हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

गुरुवार, 14 जुलाई 2016

तकरोही और अमराई गाँव, इंदिरानगर

14.07.2016
तकरोही और अमराई गाँव, इंदिरानगर
आज की सुबह लखनऊ में हुई और साइकिल से सैर भी वहीं हो ली। इधर मेरे अपार्टमेंट में एक साथ तीन नयी साइकिलें आ गयी हैं। स्कूल, दफ्तर या दूसरे रोजगार को जाने के लिए नहीं बल्कि शौकिया चलाने या व्यायाम के लिए। मुझे आसानी से एक बढ़िया साइकिल उधार मिल गयी। भगवान करे यह रुझान और बढ़े, फूले-फले।
मुंशीपुलिया चौराहे से तकरोही के लिए विक्रम ऑटो वाले सवारियाँ ढोने में काफी व्यस्त रहते हैं। आज मैंने उसी रास्ते पर साइकिल बढ़ा दी। सुबह रास्ता सुनसान था। कुछ टहलने वाले लोग घरों से निकलकर आसपास के पार्कों की ओर जा रहे थे। सेक्टर-11 से होकर तकरोही मोड़ तक जाने वाली सड़क तो आवास विकास परिषद द्वारा विकसित इंदिरानगर योजना का भाग है। यह सड़क चौड़ी भी है और सरल रेखा की तरह सीधी है। यह चौराहों या तिराहों पर समकोण बनाती है। लेकिन पुराने बसे गाँव और अब भीड़ भरी बाजार बन चुके तकरोही की ओर मुड़ते ही सड़क टेढ़ी-मेढ़ी और पतली होती हुई ऊबड़-खाबड़ पथरीली गली में बदल जाती है। यहाँ सड़क के दोनो ओर पुराने जमाने की शक्ल वाली दुकानें हैं। घरेलू जरुरत के सामान, साड़ी-कपड़ा, लोहा, बर्तन, आटा-चक्की, तेल पेराई, मसाला पिसाई, रुई धुनाई, मोबाइल रिपेयर, चाय-पकौड़ी, दवा, आयुर्वेद, होमियोपैथी, लोहे के बॉक्स, आलमारी, एटीएम, बैंक, आदि सभी प्रकार की दुकाने कंधे से कंधा मिलाती दो-तीन सौ मीटर लंबे बाजार में अटी पड़ी हैं। इतनी सुबह अधिकांश दुकानें बंद थीं। केवल चायवाले और उनके बगल में पान और गुटखा की पुड़िया बेचने वाले धंधा शुरू कर चुके थे। हार्डवेयर की एक दुकान भी खुली थी जहाँ प्लम्बर और मिस्त्री जुटने वाले थे।
इस बाजार की सड़क पर हिचकोले खाने के बाद जब मैं आगे निकल गया तो बिना गढ्ढे वाली पिचरोड फिर मिल गयी। इसकी चौड़ाई तो ज्यादा नहीं थी लेकिन यह आसपास की जमीन से काफी ऊँची करके नयी बनायी गयी सड़क लगती थी। इसी बीच पीले रंग की एक ही शक्ल-सूरत की कई स्कूल वैन्स का काफिलानुमा मेरे पीछे से आया और आगे अलग-अलग गलियों में घुस गया। एक वैन पर जयपुरिया स्कूल लिखा हुआ था। इनके पीछे धूल का ऐसा गुबार उठा कि मुझे साइकिल रोककर नाक पर रुमाल की छननी लगानी पड़ी।
आगे बढ़ा तो इस सड़क पर भी "फ्रीहोल्ड प्लॉट उपलब्ध है" वाले अनेक साइनबोर्ड मोबाइल नंबर के साथ दिखने लगे। एक बोर्ड पर तो लिखा था - इन्वेस्टमेंट परपज़ के लिए भी संपर्क करें। यानि यदि आपने अपनी जरुरत से ज्यादा धन इकठ्ठा कर लिया है तो उसे यहाँ लगा दीजिए। उसके काला या सफेद होने के बारे में कुछ भी पूछे बिना आपको निवेश के लिए जमीन दे दी जाएगी।
