आज के अखबार में ये विचलित करने वाले आंकड़े देखने को मिले- भारत में गरीब घरों के वे बच्चे जो लगातार चार साल स्कूल जाते रहे उनमें से 90 प्रतिशत बच्चे साक्षर ही नहीं हो सके। यही नहीं पाँच से छः साल तक स्कूल जाने के बावजूद 30 प्रतिशत बच्चों को अक्षर ज्ञान नहीं हो सका। ग्रामीण क्षेत्रों में कक्षा-पाँच में पढ़ने वाले महाराष्ट्र के 44% विद्यार्थियों और तमिलनाडु के 53% विद्यार्थियों को दो अंको का जोड़-घटाना नहीं आता। बाकी राज्यों में भी हालत खराब ही है। ग्रामीण भारत की गरीब लड़कियों को शतप्रतिशत साक्षर बनाने में अभी 66 साल और लगेंगे।
ये शर्मनाक आंकड़े काल्पनिक नहीं हैं और न ही किसी पार्टी विशेष को लक्ष्य करके तैयार किये गये हैं। भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में संचालित सर्व शिक्षा अभियान को अरबो रूपये की आर्थिक मदद देने वाली संस्था यूनेस्को की 11वीं ग्लोबल मॉनीटरिंग रिपोर्ट में ये आंकड़े बताये गये हैं। स्वतंत्र एजेन्सियों द्वारा किये गये सर्वेक्षण पर आधारित ये आंकड़े हमारी प्रशासनिक असफलता और शिक्षा के प्रति लापरवाह दृष्टिकोण को उजागर करते हैं।
यह रिपोर्ट बताती है कि सर्व शिक्षा अभियान के जो लक्ष्य तय किये गये थे उनमें से अधिकांश 2015 तक पूरे नहीं किये जा सकेंगे। यह भी कि दक्षिण-पश्चिम एशिया के देशों में प्राथमिक, जूनियर हाईस्कूल व हाईस्कूल स्तर पर गरीब और वंचित वर्ग के शत प्रतिशत बच्चों को साक्षर और शिक्षित करने की रफ़्तार बहुत ज्यादा धीमी है। भारत में आर्थिक रूप से संपन्न घरों की लड़कियाँ तो शत प्रतिशत साक्षर हो गयी हैं लेकिन गरीब घरों की लड़कियों को शत प्रतिशत साक्षर करने का लक्ष्य सन् 2080 से पहले पूरा होता नहीं दिखता।
इस रिपोर्ट में यह विश्लेषण भी किया गया है कि समाज के हाशिये पर रहने वाले बच्चों को अच्छी गुणवत्ता की शिक्षा देने के लिए सरकारे पर्याप्त खर्च नहीं कर पा रही हैं। एक बच्चे पर खर्च की जाने वाली औसत राशि की तुलना उसे अच्छी शिक्षा देने के लिए आवश्यक राशि से की गयी तो स्थिति बहुत खराब पायी गयी। भारत के आंकड़ों के अनुसार अपेक्षाकृत धनी राज्य केरल में प्रति बालक 685 डालर खर्च किये गये जबकि बिहार में प्रति बालक मात्र 100 डालर की ही व्यवस्था की जा सकी।
इस रिपोर्ट के मुताबिक सभी बच्चों को स्कूल तक पहुँचा देने के लक्ष्य को हासिल करने में भारत अग्रणी रहा है लेकिन स्कूल में उन्हें प्राथमिक स्तर की शिक्षा वास्तव में मिल भी जाय इसकी ओर जैसे कोई ध्यान ही नहीं गया। पूरी दुनिया के करीब 25 करोड़ बच्चे स्कूल जाने के बावजूद निरक्षर हैं और इनमें से एक तिहाई दक्षिण-पश्चिम एशिया के देशों में हैं। इस बेहद निराशाजनक स्थिति में भारत प्रमुख रूप से सम्मिलित है।
शैक्षिक स्तर में प्रगति अत्यन्त धीमी है, खासकर वंचित वर्ग के बालको में। गणित में तो उनकी हालत बहुत ही खराब है। ग्रामीण क्षेत्रों के अध्ययन में यह बात स्पष्त रूप से सामने आयी कि आर्थिक रूप से संपन्न राज्यों में शिक्षा का स्तर गरीब राज्यों की अपेक्षा बहुत बेहतर है। लेकिन महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे संपन्न राज्यों में भी गरीब घरों की लड़कियाँ शैक्षिक रूप से बहुत पिछड़ी हुई हैं।
बच्चों द्वारा कक्षा-पाँच में पहुँचने से पहले ही स्कूल छोड़ देने का प्रतिशत सीधे तौर पर गरीबी से जुड़ा है। गरीब राज्यों से और गरीब परिवारों के बच्चे स्कूल में टिके रहना ज्यादा कठिन पाते हैं। उत्तर प्रदेश में ऐसे ड्रॉप-ऑउट्स की संख्या 70% और मध्य प्रदेश में 85% पायी गयी।
प्रथमिक स्तर पर शिक्षा के इस संकट का सबसे बड़ा कारण शिक्षकों पर कुशल प्रशासन का अभाव बताया गया है। स्कूल से गैरहाजिर रहने वाले अध्यापकों का प्रतिशत संपन्न राज्यों में 15% (महाराष्ट्र) और 17% (गुजरात) से लेकर विपन्न राज्यों में 38% (बिहार) और 42% (झारखंड) तक है।
इन आंकड़ों को देखकर यह सुनिश्चित जान पड़ता है कि दुनिया चाहे जितनी कोशिश कर ले, हम भारत के लोग विकसित होने को कतई तैयार नहीं हैं। हमें जो भी अवसर मिलेगा हम उसे अपनी मक्कारी, जाहिली और क्षुद्र स्वार्थों की भ्रष्ट बलि-बेदी पर चढ़ा देंगे और झूठी आत्मप्रशंसा के नारे गढ़कर जश्न मनाते रहेंगे। दुनिया वालों हमारा क्या कल्लोगे...?
(सत्यार्थमित्र)
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