अभी अभी बच्चों को स्कूल छोड़ कर लौटा हूँ। बेटी वागीशा (कक्षा-५) के साथ आज से बेटे सत्यार्थ भी स्कूल जाने लगे हैं। वर्धा आकर २५ जून को स्कूल में नाम लिखाने के बाद से ही उन्हें पाँच जुलाई का बेसब्री से इन्तजार था। इन दस दिनों में रोज ही स्कूल की तैयारी होती। नया ड्रेस, टिफ़िन, वाटर बॉटल, स्कूल बैग, नयी किताबें, कापियाँ, जूते, मोजे, बो-टाई इत्यादि खरीदे जाने के लिए खुद ही बाजार गये। अपनी पसन्द से सारा सामान लिया। पूरी किट चढ़ाकर कई बार ड्रेस रिहर्सल कर डाला। दीदी को स्कूल के लिए ऑटो में बैठते हसरत भरी निगाहों से देखकर बार-बार “दीदी… बॉय… दीदी… बॉय…” करते रहे। ऑटो ओझल जाने के बाद पूछते, “डैडी पाँच जुलाई कब आएगी?”
आखिर पाँच जुलाई आ ही गयी। जब मैं सुबह टहल कर साढ़े छः बजे लौटा तो जनाब पूरी तरह तैयार मिले। चहकते हुए पूछा, “ डैडी मैं कैसा लग रहा हूँ?”
“बहुत स्मार्ट लग रहे हो बेटा…” मैने प्रत्याशित उत्तर दिया। फिर हमेशा की तरह दायाँ गाल मेरी ओर पप्पी के लिए प्रस्तुत हो गया…।
“सुनते हैं जी, आज ऑटो वाले को मना कर दीजिएगा। पहला दिन है, हम दोनो बाबू को छोड़ने चलेंगे…”
“हाँ भाई, मैं बाहर बैठकर उसी का इन्तजार कर रहा हूँ” अपने तय समय पर राजू पाटिल (ऑटोवाला) नहीं आया। थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के बाद मैने फोन लगाकर पूछा कि उसे वागीशा ने आज न आने के लिए तो नहीं कहा था। उसने बताया कि नहीं, आज तो वह भारत बन्द के कारण नहीं आ रहा है। आज सम्भावित तोड़-फोड़ और दंगे फसाद के डर से प्रायः सभी स्कूल कॉलेज अघोषित छुट्टी मना रहे हैं। उसने हिदायत देते हुए कहा, “तुम भी आज कहीं मत निकलना सर जी”
फोन पर मेरी बात सत्यार्थ जी सुन रहे थे और उन्हें यह बिना बताये पता चल गया कि आज स्कूल नहीं जाना है। उनका चेहरा ऐसे लटक गया जैसे नेता जी विश्वास मत हार गये हों। फूल कर कुप्पा हो गये। बोले कि हम आज दिनभर यही ड्रेस पहने रहेंगे। मैने समझाया कि ऐसे तो ड्रेस गन्दी हो जाएगी। फिर कल क्या पहन कर स्कूल जाएंगे? बात उनकी समझ में तो आ गयी लेकिन चेहरे पर मायूसी अभी भी डेरा डाले बैठी थी। मैने जब यह वादा किया कि शाम को गांधी हिल पर घुमाने ले चलेंगे तब महाशय का मूड कुछ ठीक हो सका। उनका पूरा दिन भारत बन्द को कोसते बीता। हम भी गिरिजेश भैया की पोस्ट पढ़ने के बाद उसी मूड में थे। शाम को गांधी हिल्स पर घुमाने का कार्यक्रम हुआ। दोनो बच्चे सूखे ठिगने पहाड़ की चोटी पर बने पार्क में उछलते कूदते रहे। फिर सुबह की प्रतीक्षा में ही रात बेचैनी से गुजरी।
आज छः जुलाई की सुबह सबकुछ ठीक-ठाक रहा। पूरे उत्साह और आनन्द से लबरेज मास्टर सत्यार्थ तैयार हुए। पूरी किट में फिट होकर अपनी मम्मी की अंगुली थाम चल पड़े स्कूल की ओर। मन में खुशी और चेहरे पर मन्द-मन्द मुस्कान हमें भी बहुत भा रही थी। स्कूल के गेट पर पहुँचकर खुशी दोगुनी हो गयी। तमाम बच्चे अपनी-अपनी सवारी से उतरकर भीतर जा रहे थे। नर्सरी के बच्चों का पहला दिन था इसलिए सबके माता-पिता या अभिभावक छोड़ने आए थे।
कन्धे में बस्ता लटकाए चलते हुए थोड़ी कठिनाई हुई। लेकिन माता ने सहयोग में बस्ता हाथ में लेना चाहा तो मना कर दिया। प्रसन्न और शान्त चित्त होकर अपनी कक्षा में पहुँचे। हम भी साथ-साथ थे।
वहाँ पहुँचकर जो नजारा दिखा उसने हमें डरा दिया। अनेक बच्चे जोर-जोर से रो रहे थे। हमने सिस्टर के हाथ में इन्हें सौंप दिया। इन्हें एक कुर्सी पर बिठा दिया गया। चेहरे पर मुस्कान बनाये रखने की कोशिश कमजोर होती जा रही थी। फिर भी मम्मी डैडी के सामने हिम्मत दिखाते रहे। मैने इशारे से इनकी मम्मी को बाहर निकलने को कहा। पूरे हाल में करुण क्रन्दन का शोर व्याप्त था। किसी की बात सुनायी नहीं दे रही थी।
इनके ठीक बगल में एक बच्चा अपने अभिभावक को पकड़कर खींच रहा था। जोर जोर से उसे चिल्लाते देखकर सत्यार्थ की हिम्मत भी जवाब दे गयी। इनका सुबकना शुरू हुआ तो हम भागकर बाहर आ गये। सिस्टर ने सबको बाहर निकलने का अनुरोध किया। कुछ माताएं भी टेसुए बहा रहीं थीं। खिड़की से झांककर देखा तो जनाब मुँह ढ़ककर सुबक रहे थे। मैने तेज कदमों से बाहर आ जाने का प्रयास किया। इनकी मम्मी को भी खींचकर साथ ले आया।
बाहर कुछ बच्चे अकेले ही कक्षा की ओर चले जा रहे थे। शायद के.जी. के रहे हों। उनकी पीठ पर बैग और हाथ में टिफिन व बॉतल की टोकरी देककर तुरत ख़याल आया कि बाबू के बैग में ही टिफ़िन रखने और गले में बॉटल लटकाने से उसे असुविधा हो रही थी। हम भी ऐसी टोकरी खरीद कर लाएंगे यह हमने मन ही मन तय कर डाला।
वापस आकर गाड़ी में बैठे तो ये बोल पड़ीं-“ऐ जी…”
इसी समय मैने भी कुछ कहने को मुँह खोला, “सुनती हो…”
एक ही साथ हम दोनो कुछ कहना चाहते थे। फिर दोनो रुक गये। मैने पहला अवसर उन्हें दिया। बोली, “मेरे मन में…”
“…कुछ कचोट रहा है न?” मैने वाक्य पूरा किया।
“हाँ, ….आप भी यही सोच रहे है क्या?”
मैं कुछ कह नहीं सका। बस चुपचाप गाड़ी चलाता हुआ घर वापस आ गया हूँ।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)