मुझे इस सड़क पर पीपल और बरगद के दो घने पेड़ों ने बहुत आकर्षित किया। पीपल तो सड़क पर ही था - राहगीरों को रुककर सुस्ताने के लिए बेहद मुफ़ीद। इसकी तस्वीर लेते समय अचानक एक जवान सिर्फ जीन्स पहने नंगे बदन बगल के खेत से उचककर सड़क पर चढ़ आया जिसके हाथ में एक लीटर वाला इंजिन आयल का खाली डिब्बा था। वह स्वच्छता कार्यक्रम को ठेंगा दिखाता हुआ आया था और पूरे जोश में बाजार की ओर जा रहा था। पेड़ के नीचे ही स्कूली बच्चों को ले जाता एक बैटरी चालित रिक्शा भी दिखा जो पर्यावरण को धुँआ-रहित बनाने में बहुत योगदान कर सकता है। इसी रोड पर विक्रम-ऑटो वाले काला धुँआ उगलते बेखौफ़ चलते रहते हैं।
बरगद का पेड़ सड़क से बीस-पच्चीस मीटर हटकर एक खाली जमीन में था। यह अभी बहुत पुराना नहीं था लेकिन पत्तियां खूब हरी और मस्त छायादार थीं। हाल में वट-सावित्री की पूजा में सुहागिनों द्वारा इस पेड़ के तने में लपेटे गये रक्षासूत्र अभी भी कायम थे। लेकिन वहाँ से पवित्रता भाग खड़ी हुई थी। पेड़ के नीचे बरसात से उत्पन्न गन्दगी का बोलबाला तो था ही उसके तने के पास ही एक लड़का शौचक्रिया में मशगूल था। फिर भी इस सुन्दर पेड़ के साथ सेल्फी लेने का लोभसंवरण मैं नहीं कर सकता था। मैंने सोचा कि वापस लौटकर फोटो ले लूंगा, तबतक यह बच्चा निपट चुका होगा। लेकिन वापसी के समय भी एक दूसरे लड़के ने मैदान टेक-ओवर कर लिया था। लेकिन इस बार मैंने मोबाइल कैमरा खोल ही लिया।
मैं आगे अमराई गाँव तक गया था जहाँ रामदीन का पुरवा दिखा। उधर से लौटते समय कुछ घोषियों (दुग्ध व्यवसायी) के घर दिखे। वहाँ भैसों की बहुतायत थी, गायें कम थीं। एक लड़की गोबर निकाल रही थी और उसके घर की खुली छत पर छोटे-छोटे बच्चे नंगे होकर आधे भीगे हुए उछल-कूद कर रहे थे। उन्हें एक औरत ठीक से नहलाने के लिए पुकार रही थी लेकिन वे हाथ नहीं आ रहे थे। दृश्य बड़ा रोचक और नयनाभिराम था लेकिन फोटो लेने का विचार पैदा होने से पहले ही मैंने उनकी निजता का ख्याल करते हुए दबा दिया।
मुझे एक कॉमन बात सब जगह दिख रही है। पशुओं के बाड़े से गोबर साफ करने और उनकी देखभाल का काम प्रायः घर की लड़कियां या औरतें ही करती हैं। मर्दों ने चारा खरीद कर लाने, दूध दूहने और बेचने का काम अपने हाथ में ले रखा है। पता नहीं यह कार्य विभाजन कितना ठीक है या नहीं है। शिक्षा का अभाव भी इन घरों में साफ़ दिखता है।










(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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बुधवार, 13 जुलाई 2016

इब्राहिमपुर से आगे मछेछर

बरसात का मौसम शुरू होने के बाद स्विमिंग पूल में उतरने से बेहतर है साइकिल चलाना। जल जनित बीमारियों से बचना जरूरी है। ऐसे मौसम में एक सुरक्षित व्यायाम भी है साइकिल चलाना। शहर से बाहर निकल कर प्राकृतिक हरियाली से आँखों को तरोताजा करने का अच्छा माध्यम है साइकिल चलाना।
साइकिल से सैर के लिए मैं रायबरेली पुलिस लाइन्स के बगल से गुजरने वाली मटिहा रोड पर दूसरी बार गया। पहली बार गया था तो मई की भीषण गर्मी थी। पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची हुई थी। जिला प्रशासन सूखे हुए तालाबों में पानी भरवा रहा था और स्कूली बच्चे परीक्षा परिणाम के बाद गर्मी की छुट्टी का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। इस बार शहर से बाहर निकलते ही हरियाली का साम्राज्य फैला हुआ दिखा। सड़क के दोनो तरफ पेड़-पौधे, घास-फूस, और खर-पतवार का एक विस्तृत कोलाज़ बना हुआ था। इसका थीम कलर हरा था और सन्देश था - "सुबह-शाम की हवा - लाखों रूपये की दवा।"
