महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के लिए एक किराये का मकान खोजने के लिए हम कोलकाता गये थे। जी हाँ, वर्धा (महाराष्ट्र) में खुले इस विश्वविद्यालय का एक क्षेत्रीय केंद्र इलाहाबाद में तथा एक कोलकाता में खोले जाने हेतु केंद्र सरकार की ओर से इस साल अनुदान की घोषणा वित्त मंत्री के बजट भाषण में की गयी थी। इस स्वीकृति की प्रत्याशा में इलाहाबाद केंद्र तो दो साल पहले ही प्रारंभ कर दिया गया था; लेकिन इस साल अब कोलकाता में भी वर्धा ने दस्तक दे दी है।
कोलकाता जाने पर हमें सबसे पहले इस बात की खुशी हुई कि शिव कुमार मिश्र जी से भेंट होने वाली थी। सूचना पाते ही वे ढाकुरिया ब्रिज के पास स्थित आइ.सी.एस.आर. के गेस्ट हाउस आ गये। यूँ तो इंटरनेट पर ब्लॉगजगत में उनका जो ऊँचा कद दिखायी देता है वह उनकी जोरदार लेखनी से संबंध रखता है। लेकिन कोलकाता में मेरे प्रत्यक्ष जब वे आये तो मुझे उनका शारीरिक कद देखकर अपने मन में बनी उनकी तस्वीर को रिवाइज़ करना पड़ा। मैने पता नहीं कैसे उनकी जो तस्वीर मन में बना रखी थी वह एक शानदार व्यंग्यकार ब्लॉगर की तो थी लेकिन एक लंबे कद वाले आदमी की नहीं थी।
हम देर तक बातें करते रहे। गेस्ट हाउस वालों ने चाय की आपूर्ति में पर्याप्त विलम्ब किया लेकिन हम उससे परेशान दिखते हुए भी मन ही मन खुश हुए जा रहे थे कि इसी बहाने कुछ देर तक साथ बैठने को मिलेगा।
अंततः हमें बताया गया कि एक मकान देखने जाने के लिए गाड़ी आ गयी है और 'खोजी समिति' के बाकी सदस्य तैयार हो चुके हैं तो हम इस वादे के साथ उठे कि अगले दिन गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर पर आयोजित सेमिनार के उद्घाटन में फिर मिलेंगे। अगले दिन हम मिले और दिनभर उस विलक्षण सेमिनार में विद्वान वक्ताओं को सुनते रहे। सबकुछ इतना रोचक था कि शिव जी को अपने ऑफिस जाने का कार्यक्रम रद्द करना पड़ा। वे तो प्रो.गंगा प्रसाद विमल को सुनने के लिए अगले दिन भी आने का वादा करके गये लेकिन शायद कुछ लिखने-पढ़ने में व्यस्त हो गये।
हमने कोलकाता में आने से पहले ही यहाँ के दो अखबारों में इस आशय का विज्ञापन प्रकाशित कराया था कि क्षेत्रीय केंद्र खोलने के लिए किराये के भवन की आवश्यकता है। इच्छुक भवन स्वामी संपर्क करें। इसके नतीजे में चार लोगों ने पत्र भेजकर मकान देने का प्रस्ताव दिया था। जब हम इन लोगों से मिले तो पता चला कि असली भवन स्वामी को पता ही नहीं है कि उनके भवन को किराये पर दिये जाने की बात हमसे चल रही है। जिनलोगों ने हमसे सम्पर्क किया था वे सभी कमीशन एजेंट निकले जिसे आमतौर पर दलाल या ब्रोकर के रूप में ख्याति प्राप्त है। इन सबने मिलकर हमें खूब टहलाया। एक से एक विशाल भवनों में ले गये और खाली हिस्सों को दिखाया। एक नौ मंजिला भवन तो ऐसा था जिसमें एक लाख साठ हजार वर्गफीट कार्पेट एरिया होना बताया गया। एक-एक फ्लोर इतना बड़ा था कि 20-T मैच हो जाये। लेकिन किराया सुनकर हम भाग खड़े हुए। उस बिल्डिंग से इस बिल्डिंग और इस मंजिल से उस मंजिल जाते-आते हमारा थकान से बुरा हाल हो गया; लेकिन काम लायक जगह नहीं मिली। कोलकाता में किरायेदारी इतनी महंगी होगी इसका हमें अंदाज ही नहीं था।
