्ञात) मामलों में वृद्धि पाये जाने के बावजूद मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा संसद की इस बात के लिए प्रशंसा की गयी है कि उसने महिलाओं को उत्पीड़न से बचाने के लिए कानून पारित किया है। फिर भी मानवाधिकार समूहों का मानना है कि हिंसा, दुष्कर्म और भेदभाव के खिलाफ महिलाओं को सुनिश्चित न्याय दिलाने के लिए सरकार को अभी बहुत कुछ करना होगा।

पिछले साल बेल्जियम की एक अदालत ने एक पाकिस्तानी परिवार के चार सदस्यों को जेल भेज दिया था क्योंकि उन्होंने अपनी बेटी की हत्या इसलिए कर दी थी कि उसने परिवार द्वारा तय की गयी शादी करने से मना कर दिया था और उनकी मर्जी के खिलाफ़ एक बेल्जियाई व्यक्ति के साथ रहने लगी थी।

क्या हमारे पड़ोसी देश की यह  खबर हमारे बहुत आस-पास की नहीं लगती? इज्जत के नाम पर अपनी बेटी-बहू की हत्या क्या हमारे समाज के कथित इज्जतदार लोग नहीं करते? क्या हमारे बीच निरुपमा पाठक के हत्यारे मौजूद नहीं हैं? अलबत्ता हमारे देश का मीडिया इसकी रिपोर्ट बहुत बढ़-चढ़कर करता है। फेसबुक, ट्‌विटर और ब्‌लॉग पर बतकही भी शायद कुछ ज्यादा हो जाती है लेकिन समस्या के समाधान की राह कहाँ से निकलेगी यह अभी दिखायी नहीं दे रहा।

आइए इसपर सिर जोड़कर सोचें। सिर्फ़ एक खबर नहीं एक प्रश्न के रूप में इसपर विचार करें।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

नन्हे हाथों का कमाल…

स्कूली बच्चों की हस्तकला प्रदर्शनी ने मन मोह लिया
लखनऊ का सिटी मॉंटेसरी स्कूल अपनी सभी शाखाओं को मिलाकर भारत के किसी भी एक शहर में स्थित सबसे बड़ा स्कूल माना जाता है। विशाल स्कूल भवन और बड़े भव्य प्रांगण इस स्कूल की पहचान हैं। लेकिन इसकी सबसे बड़ी खूबी है इसके छात्रों की पाठ्येतर गतिविधियाँ। इसके संस्थापक प्रबन्धक जगदीश गांधी जी का सपना है पूरे विश्व को एकता के सूत्र में पिरो देना और विश्वशांति का संदेश चारो ओर फैलाने का अहर्निश प्रयास करना। इस स्कूल के बच्चों को ‘विश्व-नागरिक’ के रूप में विकसित करने के उद्देश्य से तमाम गतिविधियाँ चलती रहती हैं। प्रांगण में ‘जय जगत’ का अभिवादन इसी की निरन्तर याद दिलाता है। यहाँ बच्चों के व्यक्तित्व के बहुमुखी विकास के लिए क्लासरूम में पाठ्यक्रम के शिक्षण के अलावा हस्तकला, संगीत, नृत्य, गायन, रंगमंच, खेलकूद, सेमिनार, मेला, देशाटन इत्यादि के वृहद आयोजन किये जाते हैं और इसमें प्रायः सभी बच्चों का प्रतिभाग यथासम्भव सुनिश्चित किया जाता है। पारंपरिक शिक्षण के बजाय इसे कार्पोरेट पद्धति का शिक्षण बताया जाता है। इस सारे उपक्रम में अभिभावकों को न सिर्फ़ आर्थिक योगदान करना पड़ता है बल्कि उन्हें अपने पाल्य के उत्साहवर्द्धन के लिए बहुधा स्कूली कार्यक्रमों में उपस्थिति भी देनी होती है।

हाल ही में मेरे सुपुत्र ‘सत्यार्थ’ (५वर्ष) ने जब अपनी डायरी खोलकर मुझे दिखाया और बताया कि उसमें उनकी मैम द्वारा लिखा गया निम्नलिखित वाक्य उन्हें फर्राटे से याद कर लेना है तो मुझे कुछ खास समझ में नहीं आया :

Welcome to the funland…! We made jokers with ball and chart-paper and in fun we learned different shapes. We decorated it by paper folding, bindi pasting and wool sticking.

