हमारी कोशिश है एक ऐसी दुनिया में रचने बसने की जहाँ सत्य सबका साझा हो; और सभी इसकी अभिव्यक्ति में मित्रवत होकर सकारात्मक संसार की रचना करें।

गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

मुर्दा पीटना बन्द कर कुछ अच्छा सोचें नये साल में…

 

कलम उठाकर लिखते थे हम

शुभकामनाएं नये साल की

लिफाफे को सजाकर कुछ फूलों की डिजायन से

भरते थे उसमें अपना सुलेख

ग्रीटिंग कार्ड तैयार कर लेते थे- सस्ता, सुन्दर और टिकाऊ

अपने गुरुजनों को, सखा और सखियों को,

बस थमा देते थे अपनी शुभकामनाएं।

स्कूल में पहुँचने पर शुरू होता था नया साल

सबकी जुबान पर चढ़ा होता था

हैप्पी न्यू इयर, हैप्पी न्यू इयर, हैप्पी न्यू इयर

बदला जमाना

आ गया मोबाइल और इण्टरनेट

अब यहीं हो रही है मुलाकात और भेंट

अब नया साल रात में ही आ जाता है।

तीनो सूइयाँ एक दूसरे से मिलते ही शोर मच जाता है

नया साल टीवी के पर्दे से होकर निकलता है

लाइनें जाम हो जाती हैं

संदेश देने को फोन नहीं मिलता है।

 

आज अभी

होटलों में मोटी रकम खर्च करके भी

कुछ लोग नये साल को आता देख रहे होंगे।

ब्लॉगवाणी में भी शिड्यूल्ड

कुछ शुभकामनाओं के लेख रहे होंगे।

साल की अगवानी में

हम बहुत कुछ अनोखा कर जाते हैं

कुछ लोग तो इस हो हल्ले में

मानवता से ही धोखा कर जाते हैं

 

लेकिन जो सुविधा विहीन हैं

वे यूँ ही साल को आ जाने देते हैं

जैसे इतने दिन चले गये

आज का एक और दिन चले जाने देते हैं

मैं भी आज जागकर नया साल मना रहा हूँ

जैसे इसके आने में मेरी कोई भूमिका होना जरूरी हो

लिख रहा हूँ यह बोर करती बातें

जैसे कोई मजबूरी हो

 

लेकिन क्या करूँ

आज देखता हूँ कुछ लोग मुर्दा पीटने में व्यस्त हैं

एक अदनी सी बात का बहाना लेकर

अपना शब्द शौर्य दिखाने में व्यस्त हैं

 

अन्दर की भयानक गन्दगी

उबलकर बाहर आ रही है

उनके शब्दों की घटिया बाजीगरी

इस ब्लॉगमंच को मुँह चिढ़ा रही है

 

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का

यह कलुषित हश्र हो गया है

बुद्धि-विवेक, संस्कार, मर्यादा, सभ्यता और भावसौन्दर्य

इन सबका यह सारा कुनबा मुँह ढंककर सो गया है

 

अब इस ब्लॉगजगत में

आती-जाती रचनाओं का जो हाल है

वह सकारत्मक रचना कम

और ज्यादा बवाल है

ऐसे में हम क्या विश करें?

बस भगवान से प्रार्थना है

वे अविलम्ब यह विष हरें

 

नये साल में सबकी मर्यादा पुनरुज्जीवित होकर पुष्पित पल्लवित हो।

हमारा एक सकारात्मक संसार की रचना करने का प्रयास सुफलित हो॥

(शुभकामनाओं सहित)

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

सोमवार, 28 दिसंबर 2009

अवकाश-त्रसित मन की आकुलता में समाया क्रिकेट…

जिलाधिकारी द्वारा प्रकाशित छुट्टियों की लिस्ट अपनी ऑफिस टेबल के शीशे से दबाकर सभी अधिकारियों की तरह मैने भी लगा रखा है। हाँलाकि उसमें दिखने वाली सभी छुट्टियाँ हम ट्रेजरी वालों को नसीब नहीं होती। स्थानीय अवकाश, निर्बन्धित अवकाश और कार्यकारी अवकाश के दिन हमारे लिए बहुत कोफ़्त के होते हैं। इन दिनों दूसरे दफ़्तर जब बन्द रहते हैं तब भी बैंक की तरह हम सरकारी खजाना खोलकर बैठे रहते हैं। महीने का दूसरा शनिवार भी हमें सालता है। महीने के पहले सप्ताह में तनख्वाह लेकर इस दिन सरकारी कर्मचारी बाजार जाते हैं और महीने की खरीदारी करते हैं। लेकिन हम यह काम भी शाम को घर लौटने के बाद ही कर पाते हैं।

