हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

मंगलवार, 29 अगस्त 2017

इन्दिरानगर में बारिश के बीच साइकिल से सैर

शहरीकरण की प्रक्रिया तेज होने का मुख्य कारण विकसित शहरों में उपलब्ध वे अवसर और सुविधाएं हैं जो जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने और उन्हें बनाये रखने के लिए आवश्यक हैं। जीविकोपार्जन के लिए जरूरी रोजगार मिलने के अतिरिक्त बच्‍चों के लिए अच्छे शिक्षण व प्रशिक्षण संस्थान, बड़े-बुजुर्गों की देखभाल के लिए बेहतर अस्पताल व स्वास्थ्य सुविधाएं, घर-परिवार के उपभोग की वस्तुओं के लिए बड़े बाजार, मॉल, रेस्टोरेंट व मनोरंजन के लिए क्लब, मल्टीप्लेक्स व थीम-पार्क इत्यादि भी शहरों में ही हैं। सबका साथ सबका विकास के नारे के बावजूद ये सुविधाएं ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं के बराबर मिलती हैं। यहाँ तक कि ग्रामीण क्षेत्र में पैदा होने वाली हरी सब्जी, फल व दूध इत्यादि भी अच्छी कीमत की तलाश में शहरों की ओर ही चले आते हैं। 
इस शहरी जीवन की मांग को पूरा करने के लिए सरकार की ओर से आवास विकास परिषद व बड़े शहरों में विकास प्राधिकरण लगातार नयी कालोनियां बसा रहे हैं और इन कालोनियों में अनेक अवस्थापना सुविधाएं भी बढ़ा रहे हैं। निजी क्षेत्र में भी 'रियल एस्टेट' का धंधा खूब फल-फूल रहा है।
लखनऊ में इंदिरानगर आवासीय कॉलोनी बहुत पहले बसायी गयी थी। इसमें प्रायः सभी आय वर्ग के लोगों के लिए अलग-अलग स्तर के आवासीय प्लॉट हैं, उपभोक्ता बाजार हैं, मंदिर-मस्जिद हैं, स्कूल-कॉलेज़ हैं, गोल चौराहे हैं, फल और सब्जी की मंडियाँ हैं और छोटे-बड़े अनेक पार्क हैं जिसमें खूब हरियाली है। मुंशी पुलिया चौराहा पहले लखनऊ शहर के बाहर से जाने वाले फैज़ाबाद-सीतापुर बाईपास (रिंग रोड) पर स्थित था लेकिन कालांतर में इस कॉलोनी के वृहद विस्तार के बाद यह इंदिरानगर के लगभग बीचोबीच में आ गया है जिसके चारों ओर घनी बसावट है। यह कॉलोनी इतनी पुरानी तो हो ही गयी है कि इसमें प्लॉट लेकर घर बनाने वाले अधिकांश लोग सेवानिवृत्त हो चुके हैं और उनकी अगली पीढ़ी जवान होकर गृहस्थी की कमान सम्हाल रही है। 
जो नये लोग इंदिरानगर में बसने आ रहे हैं वे या तो किसी अपार्टमेंट में आ रहे हैं या कॉलोनी के सीमावर्ती क्षेत्रों में निजी क्षेत्र द्वारा विकसित आवासीय कॉलोनियों में आ रहे हैं। मैंने मुंशी पुलिया से सात-आठ किलोमीटर पूरब व उत्तर दिशा में विकसित होने वाली नयी कॉलोनियों के साइन बोर्ड पर उनका पता मुंशीपुलिया इंदिरानगर के नाम पर लिखा हुआ देखा है। लखनऊ मेट्रो की रेलपटरी का पूर्वी सिरा मुंशीपुलिया चौराहे के पास बन रहे स्टेशन पर समाप्त होगा। मेट्रो स्टेशन के नाम पर यहाँ से आठ-दस किलोमीटर दूर तक की जमीनें महंगी हो गयी हैं। लेकिन शहरीकरण की आकर्षक सुविधाओं की कीमत चुकाने को लोग तैयार हो रहे हैं।
आवास विकास परिषद द्वारा मुंशीपुलिया चौराहे के पूरब अरविंदो पार्क व पश्चिम तरफ स्वर्णजयंती पार्क विकसित किये गये हैं जो खूब हरे-भरे व सुसज्जित हैं। सुबह-शाम टहलने वाले बुजुर्गों और उम्रदराज औरतों व आदमियों की अच्छी संख्या दिखती है तो दिन में किशोर व नयी उम्र के लड़के-लड़कियाँ व प्रेमी युगल यहाँ की शोभा बढ़ाते हैं। अरविंदो पार्क में भारतीय योग संस्थान के बैनर तले निःशुल्क योग शिविर का आयोजन होता है। सुबह पांच बजे ही योग के आचार्य और निष्ठावान साधक अपना आसन जमा लेते हैं। हरी मुलायम घास पर सबसे नीचे प्लास्टिक शीट, उसके ऊपर हल्की दरी और उसके ऊपर सफेद चादर डालकर आसन बनता है। इस आसन पर बैठकर, खड़े होकर और लेटकर साधक स्त्री-पुरुष योगासन, प्राणायाम और ध्यान का अभ्यास कुशल व प्रशिक्षित आचार्यों के दिशानिर्देशन में करते हैं। 