फिलहाल अपनी दीदी की मदद से उन्होंने यह याद भी कर लिया और सुबह स्कूल जाते समय पूरी रफ़्तार से मुझे सुना भी दिया। इस बीच हम अभिभावकों के नाम से एक आमंत्रण पत्र भी आ गया जिसमें नर्सरी और के.जी. के बच्चों की हस्तकला से निर्मित मॉडल्स की प्रदर्शनी देखने हेतु बुलाया गया था। मेरी जिज्ञासा इतनी बढ़ गयी थी कि मैं नियत समय से कुछ पहले ही स्कूल की ओर सपत्नीक पहुँच गया।

वहाँ करीब दस हालनुमा कमरों और बड़ी सी लॉबी को बेहतरीन कलाकृतियों से सजाया गया था। निश्चित रूप से चार-पाँच साल के बच्चों के हाथ से इतनी शानदार कलाकृतियाँ और वह भी इतनी बड़ी मात्रा में नहीं बनायी जा सकती। जाहिर है सबके अभिभावकों और शिक्षकों का श्रम भी इसमें लगा था। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में नन्हें-नन्हें बच्चों ने बहुत कुछ सीखा भी होगा। यह अनुमान और पुख्ता होता गया जब हमने एक-एक कक्ष में जाकर सभी मॉडल्स को नजदीक से देखा और उनका परिचय देने के लिए खड़े छोटे-छोटे बच्चों की बातें सुनीं। ये बातें पहले से सभी बच्चों को रटा दी गयी थीं जिनमें संबंधित मॉडल या कलाकृति का परिचय और उसको तैयार करने की संक्षिप्त विधि बतायी गयी थी। मेरे बेटे ने जो वाक्य रटा था उसका रहस्य अब समझ में आ गया।

यद्यपि सभी बच्चों ने तैयारी अच्छी कर रखी थी लेकिन कभी-कभी उन्हें यह समझ में नहीं आता था कि उन्हें अपनी रटी हुई बात कब दुहरानी है। उनके मार्गदर्शन के लिए उनकी शिक्षिकाएँ उपस्थित थी जो उन्हें बोलने का संकेत करती रहती थीं। बिल्कुल जैसे रंगमंच पर कभी-कभी नेपथ्य से संवादों की प्रॉम्प्टिंग (prompting) की जाती है। फिर भी सबकुछ बहुत रोचक और सुरुचिपूर्ण लगा।

Fun Land of Jokersसबसे पहले तो सत्यार्थ की कक्षा से ही शुरुआत हुई। जनाब अपने जोकर्स के साथ मुस्तैदी से बैठे थे। किसी के आ जाने पर खड़े  होकर स्वागत करने और उन जोकर्स के बारे में बताने का पूरा रिहर्सल कर चुके थे लेकिन अचानक मम्मी-डैडी को देखकर रटा हुआ पाठ बोलना भूल गये। उनकी मैम ने जब उन्हें प्रॉम्प्ट किया तो भी झिझकते रहे। शायद यह सोचकर कि जो बोलना है वह तो हमें सुबह से कई बार सुना ही चुके थे, फिर क्या दुहराना। उनकी मैम ही शायद अपने शिष्य के चुप रह जाने पर झेंप गयीं।

