हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

मंगलवार, 27 मई 2008

अर्जित अवकाश पर गाँव जा रहा हूँ…

ब्लॉगर बंधुओं, आखिर वो घड़ी आ ही गई जब मुझे पन्द्रह दिन के अर्जित अवकाश पर अपने पैतृक गाँव जाना पड़ रहा है। मेरे दादा जी ने इमरजेन्सी काल पर परिवार के सभी सदस्यों को तुरंत बुला लिया है। लगता है जीवन के ध्रुव सत्य से साक्षात्कार कराने की मंशा है।

वहाँ गाँव में इण्टरनेट और कम्प्यूटर तो दूर की बात बिजली भी कभी-कभी ही आती है। ऐसे में ब्लॉग की दुनिया कुछ समय के लिए दूर हो जाएगी। लेखन कठिन हो जाएगा। इसका दुःख कम है लेकिन निरन्तर बह रही विचारों की अजस्र धारा में डुबकी लगाने का सुख कुछ दिनों के लिए रुक जाएगा इससे थोड़ा उदास हूँ। मेरे लिए तो यह कल्पना करना कठिन हो रहा है कि संचार के इस साधन के बिना दिन कैसे गुजरेंगे। जबकि मात्र दो महीने पहले इस दुनिया से मैं लगभग अन्जान था। बस अखबारी ज्ञान से इसका नाम सुन रख था।

देखते-देखते आपलोगों से इतना जुड़ाव हो गया है कि पंद्रह दिन का विछोह भारी लग रहा है। लेकिन कर ही क्या सकते हैं। जीवन के अन्य पहलू भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसलिए मिलते हैं एक ‘छोटे से’ ब्रेक के बाद… नमस्कार।

सिद्धार्थ

सोमवार, 26 मई 2008

दादाजी की बीमारी और बस की सवारी

मेरे दादा जी उम्र का शतक पूरा करने के काफी करीब पहुँच गये हैं। शरीर में दो खराबियाँ जवानी के दिनों में ही आ गयी थीं, जो अब भी बरकरार हैं। एक तो काफ़ी ऊँचा सुनते हैं और दूसरे फ़िसलकर गिरने से दाहिना घुटना टूटकर कमजोर हो गया है। बताते हैं कि उस जमाने में बिना अस्पताल गये देहाती ‘हड़जोड़’ नामक लता बाँधकर ठीक करने के प्रयास में वे स्थायी रूप से लंगड़े हो गये थे। फिरभी इन दो सीमाओं (limitations) का उनके जीवन पर कोई खास दुष्प्रभाव नहीं पड़ा। कुछ साल पहले तक घर के बच्चे उनका बहरापन ‘सेलेक्टिव’ होने का प्रमाण जुटाते रहते थे। दूसरी ओर पैर से कमजोर होने के बाद भी उनकी लम्बी दूरी की पैदल यात्राओं के वृत्तांत हमलोग खूब सुना करते थे।

लेकिन जबसे दादाजी नब्बे का स्कोर पार किए हैं तबसे लगता है ‘नर्वस- नाइन्टीज़’ का शिकार हो गये हैं। लेकिन भगवान का शुक्र है अभी आउट होने से बचे हुए हैं। चार साल पहले उन्हे हल्का पक्षाघात हुआ था लेकिन हफ़्ते भर में ही नर्सिंग होम से सकुशल बाहर आ गये थे। इसके बाद थोड़ी निगरानी बढ़ा दी गयी थी। समझ लीजिए कि अभी तक ‘रनर’ लेकर बैटिंग जारी है। लेकिन इस सप्ताह मुझे अचानक सूचना मिली कि बिस्तर से नीचे लुढ़क जाने के बाद ‘बाबाजी’ एक बार फिर गोरखपुर के उसी अस्पताल में भर्ती हो गये हैं, स्थिति ठीक नहीं है। आनन-फानन में मुझे इलाहाबाद से रवाना होना पड़ा। सरकारी बस से। यहाँ बिताए छात्र जीवन के दौरान रोडवेज़ की बस में बहुत बार यात्रा कर चुका था, लेकिन इस बार की यात्रा कुछ अलग जान पड़ी।

रात्रि-सेवा की बस में जाते समय तो रास्ते भर इसी चिंता में नींद नहीं आयी कि कहीं मुझे अंतिम दर्शन मिल भी पाएगा कि नहीं। भोर में चार बजे अस्पताल पहुँचने पर पाया कि दादाजी के साथ ही तीमारदार भी आराम से सो रहे थे। सुबह की विजिट के बाद डॉक्टर उन्हे डिस्चार्ज करने वाले थे। सी.टी.स्कैन की रिपोर्ट संतोषजनक थी। दस बजे डॉक्टर ने देखने के बाद उन्हे घर ले जाकर सेवा करने की सलाह दी। थर्ड-अम्पायर का मन-माफिक फैसला देखने के बाद मैने प्रयाग वापसी के लिए बस स्टेशन की राह पकड़ी।

गोरखपुर से इलाहाबाद आने के लिए कोई सीधी बस मौके पर मौजूद नहीं पाकर मैने आजमगढ़ की बस मे जगह ले ली। हल्की बूँदा-बाँदी के बीच कीचड़ में खड़ा होकर ‘पवन-गोल्ड’ की प्रतीक्षा करने से बेहतर यही लगा कि इस खटारे की सवारी कर ली जाय। बस-कंडक्टर संभावित यात्रियों की बाँह पकड़कर इस बस में बैठाने को आतुर था। ड्राइवर भी बस को ‘स्टार्ट’ रखकर एक झूठा उपक्रम करता रहा कि यात्री बस के तुरन्त छूटने की आस लगाए रहें।