मैं जब भी लखनऊ में सुबह आँखें खोलता हूँ तो इस योग कार्यक्रम में सम्मिलित होने का प्रयास करता हूँ। बाकी दिनों में जहाँ भी रहता हूँ अपने कमरे में 'शिक्षक संहिता' नामक पुस्तिका की सहायता से यहाँ सीखे हुए सारे अभ्यास करने की कोशिश करता हूँ। लेकिन सामूहिक रूप से किये जाने वाले योगासन-प्राणायाम-ध्यान का आनंद ही कुछ और है।
इस सप्ताहांत सुबह पाँच बजे तैयार होकर ऍपार्टमेन्ट से बाहर निकला तो हल्की बूंदा-बांदी हो रही थी। मैंने आसन की सामग्री वाला बैग साइकिल के कैरियर पर इस प्रकार दबाया कि प्लास्टिक शीट वाला हिस्सा सबसे ऊपर रहे और मोबाइल, पर्स और पुस्तक वाला सबसे नीचे ताकि बारिश की बूंदों से कोई नुकसान न हो। आज मेरे मन में यह जानने की उत्सुकता थी कि इस खराब मौसम में ये साधक अपने कार्यक्रम कैसे करते होंगे।
घर से चलकर मैं पार्क के प्रवेश द्वार पर आया। जब मैं साइकिल खड़ी कर रहा था तो हल्की बूँदें मेरे प्रयास पर प्रश्नचिह्न लगाती जा रही थीं। वहाँ टिकट काउंटर में सिर छिपाये बैठा संतरी बाहर निकल आया। उसने मुझे ऐसे देखा जैसे पूछ रहा हो - अजीब अहमक आदमी हो, इस बारिश में कैसे आ गये इधर? मैंने उसके इस भाव को थोड़ी और हवा देते हुए पूछ लिया - वो योगासन वाले कोई आये हैं क्या? उसने घड़ी देखा जिसमें सवा पांच बजे रहे होंगे, फिर एक तरह की मौज लेते हुए बोला- अंदर जाकर देख लीजिए।
मैंने साइकिल में ताला लगाकर बैग कंधे से लटकाया और अंदर जाकर टहलने के लिए बनी लाल पत्थरों वाली पगडंडी पर तेज कदमों से चलने लगा। भीतर कुछ जिद्दी टाइप बुजुर्ग टहलबाज छाता लगाकर टहलते मिले। लेकिन उस स्थान पर कोई नहीं मिला जहाँ योग की कक्षा चलती है। वहाँ आसनों के नीचे दबी रहने वाली हरी दूब की पत्तियाँ आज तन कर खड़ी हो गयी थीं बारिश की जो गोल-गोल बूँदें उनके ऊपर की छोर पर पड़ती तो वे एक ओर झुक जाती फिर बूंदें धीरे-धीरे नीचे की ओर सरकती जाती और पत्तियां शनैः शनैः पूर्वावस्था में खड़ी हो जातींइस प्रकार लगभग अर्द्ध चंद्रासन की मुद्रा बनाती और फिर सीधी हो जाती पत्तियों पर योग-कक्षा का पूरा प्रभाव दिख रहा था।
पार्क के टहल-पथ पर एक चक्‍कर लगाने के बाद मैं बाहर आ गया। बौछारें अब तेज़ हो गयी थीं। घर लौटते-लौटते मैं भीग ही जाता। इसलिए बारिश में दिल खोलकर भींग लेने का विचार उछल पड़ा। मैंने बैग को फिर से उल्टा करके कैरियर में दबा दिया। सबसे नीचे वाली जेब में मोबाइल व बटुआ, उसके ऊपर पुस्तिका, उसके ऊपर तह की हुई चादर, फिर दरी और सबसे ऊपर प्लास्टिक शीट की पच्चीस परतें। मैं आश्वस्त था कि बैग में जरूरी सामान सुरक्षित रहेगा। मैंने साइकिल को घर के रास्ते से उल्टी दिशा में बढ़ा दिया। सेक्टर-11 की ओर जाने वाली चौड़ी सड़क बिल्कुल खाली थी। बिजली के खंभों पर पीले प्रकाश वाले हेलोजन बल्ब जल रहे थे जिनकी रोशनी गीली सड़क से परावर्तित हो रही थी। सड़क पर गिरती बूंदों से उठते छींटे इस पीले प्रकाश के साथ मिलकर अद्भुत छटा बिखेर रहे थे। जैसे केसर की घाटी में मोती उछल रहे हों।