yuvrajहमने उनकी क्लास के युवराज मिश्रा और स्नेहा का मॉडल भी देखा जिन्होंने पूरी दक्षता से अपना वाक्य बोला। बड़ा मनोहारी था वहाँ का दृश्य। फिर तो हम अपना कैमरा लिए सभी कमरों में जाते रहे और मॉडल्स के साथ-साथ भगवान के बनाये अद्‍भुत मॉडल्स (बच्चों) को उनकी तैयारी के साथ देखते रहे।

sneha

सबकुछ इतना भव्य और सुरुचिपूर्ण था कि मन इस भाव से आह्लादित हो गया कि मेरे बच्चों को एक अच्छा सा माहौल उनके विद्यालय में मिल रहा है। बच्चों के भीतर छिपी प्रतिभा को उभारने,एक निश्चित स्वरूप देने और तराशने का कार्य यहाँ की शिक्षिकाओं द्वारा पूरे मनोयोग और उत्साह से किया जा रहा है। कुशल प्रबन्धन का बेजोड़ उदाहरण इस प्रांगण में देखा जा सकता था।

इस अभिनव प्रयास को हमारा सलाम।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

शिवचर्चा के बहाने एक सामाजिक ध्रुवीकरण…

इस बार महाशिवरात्रि की छुट्टी सोमवार के दिन हुई थी इसके पीछे रविवार और शनिवार की साप्ताहिक छुट्टी मिलाकर लगातार तीन दिन कार्यालय से अवकाश मिला। मैंने इसका सदुपयोग अपने गाँव घूमकर आने में किया। प्रायः पूरा गाँव सोमवार के दिन भोर में ही उठकर बगल के शिवमंदिर में ‘जल चढ़ाने’ के लिए चल पड़ा था। पूरे साल प्रायः निर्जन और धूल धूसरित रहने वाला पुराना शिवमंदिर इस अवसर पर देहात की भीड़ से आप्लावित हो जाता है। लाउडस्पीकर लगाकर भजन-कीर्तन होता है और ठेले-खोमचे वाले भी आ जुटते हैं। शंकर जी की अराधना के बहाने गाँव क्षेत्र के लोग एक दूसरे से मिलने और हाल-चाल जानने का काम भी निपटा लेते हैं। भक्तिमय माहौल के बीच छोटे-बड़े ऊँच-नीच का भेद भी मिटा हुआ दिखायी देता है। ऐसे लोग जिनकी दैनिक दिनचर्या में पूजा-पाठ का कोई विशेष स्थान नहीं है वे भी इस वार्षिक आयोजन में धर्म-कर्म का कोटा पूरा कर लेते हैं। शंकर जी ऐसे देवता हैं जो झटपट प्रसन्न हो जाते हैं। इन्हें (शिवलिंग को) एक लोटा जल से स्नान करा देना ही पर्याप्त है। चाहें तो इसके साथ सर्वसुलभ झाड़-झंखाड़ से लाकर भांग-धतूरा-बेलपत्र इत्यादि चढ़ा दें तो कहना ही क्या…! आशुतोष अवघड़दानी प्रसन्न होकर मनचाही इच्छा पूरी कर देंगे - इसी विश्वास के साथ सबलोग मंदिर से घर लौटते हैं।

कुँवारी लड़कियाँ इस जलाभिषेक से अपने लिए मनचाहा वर भी पा जाती हैं। इस विश्वास का नमूना गाँव में ही नहीं, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के महिला छात्रावास से निकलकर भारद्वाज आश्रम की ओर जाती तमाम पढ़ाकू लड़कियों की कतार में भी देखा है मैंने।

अपने गाँव-जवार के शिवभक्तों को तो मैंने बचपन से देखा है। ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र, चारों वर्णों को एक साथ एक ही मंदिर में जल चढ़ाते हुए। यह बात दीगर है कि इनकी तुलनात्मक संख्या बराबर नहीं होती बल्कि प्रायः इसी क्रम में क्रमशः घटती हुई होती। शिवरात्रि के मौके पर जुटने वाली भीड़ में सवर्ण, दलित और पिछड़े का विभाजन कभी मेरे दिमाग में आया ही नहीं था। इसबार भी गाँव में लगभग वैसा ही वातावरण देखने को मिला। लेकिन जब मैंने वापसी यात्रा हेतु गाँव से प्रस्थान किया तो रास्ते में एक ऐसा नजारा देखने को मिला कि मैं दंग रह गया।