बस के भीतर का माहौल बिल्कुल सरकारी कायदे के अनुसार था। घुसते ही सामने सांसद/विधायक/स्व.संग्राम-सेनानी के लिए आरक्षित सीट थी। इसके पीछे महिला सीट का आरक्षण प्रदर्शित था। बस में यात्रियों की संख्या काफी कम थी इसलिए खाली सीटों पर अपने स्थान से सरक चुकी गद्दियाँ साफ-साफ अपने साथ हुए दुर्व्यवहार की कहानी कह रही थीं। सीट की पीठ के नाम पर जंग लगी लोहे की पाइप के फ्रेम पर लटका हुआ कुशन था जिसके रेक्सीन से जहाँ-तहाँ झाँकता हुआ जूट का चिथड़ा इसकी उम्र बता रहा था। कहीं-कहीं समूची पीठ ही नदारद थी।

खैर, इसके पीछे वाली बस के कंडक्टर ने जब दबाव बनाया तो करीब डेढ़ दर्जन यात्रियों को लेकर जोरदार घरघराहट के साथ बस चल पड़ी। चूँ-चाँ,…खटर-खटर,…धड़्क-तड़्क,…फ़टाक-तड़ाक,…घों-घों,…पें-पें…आदि की अनगिनत ध्वनियाँ कर्ण-मंथन करने लगीं। शहर से बाहर निकलते-निकलते दर्जनों ठहराव लेकर ड्राइवर ने यह जाहिर कर दिया कि उसे कोई जल्दी नहीं है। बस में यात्रियों की संख्या पूरी किये बग़ैर शहर छोड़ने का मन कत्तई नहीं था उसका।

बस में आगे की सीट पर बैठे होने की वजह से अगले हिस्से में पसरी हुई गंदगी और सामने लिखी इबारतें पढ़ने का अवसर मिल गया। ड्राइवर की सीट के ठीक ऊपर लिखा था- “सावधानी हटी, दुर्घटना घटी”। बस की गति अपने आप में सावधानी की गारण्टी दे रही थी। जब एक के बाद एक तीन बसों ने इसे ओवरटेक कर लिया तो कंडक्टर ने प्रश्न खड़ा कर रहे यात्रियों को कछुए और खरगोश की कहानी याद दिला दी। कुछ यात्री बस-चालक से गति तेज करने की गुहार लगाने लगे तो उसने उस ओर इशारा कर दिया जहाँ लिखा था- “कृपया चालक पर तेज गति से बस चलाने हेतु दबाव न डालें।”

वहीं कुछ और भी उपयोगी बातें लिखी हुई थीं। जैसे- “संयम से होती स्व-रक्षा, गति से पहले हो सुरक्षा।” ड्राइवर के लिए यह सलाह भी कि, “करें विचारों का कण्ट्रोल, बचाएं डीजल व पेट्रोल।” कदाचित्‌ कंडक्टर की मनमानी रोकने के उद्देश्य से यह सूचना लिखी थी- लगेज दर- ४० पैसा प्रति कुन्तल प्रति किमी. वहीं एक जगह बस का रजि. नं. UP 50- F1582 और अंबेडकर डिपो का फोन नं. 05462-221428, 9415501857(ARM) लिखा हुआ था। इच्छुक यात्रियों की सुविधा के मुताबिक लिखकर बताया गया था कि, “परिवाद पुस्तिका चालक के पास है।”

यह सब लिखा देखकर लगा कि सरकार अपने यात्रियों का कितना ख़याल रखती है। मैं मुग्ध होकर यह सब पढ़ रहा था, तभी मेरी ओर बीड़ी (सिगरेट इसका उन्नत संस्करण है) के धुँए की तेज महक आई। मैं व्यग्र होकर पीछे देखने लगा ताकि यह गलती कर रहे व्यक्ति को मना कर सकूँ। लेकिन खोज बेकार जा रही थी।

धुँए के अगले भभके ने मेरा ध्यान ड्राइवर की ओर खींचा। उसके एक हाथ में बीड़ी देखा तो हैरत हुई, फिरभी मैंने उसे मना करके ‘डिस्टर्ब’ करना उचित नहीं समझा। चुपचाप अपने मोबाइल कैमरे के पार से उसे देखता रहा। अब आप भी देखिए…


चालक की बायीं ओर साफ-साफ मोटे अक्षरों में लिखा था- यात्रा के दौरान धूम्रपान निषेध।

पुनश्च:- [
घर आकर मैने ऊपर नोट किये हुए दोनो नम्बरों पर फोन मिलाया तो मोबाइल स्विच्ड-ऑफ था और बेसिक फोन की घंटी बजती रही लेकिन उठा नहीं, शायद मृत(dead) पड़ा हो।]

शुक्रवार, 23 मई 2008

अपनों से अब डर लगता है

यह एक कशमकश है।एक दुविधा है।पता नहीं सिर्फ़ मेरी है या औरों की भी है। आप इससे सहमत भी हो सकते हैं और नहीं भी।पर यह मेरे मन की भडास है जो नीचे की पंक्तियों में प्रस्तुत है:-

क्यों अपने हुए पराये,
क्यों घर वीराना लगता है?
अपनों से अब डर लगता है

कुछ ‘ऐसा’ समझाने में,
कुछ ‘वैसा’ बतलाने में
क्यों दिल का हाल सुनाने में
‘किन्तु’ ‘लेकिन’ ‘पर’ लगता है?
अपनों से अब…

बचपन से ही जो साथ रहे
संग खाये-पीये, पले-बढे,
उनके लहजे में ही क्यों अब,
पहले से अन्तर दिखता है?
अपनों से अब…

अपनों के घर अब जाने में
अब खींच के खाना खाने में
क्यों हँसने और हँसाने में,
‘एटिकेट’ का ‘गरहन’ लगता है?
अपनों से अब…

झूठ-मूठ हँस लेते हैं,
अब झूठ-मूठ रो लेते हैं,
क्यों नहीं, दुःखी सा दिखता मन
वैसा ही भीतर होता है?

अपनों से अब डर लगता है

संपादन- सत्यार्थमित्र


मंगलवार, 20 मई 2008

प्रयाग थोड़ा अलग जो है!