गोड़ियन का पुरवा, मटिहा और इब्राहिमपुर से गुजरते हुए मुझे इस बार धरती का रंग पूरी तरह बदला हुआ दिखा। जिस तालाब में डीएम साहब ने तब पानी भरवाया था उसमें पानी के ऊपर हरे रंग की काई की मोटी परत जम गयी थी। वैसे ही जैसे गरम दूध को खुला छोड़ देने पर कुछ देर में उसकी सतह मोटी मलाई से ढक जाती है। ऐसा लगा जैसे किसी ने भी तालाब का पानी प्रयोग नहीं किया था। तालाब के किनारे आम के पेड़ों पर फल चमक रहे थे और खटिया पर बैठकर उनकी निगरानी करने वाली आँखे भी।
थोड़ी दूर आगे जो दूसरा तालाब था उसमें कुछ हलचल थी। काई का नामोनिशान नहीं था। तीन-चार लोग उसके किनारे बैठे हुए कटिया लगाकर मछली पकड़ने की कोशिश कर रहे थे। पानी की सतह पर उठते-गिरते बुलबुलों से पता चला कि इस तालाब में मछलियों का बसेरा है और इसीलिए हलचल भी है।
इब्राहिमपुर गाँव तो बबूल के घने जंगल के पीछे पूरी तरह छिप गया दिखता है। जंगल के बीच की पगडंडी से पिचरोड पर आकर दूसरी ओर जाते पुरुष और स्त्रियों को देखकर ही पता चल पाता है कि उधर कोई बसावट है जिसका निकास-पइसार इस सड़क की ओर से सई नदी तक है। मैंने सड़क किनारे साइकिल खड़ी करके तस्वीरें लेनी शुरू की तो एक सज्जन बोतल लटकाये लौटते दिखे। मुझे ही थोड़ी झेंप हुई। सोचते होंगे कि सुबह-सुबह यहाँ साइकिल खड़ी करके मैं कर क्या रहा हूँ। लघुशंका के उपक्रम का अभिनय करते हुए मैंने एक मिनट बिताया और उनके पीठ पीछे होते ही साइकिल भगाकर नदी के पुलपर चला आया।
पुल के नीचे एक ओर पानी थोड़ा बढ़ा हुआ था जिसमें मछलियाँ किलोल कर रहीं थी। दूर पूरब की ओर कुछ लड़के भी नदी के किनारे खड़े होकर किल्लोल कर रहे थे। नदी किनारे नित्यक्रिया से निपटने के बाद उनके हाव-भाव में जो मस्ती उभर आयी थी वह इतनी दूर से देखी और सुनी तो जा सकती थी लेकिन कैमरे में सहेजना संभव नहीं हुआ। पुल के दूसरी ओर नदी की सतह अभी भी जलकुम्भी और दूसरे खर-पतवार से पूरी तरह ढकी हुई थी। निश्चित ही उसके नीचे बह रहे पानी का दम घुटता होगा। शायद बरसात का पानी थोड़ा और बढ़े, बहाव तेज हो तो इस हरे और घने जाल को काटकर नदी की धारा स्वतंत्र हो सके। पुल पर यह नजारा देख रहे दूसरे लड़कों को वहीं छोड़कर मैंने थोड़ा और आगे जाने का निश्चय किया।
पुल से सड़क की ढलान पर सरपट भागती साइकिल पर बैठा हुआ मैं सामने कम और दायें-बायें ज्यादा देख रहा था। कारण यह कि समतल सड़क पर सवारियाँ न के बराबर थीं और आसपास के खेतों की हरियाली छटा देखते ही बनती थी। कुछ ही मिनटों में मैं मछेछर गाँव में पहुँच गया। सबसे पहले मुझे गायों और भैसों का बाड़ा मिला। एक पक्के मकान के बगल में खड़े छप्पर के नीचे बंधे दुधारू पशुओं के बीच बैठी एक युवती गोबर उठा रही थी। घर के बरामदे में चौकी पर बैठे दो-तीन पुरुष चाय पी रहे थे। एक महिला फर्श पर बैठकर कोई अनाज साफ कर रही थी। वहीं एक बल्ब दिन के उजाले में भी बहुत तेज चमक रहा था जिसे बन्द कर देने का ध्यान किसी को नहीं था। शायद उसे प्रकाश के लिए नहीं बल्कि बिजली आने-जाने का सूचक यन्त्र समझा जाता होगा।