कुशीनगर जिले में कप्तानगंज एक छोटा सा कस्बा है। इससे करीब बारह किलोमीटर पश्चिम परतावल भी एक छोटी सी बाजार है। इन दोनो को जोड़ने वाली टूटी-फूटी सड़क के दोनो ओर पसरा है शुद्ध देहात : उर्वर जमीन में लहलहाती फसलें, चकरोड और कच्ची-पक्की देहाती सड़कों से जुड़े घनी आबादी के गाँव और आधी-अधूरी सरकारी विकास योजनाओं की हकीकत बयान करती लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति। इन दिनों इस इलाके में गेहूँ और सरसो की फसल लगी हुई है। दूर-दूर तक खेत गहरे हरे रंग में या पीले रंग में पेंण्ट किये हुए दिखायी देते हैं। क्षेत्र में नहरों का जाल बिछा हुआ है। सिंचाई की सुविधा अच्छी होने से फसल का उत्पादन बहुत अच्छा हो रहा है। इधर कोई जमीन वर्ष में कभी खाली नहीं रहती। सालोसाल फसलें बोई और काटी जाती हैं।

मैं जब कप्तानगंज से परतावल की ओर बढ़ा तो इन्नरपुर के पास से गुजरने वाली बड़ी नहर के पास जमा भीड़ को देखकर ठिठक गया। हाल ही में गेंहूँ की सिंचाई बीत जाने के बाद नहर में पानी बन्द कर दिया गया था लेकिन थोड़ा बहुत पानी यत्र-तत्र अभी भी रुका हुआ था। इसी पानी में बड़ी संख्या में औरतों को नहाते देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। नहर की दोनो पटरियों पर भारी भीड़ जमा थी। औरतें और मर्द, बूढ़े और बच्चे अपनी-अपनी गठरी खोलकर फैलाए हुए थे। कुछ लोग अभी नहाने की तैयारी में थे। जो लोग नहा चुके थे वे अपनी गठरी से निकालकर कुछ चना-चबेना खा रहे थे। आसपास कुछ अस्थायी दुकाने भी जमा हो गयीं थीं जिनपर चाट-पकौड़ी, जलेबी, खुरमा, गट्टा, पेठा इत्यादि पारम्परिक खाद्य सामग्री बिक रही थी। यह स्पष्ट हो रहा था कि ये स्थानीय लोग नहीं हैं बल्कि काफी दूर से आये हुए तीर्थयात्री हैं। पतली सी सड़क के किनारे खड़े हुए वाहन और उनपर लदे सामान भी यही संकेत दे रहे थे। मेरे ड्राइवर ने गाड़ी रोकी नहीं बल्कि भीड़ के बीच से निकल जाने का प्रयास करने लगा।सड़क जाम२

करीब दो सौ मीटर आगे बढ़ने पर भीड़ का रेला बहुत घना हो गया था और सड़क पर आने-जाने वाले वाहन जाम में फँस गये थे। सामने से एक मोटरसाइकिल पर लदकर आ रहे तीन युवकों ने इशारे से बताया कि आगे बहुत भीड़ है और हमारी गाड़ी उसपार कम से कम दो-तीन घंटे तक निकल नहीं पाएगी। हम फँस चुके थे। पीछे दूसरी गाड़ियाँ आ चुकी थीं। वापस भी नहीं हो सकते थे। सड़क पतली थी और किनारे तीर्थयात्रियों को लाने वाली जीपों, ट्रैक्टर ट्रॉलियों, मोटरसाइकिलों इत्यादि से अटे पड़े थे। बीच-बीच में खोमचे, रेहड़ी, ठेले लगाने वालों ने भी घुसपैठ कर रखी थी। एक लाउडस्पीकर पर कोई व्यक्ति तमाम तरह की उद्घोषणाएँ कर रहा था जो स्पष्ट नहीं हो रही थीं। टीं-टीं की आवाज ज्यादा मुखर थी।