इलाहाबाद की ट्रेजरी में एक अतिरिक्त लफ़ड़ा भी है। यहाँ आए दिन कोई न कोई प्रतियोगी परीक्षा होती रहती है जो प्रायः रविवार की छुट्टी के दिन पड़ती है। इन परीक्षाओं के प्रश्नपत्र सीलबन्द लिफाफों में हमारे द्वितालक दृढ़कक्ष (double-lock strong room) में रखे जाते हैं, जिन्हें परीक्षा प्रारम्भ होने के एक घण्टा पहले निकालकर मजिस्ट्रेट के हाथों परीक्षा केन्द्र तक भेंजा जाता है। परीक्षा में दो पारियाँ हों तो डबल-लॉक दो बार खोला जाता है। यानि हमारी साप्ताहिक छुट्टी भी नौकरी के हवाले चली जाती है।

ऐसे अवकाश-त्रसित मन को जब पता चला कि क्रिसमस से लेकर मोहर्रम तक लगातार चार दिन में तीन दिन छुट्टी के हैं और इस बीच कोई परीक्षा भी नहीं है तो मन बल्लियों उछल पड़ा। खूब आराम करेंगे। किसी काम की फिक्र न होगी। बेटी का स्कूल और संगीत क्लास दोनो बन्द रहेगा, इसलिए उसे छोड़ना भी न होगा। मेयोहाल भी दो दिन बन्द रहेगा, इसलिए बैडमिण्टन से भी आराम रहेगा। सुबह जल्दी उठने का कोई टेंशन नहीं। ….ब्लॉगरी में जो काम पिछड़ गये हैं वो सब बैकलॉग पूरा कर लेंगे। फीडरीडर का जाम हटा लेंगे….  ना..ना..ना.., तब तो फिर छुट्टी का मजा जाता रहेगा। ठीक है… ब्लॉगरी को भी नमस्ते कर देंगे। जैसे इतना छूटा है वैसे थोड़ा और सही। इस छुट्टी में तो मन मस्तिष्क को पूरा ‘रेस्ट’ पर रखेंगे। कुछ नहीं सोचेंगे, कुछ नहीं करेंगे… बस देर तक अलसाए बिस्तर पर पड़े रहेंगे… नींद का ओवरडोज लेंगे… खूब निश्चिन्त होकर पड़े रहेंगे… ऐसा दुर्लभ सुख फिर मिले न मिले…!!!

रविवार की सुबह अखबार ने बताया कि भारत-श्रीलंका का आखिरी एकदिवसीय मैच सुबह नौ बजे प्रारम्भ हो जाएगा। ३-१ की अपराजेय बढ़त के साथ उतरने वाली भारतीय टीम की उम्दा बल्लेबाजी  का लुत्फ़ उठाने का ऐसा मौका हाथ से क्यों जाने दूँ। छुट्टी के दिन मैच हो तो क्या कहने। ऑफ़िस मे होने पर तो बार-बार घर से स्कोर पूछता रहता हूँ, आज तो पूरा मैच लाइव देखना है। बस मैं तुरत-फुरत रजाई से बाहर निकला, जल्दी-जल्दी नहा लिया, खड़े-खड़े भन्न से पूजा किया और टन्न से टीवी ऑन कर दिया। ड्राइंग रूम की सेन्ट्रल टेबल किनारे कर कालीन पर गद्दे डालकर चादर बिछायी, मसनद लगाया और कम्बल में पैर डालकर अधलेटा हो लिया। दिनभर सोफ़े पर बैठना मुश्किल जो था। वाह क्या आनन्द था…!Upul Tharanga was cleaned up first ball 

डिश टीवी वाले नियो-क्रिकेट चैनेल नहीं दिखाते इसलिए इसका ‘मैक्सी पैकेज’ लेने के बाद भी मुझे इस एक चैनेल के लिए लोकल केबल वाले से अनुरोध करना पड़ा था। यह बात दीगर है कि जब तक मुझे यह सुविधा मिली तबतक टेस्ट श्रृंखला समाप्त हो चुकी थी और टी-२० तथा ओडीआई का प्रसारण अपने दूरदर्शन पर आने लगा था। फिर भी मैने केबल कनेक्शन चेक कर लिया था, दूरदर्शन का क्या भरोसा… कभी भी खेदप्रकाश की तख्ती नमूदार हो सकती है। आधे घण्टे की समीक्षा ध्यान से सुनने के बाद असली मैच शुरू हुआ। श्रीमती जी इस बीच कई बार मुझे हिकारत से देखकर जा चुकी थीं। चूंकि मेरी यह कमजोरी जानती हैं इसलिए शायद कुछ ऐसा-वैसा नहीं कहा। वर्ना मजाल क्या कि उनके सजाए ड्राइंग रूम में किसी परिवर्तन की गुस्ताखी मैं कर सकूँ।