इलाहाबाद के संगम क्षेत्र से पश्चिम की ओर यमुना के तट पर पत्थर की ऊँची सीढ़ियाँ बना कर तैयार किया गया है ‘सरस्वती घाट’। घाट से ही सटा हुआ एक पार्क है और पार्क के पश्चिमी छोर पर शंकर जी का एक अत्यंत प्राचीन मंदिर है- ‘मनकामेश्वर’, जहाँ मन्नतें मांगने वाली औरतों और मर्दों का ताँता लगा रहता है। यमुना किनारे यहाँ से थोड़ा और पश्चिम बढ़ें तो दो जोड़ी विशाल स्तम्भोंके सहारे झूलता हुआ ‘नया यमुना पुल’ आ जाता है जो वास्तु और अभियंत्रण का शानदार नमूना है। शाम के वक्त इसे देखने और यहाँ टहलने आने वालों की अच्छी खासी भीड़ जमा हो जाती है। इस नये पुल के थोड़ा और पश्चिम पुराना ‘दुतल्ला’ पुल है। दोनो पुलों के बीचोबीच ‘बोट क्लब’ है, जहाँ हाल ही में ‘त्रिवेणी-महोत्सव’ का शानदार आयोजन हुआ था।

इस प्रकार यमुना के उत्तरी तट का यह पूरा इलाका शाम के वक्त शहरवासियों को खुली हवा में सांस लेने, पिकनिक मनाने, धार्मिक श्रद्धा की पूर्ति करने, बोटिंग का लुत्फ़ उठाने और किशोर वय के लड़के-लड़कियों को पार्क के कोने में बैठ कर गप्पें लड़ाने का एकसाथ अवसर देता है। लोगों के इस दैनिक जुटान को देखते हुए ठेला-खोमचा लगाने वाले भी ठीक-ठाक धंधा कर लेते होंगे, ऐसा मेरा अनुमान है।

रविवार की शाम को पहुँचने पर जब ‘सरस्वती-घाट’ के ठीक सामने कोई ठेला या खोमचा नहीं दिखायी दिया तो मेरी बेटी थोड़ी व्यग्र हो उठी। बड़े हनुमान जी का दर्शन करने के बाद हम सीधे यहीं आ गये थे कि शाम को घाट पर आरती देखने के साथ-साथ बच्चों की कुछ ऑउटिंग हो जाएगी। चारो ओर नज़र दौड़ाने पर यह समझ में आ गया कि घाट पर बनी दो पक्की दुकानों के ठेकेदार मालिकों ने अपने धंधे के हित में किसी छोटे खोमचे वाले को इधर फटकने नहीं दिया होगा। वाहन से उतर कर हम अभी सामने यमुना की ओर निग़ाह डाल ही रहे थे कि दो-तीन छोटे-छोटे लड़के हाथ में प्लास्टिक की कुर्सियाँ उठाये हमारी ओर चल पड़े। उनके बीच हमें जल्दी से अपनी कुर्सी पर बैठा लेने की होड़ काफी कुछ बता रही थी।

ख़ैर, हम बच्चों को लेकर सीढ़ियाँ उतरते हुए यमुना जी के तट पर जा पहुँचे। वहाँ भी नाव वालों के बीच सवारी बैठाने की घोर प्रतिस्पर्धा थी। हम इस पचड़े में पड़े बगैर यमुना जी को प्रणाम कर वहीं से गोधूलि बेला में नये पुल की कुछ तस्वीरें अपने मोबाइल में कैद करके वापस सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। इस दौरान हमारे आगे-पीछे वही दो-तीन लड़के मंडराते रहे और आँखें मिलते ही आइस्क्रीम, कॉफ़ी, कुरकुरे, चाउमिन, कोल्ड-ड्रिंक्स, बर्गर, सैन्डविच, पनीर-पकौड़े, कुल्फ़ी आदि की पेशकश एक खास शैली में करते गये। कुछ वैसे ही जैसे विन्ध्याचल, बनारस, या दूसरे तीर्थों में पण्डागण यात्रियों के पीछे लग जाते हैं। हालत यह हो गयी कि हमें मजबूरन एक जगह कुर्सी पर जगह लेनी पड़ी। इसके साथ ही वे लड़के अन्य कुर्सियों के लिए ग्राहक तलाशने चल दिये। ऑर्डर लेने एक दूसरा लड़का आया। उसने उपलब्ध सामग्री की जो सूची बतायी वह ऊपर गिनाये गये खाद्य पदार्थों की लिस्ट से भिन्न काफी छोटी थी। बहुत सोच-विचार के बाद गर्म मौसम व बच्चों की पसंद को देखते हुए ‘पिस्ता-कुल्फ़ी’ खाने का निर्णय हुआ। इससे निरापद व सस्ता वहाँ कुछ भी मौजूद नहीं था। अठ्ठारह रुपये का दाम सुनकर हम आश्वस्त हो गये कि कुल्फ़ी अच्छी होनी चाहिये। आकर्षक पैक में लिपटी हुई कुल्फ़ी जब खोल से निकालकर मुंह से लगायी गयी तो धीरे-धीरे इसकी घटिया क्वालिटी उजागर होने लगी और थोड़ी ही देर में सबने मुँह का स्वाद बिगड़ जाने पर अफसोस करते हुए उस लड़के को लानत भेंजना शुरूकर दिया।… यह तो सरासर डकैती है, …इससे बढ़िया तो जाकर किसी बस-अड्डे पर जेब काटते, …तबसे इसी लूट के लिए पीछे पड़े थे, …सारा मजा खराब कर दिया, इससे अच्छा तो गाँव-गाँव घूमकर ‘बरफ़’ बेचने वाले दो रुपये में खिला देते है… आदि-आदि।

वह बेचारा लड़का चुपचाप सुनता रहा और अंत में इतना बोल सका, “मुझे क्या कह रहे हैं सर, हम तो किसी तरह कमाते-खाते हैं। आप मालिक से बात कर लीजिए।”