तभी सामने से एक औरत पुराने पड़ चुके एक छेदहे छाते में अपना सिर ढके चली आ रही थी। उसके पीछे एक मरियल कुत्ता भी टांगों में पूंछ घुसाये हुए, सिर ऊपर-नीचे करता चला आ रहा था। निश्चित ही उधर कोई गरीब बस्ती होगी जहाँ से निकलकर यह कामवाली अमीरों के घर झाड़ू-पोछा-बर्तन या कपड़े धोने का काम करने जा रही होगी। रात भर का भूखा कुत्ता भी इन घरों से निकलने वाले सुबह के कूड़े से अपना पेट भरने की फिराक़ में ही निकला होगा, वर्ना मुँह-अंधेरे बारिश के मौसम में कौन अपनी नींद में खलल डालना चाहेगा।
दोनो तरफ सीधी लाइन में खड़े पक्‍के मकानों के भीतर की मद्धिम रोशनी और सड़क पर पसरे सन्नाटे से तो यही पता चल रहा था कि अधिकांश लोग या तो सो रहे हैं या जागकर भी बिस्तर पर लेटे हुए बारिश की बूंदों की टप-टप और रिमझिम का संगीत सुन रहे हैं। मैं तो अपनी नयी-नवेली बिल्कुल शांत साइकिल पर चलता हुआ न सिर्फ बारिश का संगीत सुन रहा था बल्कि आसमान से गिरती बूंदों का नृत्य भी देख रहा था। मेरे चेहरे को गुदगुदाती-सहलाती बूंदें, पेड़ों की कोमल पत्तियों से चिपककर आलिंगन करती बूंदें, बिजली के पोल से सरककर नीचे आती बूँदें, क्‍की सड़क के तारकोल को चमकाती बूंदें, संगमरमर लगी मुंडेर पर गिरकर दूर तक छिटकती बूंदे और टिन की छत पर गिरकर समूह में इकठ्ठा हो नीचे गिरती धाराप्रवाह बूंदें। इन सबका नृत्य अलग-अलग था। कुछ बूंदे मिट्टी, गोबर या कींचड़ में गिरकर तिरोहित हो जाती तो कुछ सौभाग्यशाली ऐसी भी थीं जो फूलों के बीचोबीच जाकर उनकी सुगन्ध के बीच धन्य हो जाती। मेरा मन कुछ तस्वीरें लेने को ललच रहा था लेकिन बारिश इतनी तेज थी कि मोबाइल को बाहर निकालना सुरक्षित नहीं जान पड़ा।
चौड़ी सड़क के अंतिम छोर पर पहुँचकर मैं आगे की पतली सड़क पर मुड़ कर बसावट के भीतर चला गया। आगे निम्न व दुर्बल आय वर्ग वाले मकान थे। बहुत कम जमीन में बने इन घरों के दोनो किनारों की दीवारें पड़ोसी के घर से बिल्कुल चिपकी हुई होती हैं। बीस-पच्‍चीस साल पहले बने इन अधिकांश मकानों के आगे अब मारुति-ऍल्टो-आईटेन या नैनो जैसे चार पहिया वाहन खड़े हो गये हैं। लेकिन नके लिए छत वाली पार्किंग की जगह नहीं है। निश्चित रूप से यहाँ की दीवारों पर आर्थिक विकास की कहानी लिखी हुई दिख रही थी। एक गली से दूसरी गली में होता हुआ मैं वापसी का रास्ता तलाशने लगा। तभी एक गली अचानक समाप्त हो गयी जिसके आगे खाली जमीन थी। जमीन में गोबर और पानी के मिश्रण से बना कीचड़ और उसमें पगुराती खड़ी भैसों को बारिश का आनंद लेते देखकर मैं वापस मुड़ गया। एक दूसरी गली से तीसरी गली में होता हुआ मैं आगे बढ़ता गया तो अचानक डिवाइडर वाली चौड़ी सड़क पर निकल आया। एक बोर्ड से पता चला कि यह अमर शहीद कैप्टन मुकेश श्रीवास्तव मार्ग है।
यहाँ से मुझे घर वापस लौटने का रास्ता पता था। सेक्टर-17 में आकर मुझे एक ऐसा स्थान मिल ही गया जहाँ खड़े होकर अपनी साइकिल की सेल्फी ले सकता था। वहीं एक परचून की दुकान की टिन की छत से बरसाती धारा गिर रही थी। आसपास कोई बच्‍चा होता तो वह इसके नीचे खड़ा होकर जरूर नहाने का मजा लेता। लेकिन बच्‍चे अभी बिस्तर में होंगे। बहुत सबेर थी अभी। स्ट्रीट-लैंप की पीली रोशनी दिन के उजाले पर अभी भी भारी थी। अब आप तस्वीरें देखिए और मुझे इजाजत दीजिए। मैं घर पहुँचकर अपने कपड़े बदलता हूँ। ज्यादा देर तक भींगा रह गया तो... सुना है शहर में स्वाइन-फ्लू अपने पाँव पसार रहा है।
सेक्टर-16 इन्दिरानगर की डूबी सड़क