टॉस जीतने के बाद भारत ने श्रीलंका को बल्लेबाजी की दावत दी थी। सुनील गावस्कर पिच की रिपोर्ट में गोलमोल बता चुके थे कि बहुत अच्छा मैच होगा। पिच में जान है। शुरुआती घण्टे में गेंदबाजों के लिए मददगार रहेगी लेकिन बल्लेबाजों को भी निराश होने की जरूरत नहीं है। बाद में खूब रन बरसेंगे। बहुत जबरदस्त मुकाबला होगा…। पिच को सहलाते हुए कैमरा क्लोजप शॉट ले रहा था। हल्की खुरदरी घास…। गावस्कर बोले- यह किसी गन्जे सिर पर ताजा रोपे गये नकली बालों की तरह दिख रही है। जो गेंद घास पर पड़ेगी उसकी उछाल और दिशा अलग होगी और गन्जे हिस्से पर गिरने वाली गेंद अलग…। मैं इतनी बारीकी नहीं समझता इसलिए पहली गेंद फ़ेंके जाने का इन्तजार करता रहा।

पहला ओवर जहीर खान का था। पहली गेंद फेंकते ही जोरदार शोर हुआ। खब्बू ओपनर उपुल थरंगा अपने पैड को बल्ले से ढंके हुए रक्षात्मक मुद्रा में खड़े थे और उनकी गिल्लियाँ हवा में बिखर चुकी थीं। ओ, व्हाट ए स्टार्ट… !! कमेण्ट्रेटर उत्तेजित थे। इसके बाद तो जो खेल आगे बढ़ा उसे देखकर भारतीय दर्शक खुशी से झूम उठे। जब एक के बाद एक विकेट सस्ते में गिरने लगे तो मेरा मन अजीब उदासी का शिकार होने लगा। ऐसे तो पूरे दिन रोमांच बना ही नहीं रहेगा। चुनौती ही नहीं रहेगी तो इण्डिया बैटिंग क्या करेगी।

Fall of wickets1-0 (Tharanga, 0.1 ov), 2-39 (Dilshan, 10.5 ov), 3-58 (Sangakkara, 15.1 ov), 4-60 (Jayasuriya, 16.4 ov),5-63 (Samaraweera, 17.6 ov)

पहली गेंद पर विकेट, दूसरे ओवर की पहली गेंद पर छूटा कैच, ब्ल्लेबाजों की कुहनी, कन्धे और अंगुलियों पर बार बार लगती चोटें, विकेटों के बीच हड़बड़ी में लगती दौड़, थर्डमैन को छकाती थिक-एज से निकलती सनसनाती गेंदे, जहीर खान, हरभजन सिंह और पहला मैच खेल रहे सुदीप त्यागी को मिलने वाले एक-एक विकेट, दो मैचों का प्रतिबन्ध झेलकर लौटे धोनी की शानदार विकेटकीपिंग, रैना का धारदार क्षेत्ररक्षण और रन आउट… इस पहले सत्र में क्या-क्या नहीं देखने को मिला।

 

लेकिन चौबीसवें ओवर के आते-आते वह हो गया जो किसी को पसन्द नहीं आया होगा। मैच रद्द होने की ओर बढ़ गया। चोटग्रस्त श्रीलंकाई टीम ने पिच की शिकायत की और मैच रेफ़री ने काफी सोच-विचार के बाद मैच को रद्द कर दिया और हमने टीवी से नजर हटाकर कम्बल में मुंह ढंक लिया। अब श्रीमती जी क सब्र टूट चुका था। उन्होंने कम्बल उठाया और लेकर चली गयीं। मने भी मन मसोस कर अपना गद्दा समेट लिया। सेन्ट्रल टेबल अपने स्थान पर आ गयी, और मैं कम्प्यूटर पर अपनी ब्लॉगरी में आधे मन से जुट गया। 

छुट्टी का मजा एक बार फिर किरकिरा हो लिया है। आलसी होने का सपना चूर-चूर हो गया। कल मैच के दौरान गिरिजेश भइया ने फोन पर दरियाफ़्त भी की थी कि कहाँ गायब हो गये हो। मैने बताया कि आपकी आलसी वाली उपाधि हथियाने की फिराक में हूँ। आलसी का चिट्ठा तो गजब की तेजी पकड़ चुका है इसलिए भूमिका हथियाने की राह पर चल पड़ा हूँ। आज बहुत आलस के बाद यह पोस्ट ठेल रहा हूँ।

बीबी-बच्चे भुनभुना रहे हैं, इसलिए यहीं बन्द करता हूँ और चलता हूँ इन्हें थ्री ईडिएट्स दिखाने। मुझे देख-देखकर शायद ये बोर हो चुके हैं।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

पुछल्ला : मजेदार फिल्म रही: थ्री ईडिएट्स। कहकहे और भावुक स्वर (आँसू) दोनो बारी-बारी आते रहे दर्शकों के बीच से। बहुत दिन बाद कोई फिल्म देखा और भरपूर आनन्द उठाया।

आप सब को नये साल की हार्दिक शुभकामनाएं।

(सिद्धार्थ)

 

बुधवार, 23 दिसंबर 2009

गृहिणी की कविता

 