मुझे बात समझ में आयी तो खुद पर अफ़सोस होने लगा। नाहक इस बच्चे को यह सब सुनना पड़ा। असली क़सूरवार तो कोई और ही होगा। मैने सबको चुप कराकर उसे उसके नब्बे रुपये अदा किए और उठ गया। सोचने लगा- इतनी सुंदर और मनोरम जगह को भी बाजारू संस्कृति ने खराब कर रक्खा है।

बच्चों को गाड़ी में बैठने को कहकर मैं दुकान के कैश काउण्टर पर बैठे संभ्रान्त से दिख रहे व्यक्ति के पास चला गया। अपनी चिंता उसे जतलाने के उद्देश्य से मैने कहा कि आपलोग ऐसे पवित्र स्थान पर दुकान चला रहे हैं तो इतना जरूर ख़याल रखिये कि यहाँ से लौट कर जाने वालों के मन में अच्छा ‘इम्प्रेशन’ बने। यह स्थान इलाहाबाद की संस्कृति को प्रतिबिम्बित करता है। आपको इसकी नाक बचाये रखने की जिम्मेदारी निभानी चाहिए।

पहले तो उसे बात समझ में नहीं आयी लेकिन जब उसके कुरेदने पर मैंने घटिया कुल्फ़ी की बात बतायी तो उसने झटसे उसके ‘सप्लायर’ को फोन मिलाया और मुझे सुनाते हुए उससे बोला- “मैं आपके माल का कोई पेमेण्ट नहीं करूंगा, सुन लीजिए, कस्टमर कितना कमप्लेन कर रहें हैं” उसने फोन मुझे पकड़ा दिया। अब मैं क्या करता? पूरी कहानी विनम्रता पूर्वक फोन पर भी सुनानी पड़ी। उधर से सिर्फ़ इतना जवाब मिला कि “बात तो आपकी ठीक है।”

मुझे हैरत तो तब हुई जब दुकान मालिक ने उस बच्चे को बुलाकर कुल्फी के पूरे पैसे वापस करने को कहा। …मैं कन्फ़्यूज हो गया। मैने बच्चे की मेहनत की दुहाई दी, मुफ़्त में कुछ भी न खाने का दृढ़ मत व्यक्त किया, कुल्फी का उचित मूल्य रख लेने का आग्रह किया; लेकिन वह व्यक्ति पैसे वापस करने पर अडिग रहा। बोला- साहब मैने यह दुकान ‘बिज़नेस’ के लिए नहीं खोली है। मुझे तो बस ‘शौक’ है…।

मैं और कन्फ़्यूज हो गया। इस बीच मेरी पत्नी गाड़ी से उतर कर आ गयीं। उन्हे माज़रा समझते देर नहीं लगी। बोली- आप फिर उलझ गये समाज सुधार के चक्कर में? चलिए देर हो रही है।मैं वहाँ से चला तो आया लेकिन मन की हलचल अभी शांत नहीं हुई है। क्या निष्कर्ष निकाला जाय?

शुक्रवार, 16 मई 2008

कृष्णप्रिया का दर्शन




किसे addressकरूँ?
कल
मुझे साक्षात्‌ भगवान के दर्शन हो गये। आप माने या न मानें, दर्शन देने वाले ने यही बताया। यह कि दुनिया के नासमझ लोग असली रूप को जान नहीं पाये और बेकार के प्रपंच मे उलझे रहे। “मेरे स्वामी की अलौकिक कृपा का दिव्य प्रसाद जो मुझे मिला है वह इस कलियुग में अद्वितीय है। मुझसे पहले द्वापर युग में मेरे स्वामी ने ऐसी कृपा एक गोपी पर की थी जिसका नाम राधा था।” जी हाँ, ऐसा ही बताया ‘दूसरी राधा’ ने।

कल जब डी.के.पण्डा साहब अपने आयकर-कटौती की चिन्ता लिए मेरे ऑफिस में दाखिल हुए तो उनके पीछे कौतूहल से भरी अनेक आँखें मेरे कमरे में आ गयीं। प्रियतम (भगवान श्रीकृष्ण) का दिया हुआ पीताम्बर, सिर के चारो ओर लिपटा हुआ ‘उनके ही’ रंग का दुपट्टा, मांग में सिंदूर, माथे पर लाल टीका व बिन्दी, नाक में नथ, कान में झुमका, होंठ पर लाल लिप्स्टिक, गले में मंगल-सूत्र, लाल नेलपॉलिश, चूड़ियों से भरी कलाइयाँ, कंगन, पाँव में छमछम करती पायल, बिछुआ और आल्ता से रंगी एड़ियाँ। सबकुछ अपने स्वामी की पसंद के अनुसार।( …स्वामी मुझे चौबीस घंटे ऐसे ही देखना पसंद करते हैं…)

वे इसी सिलसिले में एक-दो बार पहले भी दर्शन दे चुके थे इसलिए मुझे अपने को संयत रखकर कुछ साहसी सवाल करने की इच्छा हो गयी।
अपने अदने से मोबाइल को चालू करके मैने उनकी अनुमति मांगी तो उन्होने सहर्ष बताना शुरू कर दिया

“… मेरे स्वामी ने मुझे कहा है कि दिव्य प्रेम का संदेश चारो ओर फैलाओ। सभी यह जानें कि सगुण भक्ति की प्रेम परंपरा में कैसे आराध्य और आराधक
> मुख्य कोषाधिकारी के साथ आशीर्वाद मुद्रा में
का भेद मिट जाता है। भक्त अपने स्वामी के साथ एकाकार हो उसीमें विलीन हो जाता है । यह तो भगवान की विशेष कृपा है जो हम जैसे भक्त के साथ प्रेम क्रीड़ा करने के लिए हमें स्त्री रूप धारण करने का आदेश देते हैं।”

“मूलतः तो मै श्रीकृष्ण का ही अद्वितीय रूप हूँ जो बाद में स्वामी के आनंद के लिए उनकी इच्छा पर सखी रूप धरकर उनकी अंकशायिनी बन गयी हूँ।…” दूसरी राधा का पूरा दर्शन ‘लिखकर’ बताना कठिन हो रहा है। आइये, आपको इन्ही के श्रीमुख से पूरी बात सुनवाता हूँ। (मोबाइल रिकार्डिंग की क्वालिटी के साथ थोड़ा ‘एड्‌जेस्ट’ करना पड़े तो … क्षमा करें)




बुधवार, 14 मई 2008

मोहन तिवारी हाज़िर हों...

