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शनिवार, 30 सितंबर 2017

आज़मगढ़ के चौक पर

ऑफिस से पाँच बजे फुर्सत मिल गयी तो मन हुआ कि शहर में घूमा जाये। सुबह दैनिक जागरण के स्थानीय पृष्ठ पर खबर थी कि पूरा शहर दुर्गामय हो गया है। श्रद्धालु मंदिरों में उमड़ रहे हैं। चौक स्थित प्राचीन दक्षिणमुखी दुर्गा मंदिर में सबसे ज्यादा भक्त दर्शन के लिए आ रहे हैं। आजमगढ़ का मुख्य बाजार चौक नाम से जाना जाता है।
मैंने ड्राइवर को बुलाकर चौक चलने की योजना बतायी। सुनते ही वो चौक पड़ा। मुझे लगा ऑफिस का समय पूरा होते ही वह अपने घर की राह लेना चाहता था। ऐसे में मुझे उसकी जो परेशानी समझ मे आयी वह पूछने पर गलत निकली। उसने कहा - साहब, चौक में कैसे जा पाएंगे, वहाँ तो पैदल चलना मुश्किल है। ओहो, ये बात है! तब तुम घर जाओ - मेरे इतना कहते ही वह चौकड़ी भरता चला गया।
मुझे तो अब नवरात्र में देवी दर्शन की इच्छा पूरी करनी ही थी। पहली बार तो आजमगढ़ की सड़कों पर घूमने का भी मन बना था। मैंने अपने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सर गंगानाथ झा हॉस्टल के सह-अंतेवासी और स्थानीय मित्र देवदत्त पांडेय को फोन मिलाकर अपनी इच्छा जतायी। वे सहर्ष तैयार हो गये और थोड़ी देर बाद अपनी मोटरसाइकिल से हाज़िर भी हो गये। मैंने कहा कि इस नवरात्र के शुभ मौके पर देवी जी की जितनी किरपा बटोर ली जाय उतना ही अच्छा हो। जीन्स, टी-शर्ट और हवाई चप्पल में हम फर्राटा भरते सबसे पहले सबसे निकट के मंदिर में गये।
मंदिर के गेट पर बाइक खड़ी कर हम अंदर गये तो आरती चल रही थी। धूप, अगरबत्ती और कर्पूर से उठती विशिष्ट महक और धुँए के बीच दर्जनों नर-नारी जय अम्बे गौरी का सस्वर गायन करते हुए झूम रहे थे। छत से लटकते विशाल घंटों के लोलक को पकड़कर आगे-पीछे टकराते हुए टंकार की ध्वनि निकालती स्त्रियां और दूसरे भक्त मां की श्रद्धा और भक्ति में लीन थे। बाकी दर्शनार्थियों के हाथ प्रणाम की मुद्रा में जुड़े हुए अथवा ताली बजाते हुए व्यस्त थे। आरती समाप्त होने के बाद मूर्ति के सबसे पास खड़े दो पुजारी नुमा युवकों ने कोई और अस्फुट मंत्र वाचन प्रारंभ कर दिया। उनमें से एक जोर जोर से यंत्रवत घंटा बजाता जा रहा था। थोड़ी देर प्रतीक्षा के बाद भी भक्तगण टस से मस नहीं हुए तो हम दोनो ने उनके बीच से जगह बनाया और हाथ बढाकर माँ की वेदी को स्पर्श किया और अपनी श्रद्धा भेंट कर बाहर निकल आये। दुर्गा माँ के बायीं ओर सांई बाबा का मंदिर भी था और दायीं ओर क्रमशः शिवलिंग और हनुमान जी के मंदिर भी थे। हमने बारी-बारी से उन सबके सामने जाकर दर्शन किये और शीश नवाये। मंदिर के बाहर प्रसाद की दुकानों और भीख मांगते बच्चों और औरतों को नजरअंदाज करके हमने एक विकलांग भिखारी को कुछ सिक्के थमाये और चौक के मंदिर के लिए निकल पड़े।
चौक की सड़क ठेले-खोमचे और पटरी की दुकानों के अतिक्रमण और दुपहिया वाहनों की बेतरतीब पार्किंग के कारण बेहद संकरी हो गयी थी। आवागमन के लिए जो सड़क बची हुई थी उसपर पैदल, साइकिल, रिक्शा, और बाइक वाले रेंग-रेंगकर चल रहे थे। निश्चित ही वहाँ किसी चार पहिए वाले का निबाह नहीं था। डीडी ने भी एक पान वाले के सामने बाइक लगा दी और हम सड़क पार करके सामने स्थित मंदिर के छोटे से प्रांगण में प्रवेश कर गये। यहाँ आरती समाप्त हो चुकी थी और उसमें भाग लेने वाले भक्त लौट चुके थे। दुर्गा जी की दक्षिणमुखी प्रतिमा पूर्ण सृंगार में चमक रही थी। उनके पैर फूल-मालाओं और दूसरी चढ़ावे की सामग्रियों से ढंक चुके थे। प्रतिमा और दर्शनार्थियों के बीच में लोहे की एक रेलिंग थी जिसके उस पार दो पुजारिन स्त्रियाँ दायें-बायें बैठी हुई थीं। वे दोनो दर्शनार्थी भक्तों से चढ़ावे की सामग्री लेकर उसे प्रतिमा से स्पर्श कराती और रुपये-पैसे व फूल-माला यथास्थान चढ़ाकर प्रसाद वापस कर देतीं। ज्यादा भीड़ नहीं थी इसलिए हमने आराम से दर्शन किया।