मन के भीतर उमड़-घुमड़

कुछ बादल सघन

ललक बरसन

पर पछुआ की धार से छितर-बितर

कुछ टुकड़ा इधर

कुछ खाँड़ उधर

 

घर के भीतर की खनखन

कलरव बच्चों का

कि अनबन

घरनी के मन में कुछ तड़पन

फिर ठनगन

उठता नहीं स्वर गगन

बस होती भनभन

मन ही मन

घरवाला अपने में मगन

देख ना सके है अगन

जाने किस बुरी घड़ी

लग गयी थी लगन

मन चाहे अब तोड़कर दीवारें

सरपट भगन

 

निकल नही पाती

मन से सब बात

लिखने को पाती

अब उठते नहीं हाथ

होकर अनाथ

साथ छोड़ रहा साहस

बिलाता एहसास अपनेपन का

दिखता नहीं कुछ भी

मन का

तन का

अब क्या करना

बस पेट भरना

तन कर

अब क्या रहना

बरबस अब है कहना

थाती मिटाती

ये आँधी

युगों ने थी बाँधी

जिस डोर से

चटक रही कैसे

किस ओर से

 

कैसे बतलाए

मन तो सकुचाए

अबतक तो रहे थे अघाए

नहीं....

खेले-खाए-अघाए

जितना भी पाए

उलीच दिया गागर

पर जो थी खाली

सारे मत अभिमत

सिद्ध हुए जाली

रखवाली का भ्रम था

जो करते नहीं थे

बस हो जाती थी

 

एक चिन्गारी लगी

ज्वाला फूटी

निकल पड़ी लेकर लकूटी

टूटी-फूटी…

 

ना ना

यह थी छिद्रहीन साबुत

जिन्दगी से भरी

भरी सी गगरी

न थी पत्थर की बुत

थोड़ी अलसाई

फिर लेती अंगड़ाई

छलक उठी गागर

समोए है सागर

कल-कल झरने की अठकेली

कई नदियों की धारा

लो इनको भी आँचल में लेली

अब खुलती हथेली

  गृहिणी

बन्द हुई मोटी किताबें

दूर धरी थियरी

सीधी सी बतियाँ बस

लाइव कमेन्टरी

घटित हो रहा मन में

जो घर में आँगन में

हस्तामलकवत्‌

चेतन मन कानन में

 

बात बेबात पे लड़ना

घड़ी-घड़ी झगड़ना

क्या दे देगा

किसी और का मुँह ताकते

एक ही लउर से हाँकते

भीतर बाहर झाँकते

आते-जाते को आँकते

हाँफ़ते फाँकते

सब ले लेगा

फिर

चाहिए ही क्या?

जो टाले न टले

हटाये न हटे

उसे यूँ साध लेना

मासूम बच्चा सा

मोहपाश सच्चा सा

डालकर यूँ बाँध लेना

सीखो तो सही

यह प्रेम की भाषा

दूर करेगी सारी निराशा

बोलो तो सही

बसता है ईश्वर

सबके भीतर बनकर

चेतना, दया और करुणा

जगाओ तो सही

 

फिर तो मनुष्य

बुरा कैसे रह जाएगा

सारा मालिन्य

इस अनुपम उजियारे में

झट से बह जाएगा

 

यह वाद वह आन्दोलन

यह भाषण वह सम्मेलन

अपने पूर्वाग्रह गठरी में बाँधकर

धर दो आले पर

मन की गाँठ खोलकर

चोट करो ताले पर

पहले घर से शुरू करो

कर डालो रिहर्सल

रियाज में ही राह दिखेगी

जिन्दा बनो हर पल

अन्धेरे को चीरकर

बन्द दिमागों से टकराएगी

आशा की उजली किरण

चहुँ ओर छा जाएगी।

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

खाकी में भी इन्सान बसते हैं और कम्प्यूटर में…!?!

 

पिछले रविवार की सुबह बड़ी मायूसी के साथ शुरू हुई थी। शनिवार तक कम्प्यूटर में वायरस का प्रकोप इतना बढ़ चुका था कि उसे अस्पताल ले जाना पड़ा था। डॉक्टर (इन्जीनियर?) ने कहा कि इसे भर्ती करना पड़ेगा। पूरा चेक-अप होगा। तंत्रिका तंत्र में इन्फ़ेक्शन पाये जाने पर पूरी सफाई करनी पड़ेगी। सारा खून बदलना पड़ सकता है। सब का सब पुराना डेटा उड़ जाएगा। मैं तो घबरा ही गया।