बैग मे सुरक्षित योगासन सामग्री के साथ नहाती साइकिल

हम भी अगर बच्चे होते तो पीछे टिन की छत से गिरती जलधारा का मजा लेते 

बारिश के पानी से सराबोर हमारी बालकनी से दिखती सड़क

साइकिल जब नयी-नयी आयी थी तब मौसम बहुत अच्छा था।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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शुक्रवार, 25 अगस्त 2017

रामरहीम और अशुभ की समस्या

सीबीआई अदालत द्वारा आज  बाबा #रामरहीम को बलात्कार का दोषी पाया गया है - दो साध्वी स्त्रियों के साथ बलात्कार का दोषी। लेकिन इनके भक्तों को लग रहा है कि उनके महान पिताजीके साथ अदालत ने अन्याय कर दिया है। आगजनी, तोड़-फोड़ और लोगों की हत्या का क्रम शुरू हो गया है। राज्य सरकार इन आततायी गुन्डों के उन्माद को सम्हाल पाने में असफल सिद्ध हो रही है। अपने धर्मगुरू को जेल जाते हुए देखना इनके लिए खुलेआम कानून का उल्लंघन करने का लाइसेन्स देता हुआ दिख रहा है। सरकारी बसें, रेलवे स्टेशन, मेट्रो, आदि जनसंपत्तियों पर और मीडिया के ओबी वाहन, कैमरे आदि तोड़े और आग के हवाले किये जा रहे हैं।

