आज सोलहवीं लोकसभा के लिए वोट डाल कर आया हूँ। चुनावी ड्यूटी की जिम्मेदारी थी इसलिए रायबरेली में बना रहना अनिवार्य था। वर्ना आज लखनऊ जरूर जाता। इसलिए कि आज उस घड़ी को याद करने का दिन भी है जब मेरे जीवन में युगान्तकारी परिवर्तन की शुरुआत हुई; जब मेरे मन पर और मेरी इच्छाओं पर स्थायी लगाम लगाने की ठोस व्यवस्था सुनिश्चित कर दी गयी थी। जी हाँ, आपने ठीक समझा। इसी तारीख को मेरी शादी हुई थी। पन्द्रह साल पहले। आज से मैं दांपत्य जीवन के सोलहवें साल में प्रवेश कर रहा हूँ।
मैं इस सालगिरह को चुनाव की भेंट चढ़ाने का दोष लेकर कैसे रह जाता…! इसलिए मैंने लखनऊ से श्रीमती जी और बच्चों को रायबरेली बुला लिया। एक तरफ़ नौकरी और दूसरी तरफ़ बच्चों की शिक्षा की जरूरतों को एक साथ साधने के लिए और साथ ही एक-दूसरे का साथ पाने के लिए हम दोनो के लिए लखनऊ और रायबरेली की दूरी नापते रहने की मजबूरी साथ लग गयी है। कुछ वैसे ही जैसे केन्द्र में सरकार चलाने के लिए दूसरे दलों से गठबंधन करने की मजबूरी होती है। इस मजबूरी की आगे भी जारी रहने की संभावना है, अगली सरकार की ही तरह। अपनी शादी के सोलहवें साल के बारे में सोचते-सोचते मुझे सोलहवी लोकसभा का ध्यान आ जाता है और कभी इसका उल्टा भी।
इस चुनाव के बाद ज्यादा संभावना यही है कि सत्ता की सेज पर जमे रहने के लिए सबसे बड़े दल को छोटे-छोटे दूसरे दलों के साथ गठबंधन करना पड़ेगा, उनके नखरे उठाने पड़ेंगे, अपना मैनीफेस्टो ताख पर रखकर उनके साथ न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय करना पड़ेगा; और रोज-ब-रोज उनके मूड का ख्याल रखना पड़ेगा। ना जाने कौन सी बात उन्हें नागवार लगे और बिदककर समर्थन वापस ले लें। एक मदारी की तरह हाथ में लोकलुभावन घोषणाओं का बाँस लेकर संतुलन बनाते हुए आसमान में तनी हुई सत्ता की रस्सी पर चलना होगा। सारा ध्यान बस इसपर कि इस छोर से उस छोर तक सकुशल पहुँच सके।
शादी की सत्ता भी कुछ ऐसा ही कौशल मांगती है। यह भी ऐसा ही गठबंधन है कि अपनी छोड़ अपने पार्टनर के बारे में ज्यादा सोचना पड़ता है, सोलहवाँ साल आते-आते तो कुनबा बढ़कर ऐसा हो जाता है कि आप पूरी तरह अल्पमत में आ जाते हैं। आप की कोई नहीं सुनता और आपको सबकी सुननी पड़ती है। बच्चों से लेकर बड़े-बूढ़ों तक जो जैसा कहे आपको वैसा ही करना पड़ता है। बिल्कुल यूपीए-टू की तरह। अभी एक मित्र ने फेसबुक पर स्टेटस डाला कि शादी के पहले तो सभी केजरीवाल होते हैं लेकिन बाद में मनमोहन बन जाना पड़ता है। ठीक ही कहा है, कमोबेश सबका अनुभव ऐसा ही होता होगा।
जीवन के सोलहवें साल का जो सुरूर होता है वह शादी के सोलहवें साल में शीर्षासन करता दीखता है। वह उमंग, वह उत्साह, वह क्रान्ति कर डालने का जज़्बा, कुछ भी कर डालने की ऊर्जा का एहसास लेकर जब सोलह साल की उम्र में हम स्कूल से कॉलेज पहुँचते हैं और अपने करियर की जद्दोजहद के बाद नौकरी और शादी का पायदान छू लेते हैं तो जीवन एक उत्सव लगने लगता है।
इस उत्सव को और आगे तक ले जाने के लिए हमें एक साथी मिलता है, जीवन भर साथ निभाने को। ऐसी घड़ी को याद करने और अच्छा महसूस करने का समय तो निकालना ही चाहिए। छोटी-छोटी खुशियों को सहेजकर ही हम जीवन में उमंग और उत्साह को बनाये रख सकते हैं और शादी की सत्ता का स्वाद लंबे समय तक ले सकते हैं। सोलहवें के सुरूर को जो जितनी दूर तक खींच कर ले जा सके वह उतना ही धन्य है। इष्टमित्रों व रिश्तेदारों की शुभकामनाएँ भी तो इसी लिए हैं।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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