वागीशा और सत्यार्थ की पैदाइश से लेकर अबतक खींची गयी सैकड़ों तस्वीरें, मोबाइल, हैण्डीकैम और सोनी डिजिटल से तैयार अनेक यादगार वीडिओ फुटेज, दोस्तों यारों और रिश्तेदारों की शादियों और मेल-मुलाकातों की याद दिलाती तस्वीरें। हिन्दुस्तानी एकेडेमी में आयोजित कार्यक्रमों की चित्रावलियाँ और इलाहाबाद ब्लॉगर सम्मेलन की अविस्मरणीय झाँकी दिखाते मनभावन स्लाइड शो। इसके अतिरिक्त बेटी और मेरे हाथ की ‘पेण्ट’ पर बनायी अनेक कलाकृतियाँ और सबसे बढ़कर मेरे द्वारा लिखे गये एक-एक शब्द का मूल पाठ जो ‘माई डॉक्यूमेण्ट’ फोल्डर में सेव था वह सब उड़ जाएगा।

डीलर ने कहा कि हम किसी का डेटा बचाने का जिम्मा नहीं लेते। आप चाहें तो इसे कहीं कॉपी कर लें। चार जीबी का पेन ड्राइव, दो जीवी का सोनी कैमरा, चार-छः जीबी की डीवीडी आदि जोड़कर भी करीब चालीस जीबी डेटा को सुरक्षित नहीं कर पा रहे थे। इलाहाबाद जैसे शहर में लगभग मोनोपॅली बनाकर रखने वाले एच.पी. के डीलर साहब मुझे टहला रहे थे कि इतना बड़ा डेटा बचाने का उसके पास कोई उपाय नहीं है। वारण्टी के चक्कर में किसी दूसरे जानकार से मशीन खुलवायी भी नहीं जा सकती थी।

…यानि यदि मुझे आगे इस कम्प्यूटर पर काम करना है तो मोह त्याग कर इसकी फॉर्मैटिंग करानी होगी। बड़े जतन से सजोयी गयी उस मुस्कान को अलविदा कहना होगा जो एक महीने के सत्यार्थ के चेहरे पर तब खिल उठती थी जब उसने पहली बार मुझे पहचानना शुरू किया था और मैंने उस नैसर्गिक सुख के लोभ में जैसे-तैसे सीटी बजाना सीख लिया था। उसका पहली बार ‘माँ’ बोलना, पहली बार करवट बदलना, पहली बार सरकना, पहली बार बँकइयाँ चलना, पहली बार खड़ा होना, फिर डग भरना, पहली बार अन्न ग्रहण करना और न जाने क्या-क्या अब केवल यादों में रह जाएगा। बेटी के गाए तोतले गाने, उसका पहला स्कूली बस्ता, लाल रिबन की पहली चोटी, पहला स्कूली ड्रेस, दोनो का साथ-साथ खेलना, लड़ना, झगड़ना, सबकुछ अब वापस तो नहीं आएगा न। ऑफिस के बुजुर्ग पेंशनर्स तो अगले साल फिर आ जाएंगे लेकिन हिरमतिया की माँ जो मर गयी अब कैसे आएगी?

इसी दुश्चिन्ता में जब रविवार की सुबह आँख खुली तो मन भारी था। तकनीकी ज्ञान का अभाव मुझे साल रहा था। निःशुल्क वायरस रोधी सॉफ़्टवेयर के फेर में पड़कर मैने बहुत कीमती सामग्री को संकट में डाल दिया था। रविवार को सिविल लाइन्स बन्द होने के कारण उसदिन कुछ हो भी नहीं सकता था इसलिए खालीपन के एहसास के साथ बाजार और वायरस को कोसता हुआ देर तक बिस्तर पर पड़ा रहा। करीब नौ बजे श्रीमती जी ने याद दिलाया कि मेज पर एक आमन्त्रण-पत्र पड़ा है जो किसी पुस्तक पर चर्चा से सम्बन्धित है।

“आप वहाँ जाएंगे क्या?” प्रश्न ऐसे किया गया जैसे मेरे वहाँ न जाने पर ज्यादा खुशी होती। लेकिन मैं…

“अरे वाह!” मुझे तो जैसे तिनके का सहारा मिल गया। अब रविवार अच्छा कट जाएगा। अच्छा क्या, जबर्दस्त बात हो गयी साहब…।

हुआ यूँ कि के.पी.कम्यूनिटी सेन्टर में जो कार्यक्रम आयोजित था उसके मुख्य अतिथि थे- विभूति नारायण राय जी, जिनके सौजन्य से हमने हिन्दी चिट्ठाकारी की दुनिया पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हाल ही में सम्पन्न कराया था। इलाहाबाद के डी.आई.जी. जो अब जिले के पुलिस कप्तान होते हैं, चन्द्रप्रकाश जी ने अपने एक मित्र और आई.पी.एस.बैचमेट अशोक कुमार जी की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक पर भव्य परिचर्चा का आयोजन किया था। उत्तर प्रदेश पुलिस मुख्यालय, इलाहाबाद के अपर पुलिस महानिदेशक एस.पी. श्रीवास्तव जी भी, जो स्वयं एक कवि, शौकिया फोटोग्राफर और ब्लॉगर हैं इस गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे थे। भारत सरकार की ओर से इलाहाबाद में स्थापित उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र के निदेशक आनन्दबर्द्धन शुक्ल जी भी एक आई.पी.एस. अधिकारी रह चुके हैं। वे इस मंच को विशिष्ट अतिथि के रूप में सुशोभित कर रहे थे।