आज एक बार फिर हम बर्बर ख़ूनी खेल का शोक मना रहे हैं। ऐसे में मुझे छात्र जीवन में संग्रहित की गयी कविता बरबस याद आ गयी है। इसके रचयिता मोहन तिवारी के बारे में नाम के अतिरिक्त मेरे पास कोई सूचना नहीं है। सुधी पाठक या स्वयं रचनाकार यदि इसे देखकर कुछ प्रकाश डाल सकें तो मुझे खुशी होगी।


ठीक ही किया


ईसा तुमने ठीक ही किया
मृत्यु के लिए
सलीब़ को चुन लिया

आज तुम होते!
किसी उग्रवादी की
गोली से
या, पुलिस की
खौफ़नाक ठिठोली से
कैंसर से भी अधिक
असाध्य महंगाई से
या किसी महंगी
मिलावटी दवाई से
किसी
आकस्मिक रेल दुर्घटना में
या फिर किसी
जुलूस की अगुआई करते हुए
कानपुर या पटना में
मृत्यु से
तुम्हारा साक्षात्कार होता
इस सदी में
ऐसे ही तुम्हारा उद्धार होता

और,
तुम्हारी मृत्यु की खबर
दुनिया में नहीं
देश में नहीं
यहाँ तक कि
मुहल्ले में भी
कोई नहीं जान पाता
फिर तुम्हे
कोई कैसे पहचान पाता?

ईसा!
तुम प्रारब्ध के बहुत खरे थे
सिर्फ़
एक बार मरे थे
वर्ना, मेरे मुहल्ले का हर आदमी
हर रोज़ सुबह
अपने मरने की खबर
खुद अखबार में पढ़ता है
देश कोई हो,
मजहब कोई हो,
नाम कोई हो,
मरना तो उसे ही पड़ता है
वो भी इस तरह…
उसे महसूस तक नहीं होता
कि वो मर गया है
अभी थोड़ी ही देर पहले
अपनी ही लाश के
ऊपर से गुजर गया है

वो लाश…
जिसे जीवित रखने के लिए
कितना
चीखा-चिल्लाया था
कभी आतंकवादियों के सामने
कभी तानाशाहों के पैरों पर
रोया गिड़गिड़ाया था
वो
उस लाश को बचा नहीं सका
एक इंसान बनकर
इंसानियत का गीत
गा न सका

प्रस्तुति- सिद्धार्थ


सोमवार, 12 मई 2008

परिवर्तन


गंगा, यमुना व अदृश्य सरस्वती;
इनकी त्रिवेणी पर फिर पहुँच गया हूँ।
वही घाट है, नावें हैं,
और वही नाविक हैं;
लेकिन उनकी आँखों में
कौतूहल भरी मुस्कान को छिपाकर
‘हमें’ बैठा लेने का
वह आग्रह नहीं है,
जो तब हुआ करता था।

घाट पर वही चौकियाँ हैं,
उनपर छोटी-छोटी कंघियाँ व शीशे हैं,
वही अक्षत्‌ और चंदन है,
उनपर धूप में तने हुए छाते हैं;
और जिनके नीचे वही तिलक वाले पण्डे हैं;
जिन्हे हमसे कोई उम्मीद नहीं हुआ करती थी।
आज उनकी आँखों में
हमे देखकर चमक सी आ गयी है;
क्योंकि आज हम, सपरिवार
गंगा नहाने आये हैं।
और तब,
हम उन्हे गंगा दिखाने आते थे।

वहीं एक ‘बड़े हनुमान जी’ है।
जो तब भी लेटे हुए थे,
और अब भी
वैसे ही प्रसाद दे रहे हैं।

-सिद्धार्थ

शनिवार, 10 मई 2008

निकानोर पार्रा के नाम


ब्लॉगवाणी में ‘ज्यादा पढ़े गये’ चिठ्ठों की सूची में कल ०९ मई,२००८ को शीर्ष पर क्लिक किया तो ‘कबाड़खाना’में पहुँच गये। वहाँ अशोक पांडे जी ने निकानोर पार्रा (जन्म: 5 सितम्बर1914) की एक पुरानी कविता पोस्ट कर रखी थी। मुमकिन नहीं अड़े रहना इस टेक पर कि सिर्फ एक ही रास्ता सही है
बकौल अशोक जी, पाब्लो नेरुदा के बाद चिले के सबसे महत्वपूर्ण कवि माने जाते हैं निकानोर पार्रा। (कॉलेज के दौर की एक डायरी में अचानक मिली इस कविता के अनुवादक का नाम लिखना भूल गया था... )
कविता सबकी तरह मुझे भी बहुत अच्छी लगी। आगे की बात जानने से पहले यह कविता पढ़ लीजिए :

युवा कवियों से
जैसा चाहे लिखो
पसन्द आये जो शैली तुम्हें,
अपना लो
पुल के नीचे से बह चुका है इतना खून
मुमकिन नहीं अड़े रहना इस टेक पर
कि सिर्फ एक ही रास्ता सही है
कविता में हर बात की इजाज़त है
बस, शर्त है सिर्फ यही
कि तुम्हें कोरे कागज़ को बेहतर बना देना है

इस कविता को दो-चार बार पढ़ने का असर ये हुआ कि मुझे भी कविता लिखने की ऊर्जा मिलती सी लगी। सोचते-सोचते मैने अपनी पिछ्ली कोशिशों को याद किया, और ‘पार्रा’ साहब की आश्वस्ति और प्रेरणा को सलाम करते हुए कुछ शब्द जोड़ डाले। शुरुआत उन्ही की अंतिम पंक्ति से हुई। लीजिए सुनाता हूँ...

