प्रयागराज में 15 साल पहले जब हम कोषाधिकारी की नौकरी करने गए और अपने पठन-पाठन के शहर में जाते ही जब हमें ब्लॉगरी का चस्का लगा तो उसी सिलसिले में अनेक प्रतिष्ठित ब्लॉगर्स से संपर्क हुआ। ज्ञानदत्त पांडे, अनूप शुक्ल, डॉ कविता वाचक्नवी, डॉ अरविंद मिश्र और हर्षवर्धन त्रिपाठी जैसे शीर्षस्थ ब्लॉगर्स ने मेरे घर तक आकर मुझे धन्य किया। आदरणीया कविता जी को लेकर प्रकाश त्रिपाठी आए थे जो शहर के प्रतिष्ठित अनामिका प्रकाशन से जुड़े थे। फिर इस प्रकाशन के कर्णधार विनोद कुमार शुक्ल जी से मुलाकात हुई जिनसे बाद में पारिवारिक मित्रता हो गयी। विनोद जी अनेक नामी व स्थापित साहित्यकारों की कृतियां तो छापते ही हैं उनके द्वारा नवोदित लेखकों, कवियों, शोधार्थियों और शौकिया रचनाकारों को भी प्रकाशित किया जाता रहा है। कालांतर में प्रयागराज से स्थानांतरण के बाद भी विनोद जी से हमारा संपर्क निरंतर बना रहा है।
अभी जब प्रयागराज में मेरी दुबारा तैनाती हुई तो एक दिन मैं बेधड़क विनोद जी के घर चाय पीने पहुंच गया। वे बेहद आत्मीयता से मिले। फिर मेरी उत्सुकता को शांत करने के लिए वे एक के बाद एक प्रकाशित नायाब पुस्तकें दिखाते रहे। विषय का वैविध्य और पुस्तकों के आकार-प्रकार व डिज़ाइन के आकर्षण में मैं खोता गया। पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में पिछले दस वर्षों में हुई उनकी प्रगति देखकर मेरा मन अत्यंत प्रसन्न हो गया। इस अद्भुत उत्थान को देखकर मैंने आश्चर्यवश पूछा - आप ने अकेले यह कैसे कर लिया? कॅरोना लॉक-डाउन की लंबी बाधा के बावजूद? उसपर अब तो प्रकाश जी भी वर्धा चले गए हैं?
विनोद जी ने बताया कि प्रकाशन व्यवसाय की कमान अब उनकी अगली पीढ़ी के मानस ने संभाल ली हैं। वही मानस जिसे हमने पहले एक नटखट छोटे बच्चे के रूप में ढेर सारी रोचक बातें करते हुए आनंद से देखा था। नोएडा के एक प्रतिष्ठित संस्थान से एमबीए करने के बाद मानस ने अब अपने पिताजी के इस भावनात्मक व शौकिया उपक्रम को प्रोफेशनल तरीके से विकसित किया है। अत्याधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी, ऑनलाइन कम्प्यूटर तकनीकी व विशेषज्ञ नियोजन के माध्यम से अनामिका प्रकाशन का कायाकल्प अब मानस प्राइवेट लि. कम्पनी के रूप में हो चुका है। विनोद जी कदाचित अब पुस्तकों के संपादक की भूमिका में आ गए है। पुस्तकों की साज-सज्जा व मुद्रण का कार्य दिल्ली में अधुनातन पद्धति से और अधिकांश बिक्री अमेजन जैसे ऑनलाइन माध्यमों से होने के कारण व्यावसायिक दक्षता भी बेहतरीन हो गयी है। किताबें धड़ाधड़ छप व बिक रही हैं।
जब मेज पर सद्यःप्रकाशित व प्रकाशन को तैयार ढेर सारी पुस्तकों का अंबार लग गया तो मैंने बड़े संकोच के साथ उनमें से तीन दुबली- पतली क़िताबों को अपने लिए अलग किया। इससे अधिक इसलिए भी नहीं कि पहले ही घर में अनेक अनपढ़ी किताबें अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रही हैं। नौकरी की व्यस्तता से अलग टीवी की चुनावी चकल्लस, व्हाट्सएप ज्ञान-भंडार के अविरल प्रवाह और ओटीटी की वृहद सामग्री ने इन पुस्तकों के लिए समय की किल्लत पैदा कर दी है।
बहरहाल, विनोद जी ने इन तीनो पुस्तकों को मुझे सहर्ष भेंट किया। मानस ने हमें बढ़िया अदरक वाली चाय पिलायी और हमने इस नौजवान व होनहार उद्यमी की सफलता पर बधाई दी और भविष्य में खूब प्रगति के लिए शुभकामनाएं दीं।
डॉ त्रिभुवन सिंह ने अपनी पुस्तक में अंबेडकर की बहु-प्रचारित पुस्तक में स्थापित मान्यताओं की शोधपरक पड़ताल करते हुए अनेक सार्थक प्रश्न उठाए हैं और इस विषय पर नए सिरे से सोचने को मजबूर किया है। हृदय नारायण दीक्षित की पुस्तक में दीनदयाल उपाध्याय के व्यक्तित्व व कृतित्व पर कुछ नई बात बताई गयी है। सुभाष चंद्र कुशवाहा ने अपनी शोधपरक पुस्तक में कबीर के जीवन व उनके सामाजिक प्रभाव को नितांत विपरीत परिस्थितियों व विरोध के बावजूद दुर्दमनीय बताते हुए उसके युग-प्रवर्तक महत्व को रेखांकित किया है।
इन तीन पुस्तकों के शीर्षक व इनकी विषय-वस्तु से यह सहज ही विश्वास हो जाता है कि इंटरनेट व इलेक्ट्रॉनिक गजेट्स के इस जमाने में भी कागज पर छपी पुस्तकों का महत्व अभी भी कम नहीं हुआ है। छात्र-छात्राओं, अध्येताओं, मनीषियों व सामान्य पाठकों की रुचि का पेट भरने के लिए और तमाम लेखकों, कवियों, साहित्यकारों व नवोदित कलमकारों की बौद्धिक कृतियों को उनके अभीष्ट तक पहुंचाने के लिए अभी भी पुस्तकें अपरिहार्य हैं।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)