यह पोस्ट सातवें आसमान से लिख रहा हूँ... कारण है आप सभी की जोरदार, शोरदार और बेजोड़दार प्रतिक्रियाओं की सतत् श्रृंखला। वाह, मुझे तो उड़न तश्तरी होने का इल्म हो रहा है... (आदरणीय समीर जी क्षमा याचना सहित)
श्री विभूति नारायण राय जी से २३ अगस्त २००९ को मेरी प्रथम मुलाकात हुई, नितान्त अनौपचारिक और व्यक्तिगत। सत्यार्थमित्र पुस्तक भेंट करने और हिन्दी विश्वविद्यालय द्वारा हिन्दी भाषा और साहित्य से सम्बन्धित पाठ्येत्तर गतिविधियों के सम्बन्ध में कुछ चर्चा कर अपने को अद्यतन कर लेना ही मेरा उद्देश्य था।
राय साहब ने मेरी पुस्तक पर प्रसन्नता जाहिर की और तत्क्षण ही अपने लैपटॉप पर हिन्दुस्तानी एकेडेमी और सत्यार्थमित्र के ब्लॉग पर विहंगम दृष्टि डालने के बाद अपने विश्वविद्यालय की साइट के दर्शन भी कराये। हिन्दी साहित्य के एक लाख पृष्ठों को नेट पर चढ़ाने की परियोजना के बारे में बताया। मैने भी उन्हें बताया कि पिछली मई में हमने इलाहाबाद वि.वि. के निराला सभागार में एक ब्लॉगिंग की कार्यशाला करायी थी जिसमें इन्टरनेट पर ब्लॉग लेखन के माध्यम से हिन्दी के बढ़ते कदमों की चर्चा की गयी थी। उन्होंने उस कार्यशाला सम्बन्धी पोस्ट के लिंक पर जाकर उसे देखा और उसके बाद उन्होंने मुझसे जो प्रस्ताव रखा उससे मैं सकते में आ गया था-
“इलाहाबाद में हिन्दी ब्लॉगों के बारे में एक राष्ट्रीय स्तर के सेमिनार का आयोजन जिसमें देश के सबसे अच्छे ब्लॉगर्स को बुलाकर इस माध्यम पर दो दिन की चर्चा कराई जाय।”
उसके बाद अबतक जो-जो हुआ है वह इतिहास बनता जा रहा है। राय साहब और नामवर जी की व्यस्तता के कारण तिथियों को आगे सरकाए जाने की मजबूरी हो या बर्धा से इलाहाबाद की दूरी और नेट पर सम्पर्क का अभाव रहा हो, विश्वविद्यालय के अधिकारियों के साथ इस नवीन माध्यम पर की जा रही संगोष्ठी के बारे में महत्वपूर्ण निर्णय लिए जाने की जटिल प्रक्रिया रही हो या मेरे मन में उत्साह और सदाशय का प्राचुर्य और अनुभव की न्यूनता रही हो; इन सभी दिक्कतों और खूबियों-खामियों के बावजूद यह संगोष्ठी जिस रूप में सम्पन्न हुई उससे मेरा मन बल्लियों उछल रहा है। अब प्रायः सभी मान रहे हैं कि यह संगोष्ठी अबतक का सबसे बड़ा आयोजन साबित हुई है।
मेरी अप्रतिम प्रसन्नता मात्र इसलिए नहीं कि हिन्दुस्तानी एकेडेमी द्वारा प्रकाशित मेरी पुस्तक का विमोचन नामवर जी के हाथों होने का जुगाड़ हो गया, वह कार्य तो एकेडेमी पहले भी कराती रही है; बल्कि मैं तो इसलिए अभिभूत हूँ कि मात्र डेढ़ साल पहले बिल्कुल नौसिखिया बनकर इस माध्यम से जुड़ने के बाद मुझे ऐसे अवसर और समर्थन मिलने लगे कि इस माध्यम को व्यक्तिगत कम्प्यूटर कक्षों से बाहर निकालकर अखबारी सुर्खियाँ बनाने, सभागारों में चर्चा का विषय बनाने, पारम्परिक साहित्य के प्रिण्ट माध्यम से इसे विधिवत जोड़ने के जो प्रयास हो रहे हैं उसमें एक माध्यम मैं भी बन गया। इतना ही नहीं, अन्ततः हिन्दी जगत के शिखर पर विराजने वाले एक ख्यातिनाम हस्ताक्षर को जब इस माध्यम पर गम्भीरता से मनन करने और अपनी राय बदलने या अपडेट करने पर मजबूर होना पड़ा तो मैं इस ऐतिहासिक घटना का न सिर्फ़ प्रत्यक्षदर्शी बना बल्कि उस हृदय परिवर्तन के प्राकट्य का एक संवाहक भी हो लिया।
मैं इस जोड़-घटाने में कभी नहीं पड़ने वाला कि मुझे इस बात की कितनी क्रेडिट दी गयी है या दी जाती है, लेकिन पिछले एक सप्ताह से जो कुछ घटित हो रहा है उसे देखकर मुझे असीम आनन्द, तृप्ति और आत्मसंतुष्टि ने घेर रखा है। आत्ममुग्ध हो गया हूँ मैं। ...अब इससे किसी विघ्नसंतोषी का दिल बैठा जा रहा हो तो मैं क्या कर सकता हूँ? चुपचाप काम निबटाने के बाद ब्लॉग उदधि में उठने वाली ऊँची तरंगों को सुरक्षित दूरी बनाकर शान्ति और कौतूहल के मिश्रित भाव से देखने और मुक्त भाव से उनमें मानसिक गोता लगाने का जो सुख मुझे मिला है वह जीवन भर सँजो कर रखना चाहूंगा।