पुजारिन ने हमारे चढ़ावे के नोट को उलट-पलटकर तीन बार देखा, फिर मेरी ओर भी नजर उठाकर देखा तब सन्तुष्ट होकर उसे गल्ले में मिला दिया। दरअसल प्रसाद वाले ने जब मुझे यह नोट दिया था तो मुझे भी हिचक हुई थी, इसीलिए मैंने उस नोट को आगे ले जाना ठीक नहीं समझा और उसका तत्काल उपयोग कर दिया था। मैंने रेलिंग के नीचे रखे पत्थर पर नारियल फोड़ा, घुटनों पर बैठकर वेदिका पर माथा टिकाया और सप्तश्लोकी दुर्गा व दुर्गाष्टोत्तरशतनाम का पाठ किया। हम जब प्रसाद लेकर मुड़े तो देखा यहाँ भी बजरंगबली बिराज रहे हैं। मंगलवार था इसलिए वहां भी भक्तों की भीड़ ठीकठाक थी।
जब हम मंदिर के गेट से सडकपर निकल रहे थे तो भिखारियों के झुंड ने घेर लिया था। अपने मित्र की देखादेखी मैंने भी इसकी तैयारी पहले से कर ली थी। अर्थात प्रसाद वाले से नोट के बदले कुछ सिक्के ले लिए थे। फिर भी सिक्कों की तुलना में उनकी संख्या इतनी अधिक थी और उनमें प्रतिद्वंद्विता इतनी आक्रामक थी कि मुझे सबसे दीन-हीन और विकलांग का चुनाव यहाँ भी करना पड़ा।
देवी दर्शन के बाद अब बारी बाजार घूमने की थी। डीडी ने कुछ खाने को पूछा। मैंने कहा अगर यहाँ कुछ स्पेशल मिलता हो तो खिलाओ। फिर हम सड़क किनारे लगी एक चाट की पुरानी दुकान पर पहुँचे। लकड़ी के ठेले पर सजी इस दुकान के नीचे नाली थी जो बह नहीं रही थी। ठेले पर अनेक छोटे-बड़े पात्र थे जिनमें चटपटी मसालेदार खाद्य सामग्री रखी होगी। चाट बनाने वाले महाशय भी वैसे ही स्थूलकाय थे जैसे उनका ठेला। वे ठेले के बीच में पाल्थी मारकर बैठे हुए थे और अपने सामने चूल्हे पर रखे भारी भरकम तवे पर चाट की सामग्री एक लोहे की खुरपी नुमा यंत्र से चला चलाकर तैयार कर रहे थी। अपने दायें बायें ऊपर नीचे रखे बर्तनों से अलग अलग स्वाद के मसाले, चटनियाँ और रस-गंध आदि निकालकर गरम तवे पर रखी मटर व आलू के साथ भूनते और दोने में रखकर पेश करते जाते।
हम थोड़ी देर से पहुंचे थे, या आज मेला घूमने वाले ज्यादा आ गये थे इसलिए हमें गोलगप्पे नहीं मिल सके। पूरा स्टॉक खत्म हो गया था। हमने मटर वाली चाट ली, केवल नमकीन वाली। दही और मीठी चटनी से परहेज करते हुए। पता चला कि इस नामचीन दुकान पर लहसुन-प्याज का प्रयोग नहीं होता है और तेल के बजाय शुद्ध देसी घी में ही सबकुछ बनता है।

हमने वहाँ से आगे बढ़कर एक दुकानपर रस-मलाई का आनंद भी लिया क्योंकि बकौल डीडी यह यहाँ की शानदार मिठाई की दुकान थी। सबसे अच्छी और प्रतिष्ठित। हमने यहां से नमकीन खुरमे का एक पैकेट भी लिया। अबतक काफी देर हो चुकी थी। कमरे पर लौटे तो थोड़ी देर में हॉस्टल के ही दूसरे मित्र अनूप भी सपरिवार आ गये। पति-पत्नी दोनो अध्यापक हैं जिनकी दो बच्चे थोड़े शर्मीले लेकिन बहुत प्यारे हैं। मेरे पास उन बच्चों की आवभगत के लिए कुछ था ही नहीं। बस चाय के साथ उन नमकीन खुरमों ने इज्ज़त रख ली। बतकही में काफी समय निकल गया। चपरासी ने जब खाने की याद दिलायी तो हम सबने एक दूसरे से विदा ली। इसप्रकार आजमगढ़ में एक अच्छे दिन का अंत हुआ।