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शनिवार, 3 जून 2017

महुए पर काबिज माफिया बन्दर

आज साइकिल का मूड शहर की ओर जाने का हुआ तो मैं घर से निकल कर इलाहाबाद जाने वाले हाईवे को 'मामा चौराहे' पर पार करते हुए रेलवे क्रॉसिंग के उस पार जेलरोड पर चला गया। आजकल यहाँ ओवर-ब्रिज का निर्माण तेजी से हो रहा है। रास्ता बंद कर दिया गया है। लेकिन साइकिल और मोटरसाइकिल वालों को कोई भी अवरोध आगे बढ़ने से भला कैसे रोक सकता है? आड़े-तिरछे घुसाकर निकाल ही लेते हैं।
जेलरोड पर टहलने वालों की आवाजाही सुबह अंधेरा छँटते ही शुरू हो जाती है। बुजुर्ग और महिलाएँ पहले निकलती हैं। ये सई नदी के किनारे बने शहीद स्मारक की ओर रुख करते हैं। लड़के-लड़कियां और नौजवान थोड़ी देर से निकलकर स्टेडियम की ओर जाते हैं। वैसे कुछ अपवाद भी हैं।
जेल रोड के किनारे गाय-भैंस पालने वाले घोषियों की खटाल है और छोटे-बड़े कई अस्पताल हैं। सड़क पर दूध का डिब्बा लेकर टहलने वाले भी दिखते हैं और अस्पतालों के आस-पास चाय-बिस्कुट की दुकानों पर पतले पॉलीथीन की थैली में गर्म चाय भरवाते मरीजों के तीमारदार भी। एक बीमारी ठीक कराते और दूसरी को दावत देते लोग।
आज भी साई (Sports Authorityof India) प्रांगण में बने मंदिर के चबूतरे पर बैठी बुजुर्गों की टोली बाबा रामदेव की बतायी योगक्रिया को साध रही थी और उसके आगे राज्य सरकार के मोतीलाल नेहरू स्टेडियम के गेट पर खड़ी असंख्य साइकिलें और बाइक्स बता रही थीं कि अंदर बड़ी संख्या में लोग स्वस्थ बने रहने की जद्दोजहद में लगे हैं। इसका बड़ा गेट बन्द था जिसके पेट में एक छोटा सा द्वार खुला था। इस द्वार में पैदल घुसने वालों की कतार बन गयी थी। मैंने यहाँ साइकिल नहीं रोकी और कानपुर हाईवे की ओर चलता रहा।
आगे राजघाट पड़ता है जहाँ सूखने के कगार पर पहुंची हुई सई नदी पर एक जर्जर पुल भारी-भरकम ट्रकों व अन्य वाहनों को रास्ता दे रहा है। इसके बगल में वर्षों से निर्माणाधीन नया पुल अभी चालू नहीं हो सका है। हालांकि इस बीच काम बहुत तेजी से हुआ है। पिछली बार मैंने इसके खंभे बनते देखे थे। इसबार पुल पूरा बन चुका है लेकिन इसे मुख्य सड़क से जोड़ने का काम अभी बाकी है। मैं इस उम्मीद के साथ आगे बढ़ गया कि अगली बार इधर से आऊंगा तो नये पुल का मजा लूंगा। करीब दो सौ मीटर आगे दरीबा तिराहे तक जाने में मुझे आगे-पीछे पों-पों करते ट्रकों और बसों की गति से सावधान होना पड़ा। इस रंगी-पुती पक्की और पर्याप्त चौड़ी सड़क पर मेरा निबाह नहीं था। मारे डर के मैं किनारे की कच्ची पगडंडी पर ही चलता रहा।
दरीबा तिराहे से मुड़कर कटघर की ओर जाने वाली सड़क खूब हरे-भरे पेडों से आच्छादित है। यहाँ सुबह की ठंडी और स्वच्छ हवा ऑक्सीजन से भरपूर मिलती है। पूरा शहर पार करके भी यहाँ तक आना सुखदायी है।
