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सोमवार, 22 सितंबर 2014

जुगनू अपना फर्ज़ निभाते रहते है (तरही ग़जल)

तरही नशिस्त के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए इस बार उस्ताद ने जो मिसरा दिया उसने मुझे बहुत परेशान किया। लेकिन आखिर कुछ तुकबन्दियाँ बन ही गयीं। आप भी समाद फरमाइए :

जुगनू अपना फर्ज़ निभाते रहते हैं


पूंजीपति के मॉल सजीले बनते हैं
श्रमजीवी बदहाल वहीं पे रहते हैं

सरकारों ने दिये बहुत उपहार उन्हें
खोज रहा हूँ गाँव जहाँ वे मिलते हैं

जंग जीतता सूरज सदा अँधेरे से
जुगनू अपना फर्ज़ निभाते रहते है

बीज डालने की फितरत कुछ लोगों की
कुछ हैं जो बस फसल काटते रहते है

छोटे से छोटे को छोटा मत समझो
बूंदों से ही पत्थर चिकने बनते हैं

मर्दों ने तामीर मकानों की कर ली
औरत के हाथों ही वे घर बनते हैं

मन में हो तूफान मगर मत घबराना
अक्सर मंद समीर बाद में बहते हैं

अच्छी फसलें बहुत सजोनी पड़ती हैं
खर पतवार बिना बोये ही उगते हैं

सदाचार सच्‍चाई की है राह कठिन
झूठे रस्ते अनायास खुल पड़ते हैं

-सत्यार्थमित्र

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
www.satyarthmitra.com

शनिवार, 13 सितंबर 2014

बचपन के मीत का गीत…

आज मेरे बचपन के दोस्त संजय कुमार त्रिपाठी का जन्मदिन है। हम आठवीं से दसवीं कक्षा तक एक साथ पढ़े। उन तीन सालों में शायद ही कोई ऐसा दिन रहा हो जब कक्षा में हम एक साथ न बैठे हों। उस ग्रामीण विद्यालय में पढ़ने के लिए मैं अपने घर से दूर एक ‘क्‍वार्टर’ में रहता था जो वहाँ के इलाके में एक प्रतिष्ठित व्यक्ति के घर के बाहरी बरामदे का छोटा सा कमरा था। संजय अपने मामाजी के घर रहते थे जो बगल के गाँव में था। स्कूल के बाहर भी हम लोगों की पढ़ाई प्रायः एक दूसरे के संपर्क में रहते हुए ही होती थी। कभी-कभी मैं उनके मामाजी के घर जाकर रुक जाता था। कभी वे मेरे कमरे पर आ जाते थे; लेकिन रात में रुक नहीं सकते थे क्यों कि कमरा इतना बड़ा नहीं था। बोर्ड परीक्षा देने के लिए जब परीक्षा केन्द्र तीस किलोमीटर दूर निर्धारित हुआ तो वहाँ हम एक साथ रुके और परीक्षा में लगभग बराबर की सफलता प्राप्त करते हुए एक दूसरे से विदा हुए।

मैंने उस ग्रामीण विद्यालय के खराब माहौल से तौबा कर ली और पिताजी से जिद करके राजकीय इंटर कॉलेज में पढ़ने गोरखपुर चला आया। गोरखपुर से इलाहाबाद विश्वविद्यालय और वहाँ से लोक सेवा आयोग की दी हुई सरकारी नौकरी बजा रहा हूँ। उधर संजय ने उसी जनता इंटर कालेज से इंटर पास किया, फिर बिहार से शिक्षक प्रशिक्षण (बी.टी.सी.) प्राप्त किया, और प्राथमिक शिक्षक बनने से पहले बी.ए. और एम.ए.(अंग्रेजी) की डिग्री गोरखपुर विश्वविद्यालय से अर्जित कर ली। आज वे बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले में सरकारी जूनियर हाई स्कूल में एक आदर्श शिक्षक की नौकरी करते हुए अपनी छोटी सी गृहस्थी सम्हाल रहे हैं। उनके शिक्षण कार्य की कुशलता को देखते हुए उन्हें अन्य शिक्षकों को प्रशिक्षण देने का अतिरिक्त कार्य सौंप दिया गया है जिसे पूरा करने के लिए उन्हें रविवार की साप्ताहिक छुट्टी भी समर्पित करनी पड़ती है। इसके लिए मिलने वाला अतिरिक्त पारिश्रमिक उनके समक्ष मुंह खोले तमाम आर्थिक चुनौतियों का सामना करने हेतु कुछ अतिरिक्त संबल जरूर देता होगा लेकिन उनकी कर्मनिष्ठा में डूबी हुई दिनचर्या इतनी व्यस्त हो चुकी है कि नौकरी के बाहर के सारे काम ठप हो चुके हैं। इष्टमित्रों से मिलना-जुलना, रिश्तेदारों के घर आना-जाना, छुट्टियों में बच्चों को लेकर बाहर घूमने जाना या सोशल मीडिया पर स्टेटस डालने और बतकही करने का शौक पैदा ही नहीं हो सका।

