बहुत पुरानी बात है। गाँव में एक विशाल आम का पेड़ था। बहुत घना और छायादार जो गर्मियों में फल से लदा रहता था। उसमें फलने वाले छोटे-छोटे देसी (बिज्जू) आम जो पकने पर पूरी तरह पीले हो जाते थे बहुत मीठे और स्वादिष्ट थे। निरापद इतने कि चाहे जितना खा लो नुकसान नहीं करते थे।
एक छोटा बच्चा उस पेड़ को बहुत पसंद करता था। वह रोज आकर उसके नीचे खेलता, उसके ऊपर तक चढ़ जाता, आम तोड़कर खाता और उसकी ठंडी छाँव में सोकर आराम करता। उसे पेड़ से बहुत प्यार था और पेड़ को भी उससे बहुत लगाव हो गया था।
कुछ साल बीत गये। बच्चा अब कुछ बड़ा हो गया था। अब वह पेड़ के नीचे खेलने नहीं आता था। पेड़ भी उसके दूर हो जाने से उदास रहता था। एक दिन वह लड़का अचानक पेड़ के पास आया और बहुत बुझा-बुझा लग रहा था।
पेड़ ने उसे देखा तो बहुत खुश हुआ, चहककर बोला- “आओ-आओ, मेरे साथ खेलो।”
बच्चे ने जवाब दिया - “मैं अब छोटा बच्चा नहीं रहा जो पेड़ के आस-पास खेलता रहूँ। अब मुझे खेलने के लिए अच्छे खिलौने चाहिए। उसके लिए रूपयों की जरूरत पड़ती है और मेरे पास रूपये हैं ही नहीं...!”
पेड़ सोच में पड़ गया, फिर बोला, “ओह! लेकिन मेरे पास तो रूपये हैं नहीं जो तुम्हें दे सकूँ। अलबत्ता तुम मेरे सारे आम तोड़ सकते हो और उन्हें बाजार में बेच सकते हो। इससे तुम्हें रूपये मिल जाएंगे।”
यह सुनकर बच्चा खुशी से उछल पड़ा। उसने फौरन पेड़ के सारे आम तोड़ डाले और उन्हें लेकर बाजार की ओर चल पड़ा। उसके बाद लड़का फिर नहीं लौटा। पेड़ फिर से उदास रहने लगा।
कुछ साल बाद वही लड़का जो अब बड़ा होकर एक युवा आदमी बन चुका था, पेड़ के पास लौटकर आया। उसे देखकर पेड़ बहुत खुश हुआ। बोला- “आओ-आओ, मेरे साथ जी भरकर खेलो।”
“मेरे पास अब खेलने का समय नहीं है। मुझे अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए काम करना पड़ता है। बहुत व्यस्त रहता हूँ। अभी हमें रहने के लिए एक घर बनाना है। क्या तुम इसमें हमारी कोई मदद कर सकते हो?”
पेड़ फिर सोच में पड़ गया और बोला, “ओह! लेकिन मेरे पास तो रूपये हैं नहीं जो तुम्हें दे सकूँ। अलबत्ता तुम मेरी शाखाओं को काटकर अपने घर के काम में ला सकते हो।”
युवक के मन की मुराद पूरी हो गयी। उसने बिना देर किये पेड़ की मोटी-मोटी शाखाओं को काट डाला और उन्हें ट्रक में लादकर ले गया। जाते समय युवक बहुत प्रसन्न था और पेड़ भी उसकी खुशी देखकर मुस्करा रहा था। युवक उसके बाद फिर कई साल तक नहीं लौटा। पेड़ अकेला उदास रहते हुए उसकी बाट जोहता रहता।
एक दिन भीषण गर्मी के दिन वह आदमी अचानक दिखायी पड़ा। पेड़ इतने सालों बाद उसे देखकर बहुत प्रसन्न हुआ।
“आओ-आओ, मेरे साथ खेलो।” पेड़ ने मुस्कराकर आमंत्रण दिया।
“नहीं-नहीं, अब मेरी वो उम्र नहीं रही। अब तो मैं देश भर की सैर करना चाहता हूँ। दुनिया देखना चाहता हूँ। छुट्टियों में घूमना चाहता हूँ। हाँ, इसके लिए मुझे एक नाव की जरूरत है। क्या तुम मेरी कोई सहायता कर सकते हो?” उस आदमी ने बेहद अनौपचारिक ढंग से कहा।