खाकी में इन्सान पर (पुलिस) परिवर्चा

एक मंच पर पाँच-पाँच आई.पी.एस. इकट्ठा होकर यदि हिन्दी की एक पुस्तक पर परिचर्चा कर रहे हों तो सोचिए नजारा कैसा रहा होगा। मजे की बात यह रही कि उस बहुत बड़े हाल में आमन्त्रित साहित्यप्रेमियों की संख्या से कहीं अधिक पुलिस के जवान दिखायी दे रहे थे। लेकिन वर्दी में नहीं, सादे कपड़ों में। पीछे की आधी सीटें तो प्रशिक्षु रंगरूटों से भर गयी थीं। आगे की सीटों पर शहर के प्रतिष्ठित आमजन, व्यापार मंडल के प्रतिनिधि, अधिकारी वर्ग और मीडिया आदि के लोग जमे हुए थे। लेकिन जब चर्चा शुरू हुई तो मुझे लगने लगा कि आज छुट्टी बेकार नहीं गयी है। पुलिस विभाग में होकर भी बेहद संवेदनशील बने रहकर लोकहित के बारे में सोचने वाले एक ऐसे अधिकारी से साक्षात्कार हो रहा था जिसने बीस साल तक पुलिस महकमें में उच्च पदों पर सेवा देने के बाद अपने अनुभवों को बिना किसी लाग-लपेट के दूसरों से बाँटने का उद्यम कर रहा था।

लेखकीय - अशोक कुमार IPS ऐसे में मेरे भीतर का ब्लॉगर खड़ा हो गया। झटपट मोबाइल कैमरे से तस्वीरें ले डाली और पुस्तक के लेखक को ब्लॉग लिखने की मुफ़्त सलाह दे डाली। वे बोले, “सिद्धार्थ जी, आप मेरा ब्लॉग तैयार कर दीजिए, इसपर जो कॉस्ट आती होगी वह मैं तुरन्त दे दूंगा।” मैने जब यह बताया कि ‘यहाँ सबकुछ मुफ़्त में उपलब्ध है’ तो वे खुश हो गये। तुरन्त लान्च करने की बात करने लगे। अब मैंने संकोचवश बताया कि मेरा कम्प्यूटर घर पर है ही नहीं। आपका काम थोड़ा समय ले सकता है। …लेकिन ब्लॉगरी के प्रसार की गुन्जाइश हो तो किसी ब्लॉगर को प्रतीक्षा करने में चैन कहाँ। हिन्दुस्तानी एकेडेमी का ताला खोलवाया, ब्लॉग बना और इस हिन्दी परिवार में एक चमकीले सितारे का अभ्युदय हो गया। आप यह पूरी पोस्ट पढ़ने के बाद वहाँ जाइए  और सराहिए खाकी में इन्सान को।

इसी में यह बता दूँ कि आदरणीय आलसी गिरिजेश राव जी ने मेरी कम्प्यूटरी समस्या का समाधान फोन पर ही कर दिया। बोले, एक पोर्टेबल हार्ड डिस्क में सारा डेटा आसानी से आ जाएगा जो १६०, २५०, ३२० जी.बी. या उससे अधिक क्षमता की भी होती है। मैने डीलर से फोन पर कहा तो उन्होंने कहा कि आप इसपर तीन हजार खर्च करने को तैयार हों तो मुझे कोई ‘प्रॉब्लेम’ नहीं है। मरता क्या न करता। मैने हामी भर दी। जब दुकान पर पहुँचा तो उनके इन्जीनियर ने अपनी पुरानी डिस्क में डेटा कॉपी करके फॉर्मेटिंग शुरू कर दी क्यों कि नई डिस्क वे मंगा नहीं पाये थे।  यानि समस्या केवल मेरे अज्ञान के कारण घनीभूत हुई थी। अन्ततः भारी खर्चे की आशंका से ग्रस्त श्रीमती जी को जब मैने बताया कि मुझे केवल पाँच सौ खर्चने पड़े तो उनके चेहरे पर वही मुस्कान फिर लौट आयी थी जो सुबह विलुप्त हो गयी थी। हाँलाकि कम्प्यूटर को अगले दिन दुबारा अस्पताल जाना पड़ा क्योंकि कोई वायरस छिपा रह गया था। फिलहाल विस्टा स्टार्टर हटाकर वापस एक्सपी डलवा लेने के बाद शायद मामला ठीक हो गया है।