आगे बढ़ा तो सड़क किनारे एक रोचक दृश्य मिला। एक बड़े से महुए के पेड़ के नीचे दर्जन भर काले बंदर बैठे हुए जमीन से कुछ बीन-बीनकर मुँह में भर रहे थे। उनसे थोड़ी दूरी बनाकर तीन-चार कुत्ते भौंक रहे थे लेकिन उनमें पेड़ के नीचे जाने की हिम्मत नहीं थी। एक अधेड़ आदमी वहीं पर खाट डाले बैठा हुआ था जो शायद महुए की रखवाली में था। मैंने भी साइकिल रोकी। इस अद्भुत नज़ारे की तस्वीर लेना चाह रहा था लेकिन उन दबंग गुंडे टाइप बंदरों का डर मुझे भी था। कैमरा जूम करके जल्दी में एक बार क्लिक किया और चलता बना।
यदि उस महुए के पेड़ को सरकारी-संपत्ति माना जाय, उस अधेड़ को सिक्योरिटी-गार्ड और उस श्वान दल को पुलिस फोर्स तो बंदरो की गतिविधि उस माफिया जैसी दिख रही थी जो बेधड़क लूट-और कब्जे का काम करते रहते हैं और कोई उनको रोक नहीं पाता है। थोड़ी देर बाद जब मैं वापस लौटा तो सारे बंदर पेड़ पर चढ़ चुके थे और डालियों से फल-फूल इत्यादि तोड़ रहे थे। कुत्ते पेड़ के नीचे आकर ऊपर की ओर मुंह उठाये हांफे जा रहे थे। भौंकना भी प्रायः बन्द हो गया था। मुझे भी रुककर फोटो खींचने में खतरा जान पड़ा।
आगे सड़क की हरियाली बहुत मनमोहक थी। साइकिल व बाइक पर कुछ लोग आते-जाते मिले। नख-शिख ढंकी हुई एक लड़की साइकिल से शहर की ओर जा रही थी। एक युवक साइकिल पर जानवरों के लिए हरे चारे का गठ्ठर दबाये जा रहा था। एक सज्जन तीन बच्चों और एक पत्नी को तीन-चार झोलों समेत लादे हुए धुंआ छोड़ती मोटरसाइकिल से शायद किसी रिश्तेदारी से लौटते दिखे। वो इतनी तेजी में थे कि फोटो न ले सका। लेकिन एक दूसरे सज्जन बहुत इत्मीनान में दिखे। सड़क से थोड़ी ही दूर गेंहू की कटाई के बाद खाली हो चुके खेत में एक बिजली के पोल की 'आड़' लेकर उकड़ू बैठे हुए थे। मोबाइल पर व्यस्त थे। शायद फेसबुक या व्हाट्सएप्प के संदेशों को निपटा रहे होंगे। बगल में रखा पानी का डब्बा संकेत दे रहा था कि वहाँ बैठकर वे कुछ और भी निपटा रहे थे। लगता है उन्होंने इस सरकारी संदेश को अपने पर लागू होता नहीं माना है जिसमें कहा गया है - "बहू-बेटियाँ दूर न जायें, घर में शौचालय बनवायें।" सरकार को सर्व-समावेशी नारे गढ़ने चाहिए।
मैं उस आम के बाग में भी गया जहाँ से पिछले साल पेड़ की पकी दशहरी लेकर आया था। इस बार केवल दो पेड़ों में आम लटकते दिखे। बाकी पेड़ों में नयी पत्तियां हरियाली फैला रही थीं। रखवाला पहचान गया। बता रहा था कि थोड़े से आमों के चक्कर में यहाँ फँसे पड़े हैं। मालिक नखलौ (लखनऊ) चले गये हैं। लौटकर आएंगे तब आम तोड़े जाएंगे। मैं खाली हाथ वापस आ गया। सड़क किनारे एक आदमी चारा-मशीन पर हरे बाजरे की कटाई कर रहा था। अकेले ही डोंगे में चारा घुसेड़ता और फिर चक्का घुमाता। अकेले चारा-मशीन चलाना बहुत श्रमसाध्य काम है जो दो व्यक्तियों के लिए बहुत आसान हो जाता है। लेकिन मेहनतकश किसी सहायक की बाट नहीं जोहते।
आप इस साइकिल यात्रा से जुड़ी कुछ रोचक तस्वीरें देखिए और मुझे दूसरे मित्रों के संदेश निपटाने की इजाज़त दीजिए। नमस्कार।














(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
www.satyarthmitra.com

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