पक्की सड़क पर बसे इस गाँव में कुछ परचून की दुकानें, चाय-पानी की भट्ठियां, पंक्चर बनाने वाले साइकिल मिस्त्री और रिचार्ज करने वाली गुमटियां दिखीं। गाँव में एक बड़ा सा परिसर सरकारी प्राइमरी स्कूल का भी दिखा। मैंने बिना रुके इस गाँव को भी पार कर लिया और एक सूखी हुई नहर की पुलिया पर रुका। वहीं खेतों के बीच से एक लड़का नमूदार हुआ तो मैंने उससे नहर में पानी नहीं होने के बारे में पूछा। उसे कुछ खास पता नहीं था। बोला- कभी-कभी पानी आता है। सड़क के दूसरी ओर एक टापू नुमा ऊँचा खेत दिखा जिसके चारो ओर टेढ़ा-मेढ़ा नाला खुदा हुआ था। लड़के ने बताया कि इस नाले में गंगनहर से सप्ताह में एक बार पानी छोड़ा जाता है। इस समय खेत में कोई फसल नहीं थी।
मैं वहीं से लौट आया। लौटते समय दो जगह रुकना पड़ा। एक जगह पिचरोड से निकलने वाली एक नई भरी गयी कच्ची सड़क मिली जिसकी पीली रेखा चारो ओर फैली हरियाली के बीच कंट्रास्ट बना रही थी उसकी तस्वीर खींचने रुका तो एक कुत्ता भी साथ लग लिया। दूसरी जगह एक झोपड़ी नुमा आकृति मिली जो लबे-सड़क वीराने में खड़ी थी। लग रहा था जैसे किसी फ़िल्म की शूटिंग के लिए सेट बनाया गया हो। यह आश्रय बनाने के लायक तो कतई नहीं थी, लेकिन फोटो लेने के लिए बरबस आकर्षित करती थी।
वहाँ से आगे बढ़ा तो कमलेश मिले जो खटर-खटर करती साइकिल पर भागे जा रहे थे। मैंने भी अपनी गति बढ़ा कर उनसे बराबरी की। बीए पार्ट-3 के विद्यार्थी थे। बछरावां के डिग्री कॉलेज में नाम लिखाया है। क्लास करने नहीं जाना पड़ता, केवल परीक्षा देना पड़ता है। इसलिए लगे हाथों एसएससी की तैयारी भी कर रहे हैं। रायबरेली में कोचिंग करते हैं। आठ सौ महीने के लगते हैं। छः महीने का कोर्स है। अलग-अलग विषय का कोचिंग महंगा पड़ता है। कम्बाइन में सस्ता पड़ता है। गणित, विज्ञान, रीजनिंग, इंग्लिश, जनरल नॉलेज पढ़ाया जाता है। घर पर रहकर पढ़ाई नहीं हो पाती। कोचिंग में ठीक रहता है।
यह सब बात करते हुए हम रायबरेली पहुँच गये। कमलेश कैनाल रोड की ओर कोचिंग लेने चले गये और मैं जेलरोड होते हुए अपने घर आ गया हूँ।


















(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

शनिवार, 9 जुलाई 2016

परसदेपुर रोड पर पुलिसवाले की ट्रकपन्थी

मैं परसदेपुर जाने वाली सड़क पर साइकिल लेकर चलता ही जा रहा था। पीएसी से आगे जाने पर एक बड़ा नाला है जिसपर बना पुल पुराना हो चुका है। इसी पुल पर रुककर पूर्वी क्षितिज़ से उगते सूरज को देखने की कोशिश करने लगा जिसे बादलों के अनेक टुकड़ों ने अलग-अलग परतों में ढंकने की कोशिश कर रखी थी। वैसे ही जैसे तमाम न्यूज़ चैनलों की वज़ह से किसी घटना की सच्चाई साफ-साफ नज़र नहीं आने पाती। पुल की पटरी पर कुछ महिलाएं बैठी हुई थीं जो शायद टहलने के बाद थकान मिटा रही थीं।