एक अच्छी खबर और है- वी.एन.राय साहब ने अनौपचारिक बात चीत में इलाहाबाद के ब्लॉगर सम्मेलन के बाद का हाल-चाल पूछा। जब मैने सच-सच हाल बयान कर दिया तो खुश होकर बोले कि हिन्दी चिठ्ठाकारी की दुनिया पर विचार-विमर्श के लिए वर्धा विश्वविद्यालय प्रति वर्ष एक वृहद राष्ट्रीय सेमीनार का आयोजन करेगा जो विश्वविद्यालय के रमणीक प्रांगण में अक्टूबर-नवम्बर महीने में सम्पन्न हुआ करेगा। नामवर सिंह जी के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ने वालों की असुविधा का हमें खेद है, लेकिन जबतक वे वहाँ के कुलाधिपति बने रहेंगे तबतक हम उन्हें उद्‍घाटन के लिए बुलाकर सम्मानित करते रहेंगे। अलबत्ता यदि इस पुनीत कार्य के लिए महामहिम राष्ट्रपति हामी भर दें तो बात दीगर हो जाएगी।

आगे-आगे देखिए होता है क्या…!

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)

रविवार, 6 दिसंबर 2009

छः दिसम्बर का वार्षिक रुदन और मुकाबला बेशर्मी का...

 

अयोध्या का एक अर्थ ‘जहाँ युद्ध न हो’ पढ़ा था। लेकिन जब भी छः दिसम्बर की तारीख आती है मीडिया में तलवारें निकल आती हैं। उस त्रासद घटना का विश्लेषण करने के लिए बड़े-बड़े विद्वान, विचारक और राजनेता पत्रकारों द्वारा बुला लिए जाते हैं और टीवी पर पैनेल चर्चा शुरू हो जाती है। हर साल वही बातें दुहरायी जाती हैं। भाजपा, कांग्रेस, व समाजवादी पार्टी के नेता आते हैं और अपनी पार्टी लाइन के अनुसार बातें करके चले जाते हैं। कोई अपनी पाटी लाइन से टस से मस नहीं होना चाहता। उनके सभी तर्क एक दूसरे के लिए बेमानी हो जाते हैं।

लेकिन आश्चर्य होता है जब लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में अपनी पीठ ठोंकने वाले ‘ऐंकर’ भी एक खास विचारधारा के पोषण के लिए हमलावर हो उठते हैं। जिस प्रतिभागी की बातें इनसे मेल नहीं खाती उसको टोक-टोककर बोलने ही नहीं देते, केवल आरोपित करते जाते हैं लेकिन जो पार्टी लाइन इन्हे अपने अनुकूल लगती है उसके प्रतिनिधि को अपनी बात रखने के लिए प्रॉम्प्ट करते रहते हैं। यह सब इतनी निर्लज्जता और आक्रामक अन्दाज में होता है कि देखकर इस पत्रकार बिरादरी से भी अरुचि होने लगी है।

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छः दिसम्बर की पूर्व संध्या पर एन.डी.टी.वी. के कार्यक्रम ‘मुकाबला’ और ‘चक्रव्यूह’ में यही सब देखने को मिला। लोकप्रिय कार्यक्रम मुकाबला के ऐंकर दिबांग ने भाजपा प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर से प्रश्न तो खूब किए लेकिन उनका उत्तर सुनने का धैर्य उनके पास नही था। वहीं समाजवादी पार्टी के मोहन सिंह को तफ़सील से यह बताने का अवसर दिया कि ‘भारत में भले ही हिन्दुओं की अक्सरियत है लेकिन यदि देश ‘डिस्टर्ब’ हुआ तो सबसे ज्यादा नुकसान हिन्दुओं का ही होगा। इसलिए हमें ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जिससे देश में मुसलमानों को तकलीफ़ हो और माहौल खराब हो जाय।’ यह भी कि बाबरी मस्जिद की साजिश घटित होने के बाद जो मुम्बई में और अन्य स्थानों पर आतंकी हमले हुए उसके दोषियों को सजा हो गयी। फाँसी और आजीवन कारावास मिल गया। लेकिन बाबरी मस्जिद के गुनाहगारों को आजतक सजा नहीं दी जा सकी। उनके इस कष्ट को दिबांग ने भी भरपूर समर्थन देते हुए सुर में सुर मिलाया।

कांग्रेस के प्रतिनिधि श्रीप्रकाश जायसवाल वीडियोलाइन पर थे। उनसे दिबांग ने कहा कि आप प्रकाश जावड़ेकर से पूछिए कि वे मस्जिद गिराये जाने के गुनहगार हैं कि नहीं। इसपर जायसवाल को प्रश्न नहीं सूझा। बोले- हम क्या पूछें, दुनिया जानती है इनकी करतूतें। प्रकाश जावड़ेकर ने कहा- मेरे पास प्रश्न हैं उसका उत्तर आप लोग दीजिए... ६ दिसम्बर १९९२ क्या अचानक चला आया था? १९४८ में रामलला की मूर्तियों की स्थापना किसने करायी...१९८६ में जो ताला खोला गया था वह मन्दिर का था कि मस्जिद का, ...१९८९ में शिलान्यास मन्दिर का हुआ था कि मस्जिद का ...इन सारे कार्यों के समय किसकी सरकार थी?  प्रश्न और भी रहे होंगे लेकिन दिबांग ने हाथ उठाकर उन्हें बिल्कुल चुप करा दिया और किसी प्रतिभागी से उन सवालों का जवाब देने को भी नहीं कहा।