लोग ऐसी सनक कैसे पाल लेते हैं? धार्मिक उन्माद ऐसा कैसे हो जाता है कि सारा विवेक मर जाय? आखिर ये बाबा लोग कौन सी घुट्टी पिला देते हैं इन मूर्ख भक्तों को? आसाराम बापू और रामरहीम जैसे धर्मगुरू कानून के हाथों नंगे हो जाते हैं लेकिन इन भक्तों के आँख का परदा क्यों नहीं हट पाता?
कल ही हरितालिका तीज का भीषण निर्जला व्रत वाला त्यौहार बीता है। इसमें भी स्त्रियाँ अन्न-जल त्यागकर अपने सुहाग की रक्षा का अनुष्ठान करती हैं। इसके पीछे जो कथा प्रचलित है उसको पढ़कर कोई भी तार्किक और विवेकशील व्यक्ति माथा पकड़ लेगा। धर्म के ठेकेदारों द्वारा एक अज्ञात भय हमारे मानस में इस प्रकार घुसा दिया जाता है कि हम आस्था के नाम पर कुछ भी ऊल-जुलूल आँख मूँदकर करते चले जाते हैं।
ईश्वर ने मनुष्य को इतना घटिया जीव तो नहीं बनाया होगा। फ़िर ये लोचा कैसे आ जाता है? दर्शनशास्त्र की किताबों मे अशुभ की समस्या- Problem of Evil" पढ़ायी जाती है। सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्वज्ञाता ईश्वर के होते हुए भी इस असार संसार में इतनी मारकाट मची हुई है। चारो ओर उन्माद और अविवेक का नंगा नाच हो रहा है। मूर्ख और पापी लोग अपने धत्‍कर्म बिना किसी अंकुश के बदस्तूर करते जा रहे हैं। पूरी दुनिया धार्मिक कट्टरता की आग की लपटों में घिरती जा रही है। सत्यमेव जयते का पाठ धूल खा रहा है। लगता है भगवान अभी पाप का घड़ा भरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। “यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवतु भारत...” का क्रान्तिक बिन्दु (Threshold Point) अभी आया नहीं लगता है। अभी निर्दोष, मासूम जानों की आहुति लेने का दौर चलता जा रहा है।
कुछ लोग कहते हैं कि धर्म और आस्था, भक्त और भगवान, पन्थ और संप्रदाय, यह सब मनुष्य की बनायी चीजें हैं। ये सब इहलौकिक धारणाएं है जिसे हम मनुष्यों ने ही बनायी है। इसके लिए किसी अन्य पारलौकिक सत्ता को दोष देना ठीक नहीं है। लेकिन सारा बवाल तो उस पारलौकिक सत्ता के चक्कर में ही हो रहा है जो बड़ा दयालु है, सबकुछ जानने वाला है और सर्वशक्तिमान है। धर्मभीरु जनता उसी के डर से तो ऐसा कर रही है। 
रे मनुष्य, तुम्हारा भगवान ऐसा क्यों है जो तुम्हें खून बहाने और तमाम अमानुषिक कार्य करने की छूट देता है? बल्कि मानो वही इस सबके लिए प्रेरित कर रहा है। क्यों वह तुम्हारी बुद्धि और विवेक का अपहरण कर लेता है? ये कैसी दयालुता, कैसी शक्ति, कैसी दिव्यदृष्टि है उसकी? धर्म में भयतत्व न हो तो यह सब भयंकर कुकृत्य भी न हों। कुछ तो लोचा है इस निर्मिती में। इस समस्या का समाधान मनुष्य जाति अबतक नहीं खोज पायी है। 
धर्म में भयतत्व को एक बार मैंने हरितालिका व्रतकथा में देखा था। कल ही बीता है यह निर्जला उपवास का व्रत। इसी मौके पर आठ साल पहले लिखी एक पोस्ट याद आ गयी है- हरितालिका व्रत कथा में भयतत्व। फ़ुर्सत से पढ़िये और सोचिए...। इस समस्या का कोई समाधान हो तो जरूर बाँटिए...