हवा चल नहीं रही थी, बारिश हो नहीं रही थी और सूरज चमक नहीं रहा था। लेकिन अगले कुछ समय में इन तीनो की संभावना बराबर दिख रही थी। जैसे आजकल बहुजन समाज पार्टी से निकलने वाले नेताओं के राजनीतिक भविष्य की अलग-अलग संभावनाएं बराबर की बतायी जा रही हैं।
मैंने मोबाइल जेब के हवाले किया और आगे चल पड़ा। बड़ी नहर के ऊँचे पुल को पार किया और भुएमऊ की ओर जाने लगा। सड़क के किनारे पेड़ों की हरियाली के बीच नीचे खेत में एक छोटा सा पक्का मकान बना हुआ था जिसकी छत सड़क की ऊँचाई के बराबर थी और सड़क से सटी हुई भी थी। इसी छत पर तीन लोग योगासन और प्राणायाम कर रहे थे। बिल्कुल जंगल में मंगल वाला दृश्य था। फोटो खींचने को मन ललच गया लेकिन उनकी योगसाधना में खलल पड़ जाती। इसलिए मैंने मन को डांट दिया और सड़क की ढलान पर बिना पैडल मारे सरपट भागती साइकिल का आनंद लेता हुआ उस टूटी पुलिया तक पहुँच गया जो कई महीनों से निर्माणाधीन है। यहाँ सड़क से नीचे उतरकर कामचलाऊ बनाये गये ईंट के ऊबड़खाबड़ निकास से जाना पड़ता है। इस निकास में बरसात का पानी जमा था। मैं उधर मुड़ ही रहा था कि नजर पड़ी पुलिया के आरसीसी स्लैब की ढलाई पर जो पक चुकी थी और उधर लगाये गये अवरोध दोपहिया वाहनों के लिए शायद आज सुबह ही हटा दिये गये थे। इसप्रकार पुलिया का अनौपचारिक उद्घाटन अपनी साइकिल से करते हुए हम आगे बढ़ लिये। फोटो लेने का विचार भी मटिया दिये ताकि किसी नेता जी को कोई रंज न हो।
भुएमऊ गाँव और इसके एक सिरे पर बने सोनिया जी के गेस्ट-हाउस को पीछे छोड़कर मैं उस चाय की दुकान पर जाकर रुका जो रायबरेली से सात-आठ किलोमीटर दूर है। यहाँ आसपास दूसरे मकान या दुकानें नहीं थी। सड़क की दोनों तरफ हरे-भरे खेत और पेड़ पौधे ही थे। दुकान के सामने खड़ी एक बाइक की सीट पर एक वर्दीधारी सिपाही सड़क की ओर मुँह करके पैर पर पैर चढ़ाकर आराम से बैठा हुआ था और अपने एंड्रॉइड फोन में व्यस्त था। फेसबुक, व्हाट्सएप्प, ट्विटर, इंस्टाग्राम, मेसेंजर चैट जैसे कोई भाव उसके चेहरे पर दिख नहीं रहे थे जबकि वह यही कुछ कर रहा था। मैंने अपनी गाड़ी उसके बगल में ही खड़ी की लेकिन उसने सिर तक नहीं घुमाया। वह किसी बगुले की तरह मोबाइल स्क्रीन पर ध्यानमग्न था।
मैंने चाय वाले से अपनी स्पेशल चाय पिलाने को कहा और बेंच पर बैठ गया। मेज के दूसरी ओर वाली बेंच पर एक और सिपाही बैठा था। उसकी बड़ी सी बंदूक मेरे बगल में ही मेज पर लेटी हुई थी। वह भी दुकान की ओर पीठ करके सड़क की ओर ही मुखातिब था। दुकान के भीतर बैठे दो-तीन लोग चिलम भरकर सुट्टा लगाने की तैयारी कर रहे थे। लेकिन बातचीत लगभग नहीं के बराबर हो रही थी। शायद पुलिसवालों की मौजूदगी से इतना सन्नाटा छाया हुआ था।