यह शर्त छोटी नहीं

बस कोरे कागज को बेहतर बना देना है?
यह शर्त छोटी नहीं।
काफ़ी कुछ मांगती है कविता;
अपने जन्म से पहले
इसका अंकुर फूटता है
हृदय की तलहटी में,
जब अंदर की जोरदार हलचल
संवेगों का सहारा पाकर धर लेती है रूप
एक भूकंप का;
जो हिला देता है गहरी नींव को,
गिरा देता है दीवारें,
विदीर्ण कर देता है अन्तर्मन के स्रान्त कलश,
बिंध जाता है मर्मस्थल,
तन जाती हैं शिरायें,
फड़कती हैं धमनियाँ
जब कुछ आने को होता है।

यह सिर्फ़ बुद्धि-कौशल नहीं;
आत्मा को पिरोकर
मन के संवेगो से
इसे सिंचित करना पड़ता है।
देनी पड़ती है प्राणवायु
पूरी ईमानदारी से,
ख़ुदा को हाज़िर नाजिर जानकर,
अपने पर भरोसा कायम रखते हुए;
भोगे हुए संवेगों को
जब अंदर की ऊष्मा से तपाकर
बाहर मुखरित किया जाता है,
तो कविता जन्म लेती है।

माँ बच्चे को जन्म देकर,
जब अपनी आँखों से देख लेती है
उसका मासूम मुस्कराता चेहरा,
तो मिट जाती है उसकी सारी थकान,
पूरी हो जाती है उसकी तपस्या
खिल जाता है उसका मन।
लेकिन प्रसव-वेदना का अपना एक काल-खण्ड है
जो अपरिहार्य है।

कविता पूरी हो जाने के बाद, वह
मंत्रमुग्ध सा अपलक देखता रहता है
उस कोरे काग़ज को,
जिसे अभी-अभी बेहतर बना दिया है
उसके भीतर उठने वाले ज्वार ने;
जो छोड़ गया है
कुछ रत्न और मोती
इस काग़ज के तट पर।
या, उसने गहराई में डूबकर
निकाले हैं मोती।
किन्तु जो वेदना उसने सही है
उसका भी एक काल-खण्ड है।

फिर कैसे कहें,
कविता में हर बात की इज़ाजत है?

(मेरा प्रयास कितना सफ़ल हुआ यह बताने का जिम्मा आप मर्मज्ञ पाठकगण और श्रेष्ठ कबाड़ी भाइयों पर छोड़ता हूँ।)

शुक्रवार, 9 मई 2008

उफ्! ये मध्यम वर्ग।

अभी हाल ही में मुझे सपरिवार एक सम्पन्न रिश्तेदार के घर लखनऊ जाना हुआ। हमारे साथ मेरी बेटी की उम्र (७वर्ष) से थोड़ी बड़ी एक और लड़की भी रहती है जिसका बाप मेरे गाँव के घर पर नौकर है। मेरे बच्चों के साथ हिल-मिल कर रहते हुए वह इसी घर की हो गयी है और हमेशा परिवार में ही रहती है। लखनऊ से जब हम विदा होकर वापस लौटने लगे तो कार में बैठते ही मेरी बेटी ने मासूमियत से पूछा- “डैडी, लोग गरीबों को कम पैसा क्यों देते हैं? और अमीरों को ज्यादा? जबकि गरीबों को इसकी ज्यादा जरूरत है।”

मुझे उसका प्रश्न समझ में नहीं आया। बित्ते भर की बच्ची ऐसा सवाल क्यों पूछ रही है? मुझे थोड़ी हैरानी हुई। कुरेदने पर पता चला कि विदाई की परम्परा निभाते हुए मेरे सक्षम रिश्तेदार ने मेरी बेटी के हाथ पर पाँच सौ रुपये का नोट और इस लड़की के हाथ पर बीस रुपये रख दिये थे। यही ट्रीटमेन्ट उसे खल गया था। मेरी पत्नी ने झट उसे ‘बेवकूफ़’ कहकर चुप करा दिया। शायद इसलिए कि इस मध्यमवर्गीय मानसिकता की शिकार लड़की को कुछ बुरा न ‘फील’ हो। लेकिन इसके निहितार्थ पर मैं रास्ते भर सोचता रहा।

क्या मेरी बेटी ने वाकई बेवकूफ़ी भरा सवाल किया था? या हमारे अन्दर पैठ गयी ‘चालाकी’ अभी उसके अन्दर नहीं आयी है? शायद इसीलिए उसने अपनी नंगी आखों से वह देख लिया जो हम अपने स्थाई रंगीन चश्मे से नहीं देख पाते हैं। अमीर और गरीब के बीच का भेद कदम-कदम पर हमारे व्यवहार में बड़ी सहजता से जड़ा हुआ दिख जाता है।

हम बाजार में कपड़े खरीदने निकलते हैं तो बड़े शो-रूम के भीतर घुसते ही ब्रान्डेड कपड़ों की ऊँची से ऊँची कीमत देने से पहले सिर्फ़ बिल की धनराशि देखकर पर्स खोल देते हैं। लेकिन यदि सस्ते कपड़ों के फुटपाथ बाजार में कुछ लेना हुआ तो गरीब दुकानदार से ऐसे पेश आयेंगे जैसे वह ग्राहक को लूटने ही बैठा हो, जबर्दस्त मोलभाव किये बगैर माल खरीदना अर्थात्‌ बेवकूफ़ी करना। मैकडॉवेल के रेस्तरॉ में पहले पैसा चुका कर सेल्फ़ सर्विस करके चाट खाना आज का ‘एटिकेट’ बन गया है, लेकिन ठेले वाले से मूंगफली खरीदते समय जब तक वह तौलकर पुड़िया बनाता है तब तक खरीदार उसके ढेर में से दो-चार मूंगफली ‘टेस्ट’ कर चुका होता है। गोलगप्पे वाला अगर एकाध पीस एक्स्ट्रा न खिलाये तो मजा ही नहीं आता है। ये गरीब दुकानदार जिस मार्जिन पर बिजनेस करते हैं उतनी तो अमीर प्रतिष्ठानों में ‘टिप्स’ चलती है।