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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शुक्रवार, 11 अगस्त 2017

नेताओं की पेंशन तो बनती है

आजकल सोशल मीडिया या अन्य माध्यमों पर इस आशय की टिप्पणियाँ देखने को मिल रही हैं कि एक बार विधायक या सांसद बन जाने और पाँच या उससे कम समय के कार्यकाल पर भी आजीवन पेंशन क्यों दी जाती है; जबकि सरकारी कर्मचारियों को पूरी पेंशन पाने के लिए कम से कम बीस साल की सेवा देनी पड़ती है। कुछ लोगों ने तो बाकायदा प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर राजनैतिक पेंशन समाप्त करने की मांग की है और सोशल मीडिया पर अधिक से अधिक शेयर करने का अभियान भी चला रहे हैं।
मैं इस प्रस्ताव के विचार से कतई सहमत नहीं हो पा रहा हूँ। मुझे लगता है कि जनप्रतिनिधियों/ नेताओं (सांसद, विधायक) का कार्यकाल पाँच वर्ष या इससे कम होने पर भी पेंशन मिलने पर आपत्ति करना और इसकी तुलना सरकारी कर्मचारियों से करना सीमित दृष्टि का परिचायक है।
कभी यह भी गणना कीजिए कि चुनाव लड़कर जीत की देहरी तक पहुंचने से पहले ये लोग कितना समय और परिश्रम राजनीति की दुनिया में लगाते हैं। साल-दो साल की मेहनत करके सरकारी नौकरी पा जाने वालों की तरह कोई व्यक्ति तुरत-फ़ुरत विधायक या सांसद नहीं बन जाता। अपवादों को छोड़ दें तो इस सफलता तक पहुंचने के लिए उन्हें बीसो साल तक पसीना बहाना पड़ता है - जनता के बीच रहकर। जनता के बीच एड़ियाँ रगड़नी पड़ती हैं। माथा टेकना पड़ता है। उनका सुख दुख बांटना पड़ता है। वे जब विधायक या सांसद नहीं हुए रहते हैं तब भी जनसेवा का काम करते रहते हैं। राजनीतिक गतिविधियों में ही दिन-रात लगे रहते हैं।
जरा आकलन कीजिए कि जितने लोग राजनीति में करियर बनाते हैं उनमें कितनों को विधायकी या उससे ऊंची कुर्सी नसीब होती है? एक-दो प्रतिशत से अधिक नहीं। जबकि जनसेवा में अपनी क्षमता के अनुसार सभी लगे रहते हैं। उन्हें हर पांच साल बाद परीक्षा देनी पड़ती है। बिल्कुल नये सिरे से जुटना पड़ता है। सिर्फ एक सीट के लिए उनकी परीक्षा होती है। कितने तो ऐसे भी होते हैं जो पूरी जिंदगी लगे रहते हैं और पेंशन लायक नहीं बन पाते।
सरकारी नौकरी में तो एक बार दो-तीन साल की कड़ी मेहनत से (या चोर दरवाजे से भी) नौकरी पा जाने के बाद आजीवन वेतन व पेंशन की गारंटी हो जाती है। मेहनत से काम करें या ऊंघते रहें, ईमानदारी करें या मक्कारी करें समय से वेतन वृद्धि और वेतन आयोग की संस्तुतियां मिलती रहेंगी। दर्जनों किस्म की छुट्टियाँ और तमाम सुविधाएं भी।
जिस असुरक्षा और अनिश्चितता के बीच जनता की नजरों से ये राजनेता निरंतर परखे जाते हैं वैसी स्थिति सरकारी कर्मचारियों की नहीं है। यहाँ तो ये स्थायी लोकसेवक अतिशय सुरक्षा और न्यूनतम उत्तरदायित्व का सुख लूटने में लगे हुए हैं। मुझे तो राजनेताओं की पेंशन पर प्रश्नचिह्न लगाना बेहद अनैतिक और संकुचित सोच का परिणाम लगता है।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
संयुक्त निदेशक कोषागार व पेंशन