चायवाले ने मेरे हाथ में प्लास्टिक का गिलास थमाया ही था कि अचानक मेरी बगल वाला सिपाही उठा और झटके से अपना हथियार उठाकर कंधे में लटकाता हुआ सड़क के उस पार तेज कदमों से चला गया। मैं इस आकस्मिक चपलता का कारण समझने के लिए दिमाग पर जोर डालने ही वाला था कि एक हरहराता हुआ ट्रक झटके खाता हुआ रुका और वह सिपाही उसकी क्लीनर साइड वाली खिड़की की ओर लपका। ट्रक पर यूकेलिप्टस की लकड़ी लदी हुई थी। बाइक पर बैठा सिपाही भी हरकत में आ चुका था और अपने साथी पर नज़र बनाये हुआ था।
ट्रक वाले से उस सिपाही की बातचीत मुझे छोड़कर सबको समझ में आ गयी। चाय वाले ने बाइक स्टार्ट कर चुके सिपाही से कहा- तुम जाओ, वह तो लुर्र है। कुछ निकाल नहीं पायेगा। इस सिपाही ने दस कदम की दूरी अपनी बाइक से तय की, ट्रक के पीछे पहुँचा और ट्रक वाले को एक प्रचलित गाली से पुकारकर नीचे उतरने का हुक्म दिया। लकड़ी का व्यापारी ट्रक से उतरकर पीछे की ओर आया और धंधे की मन्दी का रोना रोता हुआ हाथ जोड़ लिया।
सिपाही ने रौब दिखाते हुए उसे दूसरी गाली रसीद की और बोला कि दो ट्रॉली के बराबर माल लाद कर ले जा रहे हो और पचास रुपल्ली दिखा रहे हो। चारखाने की सिकुड़ी हुई लुंगी, चीकट बनियान और कंधे पर मैला गमछा रखे व्यापारी ने हाथ में मोड़कर रखा नोट सिपाही की जेब में ठूसते हुए कहा- नंबरी है साहब, रख लीजिए। मुझे कुछ बचेगा नहीं।
सिपाही ने अपने साथी को इशारे से पीछे बैठने को कहा और बाइक का एक्सीलरेटर बढ़ाकर फर्राटा भरते हुए शहर की ओर चला गया। उसके जाने के बाद गाली देने का सुख उस व्यापारी और चाय की दुकान में बैठे आदमियों ने भी लूटा। मैंने आश्चर्य से पूछा- क्या सिर्फ सौ रुपये के लिए ये दोनो सुबह से बैठे थे? उत्तर मिला- नहीं जी, इसके पहले दो गाड़ियाँ और आयी थीं। डेढ़ सौ पहले वसूल चुके थे। अब इनका सुबह-सुबह ढाई सौ का काम हो गया।
मुझे सिपाहियों पर दया टाइप आने लगी। बेचारे कितने गरीब हैं। जीवन में कितनी जलालत है। पीठ-पीछे पब्लिक की गालियाँ खानी पड़ती हैं और सामने अफसरों की। इन्हें कैसे-कैसे लोगों के सामने हाथ पसारना पड़ता होगा और पता नहीं इन ढाई सौ रुपयों में इनका हिस्सा कितना बचता होगा?
मैंने चाय के पैसे दिये और साइकिल मोड़कर वापसी यात्रा शुरू की। भुएमऊ के अधिकांश घरों में दुधारू पशु पाले गये हैं। इसलिए घरों के आसपास गोबर, पानी और उच्छिष्ट चारे की गन्दगी भी दिखती है जिसकी सफाई में लगी औरतें और मर्द काफी व्यस्त रहते हैं। अपने लिए शुद्ध दूध की उपलब्धता और दूध बेचकर पैसा कमाने के लिए इतना श्रम तो करना ही पड़ता है।
पिछली बार इधर मुझे एक कारखाना दिखा था जिसे मैंने रेल के सीमेंटेड स्लिपर बनाने वाला समझ लिया था। आज नजदीक जाकर देखा तो पता चला कि यह सड़क बनाने वाली कंपनी का हॉट-मिक्स प्लांट है जहाँ तारकोल को पत्थर की गिट्टी में मिलाया जाता है। सीमेंट ढालकर बनाये गए ब्लॉक्स जिन्हें मैं स्लिपर समझता था वे वास्तव में पुल के एप्रोच को मजबूत बनाने में काम आते हैं।