“हाँ-हाँ, क्यों नहीं। नाव बनाने के लिए तुम मेरे तने का प्रयोग कर सकते हो। इसमें इतनी लकड़ी निकल आएगी कि तुम्हारी नाव तैयार हो जाय। इससे तुम दूर-दूर तक घूमना और खुश रहना।” पेड़ ने उत्साह पूर्वक कहा।
इतना सुनकर आदमी ने मजदूर बुलाये और पेड़ का मोटा तना काटकर ले गया। उसने बड़ी सी नाव बनवायी और सैर पर निकल गया। कई साल तक उसका पता नहीं चला। कट चुके तने के बाद बेहाल पेड़ वहीं पड़ा रहा।
अन्त में कई साल बाद वह आदमी फिर एक दिन वहाँ लौटा। थका-हारा उदास चेहरा लेकर।
“ओह! मेरे बच्चे, लेकिन अब तो मेरे पास कुछ भी नहीं बचा है जो तुम्हें दे सकूँ। अब तो आम भी नहीं हैं।” पेड़ उसे देखते ही दुखी होकर बोला।
“कोई बात नहीं।” उस प्रौढ़ आदमी न कहा, “वैसे भी अब आम खाने लायक मैं नहीं रह गया हूँ। दाँत भी टूट चुके हैं और मधुमेह का रोगी अलग से हो गया हूँ।”
पेड़ बोला, “मेरा तो तना भी नहीं बच रहा और न ही शाखाएँ जिनपर तुम चढ़ सको।”
“वे होतीं तब भी मैं कैसे चढ़ पाता? अब बूढ़ा जो हो गया हूँ।” आदमी ने कैफ़ियत दी।
पेड़ रो रहा था। बोला- “असल में अब तुम्हें देने को मेरे पास कुछ भी नहीं बचा है। क्या करूँ अब? अब तो केवल ये जड़ें बची हैं; ये भी धीरे-धीरे सूख रही हैं।”
“मुझे आपसे अब कुछ चाहिए भी नहीं। बस आराम करने के लिए एक शान्त स्थान चाहिए। मैं भी इतने सालों की भाग-दौड़ में थक गया हूँ।” आदमी ने जवाब दिया।
“तब तो बहुत अच्छा है, पुराने पेड़ की मोटी जड़ टेक लेकर आराम करने के लिए बहुत सुविधाजनक होती है। आओ, मेरे पास बैठो और आराम करो।” आदमी वहाँ टेक लेकर बैठा तो बूढ़ा पेड़ प्रसन्न होकर मुस्कराने लगा। खुशी के आँसू छलक पड़े।
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यह कहानी यहीं खत्म होती है। लेकिन हमारे समाज में यह कहानी रोज दुहरायी जाती है। यह कहानी हम सबकी है। यह पेड़ हमारे माता-पिता ही तो हैं। बचपन में हमें उनकी गोद में खेलना अच्छा लगता है। जब हम बड़े हो जाते हैं तो उन्हें छोड़कर चले जाते हैं। जब हमें उनसे कुछ चाहिए होता है तभी लौटते हैं; या जब कोई संकट आता है। इसके बावजूद माता-पिता हमारे लिए, हमारी खुशियों के लिए हमेशा हाजिर रहते हैं; अपना सबकुछ सौंप देने को तैयार ताकि हम खुश रह सकें।
आप सोच सकते हैं कि इस कहानी में उस बच्चे ने उस पेड़ के साथ बहुत निर्दयता की; लेकिन हम भी शायद अपने माता-पिता के साथ कुछ ऐसा ही करते हैं। हम यह मानकर चलते हैं कि यह तो उनका काम ही है। वे हमारे लिए जो भी करते हैं उसका सम्मान करना, उसका महत्व समझना और उसे अपने व्यवहार से व्यक्त करना हम भूल जाते हैं। जब इसकी याद आती है तबतक बहुत देर हो चुकी होती है।
जिनके माता-पिता साथ हैं उन्हें इस अनमोल सौभाग्य के लिए ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए और श्रद्धा पूर्वक सेवा से उनको तमाम खुशियाँ देनी चाहिए। ऐसा न हो कि हमें उनका महत्व तब पता चले है जब वे हमें छोड़कर चले जाएँ।
(अनूदित)
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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