बुधवार, 9 अगस्त 2017

बच्चों की बड़ी बातें


डैडी - बेटा, कबतक सोते रहोगे? उठो, आठ बजने वाले हैं...
बेटा - जगा तो हूँ डैडी...!
डैडी - ऐसे जगने का क्या फ़ायदा? बिस्तर पर आँख मूँदे पड़े हुए हो।
मम्मी - देखिए, साहबजादे एक आँख खोलकर मुस्कराये और फ़िर करवट बदलकर सो गये।
डैडी - हाँ जी देखो न, इन दोनों की आदत बिगड़ गयी है। छुट्टी के दिन दोनो पड़े रहते हैं।
मम्मी - कम से कम उठकर ब्रश कर लेते और दूध ही पी लेते... कब से गिलास का दूध बनाकर टेबल पर रख आयी हूँ।
डैडी - आज तो राखी भी है न!
मम्मी – तो क्या, दोनो जानते हैं कि मूहूर्त ग्यारह बजे के बाद का है।
डैडी - अच्छा, तो अभी बेटी भी सो रही है ?
मम्मी - हाँ और क्या,  ... लेकिन वो रात को देरतक पढ़ रही थी।
डैडी - यह भी कोई अच्छी बात नहीं है। सोने का और जागने का समय फ़िक्स्ड होना चाहिए। अगले दिन छुट्टी हो या पढ़ाई, कोई फ़र्क नहीं पड़ना चाहिए। ये लोग तो हर दिन अलग प्लान लेकर चलते हैं। ...सब तुम्हारे लाड़-प्यार ने बिगाड़ा है...!
मम्मी – लीजिए, तो अब आप शुरू हो गये...!
डैडी – शुरू क्या हो गये, मैंने भी पढ़ाई की है। लेकिन इस तरह अनिश्चित दिनचर्या कभी नहीं रही मेरी। सुबह सोकर उठने, नहाने-धोने और पढ़ने का समय हमेशा एक ही रहा।
मम्मी – तो सिखा क्यों नहीं देते...? किसने रोका है...!
डैडी – मेरी बातें सुनें तब न..! मुझे तो समझ में नहीं आता कि ‘मेरे’ बच्‍चे इतने आलसी कैसे हो गये। मैं तो कभी भी ऐसा अनऑर्गनाइज्ड नहीं रहा। दिशाहीन, अनफ़ोकस्ड...
मम्मी - बेटा, सुन रहे हो न...? ठीक है मेरी बेइज्जती करा लो!
बेटा - (लेटे हुए ही) अरे डैडी, वो मैथ्स में पढ़े हो न... माइनस माइनस मिलकर प्लस होता है। दीदी और हम दोनो माइनस हैं तभी तो तुम प्लस हो।
डैडी – क्या मतलब ?
बेटा – अरे डैडी, इतनी सिम्पल बात नहीं समझे...। हम दोनो आलसी हैं क्योंकि तुम नहीं हो... J
मम्मी – देखिए, दूसरी आलसी भी आ गयी। अब दोनो को समझाइए..!
डैडी – समझाऊँ क्या, पता नहीं इन सबों को क्या मिलता है यूँ ही पड़े रहने में...!
बेटी – डैडी, तुम नहीं जानते? ओह, कैसे बताऊँ कि क्या मिलता है...? बस ये समझ लो कि ‘पड़े रहना’ एक कला है। इट्स‍ प्योर आर्ट।
डैडी – वाह, क्या बात है बेटी, शाबास...! क्या खासियत है इस कला की?
