जबसे ब्लॉगरी शुरू हुई है, ज़िन्दगी बदल गयी है। कम्प्यूटर आने के बाद इसपर लिखना पढ़ना शुरू करते वक्त हर्षजी ने इसकी सम्भावना से आगाह तो किया था, लेकिन मुझे अपने ऊपर पूरा भरोसा था कि मैं अपने प्यारे से परिवार के हक़ में कोई कटौती नहीं होने दूंगा। जब खतरे ने पहली बार दरवाजा खटखटाया तो मैने अपनी मनःस्थिति यहाँ बयान की थी। संतुलन की कोशिश चलती रही। लेकिन, जाने कैसे और क्यूँ, चढ़ता रहा ब्लॉगरी का नशा भी। इसकी मदहोशी ने कब हमें पूरी गिरफ़्त में ले लिया, यह तो हम जान ही नहीं पाते अगर मेरी साँसों की सहचरी, …वही मेरी धर्मपत्नी, ने यह चिठ्ठा न लिखा होता। लीजिए, आप भी पढ़कर चेक कीजिए, कहीं आपने भी इस बेरहम ब्लॉगिंग की बुरी संगत में अपना रूटीन खराब तो नहीं कर लिया है… हर एक दिन वही रुटीन...रोज सुबह पाँच बजे उठना… उठते ही कम्प्यूटर की सामने वाली कुर्सी पर बैठ जाना..सीपीयू ऑन होता है.. अगड़म-बगड़म… चोखेरबाली… ज्ञानजी का ब्लॉग… और भी बहुत सारे ब्लॉग…करीब एक घन्टे का प्रोग्राम। आवाज आती है, “जी, चाय बन गई है”
“हाँ, ब्रश कर तो रहा हूँ” फ़िर कुर्सी पर।
“चाय आ गई जी…”
“बस हो गया…”
चाय सामने मेज पर… थोड़ी देर बाद पीछे से एक बार फ़िर “चाय ठंडी हो रही है जी”
“…हाँ सुन लिया, …अभी बहुत गरम है… पी लुंगा।”
थोड़ी देर बाद आवाज आती है- “आज मैने चाय पिया है क्या जी?” “ज़रा मुझे भी एक गिलास पानी या एक कप चाय मिल जाती...”
“…अरे, अभी तो पिये थे। फ़िर बना दूं?”
“…ओ हो, मै तो भूल ही गया था …जरा फ़िर एक कप बना दो।”
कम्प्यूटर पर ब्लॉगिंग जारी है …धकाधक …एक ब्लॉग से दूसरे ब्लॉग पर कमेण्ट जारी है...
“साढ़े-नौ बज गया जी, स्नान कर लीजिए।”
“…जाता हूं यार, बहुत चिल्लाती हो।”
यह कहने-सुनने में भी पाँच से दस मिनट लग ही जाते हैं… बाथरूम से झाँकते हुए, “…आज तौलिया बाहर ही छूट गया”
…जैसे रोज लेके ही जाते हैं!
“…अच्छा तो भोजन जल्दी निकालो, देर हो रही है, …वर्ना बिना खाए जाना पड़ेगा…”
जल्दी-जल्दी खाना लगता है। उतनी ही जल्दबाजी में खाया जाता है। अब चश्मा, पेन, मोबाइल जुटाते समय भी…, जाते-जवाते भी, निगाहें स्क्रीन पर ही आ-जा रही हैं… काश दस मिनट और कम्प्यूटर पर…।
“ज़रा जूता साफ़ करवा दो…”
“कौन सा…?” छाँटना मुश्किल है… चार जोड़े तो काले चमड़े वाले, चार जोड़े सफ़ेद स्पोर्ट शू, वुडलैंड… दो चार और क्यों नहीं ले आते?… “अरे भई कुछ बोलेंगे? …एक बार पीछे मुड़ कर देख तो लीजिए…।”
चार बार बोलने पर एक बार… “हाँ दे दो…”
“कौन सा?”
“क्या?…” “अरे वही वुडलैंड दे दो …या तुम्हारी जो मर्जी…”
अचानक उठ जाते हैं - “चलता हूं जी! देर हो रही है…”
बेटा पीछे-पीछे चिल्लाता है- ‘डैडी टाटा… टाटा… टा…आ…आ…ए…ए…ओ…ओ…ऊँ… ऊँ ऽऽऽ’ शुरु …पीछे मुड़ कर देखने की फ़ुरसत तक नहीं …
गेट बंद करके अंदर आने पर कमरा अव्यवस्थित… गीला तौलिया बिस्तर पर… आलमारी के फाटक छितराये हुए… दो चार गन्दे कपड़े इधर-उधर और इन सारे कामों से निवृत्त होने के बीच भी एक उम्मीद पाँच बजने की…
इस बीच बेटी का स्कूल से आना, उसके कपड़े बदलवाना, खाना खिलाना, होमवर्क कराना… और इनके बीच एक उम्मीद पाँच बजने की। …पाँच बजने से कुछ देर पहले ही मैं और मेरे बच्चे बाहर के बरामदे में निकलते है… बेटा और बेटी अपनी-अपनी साइकिल लिए मस्त, मेरा ध्यान कभी बच्चों पर तो कभी गेट पर…
गेट खुलता है। बच्चे चिल्लाते हैं- डैडी आ गये… डैडी आ… मै भी खुश। इनके हाथ में अपने लिखे हुए कुछ लेख के प्रिन्टआउट्स हैं। हम सबको क्रॉस करते हुए अपने छोटे भाई के कमरे में जाते हैं… “नन्हें देखो, सबको छाप लाया, आज आफ़िस में काम कम था, इसलिए थोड़ी देर कम्प्यूटर का कुछ काम कर लिया… और, आज किसी का कोई नया पोस्ट आया कि नहीं?