बात उस ‘साजिश’ पर होने लगी जो ‘संघियों ने मस्जिद को गिराने के लिए’ रची थी। कांग्रेस, सपा और दिबांग चिल्ला चिल्लाकर इसे एक साजिश करार दे रहे थे । कल्याण ने शपथपत्र देकर आश्वस्त किया था कि मस्जिद सुरक्षित रहेगी, लेकिन उन्होंने साजिश रचकर मस्जिद ढहा दी। पूरा ‘संघ परिवार’ इस झूठ-फरेब की साजिश में शामिल था। श्रीप्रकाश जायसवाल ने कहा कि मुख्यमन्त्री के शपथपत्र पर यकीन करना हमारा कर्तव्य था। भाजपा इसे लाखों श्रद्धालुओं की स्वतःस्फूर्त भावना का प्रस्फुटन बता रही थी। उमा भारती भी वीडियोलाइन पर अवतरित हुईं और साजिश की थियरी को सिरे से नकारते हुए बोलीं कि गान्धी जी कहते थे कि पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा। लेकिन वे जिन्दा रहे और पाकिस्तान बन गया। इसका मतलब यह तो नहीं कि वे पाकिस्तान बनाने की साजिश कर रहे थे।

पैनेल में एक पूर्व केबिनेट सचिव सुब्रमण्यम साहब भी थे। लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट को उन्होंने लगभग कूड़ा ही बता डाला। बल्कि जाँच आयोग अधिनियम में संशोधन करके केवल कार्यरत न्यायाधीशों का ही आयोग गठित करने का सुझाव दे दिया। उनका आशय शायद यह था कि सेवा निवृत्त न्यायाधीश समय और सुविधा बढ़वाने के जुगाड़ में ही उलझे रह जाते हैं। काम की रफ़्तार धीमी और त्वरित न्याय की आशा क्षीण हो जाती है। समस्या की जड़ में उन्होंने राजनीति को ही माना। यदि राजनीति इससे किनारे होती तो समाधान निकल सकता था।

उधर चक्रव्यूह में कल्याण सिंह घेरे जा रहे थे। ऐंकर ने पूछा- आपको छः दिसम्बर की उस दुर्घटना पर कोई अफ़सोस है? कोई शर्म नहीं... कोई पश्चाताप नहीं... कोई दुःख नहीं... बल्कि हमें इस दिन पर गर्व है। ...मैने शपथपत्र दिया था कि ढाँचे की रक्षा करेंगे, पूरा इन्तजाम भी कर रखा था, लेकिन मैंने कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश नहीं दिया। मुझे इसपर कोई खेद नहीं है। मैं रक्षा नहीं कर सका इसलिए तत्काल इस्तीफा दे दिया। ...मैं और क्या कर सकता था?  प्रश्नकर्ता ने कहा आपने दो चार सौ लोगों की जान बचाने के लिए करोड़ों हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच बँटवारा हो जाने दिया। गोली चल जाती तो अधिक से अधिक कुछ सौ जानें ही जातीं लेकिन आपने मस्जिद ढहाकर करोड़ों नागरिकों में कटुता फैला दी... घेरा बन्दी और तेज हुई तो कल्याण बस ‘बहुत धन्यवाद’ ‘बहुत धन्यवाद‘ ’बहुत धन्यवाद’ की रट लगाने को मजबूर गये। बेशर्मी मूर्तिमान थी... शायद दोनो ओर।

सोचता हूँ यह वार्षिक रुदन और प्रलाप तो अब रूटीन हो गया है। जिन्दगी उससे काफी आगे निकल चुकी है। पिछले साल इस दिन मैं बड़ा दुःखी हो गया था। मुम्बई हमले के बाद के माहौल में जब अयोध्या काण्ड की बरसी पड़ी तो उसी तारीख को पड़ने वाले अपने बेटे के जन्मदिन पर उत्सव मनाने का मन ही नहीं हुआ। लेकिन अब सोच रहा हूँ कि अपनी छोटी-छोटी खुशियों को इस राजनिति के गन्दे खेल को देखकर कुर्बान करना ठीक नहीं है। इसलिए मैंने आज बेटे को पूरा समय देने का मन बनाया है।

साँई मन्दिर के बाहर

सुबह-सुबह साँईं मन्दिर हो आये हैं। शाम को केक भी कटेगा और बच्चा पार्टी दावत भी उड़ाएगी।

सत्यार्थ (तीन वर्ष)

सत्यार्थ के ब्लॉग पर जन्मदिन की सूचना ब्लॉगजगत को दी जा चुकी है। आप सबका स्नेह और आशीर्वाद उसे मिलने भी लगा है। मैं भी बोलता हूँ “हैप्पी बड्डे”

 (सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)