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गुरुवार, 25 मई 2017

ऑर्टीमिसिया और ओडीएफ़ गाँव की खोज


आजकल की भीषण गर्मी के मौसम में बाहर की ठंडी हवा खानी हो तो सबेरे अंधेरा छटते ही निकल लीजिए। जॉगिंग करनी हो, टहलना हो अथवा किसी उद्यान में बैठकर गप्पे लड़ाना हो या योगासन करना हो। प्रातःकाल के एक-दो घंटे ही राहत देने वाले हैं। आज मैंने भी कई दिनों बाद हवाखोरी के लिए बाहर निकलने का मन बनाया। साथ में मेरी प्यारी साइकिल भी थी।
हम अपनी कॉलोनी से जेलरोड होते हुए स्टेडियम के आगे जाकर रायबरेली पुलिस लाइन्स के बगल से मटिहा रोड पर आगे बढ़े और दो-तीन गांवों को पार करते हुए सई नदी के पुल तक गये। खेतों से गेहूँ की फसल कट चुकी है। हरियाली के नाम पर नेनुआ, तरोई, कद्दू, लौकी, खीरा, ककड़ी आदि सब्जियों वाले इक्का-दुक्का खेत मोर्चा सम्हाले हैं। सूखते हुए तालाबों की सतह पर जमी हुई काई भी हरी-भरी थी। एक जगह पिपरमिंट का खेत भी दिखा, और उसके बगल में करीब तीन फीट ऊँची झाड़ीनुमा फसल की कटाई होती दिखी। इसे पहले तो मैंने भांग का झाड़ समझा लेकिन करीब जाने पर कुछ अलग प्रकार का पौधा लग रहा था। उत्सुकतावश मैंने यहाँ साइकिल रोक दी।
अपने परिवार की महिलाओं के साथ यह फसल काट रहे किसान ने इसका नाम 'अल्टीमिसिया' बताया। बता रहे थे कि इसकी पत्तियों से बुखार की दवा बनती है। एक महिला ने बताया कि इसे सुखाकर बोरे में भरा जाएगा और ट्रक से मध्यप्रदेश के रतलाम भेजा जाएगा। (सागर विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर Dr Siddhartha Mishra जी के अनुसार इसका सही नाम Artemisia है।) मैंने उन लोगों से और बात की तो पता चला कि सूखी हुई पत्तियों के लिए 3400 रूपये प्रति क्विंटल का दाम किसान को मिलेगा। डेढ़ बीघे के इस खेत से करीब पंद्रह क्विंटल माल तैयार होगा। तीन-चार महीने में तैयार हो जाने वाली इस फसल से करीब 50000 रू. मिलेंगे। मैं यह नहीं पूछ सका कि पूरी लागत छांटने के बाद मुनाफा कितना होता होगा। कोई जानकार इसपर प्रकाश डाले।
गांव के लोग सुबह के धुंधलके में उठकर सिर्फ टहलने के लिए नहीं निकलते। अनेक जरूरी काम इस ठंडे समय में करना होता है। सब्जी के खेतों की निराई-गुणाई, बकरी चराना, पशुओं के लिए हरे चारे की व्यवस्था, गोबर व अन्य अपशिष्ट बाहर के घूरे तक पहुंचाने का काम इसी समय होता है। इसके साथ ही एक काम जो सभी पुरुष और महिलाएं, बच्चे, बूढ़े, जवान, लड़के, लड़कियां, सास और बहू, मालिक और नौकर इस समय करते हुए दिखे वह था बहु-प्रचारित ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम को मुँह चिढ़ाना।
खुले में शौच करने की परंपरा को शतप्रतिशत बन्द करने की महत्वाकांक्षी योजना (ODF) का लेशमात्र प्रभाव भी मुझे लाला का पुरवा, कोल्वा और इब्राहिमपुर जैसे गांवों में नहीं दिखा। बड़े और पक्के मकानों से भी हाथ में बोतल या लोटा लिए खेतों की ओर जाते या वापस लौटते लोग दिखे। शुरुआत में महिलाओं और लड़कियों की संख्या अधिक थी और बाद में पुरुषवर्ग ज्यादा दिखा। सई नदी के तटपर जाने वालों को पानी ले जाने की भी जरूरत नहीं थी। इक्कीसवीं सदी के राइजिंग इंडिया को शर्मसार करती कुछ तस्वीरें छोड़े जा रहा हूँ। निजता की मर्यादा के समादर में महिलाओं के चेहरे अलक्षित हैं।





















सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
www.satyarthmitra.com


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