इसी प्लांट के पास मुझे एक पुराना मंदिर दिखा जिसके बगल में एक बहुत बहुत पुराना कुआँ था। कुँए की जगत से लगा हुआ एक पीपल का पेड़ परिसर की शोभा बढ़ा रहा था। बगल में ही एक अन्य पेड़ की छाँव में मजार जैसी तीन आकृतियां बनी हुई थीं। उनका इतिहास बताने वाला कोई नहीं मिला। कुँए में झाँककर देखा तो पानी चमक रहा था लेकिन यह प्रयोग में नहीं होगा, क्योंकि पास में एक नल भी था जो चालू था। अब कुँए तो मांगलिक अवसरों पर प्रतीकात्मक प्रयोग के काम ही आते हैं। मंदिर के भीतर शिवलिंग स्थापित था जिसके ऊपर लटके घड़े से जल की बूंदें अनवरत टपक रही थीं। मैंने नहाये बग़ैर भीतर जाना उचित नहीं समझा और दूर से ही प्रणाम करके वापस आ गया।











सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
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बुधवार, 6 जुलाई 2016

गजोधरपुर और कूड़ा प्रसंस्करण संयन्त्र

ग्रीप साहब के पुरवे की तंग गलियों और बजबजाती नालियों से सकुशल बाहर निकलकर मैं साइकिलिंग का कोटा पूरा करने के लिए पीएसी वाली सड़क पर चला गया। इस सड़क पर गोरा बाजार चौराहे से आगे बढ़ने पर दाहिनी ओर आई.टी.आई. के बालक और बालिकाओं के लिए अलग-अलग संस्थान हैं, इसी में एक कौशल विकास प्रशिक्षण का केंद्र भी है। इसके आगे सरकारी कर्मचारियों व अधिकारियों की आवासीय कॉलोनी है।
सड़क की बायीं ओर पुराने बने हुए प्रायः छोटे-छोटे मकान हैं। इस सड़क पर दोनों तरफ प्रत्येक पचास-सौ मीटर की दूरी पर इण्डिया मार्क-टू हैंडपंप दिखायी देते हैं जो सरकारी खर्च पर ही लगाये गए होंगे। यहाँ जलापूर्ति के लिए जलनिगम की पाइपलाइन भी बिछी है। एक नल तो ऐसा भी दिखा जिसमें दोनों सुविधाओं को जुगाड़ तकनीक से जोड़ दिया गया था। पानी के फव्वारे छोड़ता स्वचालित हैंडपंप का चित्र-विचत्र देखिए।
पीएसी गेट पर चाय, पकौड़ी, समोसे और जलेबी की दुकानों पर जवानों की आवाजाही शुरू हो चुकी थी। इससे आगे बढ़ा तो मुझे गोरखपुर वाले तिवारी जी याद गये जो पीएसी में ही काम करते हैं। उनसे मैं डेढ़ महीने पहले इसी सड़क पर उनके ढाबे पर मिला था।
तिवारी जी ने यह ढाबा अपने बेटे के लिए नया-नया खोला था। तब उन्होंने बताया था कि उनकी स्पेशलिटी नॉन-वेज डिश होगी। वे मटन, मुर्गा, मछली ऐसी स्वादिष्ट खिलाएंगे जैसी यहाँ से लेकर लखनऊ तक नहीं मिलेगी। एक पक्की दुकान के आगे छप्पर डालकर उसमें स्टील का चमचमाता काउंटर लगाया गया था, ग्राहकों के लिए प्लास्टिक की कुर्सियाँ सजायी गयी थीं और बड़े बड़े बर्तन खाना बनाने, रखने और परोसने के लिए लगाये गये थे। तिवारी जी का बेटा छः फुट का सुदर्शन, गोरा-चिट्टा, एक कुलीन नौजवान दिख रहा था। उसने बीए कर रखा था लेकिन बेरोजगारी से लड़ाई में पिता की इच्छानुसार ढाबा चलाने आ गया था। जीन्स और टी-शर्ट में इस आकर्षक युवक का नाम था-राजा। तब मुझे 'राजा रेस्टोरेंट' की सफलता पर जो संदेह हुआ था उसी की सच्चाई जानने की इच्छा मुझे आज हो गयी।
