क्या हमारा समाज सादा जीवन उच्च विचार का मंत्र भूलता जा रहा है?
महाराष्ट्र के एक पूर्व मुख्यमंत्री एक बड़े और चर्चित घोटाले की जांच के लिए राज्य सरकार द्वारा गठित आयोग के समक्ष शनिवार को पेश हुए। आज शाम यह समाचार सभी चैनेलों पर वीडियो क्लिप के साथ आ रहा है। गाड़ी से उतरकर नेता जी बत्तीसो दाँत मुस्करा रहे हैं और अपने समर्थकों और “प्रशंसकों” से हाथ मिलाते हुए ऐसे आगे बढ़ रहे हैं जैसे दिल्ली में खाली हुए वित्तमंत्री के पद की शपथ लेने जा रहे हों। चेहरे पर ऐसा आत्मविश्वास सी.डब्ल्यू.जी. और थ्रीजी घोटाले के सरगनाओं के चेहरे पर भी चस्पा रहता था जब चैनेल वाले उनके जेल से अदालत आने जाने की तस्वीरें दिखाते थे। ऐसा आत्मविश्वास देखकर मुझे पहले तो आश्चर्य होता था लेकिन अब अपनी सोच बदलने की जरूरत महसूस होने लगी है।
मैंने अपने समान विचारों वाले एक मित्र से चर्चा की तो उसने तपाक से कहा- मुझे तो इन सबको देखकर अपने भीतर हीनता का भाव पैदा होने लगा है। वह आगे बोलता गया और मैं समर्थन में सिर हिलाता हुआ हूँ-हूँ करता रहा - थोड़ी ईर्ष्या सी होती है इस मजबूती को देखकर। इधर तो इस आशंका में ही घुले जाते हैं कि सरकारी कुर्सी पर बैठने के कारण ही लोग जाने क्या-क्या सोचते होंगे। गलती से भी कोई गलत काम हो गया और बॉस ने स्पष्टीकरण मांग लिया तो क्या इज्जत रह जाएगी। समाज को क्या मुँह दिखाएंगे? बीबी बच्चों को कैसे समझाएंगे कि मैने कोई ऐसा-वैसा काम नहीं किया है, बस थोड़ी ग़लतफहमी पैदा हो गयी है जो जल्दी ही ठीक हो जाएगी। प्रत्तिष्ठा बचाने के चक्कर में बहुत नुकसान उठाना पड़ा। कई बार सुनहले मौके हाथ से चला जाने दिया। सहकर्मियों की लानत-मलानत झेलनी पड़ी। कितने बड़े लोगों से दोस्ती बनाने का अवसर चूक गया। बड़ी-बड़ी पार्टियाँ हमसे किनारा करती गयीं। सत्ता के गलियारों में पूछने वाला कोई नहीं रहा। कोई गॉडफादर नहीं मिला हमें। शायद मैं किसी काम नहीं आने वाला था। किसी ने हमपर दाँव नहीं लगाया। बार-बार ट्रान्सफर होता रहा।
मैं ऐसे तमाम लोगों को देखता रहता हूँ जिन्होंने मेरे साथ ही नौकरी शुरू की और देखते-देखते कहाँ से कहाँ पहुँच गये। बड़ी-बड़ी कोठियाँ खरीद लीं, कितने प्लॉट अपने घर-परिवार के नाम कर लिये, आलीशान कारें और विलासिता के तमाम साधन जुटा लिए। इनके आगे-पीछे प्रशंसकों और तीमारदारों की भीड़ लगी रहती है। तमाम लोग सेवा के लिए तत्पर रहते हैं। नौकरी में एक ही जगह लम्बे समय तक जमे रहे। किसी ने हटाने के लिए शिकायती चिठ्ठी नहीं लिखी। इनसे वे सभी लोग संतुष्ट और प्रसन्न रहे जो सत्ता के गलियारों में जाकर इनकी शिकायत कर सकते थे और नुकसान करा सकते थे। मुझमें यह कुशलता नहीं रही। मुझसे ऐसे लोग प्रायः नाराज ही रहे। सरकारी नियमों से डरा-सहमा सा मैं उनकी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाने में चूक गया। बदले में मिली झूठी शिकायतें और सत्ता प्रतिष्ठान की उपेक्षा।
अबतक अपने मन को, अपने परिवार को और अपनी पत्नी को भी सफलता पूर्वक समझाता आया हूँ कि ग़लत तरीके से कमाया हुआ पैसा तमाम ग़लत रास्तों पर ले जाता है। ऐसे लोगों को अच्छी नींद नहीं आती। जीवन में वास्तविक सुख और आनन्द नहीं मिलता। भौतिक साधनों में अधिकतम की कोई सीमा नहीं होती। इसे और बढ़ाते जाने की लालसा लगातार बढ़ती ही जाती है। इसलिए हमें अपनी जरूरतों का न्यूनतम स्तर तय करना चाहिए और उनकी पूर्ति कर लेने भर से प्रसन्न रहना चाहिए। संतोष-धन को ही सबसे बड़ा धन मानना चाहिए।