मेरा ब्लॉगर मन अब सक्रिय हो गया। मैंने अपना कैमरा निकाल लिया लेकिन गाड़ी से बाहर निकलने की गुंजाइश नहीं थी। खिड़की का शीशा उतारकर जहाँतक पहुँच बन सकी वहाँतक फोटो खींचता रहा। संयोग से जाम की समस्या के निपटारे के लिए एक-दो सिपाही आ गये थे जिनकी बेंत का असर चमत्कारिक ढंग से हुआ। बीच सड़क में गुत्थमगुत्था लोग अचानक किनारे भागने लगे। ट्रकों और बसों की कतार धीरे-धीरे रेंगने लगी। सड़क के किनारे जमा गढ्ढों का पानी मानव स्पर्श पाकर गंदला हो गया था। एक सिंचाई का नाला लोगों की प्राकृतिक जरूरतों के लिए आवश्यक पानी की आपूर्ति करते-करते मटियामेट होने की कगार पर था।शिवचर्चा

 

मैंने खिड़की से सिर निकालकर एक व्यक्ति से पूछा- भाई, यह भीड़ कैसी है? उसने मुझे दोगुने आश्चर्य से देखा और थोड़ी देर तक मुझे लज्जित करने के बाद बोला – आगे शिवचर्चा हो रही है। मैं शिवचर्चा की कोई काल्पनिक छवि इस स्थान पर नहीं बना सका। मैं इस रास्ते से कई बार गुजर चुका था लेकिन किसी सुप्रसिद्ध या कम प्रसिद्ध शिवमंदिर के यहाँ होने की जानकारी मुझे नहीं थी। मेरी गाड़ी भीड़ के बीच से जगह बनाती हुई थोड़ा आगे बढ़ी तो एक तम्बू दिखायी दिया जो एक खेत में खड़ा किया गया था। चारो ओर गेहूँ और सरसो के लहलहाते खेत थे। बीच में कोई हाल ही में खाली हुआ गन्ने का खेत रहा होगा जहाँ कोई गुरूजी प्रवचन करने वाले थे। शायद यही शिवचर्चा थी।

लाउस्पीकर पर आवाज अब साफ आ रही थी। कोई बता रहा था कि एक बैग मेले में लावारिस पड़ा हुआ मिला है। इसमें नगदी और जेवर रखे हैं। जिस किसी का हो वह आकर जितना रुपया है सही-सही बताकर ले जाय। मैं सोचने लगा कि यदि मेरा पर्स इस प्रकार खो जाय तो क्या मैं उसमें रखे रूपयों की सही मात्रा बता पाऊँगा। शायद नहीं। अलबत्ता उसमें रखे पैन कार्ड और ड्राइविंग लाइसेन्स मेरी मदद कर देंगे।

इस भीड़ में जो चेहरे शिवचर्चा में शामिल होने आये थे उन्हें देखकर मुझे एक अजीब उलझन होने लगी। ये तमाम चेहरे एक खास सामाजिक-आर्थिक वर्ग से सम्बंधित लग रहे थे। अत्यन्त गरीब और सामाजिक रूप से पिछड़े हुए। हमारे  समाज की अग्रिम पंक्ति में खड़ा कोई चेहरा इस भीड़ में दिखायी नहीं दिया। यह एक अलग तरह का सामाजिक ध्रुवीकरण आकार लेता दिखायी दे रहा था। धार्मिक आस्था के ऐसे  प्रदर्शन को देखना एक विलक्षण अनुभव था मेरे लिए। आप भी देखिए - इन तस्वीरों में क्या वही नजर नहीं आता जो मुझे महसूस हुआ?

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)