वैसे श्रम की कीमत सदैव बुद्धि की अपेक्षा कम लगायी जाती रही है लेकिन मामला यहीं तक सीमित नहीं रहता। इसका एक पूरा समाजशास्त्र विकसित हो चुका है। कम कीमत सिर्फ रूपये में नहीं आंकी जाती बल्कि जीवन के अन्य आयाम भी इसी मानक से निर्धारित होते हैं। नाता-रिश्ता, हँसी-मजाक, लेन-देन, व विचार-विमर्श के सामान्य व्यवहार भी अगले की माली हालत के हिसाब से अपना लेबल तलाश लेते हैं। सामाजिक संबंध आर्थिक संबंधों पर निर्भर होते हैं इसका विस्तृत विवेचन हमें मार्क्स के विचारों मे मिलता है। लेकिन हमारी प्राचीन संस्कृति मे इसके आगे की बात कही गयी है:-

अयं निजः परोवेति गणना च लघुचेतसाम्‌।
उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्‌॥


जबतक अपने और पराये का भेद हमारे मानस में कुण्डली मारकर बैठा रहेगा तबतक जिसे जहाँ मौका मिलेगा अपनी व्यक्तिगत रोटी ही सेंकने का उपक्रम करता रहेगा। यह जो निम्नवर्ग, मध्य्मवर्ग, और उच्चवर्ग का बंटवारा किया गया है वह भी मूलतः आर्थिक स्थिति का ही बयान है; लेकिन उसके साथ एक पूरा ‘पैराडाइम’ विकसित हो चुका है। मध्यमवर्ग की हालत और दुर्निवार है। इसको तो चीर-फाड़कर निम्न-मध्यम, मध्यम और उच्च-मध्यम वर्ग की अतिरंजित कोठरियों में भी कैद करने की कोशिश हम स्वयं अपने लिये कर रहे हैं।

हम अपने दूरदर्शी ऋषियों के आप्तवचन भूलकर अमेरिकी ‘पिग-फिलॉसफ़ी’ पर लट्टू हुए जा रहे हैं। उपभोक्तावादी अर्थव्यवस्था के चंगुल में फँसकर भी हम आत्म-मुग्ध से अपनी निजी इकॉनामिक सेक्यूरिटी को अपना ध्येय बनाकर उसी सफलता की कामना से आगे बढ़ रहे हैं जो किसी मृगतृष्णा से कम नहीं है। यह वो तृष्णा है जो बिल गेट्‌स को भी चैन से सोने नहीं देती हैं जो दुनिया के सबसे बड़े कुबेर हुआ करते हैं।
फिर थोड़े में ही खुश रह लेने में हर्ज़ क्या है?

सोमवार, 5 मई 2008

ठाकुर बाबा


हमारे गाँव में एक बुजुर्ग हुआ करते थे- ठाकुर बाबा। उन्होने अच्छी खासी सम्पत्ति अपने पुरुषार्थ और दूसरों की मजबूरी के संदोहन से अर्जित कर ली थी।
अंग्रेजी जमाने में साहूकारी का धंधा खूब चल निकला था। इसके माध्यम से गरीब कर्ज़दारों की जमीन व गहने इत्यादि एक-एक कर उनकी तिजोरी की भेंट चढ़ते गये। प्रेमचंद की कहानियाँ पढ़ते समय ऐसे पात्रों की छवि बरबस मुझे इनकी याद दिला देती है।

इनके घर में खाने-पीने की ‘जबर्दस्त’ व्यवस्था थी। देहात में चाहे जिसका भी खेत हो, उसमें उगने वाली फ़सल का पहला स्वाद यही श्रीमन्‌ चखते थे। आम, अमरुद, केला, कटहल या हरी-मटर हो अथवा कोई भी ताजा हरी सब्जी, चँवर में रात भर जाग कर शिकार की गयी दुर्लभ मछली हो या गरीब परिवार के बच्चों द्वारा बड़े जतन से पाले गये बकरी के बच्चे हों। अगर ठाकुर बाबा की निगाह इसपर पड़ गयी तो इसे उनका निवाला बनना ही पड़ेगा। किसकी मजाल है जो रोकने की हिमाक़त करे। जिसने गलती की उसकी शामत आयी। अंग्रेज़ सरकार बकायेदारों को कुर्की-जब्ती की नोटिस थमाने में तनिक देर नहीं करती थी। फिर तो बड़ा संकट आ जाता।

तो, इसी जबर्दस्त इन्तजाम के लालच में इनके दरबार में चाटुकारों, व बेरोजगार पट्टीदारों की मंडली इन्हे घेरे रहती थी और इनके पुरुषार्थ की प्रसंशा करने में एक-दूसरे से होड़ करती थी। नंगे राजा की कहानी शायद यहीं से निकली होगी।

ये सारी बातें मैने अपने पिताजी व दादाजी से सुन रखी थी। उनके साक्षात्‌ दर्शन की मेरी प्रारंभिक स्मृति यह है कि काफी बूढ़ा और कमजोर हो जाने के कारण आसन्न मृत्यु को देखते हुए उनकी इच्छानुसार उन्हे कई बार बनारस ले जाया गया था। इस विश्वास के साथ कि स्वर्ग की सीढ़ी पर बाबाजी वहीं से कब्जा जमा लेंगे। लेकिन हर बार एक-दो माह बिताकर वे वापस आ जाते थे। तब गाँव में चर्चा सुनता था कि भगवान के यहाँ जबर्दस्ती नहीं चलती।