बेटी – यह बहुत कठिन है डैडी। पूरी तरह थॉटलेस होना पड़ता है। कुछ भी अगर दिमाग में चल रहा है तो वह ‘पड़े रहना’ नहीं होता। कुछ करने के बारे में सोचना तो दूर की बात है, अगर इतना सा भी सोच रहे हैं कि खाली दिमाग पड़े हुए हैं तो इस कला में कमी रह जाएगी। इसमें कुछ भी नहीं सोचना होता है। सोचने के बारे में भी नहीं और न सोचने के बारे में भी नहीं। बहुत बड़ी तपस्या है यह... जो इसमें एक्सपर्ट हो जाय वही इसका आनन्द महसूस कर सकता है।
मम्मी – सुन लिए न...! बताइए, आप तो फिलॉस्फी पढ़े हैं। कहीं सुने थे ऐसी ‘कला’ के बारे में...?
बेटा – अरे मम्मी, डैडी को चैलेन्ज मत करो... जरूर जानते होंगे यह सब।
डैडी - सारी चिन्ता से मुक्त होना तो संभव है लेकिन चिन्तन से मुक्त होना तो सही में परम सिद्ध योगी ही कर सकते हैं। महर्षि पतन्जलि के अष्टांगिक योगमार्ग में एक चरण ऐसा आता है।
बेटा – अच्छा डैडी, अब उसे छोड़ो। यह बताओ कि तुम अपने हाथ से कपड़ा क्यों प्रेस कर रहे हो? धोबी को क्यों नहीं दे देते?
डैडी – मुझे यह काम आसान लगता है। बचपन से आदत है। खाली बैठने से अच्छा है इस स्किल का फ़ायदा उठा लिया जाय।
बेटी – लेकिन कपड़ा जलने का डर भी तो रहता है। मम्मी अपनी साड़ी जला चुकी हैं। अभी देखो, वहाँ की चादर लाल हो गयी है। JJ
डैडी – अच्छा, क्या गारन्टी है कि धोबी अच्छा प्रेस कर ही दे? किसी से भी जल सकता है। सबको उतनी ही सावधानी बरतनी पड़ती है।
बेटा – अच्छा डैडी, ये बताओ अगर धोबी तुम्हारा कोई नया कपड़ा जला दे तो क्या करोगे?
डैडी – क्या कर सकता हूँ? अपना ही माथा ठोंक लूंगा। वह बेचारा तो वैसे ही घबरा जाएगा। कोई जानबूझकर तो जलाएगा नहीं। ऐसे में उसे कुछ भी भला-बुरा कहने से कोई फ़ायदा नहीं होगा। हाँ उसे यह बताया जा सकता है कि आगे से उसे प्रेस के लिए कपड़ा नहीं मिलेगा।
बेटा – हाँ, ताकि वह आगे से लापरवाही नहीं करेगा। ...लेकिन मन में तो उसके खिलाफ़ खूब खराब वाली फ़ीलिंग आयेगी न...?
बेटी – ऑफ़कोर्स आयेगी...! कोई उसकी आरती थोड़े ही न उतारेगा। लेकिन... यू हैव टु कन्ट्रोल योर फ़ीलिंग्स मेनी टाइम्स...!
बेटा – हाँ, सही है। मन के भीतर जैसी-जैसी फ़ीलिंग्स पैदा होती हैं अगर सबको बाहर कर दिया जाय तो यह दुनिया ढह जाएगी। अपनी टीचर, क्लास टीचर, बस ड्राइवर, कोच, सीनियर भैया लोग, दीदी लोग, बगल वाले अंकल-आन्टी. काम वाली दीदी, गार्ड अंकल...
डैडी – बाहर वाले ही क्यों, घर के भीतर भी तो बताओ...! मम्मी, डैडी, दीदी, बाबाजी, दादी जी, ताई-ताऊ, आदि-आदि...
बेटी – अब रहने दो डैडी, यह सोचना भी ठीक नहीं है। पड़े रहने दो...

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