लेकिन यह सारी समझाइश कभी-कभी मुझे ही डाउट में डाल देती है।
देखता हूँ उनकी पूजा होते हुए जो माल कमाने और खर्च करने में प्रवीण हैं। उनकी हाई-सोसायटी में तगड़ी पकड़ है। सत्ता के ऊँचे गलियारों में गहरी पैठ है। देखता हूँ उनके घर-परिवार वाले उनसे बहुत खुश हैं, रिश्तेदार उन्हें घेरे रहते हैं। वे शादी-ब्याह और अन्य पार्टियों में अलग से बुलाये जाते हैं। बच्चे उन्हें कुछ ज्यादा ही मिस करते हैं। वे उनकी सभी फरमाइशें पूरी कर सकते हैं इसलिए बहुत अच्छे पापा और लविंग-हस्बैंड हैं। वे उन्हें देश-दुनिया की सैर कराने ले जाते हैं, मॉल, पिकनिक, सिनेमा, शॉपिंग आदि पर खूब खर्च कर सकते हैं। शायद वे अपने लिए ज्यादा खुशियाँ भी खरीद पा रहे हैं। समाज में उनकी इज्जत कुछ ज्यादा ही है।
हमारे समाज का नजरिया क्या कुछ बदल नहीं गया है? एक बार मैंने अपने एक अधिकारी मित्र से अपने किसी दूर के परिचित की सिफारिश कर दी। परिचित का काम बिल्कुल सही था लेकिन उक्त अधिकारी ने बिना उचित और पर्याप्त सुविधा शुल्क के काम करने से मना कर दिया था। मैने सिफारिश करने से पहले उक्त अधिकारी से ही यह कन्फर्म भी कर लिया कि काम सोलहो आने सही है, इसमें कोई कानूनी बाधा नहीं है। लेकिन जब मैंने काम कर देने के लिए सिफारिश कर दी तो उन्होंने बड़ी विनम्रता से काम करने से मना कर दिया। बोले- भले ही यह काम सही है लेकिन यदि मैंने आपके कहने पर यह काम बिना पैसा लिए कर दिया तो मेरा नुकसान तो होगा ही; आपको भी बहुत दिक्कत पेश आएगी।
उनकी आखिरी बात से मैं उलझन में पड़ गया। मेरे चेहरे पर तैरती जिज्ञासा को भाँपकर उन्होंने स्थिति स्पष्ट कर दी - बात सिर्फ़ इस केस की नहीं है, डर इस बात का है कि यदि फील्ड में यह बात फैल गयी कि मैंने आपके कहने पर बिना पैसा लिए काम कर दिया तो लोग आगे भी आपको एप्रोच करने लगेंगे। मैं यह कत्तई नहीं चाहता कि यह मेसेज जाय कि मै बिना पैसा लिए भी काम कर सकता हूँ।
उनकी बात का लब्बो-लुआब यह था कि उन्होंने बड़ी मेहनत से यह ख्याति अर्जित की थी कि बिना पैसा लिए वे अपने बाप की भी नहीं सुनते। इस ख्याति के साथ कुर्सी पर जमे रहने के लिए उन्हें “ऊपर” काफी मैनेज भी करना पड़ता था इसलिए मेरी सिफारिश ठुकरा देना उनकी भयानक मजबूरी थी जिसका उन्हें खेद था।
अब ऐसे अधिकारियों की संख्या बढ़ती जा रही है जो अपना प्रोमोशन जानबूझकर रुकवा देते हैं क्योंकि प्रोमोशन वाले पद की अपेक्षा वर्तमान पद ज्यादा मालदार है। ऐसा करने के लिए वे बाकायदा अपनी एसीआर खराब करवा लेते हैं, जानबूझकर सस्पेंड हो लेते हैं, या प्रोमोशन प्रक्रिया में खामी ढूंढकर अदालत से स्टे करा लेते हैं। यह सब करते हुए इन्हें कभी कोई शर्म नहीं आती। यह सब बड़े ही आत्मविश्वास से किया जाता है। शायद अदालते इस खेल को समझ नहीं पाती हैं या कैंसर वहाँ भी फैल चुका है... पता नहीं।
धन की लूट में यदि यदा-कदा ट्रैप कर लिये जाँय, एफ़.आई.आर. हो जाय, जेल जाना पड़ जाय तो भी जमानत कराकर लौटने के बाद चेहरे पर कोई मायूसी या झेंप का भाव नहीं रहता। बड़े आराम से दिनचर्या वापस उसी पटरी पर लौट आती है। वही हनक दुबारा फैल जाती है और वही आत्मविश्वास फिर से लौट आता है।
राष्ट्रीय पटल पर बड़े-बड़े घोटाले और उनमें शामिल हाई-प्रोफाइल घोटालेबाजों को मुस्कराते देखते हुए हमारे समाज में अब इन्हें ऐसी स्वीकृति मिल चुकी है कि निचले स्तर पर कदम-कदम पर भ्रष्टाचार से सामना होने पर हम कतई विचलित नहीं होते। फिर इनका आत्मविश्वास तगड़ा क्यों न हो भाई...!
(Satyarthmitra सत्यार्थमित्र)