आखिरकार वे दिवंगत हुए। बनारस के रास्ते में। अपने पीछे भरा-पूरा परिवार छोड़ गये। बड़ी धूम-धाम से अन्तिम संस्कार हुआ। बनारस में। तेरहवीं में पूरा इलाका उमड़ पड़ा था। उसी दिन उनके पुत्रों ने उनकी अंतिम इच्छा के सम्मान में एक गाय के बछड़े गर्म लोहे से चक्र व त्रिशूल की आकृति में दाग कर छुट्टा छोड़ दिया। हम बच्चों के लिये यह बछड़ा कौतूहल का विषय था। यह पूरे गाँव-जवार में निरंकुश घूमने के लिये स्वतंत्र था। पारंपरिक मान्यता के अनुसार उसे किसी प्रकार से बांधना, रोकना या वर्जित करना निषिद्ध था।

अब ‘ठाकुर बाबा’ नया रूप धरकर सबको सता रहे थे। वह बछड़ा गाँव के भीतर जिस ओर चौकड़ी भरता हुआ पहुँच जाता उस ओर के बच्चे खेलना छोड़कर घर में घुस कर जान बचाते। गाँव के बाहर खेतों की ओर जाता तो किसान परिवार हाय-हाय करने लगता। जाने किसकी फसल चर जाय। सड़क पर खड़ा हो जाय तो राहगीर अपना रास्ता बदल लें। गाँव की नयी पीढ़ी के कुछ साहसी बच्चे समूह बनाकर उसे डराने-मारने का उपक्रम करते तो बड़े-बूढ़े उन्हे मना तो करते थे लेकिन प्रच्छ्न्न रूप में उन्हे उसका मार खाना बुरा नहीं लगता था। बहुतों को तो इसमें ईश्वरीय न्याय की झलक भी मिलती थी।
स्वतंत्र और निर्द्वन्द्व रूप से चरने और खाने का परिणाम यह हुआ कि वह एक रौबदार भारी भरकम साँड़ बन गया जिसकी ख्याति ठाकुर बाबा की ही तरह दूर-दूर तक फैल गयी। लोग चर्चा करते कि इसके कुछ मौलिक गुण ठाकुरबाबा से काफी हद तक मेल खाते थे।
उन दिनों मैं आठवीं में पढ़ रहा था। मेरे संस्कृत के अध्यापक ने एक दिन कक्षा में संस्कृत की कुछ पहेलियाँ बताईं। उनमें से एक कुछ इस प्रकार थी:

चक्रीत्रिशूली नशिवो नविष्णू
महाबलिष्ठो नचभीमसेनः
स्वच्छंदचारी, नृपतिर्नयोगी
सीतावियोगी नच रामचन्द्रः

मास्टर साहब ने जब इसका अर्थ समझाया तो मेरे मुंह से अकस्मात्‌ इसका उत्तर निकल पड़ा – साँड़। सोचता हूँ कि सही उत्तर के लिए मुझे जो शाबासी मिली उसका धन्यवाद इस ब्लॉग के माध्यम से ठाकुर बाबा को प्रेषित कर दूँ।

(सुना है अनिल रघुराज शिवकुमार मिश्र जैसे मूर्धन्य अपना ब्लॉग उस लोक तक ठेलने की योजना बना रहे हैं। शायद वे मेरी मदद कर दें।)

गुरुवार, 1 मई 2008

क्या ये विद्यार्थी हैं ?

काकचेष्टा,वकोध्यानं ,श्वाननिद्रा,तथैव च।
अल्पाहारी,गृहत्यागी विद्यार्थी पंच सुलक्षणं॥

बचपन में पंडित जी से विद्यार्थी के इन पाँच लक्षणों के बारे में सुना था,फ़िर विद्यार्थियों के (भी)कुम्भ इस महानगर इलाहाबाद में आया तो यही लक्षण मैने कहीं और भी पाये।आप भी देखें कि क्या वे विद्यार्थी है?

(१)वे ‘अल्पाहारी’ हैं,
दोनों जून मिला कर भी
नहीं पाते एक वक्त का भोजन।
(२) ‘गॄह्त्याग’ से ही तो चलता है,
उनका जीवन,
घर से बहुत दूर तक चले जाते हैं वे,
अपने लक्ष्य के लिये।
(३) ध्यान तो उनका बगुलों से भी तेज,
सामने पड़ी हर वस्तु की उपयोगिता,
बस,एक ही नजर,में परख लेते हैं।
(४) काकचेष्टा ही तो आधार है,
उनकी सफ़लता का,
जिसमे जितनी काकचेस्टा,
सफ़लता उतनी अधिक।
(५) निद्रा तो उनकी श्वान की है ही,
शायद नींद उन्हें आती ही नही,
जब पुकारो जागते मिलेंगे,
आहट हुई नहीं की उठ बैठे।

विद्यार्थी के पाचों लक्षण तो मौजूद हैं उनमें,
‘अल्पाहारी’,‘गृहत्यागी’,‘वकोध्यानं’,‘काकचेष्टा ’ ,‘श्वाननिद्रा’,
सब तो है,
तो क्या वे विद्यार्थी है?

पीठ पर बस्ते की तरह टँगा है बोरा,
ड्रेस भी तो है उनकी,
एक पैण्ट जिसकी जेबें फ़टी है,
चेन टूटी है,शर्ट पर लगी है,कालिख की ढेर
और पैर में टूटा हुआ प्लास्टिक का चप्पल,
साथ में ही घूमते हैं,ठीक विद्यार्थियों की तरह बतियाते हुए
पर अपने लक्ष्य के प्रति सचेष्ट।
तो क्या वे विद्यार्थी हैं?

नहीं, वे कूड़ा बीनने वालें हैं
अल्पाहारी शौकिया नहीं मजबूरी में
गृहत्यागी शिक्षा के लिये नहीं, प्लास्टिक के लिये
ध्यान बगुलें का है सीखने के लिये नहीं,अपितु,
बीनने के लिये,
काकचेस्टा दूसरे से आगे होने के लिये,
और,
श्वाननिद्रा तो इसलिये कि,
भूखे पेट,नंगे शरीर,
खुले छ्त के नीचे,नींद आती ही नहीं।