मैंने साइकिल वहीं ले जाकर खड़ी कर दी। सुबह-सुबह तिवारी जी नहीं मिले, लेकिन राजा मिल गया जो झाड़ू लगा रहा था - बरमूडा और बनियान पहने हुए पसीने से लथपथ। काउंटर पर कोई सामान नहीं था, न कोई बर्तन थे। कुर्सियाँ भी एक के ऊपर एक रखकर कोने में खड़ी की गयी थीं और प्लास्टिक की मेज उनके ऊपर चढ़ा दी गयी थी। गैस चूल्हा भी साफ करके किनारे रखा था। सारे बर्तन कहीं अंदर रखे होंगे। साफ दिख रहा था कि यह ढाबा ग्राहकों की किल्लत झेल रहा था। राजा बिना पूछे ही मेरे प्रश्नों को समझ गया। बताने लगा- यहाँ तक ग्राहक आते ही नहीं। गेट से थोड़ा दूर है न। जवान लोग वहीं खा लेते हैं। हमारा बहुत खाना नुकसान होने लगा। इसलिए अब आर्डर मिलता है तभी बनाते हैं। अब शहर के भीतर कोई जगह देख रहे हैं। यहाँ धंधा नहीं चल पा रहा है।
मुझे तो पहले ही पता था कि ये पूरब के पण्डित जी इस धंधे में फिट नहीं बैठते। मैंने थोड़ा अफ़सोस जाहिर किया और साइकिल वापस मोड़ ली।
मुझे अभी भी भरपूर साइकिल चलाने को नहीं मिली थी इसलिए मैं वापस लौटने के बजाय बायीं ओर निकलती सड़क पर मुड़ गया जिधर एक कारखाना जैसा कुछ दिख रहा था। नजदीक जाने पर पता चला कि यह कूड़े को ठिकाने लगाने का प्लांट है - अपशिष्ट प्रबंधन का उपक्रम। जरूर इसे सोनिया जी ने या उनके परिवार के किसी पूर्व सांसद ने रायबरेली को भेंट किया होगा। इस कारखाने का गेट खुला हुआ था तो मैं साइकिल लेकर अंदर चला गया। अंदर भी कोई आदमी नहीं दिखा। कुछ छुट्टा गायें जरूर मिलीं जो वहाँ लाये गये कूँड़े में मुँह मार रही थीं। इस समय कोई मशीन चालू नहीं थी। एक तरफ कूड़े का पहाड़ जमा था और दूसरी ओर एक सूखा तालाबनुमा निर्माण किया गया था जिसके किनारे पॉलीथीन की चादरों से ढके हुए थे। शायद इस कारखाने का उत्पाद इस गढ्ढे में इकठ्ठा किया जाता हो। मुझे पूछने की बहुत इच्छा थी लेकिन बताने के लिए वहाँ कोई था ही नहीं। मजबूरन मैंने फोटुएं खींचकर और कूड़े के साथ सेल्फ़ी लेकर काम चलाया।
इस प्लांट से आगे का गाँव है- गजोधरपुर। गाँव में घुसते ही एक मरियल कुत्ते ने मुझे देखा जो मेरी ओर आ रहा था। वह ठिठककर खड़ा हो गया। मैंने चेहरे पर हिम्मत का भाव बनाये रखा। उसने जाने क्या भांपकर अपना रास्ता बदल लिया और ऐसे जाने लगा जैसे मुझे देखा ही न हो। मैंने भी राहत की साँस ली।
इस गाँव में सोनिया जी ने सोलर स्ट्रीट लाइट लगवा रखी है। एक लड़के ने पूछने पर बताया- हाँ, जलती है लेकिन तीन-चार दिन से ख़राब है। मैंने पूछा इसे जलाता-बुझाता कौन है तो उसने बताया कि सब फैक्ट्री से ही कंट्रोल होता है। मैं उसका उत्तर समझे बिना ही आगे बढ़ गया।
आगे गाँव में प्रायः सभी मकान पक्के थे और अनेक घरों में दुधारू पशु पाले गये दिखे। वहाँ बाँस की कोठियां भी दिखी और कृषि यन्त्र भी। गाँव के भीतर जाने वाली सड़क एक घर के सामने जाकर समाप्त हो गयी। वहीं बरामदे की सीढ़ियों पर बैठी उनींदी आँखों वाली एक युवती ने बताया कि आगे रास्ता नहीं है। मैं वापस मुड़ा तो मेरी पीठ से उसकी खनकती हुई हँसी टकराई जो किसी को मेरे रास्ता भटकने के बारे में बता रही थी।


















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