मेरे वरिष्ठ मित्रों और आदरणीय अग्रजों ने जो स्नेह, समर्थन और आशीर्वाद दिया उससे मुझे आगे बढ़ने का उत्साह मिला। असीम ऊर्जा मिली। (एक अदना सा ‘धन्यवाद’ देकर मैं उस ऋण से उऋण नहीं हो सकता।) लेकिन जिन लोगों ने पूरी शक्ति लगाकर इस संगोष्ठी का छिद्रान्वेषण किया, अनेक कमियों को ढूँढकर बताया, और बड़े-बुजुर्गों की ऊटपटांग आलोचना की उससे मेरे मन को कुछ ज्यादा मजबूती मिली। अब मुझे विश्वास हो गया है कि किसी अच्छे और बड़े कार्य के लिए आपके पास बहुत लम्बा अनुभव होना या अधिक उम्र का होना बहुत जरूरी नहीं है। यह कोई गारण्टी नहीं देता। अराजकता, अविवेक, अहमन्यता, अधीरता, अति भावुकता और अनाड़ीपन का प्रकोप वहाँ भी हो सकता है। ऐसा बोध कराने के लिए उन सबको तहेदिल से शुक्रिया...।
हिन्दी ब्लॉग-जगत में मेरी छोटी सी यात्रा को पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने का निर्णय हिन्दुस्तानी एकेडेमी के सचिव द्वारा जिन उद्देश्यों से किया गया था उसे उन्होने पुस्तक के प्रकाशकीय में स्पष्ट किया है। इसके औचित्य पर प्रश्न उठाने वालों को पुस्तक खरीदकर पढ़नी चाहिए और तभी कोई राय बनानी चाहिए। मैं तो बड़ी विनम्रता से हिन्दुस्तानी एकेडेमी के उच्चाधिकारियों से लेकर अपने आस-पास के आम लोगों को जो मेरी विचार भूमि में बीज समान अंकुरित होते रहे हैं; और घर-परिवार से लेकर इस ब्लॉग-परिवार के सुधीजनों के प्रति हृदय से कृतज्ञता व्यक्त कर चुका हूँ जिनका इस पुस्तक के निर्माण में प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी प्रकार का योगदान है। एक बार खरीदकर पढ़िए तो सही...।
आप सोच रहे होंगे कि मैं फिरसे विज्ञापन करने लगा...। तो जरूर सोचिए क्योंकि मैं ऐसा ही कुछ कर रहा हूँ और मैं ऐसा करना बुरा नहीं मानता। पुस्तकों का बाजार कितना कमजोर और उपेक्षित है इसका जिक्र अनेकशः कर चुका हूँ। आगे भी इस चिन्ता को जाहिर करता रहूंगा और पुस्तकों के प्रति लोगों में प्रेम भाव जागृत करने के लिए जो बन पड़ेगा वह भी करता ही रहूंगा...।
संगोष्ठी समाप्त होने के बाद मैने सब काम छोड़कर अन्तर्जाल पर पोस्ट के रूप में आने वाली प्रतिक्रियाओं को टिप्पणियों-प्रतिटिप्पणियों को पढ़ता रहा, मुझे अपनी ओर से किसी सफाई की जरूरत नहीं पड़ी। (एक जगह केवल यह बताना पड़ा कि नामवर जी उस वि.वि. के कुलाधिपति हैं।) इतने समझदार और जानकार लोग इस मंच को आलोकित कर रहे हैं कि सबकुछ शीशे की तरह साफ होता चला गया। कल समीर जी ने जब पुल के उस पार से इलाहाबाद का दर्शन किया तो हठात् मेरे भावों को निरूपित करती कविता निकल पड़ी-
मैं इसलिये हाशिये पर हूँ क्यूँकि
मैं बस मौन रहा और
उनके कृत्यों पर
मंद मंद मुस्कराता रहा!!
-समीर लाल ’समीर’
इस मौन ने मुझे ऐसा घेरा कि इस गोष्ठी की अनेक यादगार तस्वीरें आपको दिखाना भूल गया। आज कुछ ऐसे चेहरे लगा रहा हूँ जिन्हें नये-पुराने सभी ब्लॉगर देखना चाहेंगे। कोई मानक क्रम निर्धारित नहीं किया है, बस एलबम से जो जहाँ मिला वहीं से उठा लिया है:
इस मौके पर कुछ महारथियों ने अपने ‘लोटपोट’ के साथ त्वरित पोस्ट ठेलने का काम किया और अभय तिवारी की लघु फिल्म सरपत का प्रदर्शन भी हुआ। बेहद उम्दा फिल्म है। जरूर देखने लायक।
अन्त में इतना ही कि २३-२४ अक्टूबर के बाद हिन्दी चिठ्ठाकारी की दुनिया में कुछ नयी बातें होने लगी हैं। मैं यही महसूस कर रहा हूँ कि भविष्य में भी ऐसा कोई आयोजन करने का अवसर मिले तो मैं दुबारा लग जाऊंगा।
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)