अगले दिन हमारे खोजी दल के एक सदस्य और कोलकाता केंद्र के प्रभारी पद पर तैनात किये गये डॉ. कृपाशंकर चौबे जी ने हमें महाश्वेता देवी से मिलवाया। आदिवासियों की सेवा और संरक्षण में अपना जीवन तपा देने वाली महाश्वेता जी को देखकर हमारे लिए समय थोड़ीदेर के लिए रुक सा गया। इतने बड़े-बड़े पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित जिस व्यक्ति से हम मिल रहे थे वे सादगी व सरलता की प्रतिमूर्ति बनी एक टेबल लैंप की रोशनी में किताबों के बीच डूबी हुई मिलीं और हम उन्हें अपनी नंगी आँखों से प्रत्यक्ष देख रहे थे। कोई बनावटीपन नहीं था उस घर में। कृपा जी उनके मुँहलगे से जान पड़े। दूध वाली चाय मांगने लगे; बल्कि जिद करने लगे लेकिन मिली काली चाय ही। उतनी देर को दूध भला कहाँ से आता! कृपा जी बताने लगे कि कैसे एक बार दिल्ली में महाश्वेता जी से मिलने एक्सप्रेस समूह में सम्पादक बने अरुण शौरी और राजेन्द्र माथुर के साथ वे उनके घरपर गये। वहाँ आदिवासियों को बाँटने के लिए बोरों में तमाम जीवनोपयोगी सामग्री भरी जा रही थी। सामान अधिक था और भरने वाले आदमी कम थे। दीदी ने इन लोगों को भी बोरा भरने पर लगा दिया। कुछ ही देर में जब ये पसीना-पसीना हो गये तो बोले-दीदी काम पूरा हो गया। इसपर दीदी ने कुछ और बोरे और सामान मंगा दिये। थोड़ी देर बाद बताया गया कि इन पत्रकार सम्पादकों को वापस फ्लाइट पकड़ने जाना है तो दीदी ने उनकी वहीं से छुट्टी कर दी। मतलब आदिवासियों के लिए बोरा भरे जाने से अधिक महत्वपूर्ण कोई काम ही नहीं सूझा था इन्हें।
कोलकाता केंद्र के लिए किराये के मकान की समस्या महाश्वेता जी से बतायी गयी। उन्होंने तत्काल फोन उठाया और एक-दो जगह बात की। अगले दिन साढ़े दस बजे एक फ़्लैट देखने का कार्यक्रम तय हो गया।
अगले दिन हम जहाँ गये वह फिल्म अभिनेता स्व. उत्तम कुमार का घर था। बांग्ला फिल्मों के सुपर स्टार जिन्होंने हिंदी में भी कुछ यादगार फ़िल्में की थी; जैसे-अमानुष। उनकी पत्नी भी बांग्ला फिल्मों की मशहूर हिरोइन हुआ करती थीं। नाम था सुप्रिया मुखर्जी। इन्हीं सुप्रिया जी से हमारी भेंट हुई वहाँ। उत्तम कुमार जी के भांजे और स्वयं एक अभिनेता जय मुखर्जी भी हमें मिले। उनसे बात हुई तो लगा कि इस शानदार अपार्टमेंट में हमारा केंद्र स्थापित हो सकता है। शर्त बस यह है कि कोलकाता नगर निगम इस रिहायशी मकान का प्रयोग शैक्षणिक गतिविधियों के लिए करने का लाइसेन्स दे दे। भारतीय भाषा परिषद के भवन से सटा हुआ यह भवन निश्चित रूप से हिंदी विश्वविद्यालय की गतिविधियों के लिए सर्वथा अनुकूल है। सुप्रिया जी की अवस्था अस्सी से ऊपर की हो चुकी है लेकिन उनके चेहरे पर वह स्मित मुस्कान अभी भी पहचानी जा सकती थी जो उनके ड्राइंग रूम में लगी पुरानी फिल्मी तस्वीरों में उनके चेहरे पर फब रही थी। हमने वहाँ जा कर अपने को धन्य महसूस किया। अलबत्ता संकोच के मारे हम उनकी तस्वीरें नहीं ले सके जिसकी इच्छा हमें लगातार होती रही।
कोलकाता यात्रा में हमें ऐसा फल प्राप्त होगा इसकी तो हमने कल्पना तक नहीं की थी। जब चले थे तो बहुत कुछ देखने और घूमने का मंसूबा बनाया था लेकिन एक अदद मकान की खोज और सेमिनार में शिरकत के अलावा कहीं आने जाने का मौका ही नहीं मिला। फिर भी हम खुशी-खुशी लौट आये। जितना मिला वह भी कम नहीं है।
लगे हाथों एक चित्र पहेली भी पूछ लेता हूँ। इसके बारे में मैं भी कुछ खास नहीं जानता हूँ। आप में से कोई जानता होगा तो जरूर बतायेगा यही उम्मीद है। तो बताइए यह क्या है जो एक खड़ा और एक औंधा पड़ा है-
यदि कोई इतना भी नहीं बता पाया जितना मैं जानता हूँ तो अगली पोस्ट में उतना मैं बता दूंगा। धन्यवाद।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)