आते ही फिर वही कम्प्यूटर चेयर… वही ऑफिसियल ड्रेस… एक बार फ़िर चाय-पानी सामने टेबल पर… बेटा डैडी के लिए ब्याकुल है… डैडी, गोद-गोद… डैडी, चाभी… डैडी, गाड़ी…
…अरे यार, कोई पकड़ेगा इसको? …तभी से परेशान किए जा रहा है …जाओ बेटा, अपनी मम्मी के पास…
मैने बोला थोड़ी देर गोद में ले लेते… जब देखो तब कम्प्यूटर कम्प्यूटर… अरे कम से कम कपड़ा तो चैंज कर लेते… थोड़ा आराम कर लेते…
तुम क्या समझोगी.. अनपढ़ गवाँर की तरह बात करती हो
चौकिए नहीं, यह दृश्य ‘अन्तर्जाल’ से साभार लिया गया है
अन्दर ही अन्दर झल्लाहट होती है …फ़िर भी एक अच्छी पत्नी का कर्तव्य… जैसा कि इन्होंने ही समझाया है …पति घर में आये तो उसका मुस्करा कर स्वागत करना चाहिए… लेकिन जबसे कम्प्यूटर आया है उसका भी मौका नहीं… लगातार कम्प्यूटर पर… कभी इस ब्लॉग से उस ब्लॉग पर… कभी कमेंट्स पढ़ना तो कभी लिखना…। इस बीच अगर कोई मिलने भी आता है, तो इनके पीछे एक दो कुर्सियां और लग जाती हैं। वो भी वहीं बैठ लेते हैं…। यानि, आते-जाते इनके साथ, पीछे से ही सही, जो भी एक-आध टुकड़े बात हो जाती थी, उसकी भी गुन्जाइश खत्म…
“नौ बज गया जी, खाना लगवाएं?”
“अभी फ़्रेश होना है…”
“जल्दी करिए… ”
आखें कम्प्यूटर पर… जूते उतार कर वहीं चेयर के नीचे, मोंजे उतार कर कहां फेंके इसका अन्दाजा ही नहीं, कपड़े उतार कर बिस्तर पर, एक हाथ कमर पर, गर्दन मोड़े हुए बाथरुम की तरफ़… कुछ देर बाद फ़िर वही कुर्सी…
“खाना लग गया जी…”
थाली में गुब्बारे की तरह रखी गर्मा-गरम रोटी पिचककर धीरे धीरे थाली की सतह को छू लेती है…
“रोटी ठंडी हो रही है जी… क्या करते रहते हैं… कम से कम भोजन तो चैन से कर लीजिए…”
“आता हूँ जी, तुम तो हमेशा सिर पर सवार रहती हो… खा लुँगा अभी…।” बदलकर दूसरी रोटी आ गई…।
“अब तो आ जाइए…”
उठते हैं। कम्प्यूटर की तरफ़ देखते हुए भोजन भी हो जाता है।
“सुनते हैं, थोड़ी देर बाहर टहल आते हैं; बहुत अच्छा मौसम है आज का… चलिए ना..”
“हाँ तुम चलो, मै आता हूँ…” …थोड़ी देर बाद वापस आ जाती हूँ…
“अरे चली आई क्या?” “…बस मैं आ ही रहा था…चलो फ़िर चलते हैं” मैं गुस्से में बच्चों के साथ बेड पर…
“तुम्हारा तो गुस्सा नाक पर ही रहता है…” मैं एक दम चुप… धीरे-धीरे नींद आ ही जाती है…
करीब एक बजे- “अजी सुनती हो, सो गई क्या?”
…आखिर इन्तजार कब तक?
(रचना)
नोट: मैं कान पकड़कर ग़लती मान चुका हूँ और संभलने का प्रयास कर रहा हूँ। फलस्वरूप
सत्यार्थमित्र पर नयी पोस्टों की आवृत्ति में कुछ कमीं और ताबड़तोड़ टिपियाने के टाइम में कटौती हो ली है। लेकिन यह कटौती ऑफिस में अंतर्जाल की सुविधा बहाल होने के बाद थोड़ी कम हो जाएगी। आप सब की पोस्टें ‘पढ़ने’ का लोभ-संवरण फिर भी नहीं कर पाता हूँ।