संजय एक ऐसी दुनिया में रमे हुए हैं जो महानगरीय संस्कृति और उपभोक्ता वादी सामाजिकता से कोसों दूर है। निवास स्थान से बीस-पच्चीस किलोमीटर दूर की नौकरी बजाने के लिए अनिवार्य हो चुकी मोटरसाइकिल भी काफी प्रतीक्षा के बाद आ सकी और अदना सा मोबाइल उसके भी बाद में। कर्ज लेकर घर का ढाँचा तो खड़ा कर लिया लेकिन उसके खिड़की दरवाजे बनवाने में कई साल लग गये। बच्चों की छोटी-छोटी जरूरतों के लिए भी अपने साथ कई समझौते करने पड़े। लगभग पूरे वेतन पर ई.एम.आई. ने कब्जा कर रखा है लेकिन मजाल क्या कि इनके चेहरे पर कभी शिकन देखने में आयी हो। जब भी पडरौना जाता हूँ तो इनके घर मिलने जरूर जाता हूँ। वही प्रसन्नता से मुस्कराता चेहरा और अपनी गृहस्थी के प्रति सजगता और जिम्मेदारी से भरा, उत्साह से लबरेज जीवन्त व्यक्तित्व देखने को मिलता है।

बात-बात में ठहाके लगाते और गुदगुदाने वाले किस्से-कहानियों का लुत्फ़ लेते हुए संजय की कोई ऑनलाइन प्रोफाइल नहीं है। वर्षों पहले मैंने इनका एक जी-मेल खाता बना के दे दिया तो उसका पासवर्ड धरे-धरे गायब हो गया और मेल चला गया तेल लेने। इंटरनेट तक अपनी पहुँच बनाने की न तो इन्हें जरूरत महसूस हुई और न ही कोई सुभीता ही हुआ। मेरे झकझोरने पर आज जब किसी दूसरे के ई-मेल एकाउंट से इन्होंने मुझे अपनी एक हस्तलिखित रचना भेजी तो मैंने सोचा फोन के बजाय इस पोस्ट के माध्यम से इन्हें अपनी शुभकामनाएँ उनतक पहुँचाऊँ। 

Sanjay K Tripathi1

अपनो का हो साथ तो इक संबल मिलता है
जीवन नौका को खेने का बल मिलता है

सत्य और भ्रम का अंतर जो समझ सका है
श्रमजीवी होने का मतलब समझ सका है
मन में रखता है जो ऊँची अभिलाषाएँ
घोर निराशा में आशा के दीप जलाए

ऐसे ‘कर्मवीर’ को ही प्रतिफल मिलता है
अपनों का हो साथ तो इक संबल मिलता है

जीत हार का जिसपर कोई असर नहीं है
दुनियादारी की बातों का असर नहीं है
अन्तर्मन के निर्णय पर ही चलता जाये
यमदूतों के भय से भी जो ना घबराये

ऐसे को ही हर प्रश्नों का हल मिलता है
अपनों का हो साथ तो इक संबल मिलता है।

-संजय कुमार त्रिपाठी

मैं चाहता हूँ आधुनिकता की चकाचौंध से दूर दुर्गम ग्रामीण इलाकों में शिक्षा की ज्योति जलाने में लगे इस अहर्निश कर्मयोगी को उसके जन्मदिन (१३ सितंबर) पर आप भी शुभकामनाएँ देना चाहें।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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